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शहर में पालतू कुत्ते क्यों हो रहे हैं बीमार और ख़तरनाक़?

यह कितना अज़ीब है कि बगैर पार्किंग की जगह के एक गाड़ी जो कि निर्जीव है, उसका रजिस्ट्रेशन नहीं होता, जबकि बिना सही ठौर-ठिकाने के एक जीव यानि, कुत्ते को अपने यहां रखा जा सकता है.

घर में कुत्ता पालना एक नए सदस्य के परवरिश के जैसा ही काम होता है.इसे भी प्यार और ख़ास देखभाल के साथ उसके अनुकूल माहौल की भी ज़रूरत होती है.हालांकि हर जीव नए पर्यावरण में ख़ुद को ढालता है मगर, उसकी मूल प्रकृति या प्रवृत्ति कभी बदलती नहीं है.विपरीत परिस्थितियां सदैव नकारात्मक प्रभाव डालती हैं.

शहर में कुत्ता (सांकेतिक)

शहरों में आजकल कुत्ते पालना भी एक फैशन बन गया है.यह एक ‘एनिमल लवर’ या ‘पशु-प्रेमी’ की पहचान तो है ही, महंगी गाडियां और स्मार्टफोन के जैसे ही महंगे कुत्ते भी मॉडर्न सोसायटी के स्टेटस सिंबल बन गए हैं.मगर, कुत्ते तो आख़िर कुत्ते हैं.ये कोई सामान नहीं, बल्कि जीव हैं, जिनकी अपनी भावनाएं और ज़रुरतें हैं.इसलिए, समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं.ये शारीरिक रूप से तो बीमार हो ही रहे हैं, मानसिक रूप से भी कम प्रभावित नहीं हैं.ये हिंसक होकर लोगों को काटने लगे हैं, जिससे सवाल और बवाल खड़ा हो रहा है और आए दिन ये समाचारों की सुर्ख़ियों में बने रहते हैं.

कई शोधकर्ता, पशु जीवन के जानकार और चिकिसकों की राय में शहरी जीवन में पालतू कुत्ते कई समस्याओं से घिरे हैं.ये अक्सर बीमार होते रहते हैं, जिससे उनके मालिक परेशान तो होते हैं, उन्हें बार-बार वेटेरिनरी डॉक्टर (पशु चिकित्सक) के यहां ले जाने के चलते उनके बजट पर भी असर पड़ता है.

फिर, कुत्ते मानसिक रूप से भी प्रभावित हो रहे हैं.अक्सर वे आक्रामक हो उठते हैं और हमले तक कर देते हैं जो कि एक ख़तरनाक़ स्थिति है.इससे भय का माहौल बनता है और क़ानूनी मसले भी खड़े होते हैं.मगर, क्यों?

विशेषज्ञों के अनुसार, ‘पालतू कुत्ते समस्याग्रस्त हैं क्योंकि कुछ मूलभूत सुविधाएं ही उपलब्ध नहीं हैं, जो उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाए रखने के लिए आवश्यक होती हैं.इसका सबसे बड़ा कारण शहरी जनजीवन है.’

उनके अनुसार, ‘शहरी व्यवस्था में दरअसल, पालतू कुत्ते जहां पूर्ण रूप से मनुष्यों पर निर्भर हैं और बंधन तथा एक दायरे में सीमित होने के कारण बेबस हैं वहीं, इनके मालिकों के पास भी मज़बूरी है और वे चाहकर भी इनकी पर्याप्त सहायता नहीं कर पाते हैं.’

यानि, मूल में ही खोट है या कहिए कि समस्या स्थान विशेष आधारित है, जिसमें बेजुबान पीड़ित तो हैं ही, बेबस भी हैं मगर, उनके मददगार और तारणहार भी लाचार हैं अपने पालतू कुत्तों को वह सब कुछ देने में, जो उन्हें चाहिए.

यह कितना अज़ीब है! मगर, है तो हक़ीक़त.ऐसे में, उन दिक्कतों को समझने की ज़रूरत है, जो शहरों में कुत्तों को पेश आ रही हैं.

