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समाज

चंवरवंशी को 'चमार' कहलाने पर गर्व क्यों है?

चंवरवंशियों को 'चमार' बनाए रखने में राजनीतिक ही नहीं, व्यावसायिक-व्यापारिक फ़ायदा भी है...

 
कहते हैं कि लोग पढ़-लिखकर सभ्य और समर्थ बनते हैं, उनमें जागृति आती है और अपने मूल्यों, धरोहरों की पहचान कर अपना गौरव और मान पुनः प्राप्त करते हैं, उन्हें आगे बढ़ाते हैं क्योंकि अगली पीढ़ी के समुचित विकास में ये सहायक होते हैं.परंतु, पंजाब में इसके ठीक उल्टा हो रहा है.यहां चंवरवंशियों को आजकल चमार होने पर गर्व महसूस हो रहा है.सच कहिए तो उन्हें ‘चमार का बुख़ार’ चढ़ा है.वे चमारों पर बने पॉप गानों पर थिरक रहे हैं, कारों के शीशों पर ‘पूत चमारां दे’ लिखवा रहे हैं और अपनी टीशर्ट पर ‘हम चमार हैं’ के स्टीकर लगाकर घूम रहे हैं.जगह जगह इसको लेकर विशेष कार्यक्रम हो रहे हैं.ऐसा क्यों हो रहा है? क्या वाकई ये चमार हैं या चंवरवंशी? आख़िर सच क्या है?
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
कपड़ों व गाड़ियों पर चमार लिखे स्टीकर दिखाते व चमार सॉंग पर नाचते चमार जाति के लोग
 
 
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा क्षत्रिय चंवरवंशियों को अपमानित करने के उद्देश्य से चमार नाम दिया गया था.ऐसे में, विदेशियों द्वारा दिए गए इस अपमानजनक शब्द/नाम को धारण कर उसपर गर्व करना क्या बुद्धिमानी है?
 
सच पूछिए तो यह मूर्खता ही नहीं अपने गौरवशाली इतिहास का मज़ाक़ उड़ाने जैसा है.
 
यह अपनी सभ्यता और संस्कृति का अपमान तो है ही साथ ही, संत शिरोमणि रविदास/रैदास जी व बाबा साहेब अंबेडकर को झूठलाने जैसा है.
 
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
संत रैदासजी,बाबासाहेब अंबेडकर और प्राचीन चंवरवंशी समाज (प्रतीकात्मक)

 

 
 
ये तो वही बात हुई कि किसी ने हमें गाली दी, तो उसका ज़वाब देने के बजाय हम उसकी गाली को ही अपनी पहचान बना लेना चाहते हैं.
 
दरअसल, इसमें धंधा है और राजनीति भी.
 

 

 

गंदा है, पर धंधा है ये

‘पूत चमारां दे’, ‘हम चमार हैं’, ‘चर्चे चमार दे’ के बड़े पैमाने पर बैनर, पोस्टर और स्टीकर बन रहे हैं.चमारों पर रैप और वीडियो एल्बम बन रहे हैं.
 
यूट्यूब पर चमार सॉंग्स में चमार जाति के आजकल के युवाओं के स्टाइल, टशन और हिम्मत को गीतों के ज़रिए पेश किया जा रहा है.इनका दम-ख़म केवल पंजाबी गायक ही नहीं गायिकाएं भी अपने गीतों में बयान कर रही हैं.
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
चमार सॉंग के ऑडियो वीडियो और गायक-गायिकाएं

 

 
 
नई-नवेली गायिकाओं में एक गिन्नी माही की ‘डेंजरस चमार’ की सीरिज तो यूट्यूब पर हिट हो रही है.
 
चमार गीत की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने आज पंजाबी म्यूजिक इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बना ली है.संभव है आने वाले वक़्त में ये बॉलीवुड में भी जगह बना ले.
 
दरअसल, पंजाब का जालंधर शहर, जो ‘चमारों की राजधानी’ कहा जाता है, यहां के कई एनआरआई चमार अपनी जाति के प्रोत्साहन और विकास के नाम पर अलग-अलग व्यवसायों में बहुत सारा पैसा निवेश कर रहे हैं.
 
