इतिहास
मीना बाज़ार: ग़ुलाम औरतों की मंडी कहिए या हरम का दरवाज़ा
अटल बिहारी द्वारा रचित कविता ‘रग-रग मेरा हिन्दू परिचय’ में अकबर के पुत्रों से पूछा गया है कि उन्हें ‘मीना बाज़ार’ याद है या फिर भूल गए.ज्ञात है कि भारत में एक वक़्त ऐसा भी था जब राजपूत बहू-बेटियों के सामने जौहर ही एकमात्र विकल्प होता था.वे जौहर करती थीं यानि, जीवित धधकते अग्निकुंड में कूद पड़ती थीं, ताकि मुस्लिम आक्रांताओं के हत्थे चढ़कर ‘बाज़ार का माल’ न बन सकें.
औरतों की मंडी और हरम (प्रतीकात्मक) |
मध्यकालीन भारत का इतिहास खंगालें तो पता चलता है कि मुस्लिम आक्रान्ता हमलों में बेशकीमती चीज़ों के साथ-साथ औरतों और बच्चियों को भी निशाना बनाते थे.यह उनका लूट का माल, जिसे इस्लाम में माल-ए-ग़नीमत कहा गया है, होती थीं.
इनमें से कुछ को तो ये अपने सेक्स ग़ुलाम के रूप में अपने पास रख लेते थे, जबकि बाक़ियों को तातार, ईरान, अरब, तुर्की आदि देशों में ले जाकर वहां की मंडियों में बेच देते थे.
फिर, जैसे-जैसे इनका विभिन्न इलाक़ों पर क़ब्ज़ा होता गया, वहां ये ग़ुलाम हिन्दू औरतों-बच्चियों की मंडियां सजाने लगे, उनका कारोबार करने लगे.
यह सल्तनत काल और फिर मुग़ल काल में बाबर से हुमायूं तक यूं ही चलता रहा.
बाबर और हुमायूं के वक़्त ऐसे बाज़ारों का नाम था- खुशरोज़ (ख़ुशी का दिन) बाज़ार.
जियाउद्दीन बरनी ने दिल्ली में सजने वाली ‘ग़ुलामों की मंडी’ का ब्यौरा दिया है.उसके मुताबिक़, इनमें खिलजी की लुटेरी फौजें लूट के माल में हर तरफ़ से हिन्दू लड़कियां-महिलाएं ढो-ढोकर लाती थीं.
बताते हैं कि बड़ी तादाद (लाखों की संख्या) में यहां लड़कियां बेची जाती थीं.जानवरों से भी सस्ती.इनके ज़्यादातर खरीदार विदेशी होते थे.
इब्नबतूता ने मुहम्मद तुग़लक के ईद के भव्य जलसों (जिनमें बड़े-बड़े आलिम और सूफ़ी संत भी शामिल होते थे) में नाचने वाली लड़कियों का ज़िक्र किया है.
उसके अनुसार, ये सभी हारे हुए हिन्दू राजाओं की बेटियां थीं.तुग़लक इस मौके पर इन्हें अपने उन अमीरों और रिश्तेदारों में बांटा करता था, जिनके जनानखाने पहले से ही ठसाठस भरे होते थे.ऐसे में, वे अतिरिक्त लड़कियां बाज़ारों में भिजवा देते थे.
अकबर के ज़माने में खुशरोज़ बाज़ार के मायने बदल गए
अकबर के वक़्त खुशरोज़ बाज़ार के मायने बदल गए.अब यहां सिर्फ़ औरतें ही जा सकती थीं.औरतें ही सामान बेचतीं और औरतें ही ख़रीदती थीं.
मगर, यहां अकबर जाता था, भेष बदलकर.
बुर्क़े में अकबर लड़कियों-औरतों की खूबसूरती को देखता था.उनकी शारीरिक बनावट को देखता था, जो उसकी कामी दृष्टि में खरी उतर सकती थी.
