भारत में देसी व्यंजन विदेशी नाम पर महंगे बिकते हैं!
विदेशी भाषा को सीखने और उसके आवश्यक प्रयोग में कोई हर्ज़ नहीं है, बल्कि इसका लाभ ही होता है.मगर, उसकी संस्कृति में ढल जाना अपनी भाषा, समाज और राष्ट्र के साथ कृतघ्नता है.
यह विदेशी नाम का ही तो कमाल है कि ‘रस’ को ‘जूस’ कहकर महंगा बेचा जाता है.मगर, इसकी प्रेरणा भी तो हमसे ही मिलती है जब हम माली, शिक्षक और वैद्य के बजाय गार्डनर, टीचर और डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं.विदेशी कीड़ा हमारी रगों में समाया हुआ है.
स्वादिष्ट पकवान या व्यंजन बनाना एक कला है.इसीलिए, भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला या पाक शास्त्र कहा गया है.भारतीय भोजन सभी क्षेत्रीय व्यंजनों या यूं कहिए कि पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण की विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम है.
कश्मीरी यखनी, पुलाव और गुश्तावा, डोगरी राजमा चावल, गुच्छी पुलाव और गुलरा, पंजाबी सरसों साग और छोले भटुरे, अवधि दम पुख्त और मलाई गिलौरी, राजस्थानी दाल बाटी, चूरमा, घेवर और मूंग दाल, आटे और सिगोड़े का हलवा, गुजराती ढोकला, थेपला, श्रीखंड और फाफड़ा, मराठी वडा पाव, भेल पूरी, पुरन पूरी या पोली, कोंकणी धंसाक और विंडालू, केरल का अप्पम और अवियल, दक्षिण भारतीय इडली, सांभर और मैसूर पाक, हैदराबादी बिरयानी और हलीम, पूरब की माछ झोल, रसोगुल्ला और संदेश और पूर्वोत्तर की मोमो और थुपका पारंपरिक और प्रसिद्ध व्यंजन हैं.
उत्तर भारतीय कढ़ी और दक्षिण भारतीय करी (असल में तमिल का कैकारी) का तो हज़ारों साल पुराना इतिहास है.
भारतीय व्यंजनों की अपनी एक ख़ासियत है और इसी कारण आज दुनिया के सभी बड़े देशों में भारतीय रेस्तरां या भोजनालय पाए जाते हैं.वहां इनकी लोकप्रियता भी इतनी है कि स्थानीय हो या प्रवासी, सभी प्रकार के लोग अक्सर सप्ताहांत (वीकेंड) या अवकाश पर भारतीय भोजनालयों में ही जाना ज़्यादा पसंद करते हैं.मगर, भारत में स्थिति दूसरी है, या यूं कहिए कि बिल्कुल उल्टा है.यहां भारतीय विदेशी, ख़ासतौर से अंग्रेजी नाम वाले पकवान को प्राथमिकता देते हैं.ये इन्हीं को ज़्यादा पसंद करते हैं और इन पर ज़्यादा पैसे भी ख़र्च करते हैं, जबकि व्यंजन सामग्री के साथ-साथ बनाने की विधि या रेसिपी भी भारतीय ही होती है.
यहां बड़े और सजे-धजे रेस्तरां में जाने वाले अंग्रेजी-दां लोग और नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियों को पकवानों की रेसिपी से ज़्यादा उनके अंग्रेजी नाम की ओर ध्यान होता है इसलिए वे कचौड़ी को पाई, समोसे को रिसोल, पानी पूरी को वाटर बॉल्स, पकौड़े को फ्रिटर्स, जलेबी को फनेल केक, रायता को मिक्स्ड कर्ड, पोहा को फ्लैटंड राइस और पापड़ को पॉप्पाडम नाम से ऊंचे दाम पर ख़रीदकर खाना पसंद करते हैं.
इन्हें मुरब्बे को मर्मलेड, छोले को चिकपीज और दलिया को बल्गर के नाम से ख़रीदने और खाने में अच्छा लगता है.
भारत में सदियों से हिन्दुओं के यहां घर पर उपलब्ध सामग्री, जैसे कटे हुए शाक, फल, और मेवे से बनी चीज़ें अल्पाहार या कलेवा के रूप में इस्तेमाल होती रही हैं उन्हें अंग्रेजी के ‘स्नेक्स’ के तौर पर लिया जाने वाला ‘पास्ता’ बताया जाता है क्योंकि यह शब्द इटली से जुड़ा हुआ है.
सलाद कहने के बजाय लोग ‘सेलेड’ कहना बेहतर समझते हैं, और इसके लिए वे ज़्यादा क़ीमत भी ख़ुशी-ख़ुशी चुकाते हैं.
उबले हुए आलू में प्याज, धनिया, हरी मिर्च आदि डालकर तवे पर थोड़े तेल में बनाई जाने वाली टिकिया या फिर तले हुए मांस के टुकड़े, मांस की सेंकी या तली टिकिया को ‘कटलेट’ कहना अच्छा लगता है.
एक प्रकार का मीठा नाश्ता या मिठाई जो मैदे या सूजी को घी में भुनकर और शरबत या चाशनी में पकाकर बना हमारा ‘हलवा’ उंची दुकानों में ‘सिनोमिना सुफ्ले’ के नाम से कई गुना ऊंचे दाम पर बिक जाता है.