फ़ायदे का सौदा देख कुछ अन्य व्यापारी-व्यवसायी भी उनके साथ जुड़कर चमार जाति से संबंधित धंधे को उद्योग का रूप देने में लगे हैं.
  
‘चमारों पर चर्चे’ के लिए सभाएं आयोजित हो रही हैं, बड़े-बड़े स्टेज़ शो और गायन कार्यक्रम हो रहे हैं.
 
इनके कार्यक्रमों में चर्मकार जाति से जुड़ी ऐसी-ऐसी दलीलें पेश की जाती हैं, जिनका इतिहास और भूगोल से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता.
 
इनके तर्क सुनकर एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपना सिर पीट ले.
 
एक कार्यक्रम के दौरान गिन्नी माही चमार का मत्लब समझाती हुई कहती हैं-  च से चमड़ा, म से मांस और र से रक्त यानि खून.यानि चमड़ा, मांस और खून से मिलकर चमार बनता है.अब यहां सवाल ये है कि यदि चमार चमड़ा, मांस और खून से मिलकर बना है, तो बाक़ी लोग क्या प्लास्टिक के बने/बनते हैं?
 
सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि ऐसे सारे कार्यक्रम संत शिरोमणि रविदास और बाबा साहेब अंबेडकर के फ़ोटो के सामने ही होते हैं, जिनमें चंवर वंश के लोगों को चमार बनाने वाले सिकंदर लोदी का ज़िक्र भी नहीं होता, जबकि शेष हिन्दू समाज को तथाकथित चमार जाति की बदहाली और प्रताड़ना का दोषी बताकर लोगों में सनातन हिन्दू धर्म के विरुद्ध ज़हर घोला जाता है.
 
सच्चाई ये है कि जिन लोगों ने इस्लाम क़बूल कर लिया, उन्हें बख्श दिया गया.लेकिन जिन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा  उन्हें मैला (मलमूत्र) ढ़ोने और चमड़ा सफ़ाई करने के काम में ज़बरन लगाकर उन्हें ‘भंगी’ और ‘चमार’ नाम दिया गया.
 
संत रैदासजी भी बंदी बनाए गए थे.उन्होंने उस दौरान हुई प्रताड़ना का वर्णन इस प्रकार किया है-
 
 
बादशाह  ने  वचन  उचारा   |   मत  प्यारा  इसलाम  हमारा ||
खंडन  करे  उसे  रविदासा  |   उसे  करौ  प्राण  कौ  नाशा   || 
बाँधहूँ जिकड़न अबहिं रविदासा |  देहूँ इन्हें अति भारी त्रासा ||
बंदी  गृह  में  डारौ   जाई  |   कष्ट   देऊ   इसको   अधिकाई ||
जब  तक  राम  नाम  रट  लावे | दाना  पानी  यह  नहीं  पावे ||
जब  इसलाम  धर्म  स्वीकारे  |  मुख  से  कलमा आप उचारे ||
पढ़े   नमाज   जभी  चितलाई |    दाना  पानी  तब  यह  पाई ||
 
 
 
संत रैदासजी को लालच दिया गया.लेकिन वे नहीं माने, इस्लाम क़बूल नहीं किया, तो उन्हें मृत्यु का भय दिखाया गया.
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
सिकंदर लोदी और संत रैदासजी (प्रतीकात्मक)

 

 
 
अलौकिक सत्ता के सानिध्य में रहनेवाले मोह माया और भय से कोसों दूर एक त्यागी संत पर एक दुनियावी और नीच बादशाह भला क्या असर डाल सकता था, रैदासजी टस से मस नहीं हुए.उन्होंने सिकंदर लोदी को क़रारा ज़वाब (रैदास रामायण से उद्धृत) दिया –
 
    
वेद धर्म सबसे बड़ा | अनुपम सच्चा ज्ञान ||
फ़िर मैं क्यों छोडूँ इसे | पढूँ  झूठ  कुरान ||
वेद धर्म  छोडूँ नहीं | करो कोसिस हजार ||
तिल तिल काटो चाही | गोदो अंग कटार ||
      