इसके अलावा, अकबर की कूटनियां भी बाज़ार में विचरती थीं, जो अकबर की पसंद की लड़कियों की तलाश में रहती थीं.
यानि, उस बाज़ार में जहां पहले लड़कियां-महिलाएं भेड़-बकरियों की तरह बिका करती थीं अब वहां वे चुनी जाने लगीं.चिन्हित की जाने लगीं.और इन चिन्हित लड़कियों-महिलाओं को बहला-फुसलाकर या ज़बरदस्ती हरम में पहुंचा दिया जाता था.
आगरा के किले के सामने लगने वाला खुशरोज़ बाज़ार एक बाज़ार नहीं, बल्कि हरम का दरवाज़ा या दहलीज़ था.यहां एक बार पहुंच जाने के बाद कोई औरत चाहे, हिन्दू, मुसलमान, आम या ख़ास, दरबारी या रिआया, किसी की भी बहू-बेटी हो, वह कामी कीड़े अकबर की वासना से नहीं बच पाती थी.
बताते हैं कि अकबर की इन हरक़तों से लोग इतने नाराज़ हो गए कि उन्होंने उसकी हत्या की योजना तक बना डाली.उसकी हत्या का प्रयास भी हुआ.
मीना बाज़ार से जुड़ा एक वाक़या किरण देवी नामक राजपूत महिला का भी सामने आता है.बताया जाता है कि किरण देवी राठौड़, जो मेवाड़ राज्य के वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह (जो बाग़ी होकर अकबर के ख़ेमे में शामिल हो गए थे) की पुत्री थीं और बीकानेर के राजा पृथ्वीराज राठौड़ (जो उन दिनों अकबर के दरबारी हुआ करते थे) की पत्नी थीं.
एक बार वे खुशरोज़ बाज़ार घूमने गई थीं.अकबर ने उन्हें देखा, तो छेड़ दिया और अपने हरम ले जाने का लालच दिया.इस पर कुपित हो उठी किरण देवी ने हमला कर अकबर को ज़मीन पर गिरा दिया और उसकी छाती पर चढ़कर अपनी कटार तान दी.लेकिन फिर, अकबर के माफ़ी या जान की भीख मांगने पर उसे बख्श दिया था.
अकबर की छाती पर कटार ताने किरण देवी राठौड़ (फ़ोटो- सोशल मीडिया) |
कुछ लेखकों-जानकारों के अनुसार, इस घटना के बाद खुशरोज़ बाज़ार कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया था.और जब यह फिर खुला, तो इसका नाम बदल चुका था.अब इसका नाम था मीना बाज़ार.मगर, काम वही होता रहा.अस्मतें लुटती रहीं, और मीना बाज़ार चलता रहा.
बाद में अकबर ने देश के कई हिस्सों में मीना बाज़ार लगवाए.
मीना बाज़ार में हुई थी जहांगीर और नूरजहां की मुलाकात
मुग़लों की शान में क़सीदे पढ़ने वाले कई मुस्लिम और वामपंथी इतिहासकारों ने तो मीना बाज़ार को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया ही है, इसे मोहब्बत से भी जोड़कर बताया है.उनके अनुसार, मीना बाज़ार में ही अकबर के बेटे जहांगीर और नूरजहां की पहली मुलाक़ात हुई थी.इसके बाद प्यार बढ़ा और परवान भी चढ़ा यानि, दोनों की शादी हो गई थी.
लेकिन, हक़ीक़त कुछ और ही है.नूरजहां यानि, ‘दुनिया की रौशनी’ तो एक उपाधि थी, जो नशेड़ी बादशाह जहांगीर (जो चौबीस घंटे शराब और गांजे के नशे में रहता था, और नशे के बिना जिसके हाथ कांपते थे) मेहरुनिसा नामक उस महिला को दी थी, जो उसकी बेग़म बनने से पहले अकबर (जहांगीर के पिता) एक पूर्व वज़ीर की बेटी और अलीकुली नामक एक फ़ारसी लड़ाके की बीवी थी.