मकई का नमकीन या ख़स्ता, टमाटर, प्याज, धनिया पत्ती और हर मिर्च की बनी मसालेदार चटनी के साथ खाने को लोग कहते हैं कि वे ‘नाचोस विद सालसा’ ले रहे हैं.
सतुआ यानि, चने के सत्तू के घोल को कहते हैं कि ‘ग्राम जूस विद पैपर’ ले रहे हैं.
कुकर में उबले 5 रुपए के भुट्टे (मकई का लावा) को ‘पॉपकॉर्न’ के नाम से 50 रुपए में ख़रीद लिया जाता है.
टमाटर पुलाव, जो सादे उबले हुए चावल को टमाटर, प्याज, हरा धनिया और भारतीय मसालों के मिश्रण के साथ पकाकर बनाया जाता है (यह दक्षिणी राज्यों में टमाटर बाथ के नाम से भी जाना जाता है), ‘टोमेटो राइस’ के नाम से बिकता है.
इसी प्रकार, उबले चावल को नींबू का रस, तले मेवे, सुगंधित जड़ी-बूटियां और मसालों के साथ मिलाकर पकाने से बना हमारा ‘नींबू चावल’ (जिसे दक्षिण में चित्रन्ना या निम्मकाया पुलिहोरा भी कहा जाता है) फूडकोर्ट (शॉपिंग मॉल वगैरह में खाने-पीने की जगह) में ‘लेमन राइस’ के नाम से बड़े चाव से खाया जाता है.
इसे ‘नींबू चावल’ कहने में लोगों को शर्म आती है.
रसोई में बचे पके हुए चावल को मिश्रित सब्जियों के साथ मिलाकर टिकिया के रूप में बना व्यंजन ‘वेजिटेबल कटलेट राइस’ के नाम से बेचा जाता है.
और सबसे बड़ी बात, खाना बनाने की विधि या तरीक़े के लिए ‘रेसिपी’ शब्द का प्रयोग न करने वाला व्यक्ति कम जानकार या अनाड़ी समझा जाता है.
इतना अज़ीब है यह हमारा व्यवहार.इससे हमारी सोच का पता चलता है.आख़िर किधर जा रहे हैं है?
यह तो ‘अपनों से बेरुख़ी और ग़ैरों से प्यार’ के जैसा है!
बड़ा अज़ीब लगता है जब कहा जाता है कि ‘अपने तो अपने होते हैं’, जबकि हम ग़ैरों को ज़्यादा भाव देते हैं.हमारे व्यवहार में तो ‘दूर के ढ़ोल सुहावन होते हैं’ वाली लोकोक्ति चरितार्थ होती है.इसकी वज़ह है.
अपनों से बेरुख़ी और ग़ैरों से इस क़दर प्यार का आधारभूत और मजबूत कारण है.
दरअसल, इसे अपनी चीज़ों या अपनों के प्रति हीनता और दूसरों के लिए सम्मान कहिए या अंग्रेजों और अंग्रेजियत से जुड़ाव, या फिर मानसिक ग़ुलामी, देसी नाम, पदनाम और चीज़ों से ज़्यादा विदेशी नाम, पदनाम और चीज़ों को अधिक महत्त्व देने की प्रेरणा देती है.
तभी तो सुरेश, रमेश, किशोर और अर्जुन की जगह पिंटू, टिंकू, विक्की और जॉनी और सीता, गीता, श्यामा और गायत्री की जगह डौली, लिली, स्वीटी और क्यूटी नाम पसंद आते हैं.
मां, मैया, माइ, आइ, माता, अम्मा की जगह मम्मी, मॉम और मॉमा या मामा ने ले ली है.
मॉमा या मामा शब्द तो कई बार भ्रमित करता है कि कहीं यह माताजी के भैया अथवा पिताजी के साले के लिए तो प्रयुक्त नहीं हो रहा है.
लगता है कि पुरुष-वाचक शब्द ग़लती से स्त्री-वाचक शब्द के लिए या विपरीत भाव में उपयोग हो रहा है.
इसी प्रकार, पिता, बाबा और बाबूजी की जगह डैड, डैडी, डैडू (प्यार से) और पापा ने क़ब्ज़ा ली है.
पापा को उल्टा कर दें, तो मम्मी पापी बन जाती हैं.
लोग ख़ुद को बढ़ई, लोहार, हज्जाम (या नाई), बिजली वाले (मिस्त्री), सुनार और हलवाई के बजाय कारपेंटर, ब्लैकस्मिथ, बारबर, इलेक्ट्रीशियन, ज्वेलर और कन्फेक्शनर कहलाना पसंद करते हैं.
औरों की तो छोड़िए, इस दौड़ में वैद्यजी भी पीछे नहीं हैं.आयुर्वेद के चिकित्सक यानि, वैद्यजी स्वयं में डॉक्टर साहब कहे जाने पर गौरवांवित अनुभव करते हैं.
ऐसे में, व्यंजनों की तो बिसात ही क्या है.वे बिचारे जिह्वा और मुख की पिपासा शांत करके पेट के अंदर ही जाने वाले हैं, और फिर कचरा बनकर बाहर आने वाले हैं.
अपनी पहचान व गरिमा बनाए रखने का भाव सभी जीवों में होता है.मनुष्य में तो यह ज़्यादा प्रभावी होता है.तो फिर, ऐसा भारतीयों में क्यों नहीं है?
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