 
 
बाबासाहेब अंबेडकर ने अपनी शूद्रों की खोज नामक पुस्तक (प्राक्कथन- प्रथम पृष्ट, तीसरे पैराग्राफ़) में स्पष्ट कहा है-
 
 

” भारत के दलित प्राचीन काल के यानि वैदिककालीन शूद्र नहीं हैं. ”

 
 
 
प्राचीन भारत में कोई जाति नहीं थी और न शुद्र कभी उपेक्षित था.
 
भेदभाव और घृणा फ़ैलाने का घिनौना कृत्य मध्यकालीन मुस्लिम विदेशी शासकों और उत्तर-मध्य काल अथवा पूर्व आधुनिक काल के विदेशी यानि अंग्रेज़ शासकों द्वारा किए गए थे.
 
डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने अपनी क़िताब अछूत कौन और कैसे? (पृष्ठ संख्या-99) में लिखा है –
 
 

” चारों वर्णों में शूद्र कभी भी उपेक्षित नहीं रहा, बल्कि वह अन्य तीनों वर्णों से अधिक अधिकार और कर्तव्य संपन्न था.मनु काल में भी शूद्र कभी अछूत नहीं था. ”

   
 
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि विदेशी आक्रमणों और घुसपैठ के कारण बिखर चुके हिन्दू समाज में अस्तित्व में आए दलितों के साथ लंबे समय से तथाकथित उच्च जातियों द्वारा भेदभाव होता रहा है.उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा है.लेकिन अब हालात काफ़ी बदल चुके हैं.
 
प्रताड़ना तो दूर आज कोई जातिसूचक शब्द का भी प्रयोग करे, तो वह जेल जा सकता है.
 
आजकल अंतरजातीय विवाह हो रहे हैं.
 
थोड़ा प्रयास और हो तो बेटी-रोटी के संबंधों में विस्तार होगा और एक बहुत बड़ी खाई को पाटा जा सकेगा.
 
जब इतना कुछ हो रहा है तब किसी ‘चमार’ को ‘डेंजरस’ (ख़तरनाक) बनने की क्या ज़रूरत है?
 
       

 

राजनीति है ये 

चालाक अग्रेजों ने चमारो को दलित बना दिया.यानि दबे-कुचले लोग.ये अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति थी.मगर गांधीजी को क्या हुआ था, क्या उन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा था? ऐसा तो नहीं लगता, गांधी जी बड़े ज्ञानवान व्यक्ति थे.मगर, गांधीजी ने इन्हें हरिजन कहा, चंवरवंशी नहीं क्योंकि इसमें भी राजनीति थी.एक डर था कि दया के पात्र समझे जाने वाले ये लोग कहीं अपना गौरवशाली इतिहास जान गए, तो क्रांतिकारी बन जाएंगें और भेड़-बकरियों की तरह इस्तेमाल होने चीज़ नहीं रहेंगें.
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
गांधीजी और हरिजन समाचार पत्र
 
 
उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों से कुछ लोग अंग्रेज़ों के ज़माने में अस्तित्व में रहे चमार रेजीमेंट को फ़िर से बहाल करने की मांग कर रहे हैं.दरअसल, ये लोग अपना एक राजनीतिक दल बनाकर अपनी एक नई दुकान खोलने की फ़िराक में हैं, जो भविष्य में मायावती सरीखे नेताओं की तरह ताक़तवर बनकर उभरेंगें और अकूत संपत्ति के मालिक बन सकेंगें.
 
मगर एक बड़ा सवाल यहां ये उठता है कि इनके साथ क्या समाज का भी विकास हो सकेगा? इसका सीधा और साफ़ ज़वाब होगा- नहीं.मायावती और उनकी बसपा का प्रमाण सामने है.आज़ादी के 74 साल बाद भी ये समाज वहीँ का वहीँ खड़ा है.
 
