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इतिहास

महात्मा गांधी को मनुबेन ने कहीं अपनी 'मां' तो कहीं अपने मन की मीरा का 'श्याम' क्यों बताया है?

– तथाकथित ब्रह्मचर्य के यज्ञ, प्रयोग या अभ्यास में एक ही प्रकार की सेविकाओं के साथ अलग-अलग तरह के पारिवारिक संबंध-संबोधनों की क्या ज़रूरत थी, यह समझ से परे है

– ख़ुद को मनु की मां बतानेवाले गांधीजी पहले, ख़ुद को सुशीला का पिता बता चुके थे और इसी प्रकार ज़रूर उन्होंने अम्तुस्सलाम को भी, कुछ इसी तरह के रिश्ते की बात कही होगी

– 77 के एक बूढ़े व्यक्ति और 17 साल की एक नाबालिग़ लड़की के बीच नंगे सोने वाली रात्रि-चर्या को क्या प्रेम कहा जा सकता है, एक बड़ा सवाल है

– जवाहरलाल नेहरु के नाम लिखे गए पत्र में मोरारजी देसाई ने कहा था कि मनु की समस्या शरीर से अधिक मन की है


मनुबेन के दिलोदिमाग़ पर गांधीजी का कितना गहरा असर था, यह उनकी लिखी डायरियों और क़िताबों में साफ़ दिखाई देता है.गांधीजी ही उनका सब कुछ थे, इसलिए उनका सब कुछ गांधीजी को ही समर्पित था, और उसमें किसी तरह की घुसपैठ की कोई गुंज़ाइश नहीं थी.मनुबेन के अनुसार, उनके लिए बापू जिस तरह अहम थे, उसी तरह बापू के लिए भी उनका स्थान सबसे अलग और अहम था.वह कहती हैं- बापू मेरी ‘मां’ थे.मगर फिर दूसरी जगह उसी बापू को वह अपने मन/अंदर की मीरा का ‘श्याम’ भी बता देती हैं, जो समझ से परे है.इस प्रकार, मनुबेन द्वारा एक तरफ़ तो वात्सल्य भाव का प्रकटीकरण होता है, तो दूसरी तरफ़ उनकी आसक्ति अथवा प्रेमाकर्षण उजागर होता है, जो अलग-अलग अवस्थाएं हैं, उनका आपस में कोई तालमेल नहीं है.तो फिर, एक ही व्यक्तित्व के संदर्भ में दो भिन्न प्रकार की अभिव्यक्ति के क्या कारण थे? सच क्या था, यह एक अहम सवाल है.

  
अपनी मां,मीरा का श्याम,मनुबेन के विचार
महात्मा गांधी और मनुबेन 


अति निम्नस्तरीय कृत्यों और उनसे जुड़ी घटनाओं के संदर्भ में  मां, वात्सल्य, स्नेह और प्रेम जैसे पवित्र शब्दों तथा मीरा और श्याम जैसे शिखर के और आध्यात्मिक चरित्र की उपमा/चर्चा हालांकि बहुत अनुचित एवं दुखदाई है, फिर भी एक मिथक को तोड़ने/झूठे एवं हानिकारक प्रतिमान ध्वस्त करने और एक उपेक्षित, पीड़ित कोमल ह्रदय को इंसाफ़ दिलाने के मक़सद से ऐसा करना ज़रूरी हो गया है, इसके सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है.ऐसे में, प्रस्तुत विषय वस्तु को तार्किक तरीक़े से पेश कर, उसका विस्तार से विवेचन की दृष्टि से, गांधीजी और मनुबेन से जुड़े विभिन्न पहलुओं/प्रसंगों पर रौशनी डालना प्रासंगिक होगा.
  
मनुबेन के लिए गांधीजी के मन में विशेष स्नेह था, इसीलिए तो वह उनका ख़ास ख़याल रखते थे.बताया जाता है कि गांधीजी मनुबेन के न सिर्फ़ खानपान और रहन सहन पर पूरा ध्यान देते थे, बल्कि उनके स्वास्थ्य और शिक्षा की भी चिंता करते थे.इस बाबत, मनुबेन ने बाक़ायदा अपनी डायरी के साथ-साथ एक पुस्तक में भी ज़िक्र किया है.

