‘मोरया के बप्पा’ कहिए या ‘बप्पा के मोरया’ भावार्थ एक ही है
जब मोरया का मोरगांव आना-जाना कठिन हो गया, तो वे दुखी रहने लगे.फिर, मयूरेश्वर चिंचवड पधारे मोरया का साथ निभाने के लिए.
जब भक्त मोरया ने बप्पा से कहा, मयूरेश्वर, ‘अब मेरी इच्छा समाधि लेकर तुझमें विलीन हो जाने की है’ तो मयूरेश्वर ने कहा, ओह, तुम और मैं दो नहीं हैं.हम एक ही हैं.’ फिर भी, बप्पा ने मोरया को आशीर्वाद दिया क्योंकि भगवान तो भक्तवत्सल होते हैं और वे अपने भक्तों की इच्छा अवश्य पूरी करते हैं.
कहते हैं कि भगवान मयूरेश्वर की कृपा से धराधाम पर आए मोरया मयूरेश्वर में ही रमे रहते थे.वर्षों की तपस्या के बाद भगवान की अनुभूति पाकर वे स्वयं तो प्रकाशित-परिभाषित हुए ही एक अनन्य भक्त के रूप में दूसरों के लिए प्रेरणा के स्रोत भी बन गए.और फिर, लंबी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों के बाद शाश्वत अद्वैत अवस्था में जाने या उसका अनुभव करने की बात कहते हुए जब एक दिन उन्होंने बप्पा से समाधि लेने की इच्छा जताई, तो बप्पा ने कहा- ‘तुम और मैं दो नहीं हैं.हम एक ही हैं.’
इसे क्या कहेंगें? यह कौन सी अवस्था है? इसे ब्रह्म की प्राप्ति कहेंगें.निश्चय ही यह ब्रह्मत्व की अवस्था है.इसे यूं कहिए कि मोरया और बप्पा के बीच दूरियां ख़त्म हो चुकी थीं.यानि, मोरया ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म हो चुके थे जैसे कोई नदी सागर में मिलकर स्वयं सागर हो जाती है.
फिर भी, बप्पा ने मोरया को आशीर्वाद दिया क्योंकि भगवान भक्तवत्सल होने के कारण अपने भक्त की कोई इच्छा अधूरी नहीं रखते हैं.
आख़िर कौन थे मोरया?
16 वीं सदी (कुछ लोग 14 वीं सदी बताते हैं) में भारत में एक महान संत हुए थे मोरया गोसावी.वेद-वेदांग और पुराणोपनिषद के ज्ञाता मोरया गोसावी भगवान गणेश के महान भक्त थे.
महाराष्ट्र के पुणे के क़रीब चिंचवड गांव में उनके द्वारा स्थापित प्रसिद्ध गणेश मंदिर (जिसे गोसावी मंदिर के नाम से जाना जाता है) के साथ उनकी समाधि भी है.उन्हें अष्टविनायक (महाराष्ट्र के प्रसिद्ध आठ गणेश मंदिर) यात्रा शुरू करने का श्रेय दिया जाता है.
बताया जाता है कि समर्थ रामदास और संत तुकाराम उनके यहां आते रहते थे.मराठी की प्रसिद्ध गणपति वंदना- ‘सुखकर्ता-दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची…’ की रचना संत कवि समर्थ रामदास ने मोरया गोसावी के सानिध्य में की थी.
मोरया गोसावी के पुत्र चिंतामणि को भगवान गणेश का अवतार माना जाता है.
मोरया की भक्ति एवं साधना
मोरया गोसावी के जीवन से जुड़े साहित्य और कथाओं से पता चलता है कि सोलहवीं सदी में कर्नाटक निवासी एक दम्पति वामनभट और पार्वतीबाई महाराष्ट्र के पुणे के पास स्थित मोरगांव (मोर पक्षी की अधिकता के कारण इस गांव का नाम मोरगांव पड़ गया था) में आकर बस गए थे.गाणपत्य संप्रदाय (जो गणेश जी को प्रमुख ईश्वर मानते हैं और पूजते हैं) के इस दम्पति को कोई संतान नहीं थी.ऐसे में, उन्होंने मोरगांव के भगवान मयूरेश्वर (भगवान गणेश, जिन्हें मयूरेश्वर या मराठी में मोरेश्वर कहा जाता है) की बहुत कठिन एवं विशेष पूजा-अर्चना की.
कहते हैं कि मयूरेश्वर की कृपा से दम्पति वामनभट एवं पार्वतीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई.इसलिए, उन्होंने अपने बेटे का नाम मयूरेश्वर के नाम पर मोरया रख दिया.
मोरया गोसावी विलक्षण प्रतिभा के धनी तो थे ही गणेशभक्त निकले.भक्तिभाव के साथ ही उन्होंने धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन किया और उसके प्रचार-प्रसार का कार्य करने लगे.