चमार रेजीमेंट की मांग करने वालों की ये दलील है कि इससे तथाकथित चमार समाज को अपना खोया हुआ सम्मान और गौरव फ़िर से प्राप्त होगा.तो क्या केवल चमार रेजीमेंट ही इनका इतिहास है? वो क्षत्रिय, देशभक्त और बहादुर सनातनी हिन्दू कौन थे, जिनका एक समय भारत के पश्चिमी हिस्सों में शासन था और जिन्होंने सिकंदर लोदी के सामने जानवरों की ख़ाल उतारना, ख़ाल-चमड़ा पीटना और जूती बनाना तो स्वीकार कर लिया लेकिन इस्लाम क़बूल नहीं किया?
   
इनका ये सवाल है कि सेना में जिस तरह मराठा लाइट इन्फेंट्री, राजपूताना राइफल्स, राजपूत रेजीमेंट, जाट रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट, नागा रेजीमेंट और गोरखा रेजीमेंट हैं, उसी तरह चमार रेजीमेंट क्यों नहीं है? इसका ज़वाब ये होगा कि आज यहां न तो अंग्रेजी शासन है और न सन सैंतालीस वाली विकट परिस्थिति ही बरक़रार है.आज भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, जहां लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था क़ायम हैं.यहां सभी बराबर हैं यानि सबको समान अधिकार प्राप्त है.अब सेना में भर्ती होने के लिए किसी व्यक्ति का, किसी जाति विशेष से संबंध होना कोई मायने नहीं रखता.
 
अब और जाति आधारित रेजीमेंट की स्थापना की परंपरा को त्यागना होगा.एक देश, एक विधान की तरह एक देश, एक सेना की बात होनी चाहिए.कोशिश ये हो कि जाति आधारित तमाम रेजीमेंट से जातियों के नाम हटाकर उन्हें पूर्व सैनिकों के नाम के साथ जोड़ दिया जाए.सच पूछिए तो यह सामाजिक समरसता की दिशा में उठाया जानेवाला एक क्रांतिकारी क़दम होगा.इसके साथ ही हम अपने सैनिकों के प्रति सच्ची श्रद्धांजली भी अर्पित कर सकेंगें.
 
अलग रेजीमेंट की मांग करने वालों से ये पूछा जाना चाहिए कि हम किसी जाट रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट या चमार रेजीमेंट के बजाय सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय सेना का हिस्सा बनना क्यों नहीं चाहते? क्यों हम आज भी ब्राह्मण, ठाकुरों और चमारों में बंटे हुए हैं?
 
 
 

 

चंवर वंश का इतिहास

चंवर वंश का इतिहास भारत के अन्य क्षत्रिय राजवंशों के मुक़ाबले बहुत पुराना है.अंग्रेज़ और उनके दलाल वामपंथी इतिहासकारों द्वारा भारतीय इतिहास की सच्चाई दफ़न करने के बावज़ूद महान क्षत्रिय चंवर वंश के राजाओं और उनकी सेना के प्रामाणिक स्रोत उपलब्ध हैं.ऐसे शूर वीरों के वर्ग के चर्मकार बनने की घटना दुनिया के इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना है.यह अखंड भारत के विखंडन और सनातन हिन्दू संस्कृति के क्षरण के जैसा है.    

 

 

चंवर वंश का परिचय

विभिन्न स्रोतों के अध्ययन से पता चलता है कि हिन्दू राजवंशों का शासन पहले, एक साथ पूरे भारतवर्ष में न होकर क्षेत्र-विशेष में होता था, इसलिए चंवर वंश का संबंध भी देश के पश्चिमी भाग से जुड़ा दिखाई देता है, जहां उनका शासन था.
 
इस वंश के प्रथम प्रतापी राजा चंवरसेन थे.सूर्यवंशी शाखा के क्षत्रिय कुल के चंवरसेन के कमलसेन, ब्रह्मसेन, रतिसेन आदि तीन पुत्र हुए थे.बाद में, इस वंश में भद्रसेन नामक परम शक्तिशाली राजा राजा हुए जिनके पुत्र का नाम त्रियसेन था.इसके बाद फ़िर सूर्यसेन और चामुंडाराय नामक शक्तिशली राजाओं और उनकी राजधानी चंवरावती ज़िक्र आता है.
 