बापू: माय मदर नामक अपने संस्मरण के पंद्रह अध्यायों में से एक में मनुबेन लिखती हैं-

” मेरे पुणे जाने के 10 महीने के भीतर कस्तूरबा की मृत्यु हो गई.उसके बाद बापू ने मौन व्रत धारण कर लिया और वे सिर्फ़ लिखकर ही अपनी बात कहते थे.कुछ ही दिन बाद मुझे बापू से एक बहुत ही मार्मिक नोट मिला, जिसमें उन्होंने मुझे राजकोट जाकर अपनी पढ़ाई फ़िर से शुरू करने की सलाह दी थी.उस दिन से बापू मेरी मां बन गए. ”

  

इस बात का उल्लेख हमें गांधीजी के सचिव प्यारेलाल की क़िताब महात्मा गांधी: द लास्ट फेज में भी मिलता है.इसमें प्यारेलाल लिखते हैं-

” उन्होंने (गांधीजी ने) उसके (मनुबेन) लिए वह सब कुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के लिए करती है.उसकी पढ़ाई, उसके भोजन, पोशाक, आराम और नींद हर बात का वे ख़याल रखते थे. ”



मनुबेन के नाम से जानी जानेवाली मृदुला दरअसल, रिश्ते में गांधीजी की पोती थीं.गांधीजी के भतीजे जयसुखलाल उनके पिता थे, जो कराची स्थित सिंधिया स्टीम नेविगेशन कंपनी में नौकरी करते थे.

मनु ने पांचवीं कक्षा तक की शिक्षा, अपने मां-बाप के साथ रहते हुए कराची में ही, हासिल की थी.इसके बाद की उनकी पढ़ाई-लिखाई, कितनी और कहां हुई, इस बारे में जानकारी नहीं मिलती.
  
12 साल की उम्र में ही उनकी मां का देहांत हो गया था.बताया जाता है कि जब वह सिर्फ़ 14 साल की थीं, तभी वह अपने पिता और अपने परिवार का साथ छोड़कर गांधीजी और उनकी पत्नी कस्तूरबा के पास रहने चली गई थीं.कस्तूरबा की मौत (22 फ़रवरी 1944) के बाद मनु बापू के बहुत क़रीब आ गई थीं.
 
1946 में सिर्फ़ 17 वर्ष की उम्र में मनुबेन गांधीजी की पर्सनल असिस्टेंट बन गईं थीं.फिर, गांधीजी की सेवा में ही पूरी तरह समर्पित होकर वह, उनकी एक अंतरंग सहयात्री और छड़ी (गांधीजी अपनी निजी सेविकाओं, जिनके कंधों के सहारे चला करते थे, को अपनी छड़ी कहते थे) के रूप में उनकी मौत तक साये की तरह, उनके साथ रहीं.नाथूराम गोडसे की गोलियों के शिकार बापू ने मनु की बांहों में दम तोड़ा.

अपनी सेक्सुअलिटी के साथ गांधीजी के प्रयोगों (जिसमें गांधीजी नंगी अवस्था में लड़कियों-औरतों के साथ मसाज कराते, नहाते और सोते थे), जिसे वे ‘ब्रह्मचर्य का प्रयोग’ कहते थे, का मनु के किशोर मन पर बहुत गहरा असर हुआ था.कच्ची उम्र में ही वे बापू को अपना सब कुछ न्योछावर कर चुकी थीं.

मनु बेन के दिलोदिमाग़ पर गांधीजी इस क़दर छाये हुए थे कि उनके सिवा कुछ और अथवा किसी और के बारे में वह सोच भी नहीं सकती थीं.यही वज़ह है कि उनके प्यार में पागल और हाथ धोकर पीछे पड़े गांधीजी के सचिव प्यारेलाल की ओर से उनकी बहन डॉ. सुशीला नायर द्वारा की गई विवाह की पेशकश को ठुकराते हुए उन्हें फटकार लगाई थी.इस मामले में गांधीजी भी पूरी तरह उनके साथ थे.
  
प्यारेलाल की दीवानगी और सुशीला बेन के साथ बढ़ती कड़वाहटों, उनके द्वारा दी जा रही धमकियों, साजिशों का ख़ुलासा स्वयं मनु बेन ने 28 दिसंबर 1946 तथा 1 जनवरी 1947 को बिहार के श्रीरामपुर में और फ़िर 31 जनवरी 1947 को नवग्राम में लिखी अपनी डायरी (हिंदी साप्ताहिक इंडिया टुडे, नई दिल्ली, 19 जून 2013 से साभार) में करती हैं.वह लिखती हैं-

” प्यारेलाल जी मेरे प्रेम में दीवाने हैं और मुझसे शादी करने के लिए दबाव डाल रहे हैं, लेकिन मैं कतई तैयार नहीं हूं क्योंकि उम्र, ज्ञान, शिक्षा और नैन-नक्श में भी वे मेरे लायक नहीं हैं. 