इतिहासकार राजकिशोर शर्मा राजे के मुताबिक़, अलीकुली की बहादूरी से खुश होकर जहांगीर ने उसे ‘शेर अफ़ग़ान’ की उपाधि देकर बर्दवान (जो पहले बिहार में था, और अब पश्चिम बंगाल में है) की जागीर सौंप दी थी.
कुछ जानकारों के अनुसार, एक बार मेहरुनिसा मीना बाज़ार घूमने गई थी.वहां जहांगीर ने उसे देखा, तो उस पर फ़िदा हो गया.
बताते हैं कि मेहरुनिसा बला की खुबसूरत तो थी ही, बहुत जहीन भी थी.ऐसे में, जहांगीर हर हालत में उसे पाना चाहता था.इसलिए, जैसे उसके बाप अकबर ने सलीमा सुल्तान को हासिल करने के लिए बैरम खान को रास्ते से हटाया था, वैसे ही मेहरुनिसा को अपने हरम का माल बनाने के लिए अलीकुली उर्फ़ शेर अफ़ग़ान को अपने सैनिकों से मरवा डाला.
मेहरुनिसा पकड़कर लाई गई और हरम में डाल दी गई.मगर फिर, जहांगीर ने उससे शादी कर ली और नूरजहां का ख़िताब भी दिया.
मीना बाज़ार में हुई थी शाहजहां और मुमताज़ की मुलाक़ात
जहांगीर और नूरजहां की कहानी की तरह ही शाहजहां और मुमताज़ की कहानी भी वैसी नहीं है, जैसी बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है.मगर, दोनों में जो एक जैसी बातें हैं, वे हैं ‘मीना बाज़ार में मुलाक़ात’ और इन्हें पाने के लिए इनके शौहरों (पतियों) की हत्या.
दरअसल, मुमताज़ महल का असली नाम अर्जुमंद बानो था.वह मुग़लिया सल्तनत के अमीर और फ़ारसी रईस अबू-हसन आसफ़ खान के बेटी थी.उसका ब्याह एक फ़ारसी लड़ाके शेर अफ़ग़ान खान (वास्तव में शेर अफ़ग़ान एक उपाधि थी मगर, लोग उसे शर अफ़ग़ान खान के नाम से जानते थे) के साथ हुई थी.
बताया जाता है कि शाहजहां ने अर्जुमंद बानो को पहली बार मीना बाज़ार में देखा था.देखते ही वह उस पर लट्टू हो गया और उसे अपने ‘हरम की तितली’ (मल्लिका-ए-हरम या रखैलों (यौन दासियों) की रानी) बनाने की ठान ली.
मगर, शेर अफ़ग़ान खान राह में रोड़ा था.सो, शाहजहां ने उसे धोखे से मरवा दिया.
अब, अर्जुमंद बानो हरम से होती हुई महल की ख़ास यानि, मुमताज़ महल (एक उपाधि) बन गई.
इस प्रकार, आज देश के अलग-अलग शहरों में जो जेवरात, साड़ी, सूट आदि की अनगिनत वैरायटियों से लदे और सजे-धजे मीना बाज़ार दिखाई देते हैं, इनका इतिहास बहुत भयानक और दर्द भरा है.यहां पहुंचने वाली लड़कियां-महिलाएं (ख़ासतौर से हिन्दू बहू-बेटियां) या तो भेड़-बकरियों की तरह चंद सिक्कों के बदले (बिकने के बाद) विदेशियों का माल बन जाती थीं, या फिर किसी बादशाह के हरम की सेक्स ग़ुलाम बनकर उसकी दीवारों में क़ैद होकर रह जाती थीं.वहां से सिर्फ़ उनकी लाशें ही बाहर निकलती थीं.
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