प्रख्यात विद्वान डॉ. विजय सोनकर शास्त्री के मुताबिक़ ‘सिसोदिया वंश के संस्थापक बाप्पा रावल (730-753 ई.) का विवाह चंवर वंश की ही राजकुमारी के साथ हुआ था.गुजरात के चंवर वंश की यह राजकुमारी एक देवी की मूर्ति अपने साथ लाई थीं जिसे चितौड़ के एक मंदिर में प्रतिष्ठित किया था.वह मूर्ति आज भी मौज़ूद है.
 
ऐसा भी कहा जाता है कि बाप्पा रावल ने ग़ज़नी के सुल्तान को हराकर चंवरवंश के सरदार को वहां का शासक बनाया था.
 
महान हिन्दू राजवंशों में प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय चंवरवंश के विषय में अंग्रेज़ विद्वान जेम्स टॉड ने अपनी मशहूर क़िताब ‘राजस्थान का इतिहास’ में विस्तृत चर्चा की है.
 
चंवर वंश का ज़िक्र महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में भी मिलता है, जिसके बाद इसकी प्रामाणिकता पर कोई सवाल नहीं रह जाता और यह साबित हो जाता है कि महान और शक्तिशाली चंवरवश वंश बाक़ी हिन्दू राजवंशों की तुलना में अधिक प्राचीन और ऐतिहासिक रहा था.
 
चंवर सेना को बाक़ायदा महाभारत युद्ध में आमंत्रित किया गया था और वह धर्म के पक्ष में लड़ी थी, इस बात का ज़िक्र दुनिया के सबसे विलक्षण और महान ग्रंथ महाभारत में बड़ा स्पष्ट रूप से किया गया है –
 
 

”  सौडिका दर्दा दर्वा, चंवरा शर्बर बर्बरा | ”

 
 
 
विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों के शासन काल में भी चंवरवंश पक्के तौर पर तत्कालीन भारत के पश्चिमी भाग में शासन करता था, जो गुजरात के एक हिस्से के रूप में विभाजन के बाद आज पाकिस्तान में है.पश्चिमी ओर से हुए तुर्कों के आक्रमण का कड़ा मुक़ाबला चंवरवंशी रणबांकुरों ने किया था.यही कारण था कि सिकंदर लोदी इस राजवंश के संत शिरोमणि गुरू रैदास से चिढ़ता था, मगर उनकी हत्या करने से डरता था क्योंकि उसे अच्छी तरह पता था कि जनाक्रोश उसकी सत्ता की चूलें हिला सकता था, तबाह कर सकता था.
 
डॉ. विजय सोनकर शास्त्री के अनुसार, राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने चंवर वंश से संबंध रखने वाले रैदासजी को अपना गुरू बनाकर उनको अपने मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि देकर चितौड़गढ़ के क़िले में ही रहने की प्रार्थना भी की थी.
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
संत रैदासजी के दर्शन को आए भक्त (प्रतीकात्मक)

 

चंवरपुराण चंवरवंश को सतयुग के आरंभ काल के द्विज वंश का राजवंश बतलाता है.
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
माखन दास द्वारा लिखित चंवरपुराण
 
 
 
चंवरपुराण के अनुसार, चक्रवर्ती राजा चंवरसेन के वैवाहिक संबंध राजघरानों में होते थे.अंबारिका के राजा अंबारिष्ट की कन्या का चंवरसेन से विवाह, चंवरसेन के पुत्र कमलसेन का क्लीवियल देश के राजा मत्युकगेश की पुत्री से विवाह, चामुंडाराय का चंवरवंश की राजकुमारी विनीतियाँ से विवाह आदि इसके उदाहरण हैं.
 