सुशीला बेन ने मुझे बापू के साथ सोने को लेकर सवाल उठाते हुए इसके लिए बुरे अंज़ाम भुगतने की धमकी दी और कहा कि मैं उनके भाई प्यारेलाल के साथ विवाह के प्रस्ताव पर फिर से विचार करूं.मगर मैंने उन्हें साफ़ मना करते हुए ये कह दिया कि प्यारेलाल में मुझे बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है, और इस बारे में वह आइंदा फिर कभी बात न करें.

जब मैंने यह बात बापू को बताई तो वे मुझसे सहमत हुए और कहा कि सुशीला बेन मुझसे जलती हैं.

बापू ने कहा कि प्यारेलाल सबसे ज़्यादा मेरे गुणों के प्रशंसक हैं.उन्होंने बताया कि प्यारेलाल ने उनसे भी कहा था कि मैं बहुत गुणी हूं. ”
   

मनु के लिए बापू केवल जीवन का एक सच्चा साथी ही नहीं थे, बल्कि वे उनके पथप्रदर्शक भी थे.उन पर मनु का अटूट विश्वास था.

31 जनवरी 1947 को बिहार के नवग्राम में ही मनुबेन अपनी डायरी में लिखती हैं-

” बापू ने कहा था कि यह (मसाज, साथ नहाने, नंगे सोने आदि सेवा कार्य) उनके ब्रह्मचर्य का यज्ञ है, और मैं उसका पवित्र हिस्सा हूं.अगर मैं इस प्रयोग में बेदाग़ निकल आई, तो मेरा चरित्र आसमान चूमने लगेगा. ”



गांधीजी द्वारा एक बार फिर तथाकथित ब्रह्मचर्य का प्रयोग शुरू किए जाने को लेकर उनके तमाम अनुयायी (जवाहरलाल नेहरु को छोड़कर) नाराज़ थे.कई लोगों को उनसे नफ़रत होने लगी थी और वे उनका साथ छोड़ने लगे थे.

गांधीजी के घनिष्ठ अनुयायी माने जानेवाले किशोर मशरूवाला ने तो इस प्रयोग में मनुबेन को ”माया” बताते हुए उनके चंगुल से मुक्त होने का आग्रह किया था.

सरदार पटेल ने 25 जनवरी, 1947 को लिखे अपने पत्र में गांधीजी से यह प्रयोग तत्काल रोक देने को कहा था.पटेल ने इसे गांधी की ”भयंकर भूल” बताते हुए कहा था कि इससे उनके अनुयायियों को गहरी पीड़ा होती थी.यह पत्र राष्ट्रीय अभिलेखागार में पटेल के दस्तावेज़ों में शामिल है.

मगर मनुबेन का बापू पर ये भरोसा ही था, जिसने तमाम लानत-मलानत और बदनामी के बावज़ूद उन्हें कमज़ोर नहीं होने दिया, और वह पहले की तरह ही उन्हें हर प्रकार की सेवाएं देती रहीं.इस बाबत 31 जनवरी, 1947 को (ब्रह्मचर्य के प्रयोग पर विवाद से संबंधित चर्चा में आगे) उन्होंने अपनी डायरी में, गांधीजी की कही उन बातों का ज़िक्र किया है, जो उनके भरोसे का आधार थीं.उन्होंने लिखा है-

” बापू ने मुझसे कहा था कि ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के बाद (अगर मैं बेदाग़ निकल आई तो) मुझे जीवन में एक बड़ा सबक मिलेगा और मेरे सिर पर मंडराते विवादों के सारे बादल छंट जाएंगें.
  
उन्होंने कहा कि ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उन्हें (मेरे साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में) शुद्ध रखे, उन्हें सत्य का साथ देने की शक्ति दे और निर्भय बनाए.