रहने के लिए उचित स्थान नहीं

शहर में कुछ ही लोग ऐसे हैं, जो कोठियों या बंगलों में रहते हैं जहां कुत्तों के रहने के लिए कमरे हैं.कुछ लोगों के पर्याप्त जगह के साथ अपने मकान भी हैं और उनके पास भी कुत्तों के रहने के लिए जगह है.मगर, अधिकांश लोग ऐसे हैं, जो या तो किराये के मकानों में रहते हैं या फिर झुग्गी-झोंपड़ियों में तंगहाल रहते हैं, और इनके पास कुत्तों के लिए अलग से व्यवस्था नहीं है.

फिर भी, शहरों में आज अधिकांश लोगों के पास पालतू कुत्ते हैं.दरअसल, वह व्यक्ति चाहे उच्च वर्ग से ताल्लुक रखता हो, मध्यमवर्गीय हो या फिर निम्न मध्यम वर्ग (लोअर मिडल क्लास) का ही क्यों न हो, उसके यहां भी किसी न किसी नस्ल का कुत्ता मिल जाता है.ऐसे में, यह समझना कठिन नहीं है कि एक आम शहरी, जिसके पास अपने लिए भी पर्याप्त जगह नहीं है वह अपने कुत्ते को किस प्रकार रखता होगा.

मगर, यह कितना अज़ीब है कि बगैर पार्किंग की जगह के एक गाड़ी जो कि निर्जीव है, उसका रजिस्ट्रेशन नहीं होता, जबकि बिना सही ठौर-ठिकाने के एक जीव यानि, कुत्ते को अपने यहां रखा जा सकता है.

बहरहाल, एक कुत्ते को अपना एक ऐसा आश्रय अवश्य होना चाहिए कि जिसमें वह आराम से रह सके.ऐसी जगह आमतौर पर घर के पिछवाड़े में या किसी भी ऐसे हिस्से में हो सकती है जहां बाहर का शोर-शराबा न पहुंचता हो, घर के आगंतुकों की आवाजें न सुनाई देती हों.

साथ ही, जगह इतनी पर्याप्त भी होनी चाहिए कि जिसमें कुत्ते का बिस्तर, कंबल, खाना और ताज़ा पानी के कटोरे आदि रखे जा सकें.

इनके अलावा, यह स्थान साफ़-सुथरा भी होना चाहिए, ताकि गंदगी के कारण वह किसी रोग की चपेट में न आ सके.

कुछ कुत्ते मौसमी एलर्जी से पीड़ित होते हैं और उनके जल्द बीमार होने की संभावना बनी रहती है.ऐसे में, उनका ख़ास ख़याल रखने की ज़रूरत होती है.

मगर, ये सब कहने सुनने की ही बातें हैं.हक़ीक़त में ऐसा नहीं है.हमारे यहां तो हाल यह है कि कुत्ते भी इंसानों के कमरों में ही रहते हैं.घर में कोई आता है, तो सबसे पहले वे ही आगे आते हैं.जाता है, तो उसके हाव-भाव निहारते रहते हैं.

घर में टीवी का शोर, हंगामा और झगडे भी वे देखते-सुनते हैं.

यानि, हर प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया उनके सामने ही होती है जो कि ठीक नहीं है.विशेषज्ञों की राय में इसका कुत्तों पर नकारात्मक असर पड़ता है.वे कभी डर जाते हैं तो कभी बेवज़ह उत्तेजित होते रहते हैं.ऊपर से कम जगह के चलते घुटन भी महसूस करते हैं मगर, बेजुबान होने के कारण ये हमसे कह नहीं पाते हैं.इन्हें महसूस ही किया जा सकता है.

सैर करने के लिए भी नहीं है जगह

हमेशा चौकन्ने और तैयार रहने वाले प्राणी कुत्ते के लिए भाग-दौड़ और उछल-कूद के लिए नहीं तो कम से कम सुबह-शाम घूमने या सैर करने के लिए तो पर्याप्त जगह होनी ही चाहिए.मगर, शहरों में ऐसी जगह है कहां?

दरअसल, शहरों में घूमने के लिए एकमात्र जगह है पार्क.मगर, वहां इनका जाना प्रतिबंधित है.पार्क के प्रवेश-द्वार पर ही स्पष्ट लिखा होता है- ‘यहां कुत्तों का लाना मना है.’