  
           

 

इस्लामिक काल में बनी हिन्दू चमार जाति

भारत में विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों को शुरुआत में बार-बार हार का सामना करना पड़ता था.आत्मसमर्पण करने पर उन्हें जीवित छोड़ दिया जाता था, आज़ाद कर उन्हें अपने देश वापस जाने का अवसर दे दिया जाता था.दरअसल, इस काल में भी प्राचीन काल से चला आ रहा युद्ध नियम लागू था.यहां सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले युद्ध वर्जित था.इसके विपरीत, हारे हुए और ज़िन्दा छोड़ दिए गए इस्लामिक जिहादी लड़ाके पलटकर फ़िर छापामार सेना की तरह अक्सर रात के अंधेरे में हमले करते रहते थे.
 
इसप्रकार, बार-बार होने वाले हमलों से भारत के सीमावर्ती राज्य कमज़ोर होते गए.यहां चंवरवंशी समेत अनेक छोटे-बड़े राजा थे और उनमें संगठन की भी कमी थी.इसलिए जब मुस्लिम आक्रांता सफल हुए तो उनका पहला निशाना धर्मरक्षक ब्राह्मण और देशरक्षक क्षत्रिय थे.
 
मुस्लिम आक्रमणकारी क़ब्ज़े में आई औरतों और बच्चों को माल-ए-ग़नीमत के तौर पर आपस में बांटकर उन्हें बेचने के लिए अरब और ईरान की मंडियों में भेज देते थे.सुंदर स्त्रियों को वे रखैल बनाकर अपने हरम में रख लेते थे.
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों के क़ब्ज़े में हिन्दू औरतें व बच्चे (प्रतीकात्मक)

 

 
 
बंदी बनाए गए क्षत्रिय सैनिकों और अन्य लोगों को मुस्लिम आक्रांता इस्लाम क़बूल करने को कहते.जो इस्लाम क़बूल नहीं करता उसका स्वाभिमान भंग करने के लिए वे मैला ढ़ोने, गाय आदि की ख़ाल उतारने, चमड़ा पीटने और चमड़े के अन्य कार्यों में ज़बरन लगा देते थे.इतना ही नहीं, उन्हें भंगी और चमार कहकर ज़लील किया जाता था.
 
कालांतर में यही नाम हमारे धर्मरक्षकों और देशरक्षकों के साथ जुड़ गया.
 
वर्तमान में हिन्दू समाज में जिन्हें चमार कहा जाता है उनका कोई भी प्राचीन स्रोत नहीं है.किसी भी ग्रंथ में चमार शब्द का ज़िक्र नहीं है.
 
भारत में चमड़े का काम नहीं होता था.यहां वस्त्र निर्माण का कार्य बुनकर करते थे, जिन्हें ऋग्वेद के अध्याय- 2 में तंतुवाय कहा गया है.
 
डॉ. विजय सोनकर शास्त्री अपनी पुस्तक हिन्दू चर्मकार जाति लिखते हैं –
 
 
” भारत में लोग हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार अपना जीवन-यापन करते थे.शुभ-अशुभ विचार, ग्रह-नक्षत्र विचार, पूजा-पाठ, कृषि-उद्योग-वाणिज्य-व्यापार इनकी जीविका का साधन था.क्षत्रियवंशीय होने से ये सैनिक का कार्य भी करते थे.इनकी आर्थिक समृद्धि का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संत शिरोमणि रैदास के जन्म के अवसर पर उनके परिवारवालों ने भोज दिया था और दान-दक्षिणा भी बांटा था-
 
धन संपत्ति की कमी न स्वामी |
दीना    सबकुछ    अंतरयामी | 
सकल   कुटुंबी  मित्र  जिमाए |
भिक्षुक   जन    संतुष्ट  कराए |
निज   गुरू   इष्टदेव  सनमाने |
दिए   दान  अनुपम   मनमाने |
 
 
 
मध्यकाल से पहले भारत में चमड़े के कार्य कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता.मशहूर लेखिका डॉ. हमीदा ख़ातून अपनी क़िताब अर्वनाईजेशन (पेज़ नंबर- 50) में लिखती हैं –
 