इसी बीच उनके माता-पिता ने उनका विवाह करा दिया और वे गृहस्थ जीवन में आ गए.मगर, उनकी भक्ति और साधना जारी रही, और अपने माता-पिता के देहांत के बाद पुणे के ही क़रीब पवना नदी के तट पर स्थित चिंचवड गांव में अपना आश्रम बना कर धर्म सेवा को विस्तार देने लगे.
जल्दी ही उन्हें प्रसिद्धि मिली.दूर-दूर से लोग उनके पास आने लगे.
बताते हैं कि चिंचवड मोरया गोसावी का सेवा स्थल ज़रूर था लेकिन, हर साल वे गणेश चतुर्थी के अवसर पर मोरगांव जाकर मयूरेश्वर के दर्शन करते थे.
इसके अलावा भी उनका मोरगांव आना-जाना लगा रहता था.वहीं वे क़रीब 20 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर विशेष दर्शन-पूजा किया करते थे.
वृद्ध हो जाने पर जब उनका मोरगांव आना-जाना मुश्किल हो गया, तो वे दुखी रहने लगे.फिर, एक रात भगवान मयूरेश्वर उनके सपने में आए और कहा- ‘सुबह जब तुम नदी में नहा रहे होगे तब मुझे पाओगे.’
यही हुआ भी.मोरया ने जैसे ही नदी में डुबकी लगाई उनका किसी चीज़ से स्पर्श हुआ.ऊपर उठे, तो भगवान गणेश की एक दिव्य मूर्ति उनके हाथों में थी.
मोरया समझ गए कि उन्हें इष्ट के दर्शन हो गए.साक्षात् मयूरेश्वर रूपी वह मूर्ति उन्होंने पास के ही मंदिर में स्थापित कर उसकी पूजा और साधना में लग गए.
यहीं उन्होंने जीवित समाधि ली.
गोसावी मंदिर में उमड़ती है श्रद्धालुओं की भीड़
जिस मंदिर में मोरया गोसावी भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित स्थापित कर भजन-पूजन करते थे वह मंदिर गोसावी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है.यहां दर्शन-पूजन के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ती है.
मंदिर के साथ में ही मोरया गोसावी की समाधि भी है.इसकी भी बड़ी मान्यता है.जो भी श्रद्धालु यहां आता है वह भगवान गणेश के दर्शन-पूजन से पहले भक्त मोरया की समाधि पर जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि मोरया की अनुमति लेकर बप्पा से कुछ मांगने वाला व्यक्ति ख़ाली हाथ नहीं लौटता है.
इस मंदिर में साल में दो बार- भादो (भाद्रपद) और माघ मास में विशेष पूजन और उत्सव होता है.इस दौरान यहां से भगवान गणेश की एक पालकी निकाली जाती है जो मोरगांव के मयूरेश्वर मंदिर तक जाती है.
जयकारे में ‘मंगलमूर्ति’ और ‘मोरया’ शब्द मोरया गोसावी को दर्शाते हैं
भारत आस्था और प्रेम की धरती है.यहां कृतज्ञता और सम्मान ह्रदय में रखने और उसे प्रकट करने की परंपरा है.साथ ही, लोग भगवान के साथ-साथ भक्तों और संत-महात्माओं को भी बहुत ऊंचा स्थान देते हैं.
बताते हैं कि जैसे जैसे मोरया गोसावी की प्रसिद्धि फैली उनके यहां दूर-दूर से लोग उनका सानिध्य व आशीर्वाद पाने के लिए आने लगे.मोरया भी जब किसी को आशीर्वाद देते, तो ‘मंगलमूर्ति’ शब्द बोलते थे.धीरे-धीरे यही (मंगलमूर्ति) शब्द प्रचारित-प्रसारित होकर गणेशभक्तों के बीच लोकप्रिय हो गया.
यह भी कहा जाता है कि मोरया गोसावी अपने काल के सबसे बड़े गणेशभक्त थे.भगवान गणेश के प्रति उनकी भक्ति और अटूट विश्वास को देखकर लोगों पर गहरा असर होता था.भोगी मानसिकता के लोग तो भक्तिमार्ग की ओर आकर्षित होते ही थे, नास्तिकों में भी आस्तिकता के भाव जाग जाते थे.
फिर, वह समय आया जब मोरया ने पूरी तरह बप्पा में विलीन होने के लिए समाधि ली.इससे लोगों में यह बात बैठ गई कि मोरया गोसावी से बड़ा बप्पा का कोई अन्य भक्त नहीं है.
इसके बाद ‘गणपति बप्पा’ के ‘मोरया’ शब्द लगाकर ‘गणपति बप्पा मोरया’ और ‘मंगलमूर्ति मोरया’ के जयकारे लगने लगे.
गणेशभक्तों और श्रद्धालुओं में ऐसी मान्यता है कि गणपति बप्पा के नाम के साथ उनके परम भक्त मोरया का नाम लेने से वे जल्दी प्रसन्न होते हैं.
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