अब इनके लिए एकमात्र जगह बचती है फुटपाथ.यहीं इन्हें मल-मूत्र त्यागना है और घूमना-फिरना भी है.मगर, यह भी अक्सर व्यस्त रहता है.साथ ही, नीचे की ओर वाहनों की आवाजाही के कारण दुर्घटना की भी आशंका बनी रहती है.

दूसरी तरफ़, फुटपाथ पर ये ख़ुद भी राहगीरों या सैर करने वालों के लिए समस्या बनते दिखाई देते हैं.

ऐसे में, कुत्तों को खुली आबोहवा में सांस लेने और तरोताज़ा होने के लिए भी जगह नहीं है, जबकि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बहुत ही ज़रूरी है.शारीरिक व्यायाम न होने के कारण एक तो इनके अंडा का विकार निकलता नहीं है ऊपर से दूसरे विकार शरीर और दिमाग़ में जगह बना लेते हैं.

इससे मोटापा के साथ-साथ दूसरे शारीरिक-मानसिक रोग अपनी चपेट में ले लेते हैं.

पशु विशेषज्ञ तथा वर्ल्ड केनल यूनियन के इंटरनेशनल जज सुमित मल्लिक का कहना है कि कुत्तों के सही खान-पान के साथ-साथ उन्हें कम से कम दो घंटे घूमने के लिए भी आज़ादी देनी चाहिए.

उनके अनुसार, कुत्तों को घर में बांधकर नहीं रखना चाहिए.यदि बांधें भी, तो उसका समय निर्धारित होना चाहिए.

उन्हें घर में और चाहरदीवारी के अंदर घूमने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए.इससे उन्हें ख़ुद में आज़ादी का एहसास तो होता ही है साथ ही, उनका दिमाग़ तरोताज़ा भी रहता है.

मगर, व्यवसायी और नौकरीपेशा लोगों के घरों में इसके ठीक उल्टा है.जब वे बाहर निकलते हैं, तो कुत्ते को अकेला छोड़ जाते हैं.कुत्ता बंद दरवाज़ों के पीछे न सिर्फ़ बोर होता रहता है, बल्कि असहज अनुभव करते हुए मानसिक रूप से प्रभावित होता है.

जानकारों के अनुसार, शारीरिक बीमारियों से ज़्यादा गंभीर है मानसिक मसला.चूंकि यह मसला किसी एक कुत्ते को लेकर नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति को क्षति पहुंचने या घायल होने की बात है, बल्कि कुत्तों के द्वारा काटने की घटनाएं आम हैं.कई कुत्ते अक्सर लोगों को काटते और खरोंच मारते रहते हैं.

यही कारण है कि कई जगहों पर कुत्तों के पंजीकरण के साथ उनके रखरखाव और उन्हें बाहर घुमाने को लेकर गाइडलाइन तैयार हो रहे हैं.सज़ा के भी प्रावधान किए जा रहे हैं, ताकि लोगों में सुरक्षा का भाव बरक़रार रह सके.

मगर, जिस तरह कुत्तों का एक बड़ा बाज़ार है, वेटरिनरी डॉक्टरों का फैला हुआ जाल है, और कुत्तों के लिए तरह-तरह के प्रोडक्ट की भरमार है वैसे ही कुत्ता-प्रेमी और उनके प्रशंसकों की तादाद भी बड़ी है.यह बढ़ती ही जा रही है.जिधर देखो हर गली हर नुक्कड़ पर कुत्ते की डोर थामे कोई न कोई नज़र आ ही जाता है.

लेकिन, कुत्ते के स्वास्थ्य का क्या हाल है इस ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता? आख़िर इन बेजुबानों के तन और मन की पीड़ा को भी क्यों नहीं समझते हैं जिस तरह अपने शौक़ और शान को लेकर इन्हें पालते हैं?

वास्तव में यह चिंता का विषय है, और इस तरफ़ से मुंह फेर लेने से समस्या कम नहीं होने वाली है.इससे तो समस्या और बढ़ेगी, और जब हालात बिगड़ेंगें, तो इंसानों के सच्चे दोस्त समझे जाने वाले ये ही कुत्ते कल इंसानों के दुश्मन के रूप में नज़र आने लगेंगें.

ज़रा सोचिए, कैसा लगेगा जब लोग प्यार करने के बजाय इनसे नफ़रत करेंगें.

इनको पालने वाले भी हिक़ारत की नज़र से देखे जाएंगें.

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रामाशंकर पांडेय

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