 
” मध्यकालीन शासन से पहले भारत में चमड़ा और सफ़ाई के काम का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है.हिन्दू चमड़े को निषिद्ध एवं हेय समझते थे.लेकिन मुस्लिम शासकों ने इसके उत्पाद के भारी प्रयास किए थे. ”
 
 
 
 
इतिहासकार रामनारायण रावत के अनुसार –
 
 

” वर्तमान भारत में चमार कहे जाने वाले लोग पारंपरिक रूप में कृषक थे.बाद में उन्हें चमड़े के कार्य से जोड़ा गया और ऐसा प्रदर्शित किया गया जैसा वे वास्तव में नहीं थे. ”

                

 

 

 

चमार जाति में कई क्षत्रिय वंश शामिल

मुस्लिम शासन के दौरान भारत में युद्धबंदियों और अन्य लोगों को, जो चमड़ा छीलने, चमड़े पीटने और जूते आदि बनाने के काम में ज़बरन लगाया जाता था, उनमें केवल चंवरवंशी क्षत्रिय ही नहीं बल्कि दूसरे क्षत्रिय वंश के लोग भी शामिल थे.यहां तक कि पकड़े गए चंदन-टीका और शिखाधारी यानि ब्राह्मण वर्ण के लोग भी, जो इस्लाम स्वीकार नहीं करते थे, उन्हें भी मैला ढ़ोने या फ़िर चर्मकार्य को करने के लिए प्रताड़ित कर मज़बूर किया जाता था.
 
इंग्लैंड के विद्वान प्रो. शेरिंग ने अपनी पुस्तक हिन्दू ट्राइब्स एंड कास्ट्स (भूमिका, पेज़ नंबर- 20) में लिखा है –
 
 
” भारत में निम्न जाति के लोग, कोई और नहीं बल्कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ही हैं. ”
 
 
 
 
डॉ. विजय सोनकर शास्त्री अपनी पुस्तक हिन्दू चर्मकार जाति में लिखते हैं –
 
 
” वर्तमान चमार की जो उप-जातियां और गोत्र पाए जाते हैं, उनसे भी स्पष्ट हो जाता है कि चमार जाति में किसी एक वंश की जातियां नहीं पाई जाती हैं.इससे यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि यह चमार जाति अनेक बहादुर और स्वाभिमानी वंश और गोत्रों का सामूहिक नाम है और यह नाम उनको मध्यकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा बलपूर्वक चर्म-कर्म में लगाकर उन्हें दिया गया है.
इसके पूर्व वे प्रत्येक प्रांतों में अपने-अपने वंश के नाम से ही जाने, पहचाने और संबोधित किए जाते थे.उनकी प्राचीन पहचान धर्मरक्षक ब्राह्मण एवं देशरक्षक क्षत्रिय की है. ”
 
 
 
चमार कोई जाति नहीं बल्कि मुस्लिम आक्रांताओं के ज़ुल्म और अंग्रेजों की साज़िश का नाम है.
 
 
      

 

चमार रेजीमेंट

मुस्लिम शासकों ने जहां क्षत्रिय चंवरवंशियों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें चमार नाम दिया, वहीँ अंग्रेजों ने उस नाम को, अपनी ‘फूट दलों और शासन करो’ की नीति के तहत और आगे बढ़ाया.लेकिन चालाक अंग्रेज़ चूंकि तथाकथित चमारों के अंदर के चंवरवंशी को पहचानते थे, इसलिए उन्होंने 1 मार्च 1943 को चमार रेजीमेंट बनाई.
 
 
 
 
 
चंवरवंशी क्षत्रिय,चमार कहलाना,गर्व होता है
चमार रेजीमेंट

 

 
 
 
दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ जापानियों के आगे बेबस थे.जापान की सेना उस वक़्त दुनिया की सबसे ताक़तवर सेना थी, जिनसे भिड़ना लोहे के चने चबाने जैसा था.मगर यह काम चमार कहे जाने वाले क्षत्रिय चंवरवंशी ज़रूर कर सकते थे.इसलिए चमार रेजीमेंट के रूप चंवरवंशियों को कोहिमा की लड़ाई में उतारा गया.
 
‘कोहिमा की लड़ाई’ इतिहास की सबसे खूंखार लड़ाईयों में से एक थी.
 
उस भयानक युद्ध में हमारे चंवरवंशी रणबांकुरों ने जो अप्रतिम साहस, शौर्य और सफल युद्धकौशल का परिचय देकर जो वहां साबित किया, उसके लिए अंग्रेजी हुक़ूमत द्वारा रेजीमेंट को ‘बैटल ऑफ़ कोहिमा अवार्ड’ से नवाज़ा गया था.
 
अंग्रेज़ बहुत ख़ुश थे.उनके पास अब सेना की एक ऐसी टुकड़ी थी, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी काम आ सकती थी, किसी भी सेना का मुंहतोड़ ज़वाब दे सकती थी.उन्हें लगा कि वे अपनी साम्राज्यवादी सत्ता से मुक्ति और भारत की आज़ादी के लिए चल रहे संघर्ष को भी कुचलने में इसका इस्तेमाल कर सकेंगें.इसीलिए उन्होंने कैप्टन मोहनलाल कुरील के नेतृत्व में इस जांबाज़ चमार रेजीमेंट को, भारत से अंग्रेजी हुक़ूमत को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ाई लड़ रही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज़ के खिलाफ़ लड्ने के लिए, सिंगापुर भेजा.
 
अंग्रेज़ यही चूक गए.ये जानते हुए कि ये चमार नहीं बल्कि वही देशभक्त क्षत्रिय चंवरवंशी हैं जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं से देश की रक्षा करने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था, चर्म-कर्म स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम क़बूल नहीं किया था, उन्हें वर्तमान में अपने देश और देशवासियों के ख़िलाफ़ लड़ाने में क़ामयाब होंगें, ऐसी सोच के साथ निर्णय लेकर एक बहुत बड़ी ग़लती कर दी.नतीज़ा ये हुआ कि आज़ाद हिन्द फौज़ के ख़िलाफ़ लड़ने गई चमार रेजीमेंट आज़ाद हिन्द फौज़ के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ़ मैदान में उतर गई.
 
ये सन 1946 की बात है.तब सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था.
 
नेताजी के नेतृत्व में अब एक संयुक्त और ज़्यादा ताक़तवर क्रांतकारी फ़ौज ने देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी और बलिदान दिया.अंग्रेजों को एहसास हो गया कि भारत में अब और टिक पाना उनके लिए मुमकिन नहीं है.
 
भारत को आज़ादी इसी तरीक़े से मिली थी तथा ‘बिना खड़ग, बिना ढाल’ वाली अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ एक थोथी दलील है, ये सारा देश जानता है.मगर देश की राजनीति और तमाम व्यवस्थाएं अब भी ग़ुलाम मानसिकता से उबर नहीं पाई हैं.
 
देश की सरकार का ये परम कर्तव्य बनता है कि उस संघर्ष/युद्ध में शामिल सभी क्रांतिकारियों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्ज़ा दे.यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी.समूचा भारत उन्हें याद रखेगा, सदैव उनका ऋणी रहेगा.
        

 

 

भारत में चमार जाति की आबादी

2001 की जनगणना के अनुसार देश के विभिन्न राज्यों में चमार जाति की आबादी (प्रतिशत में) निम्न प्रकार से है –
 
उत्तरप्रदेश – 14%  उत्तराखंड – 5%  राजस्थान – 10.8%  पंजाब- 11.9%  महाराष्ट्र – 1.28%  मध्य प्रदेश – 9.3%      झारखंड – 3.1 %   जम्मू-कश्मीर -4.82%  हिमाचल प्रदेश – 6.8%  हरियाणा – 9.84%  गुजरात – 1.7%  
छत्तीसगढ़ – 8%  चंडीगढ़ – 5.3%  दिल्ली – 6.45%  बिहार – 5%        
 
 
 
       
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रामाशंकर पांडेय

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