उन्होंने मुझसे कहा कि अगर सब हमारा साथ छोड़ जाएं, तब भी ईश्वर के आशीर्वाद से हम यह प्रयोग सफलतापूर्वक करेंगें और फिर इस महापरीक्षा के बारे में सारी दुनिया को बताएंगें. ”


अध्ययन से पता चलता है कि मनु को बापू से अलग करने के प्रयास में कई अन्य लोग भी जुटे हुए थे.मगर वह टस से मस नहीं हुईं.इस प्रकरण में, गांधीजी की एक अन्य निजी सेविका अम्तुस्सलाम का भी नाम मनुबेन की डायरी में मिलता है.26 फ़रवरी, 1947 को बिहार के हेमचर में मनुबेन लिखती हैं-


” आज जब अम्तुस्सलाम बेन ने मुझसे प्यारेलाल से शादी करने को कहा तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आया और मैंने कह दिया अगर उन्हें उनकी इतनी चिंता है तो वे स्वयं उनसे शादी क्यों नहीं कर लेतीं?

मैंने उनसे कह दिया कि ब्रह्मचर्य के प्रयोग उनके साथ शुरू हुए थे और अब अख़बारों में (बापू के साथ) मेरे फ़ोटो छपते देखकर उन्हें मुझसे जलन होती है और मेरी लोकप्रियता उन्हें अच्छी नहीं लगती. ”


बिहार के श्रीरामपुर में प्रवास के दौरान 21 दिसंबर, 1946 की रात की घटना का ज़िक्र करती हुई मनुबेन अपनी डायरी में लिखती हैं-    

” आज रात जब बापू, सुशीलाबेन और मैं एक ही पलंग पर सो रहे थे तो उन्होंने मुझे गले लगाया और प्यार से थपथपाया.उन्होंने बड़े ही प्यार से मुझे सुला दिया.उन्होंने लंबे समय बाद मेरा आलिंगन किया था.फ़िर बापू ने अपने साथ सोने के बावज़ूद (सेक्स के मामले में) मासूम बनी रहने के लिए मेरी तारीफ़ की.

लेकिन, दूसरी लड़कियों के साथ ऐसा नहीं हुआ.वीणा, कंचन और लीलावती (गांधीजी की अन्य सेविकाएं) ने मुझसे कहा था कि वे उनके (गांधीजी के) साथ अब और नहीं सो पाएंगीं. ”
   

14 नवंबर, 1947 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में गांधीजी ने मनु को चिंतित और दुखी देखा तो उन्होंने इसका कारण पूछा.दरअसल, मनु उन दिनों आभा (गाधीजी के भतीजे कनु गांधी की पत्नी) के चलते परेशान थीं.वह मनु के साथ बेरुख़ी से पेश आ रही थीं.

ये वही आभा थीं, जो कनु गांधी से शादी से पहले गांधीजी के साथ ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में शामिल रही थीं.अब भी वह बापू की ख़ास सेविकाओं में शामिल थीं और, लोगों के बीच उनका प्रभाव क़ायम था.
 
बहरहाल, मनु ने बापू को अपनी तकलीफ़ बयान की.बापू ने उन्हें ढाढस बंधाया और उनकी तारीफ़ भी की.बापू ने स्पष्ट किया कि ‘उनके दिल में मनु के लिए जो जगह है, वह कभी आभा नहीं ले सकेगी.वह सबसे अलग और सबसे महत्वपूर्ण हैं.’

इस बात का ज़िक्र मनुबेन ने बाक़ायदा अपनी डायरी में किया है.उन्होंने लिखा है-
     
” मैंने बापू को बताया कि इन दिनों आभा मुझसे बेरुख़ी से पेश आ रही है.यही वज़ह है.बापू ने कहा कि उन्हें ख़ुशी हुई कि मैंने मन की बात उन्हें बता दी, लेकिन अगर न बताती तो भी वे मेरे मन की अवस्था समझ सकते थे.

बापू ने कहा कि मैं अंतिम क्षण तक उनके साथ रहूंगी पर आभा के साथ ऐसा नहीं होगा.इसलिए वह जो चाहे उसे करने दो.उन्होंने मुझे बधाई दी कि मैंने न सिर्फ़ उनकी बल्कि औरों की भी पूरी निष्ठा से सेवा की है. ”


30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या की घटना ने मनुबेन को झकझोरकर रख दिया.गांधीजी के अंतिम संस्कार के वक़्त अपने दिल का हाल बयान करते हुए मनुबेन ने अपनी डायरी में लिखा है-

” जब चिता की लपटें बापू की देह को निगल रही थीं, मैं अंतिम संस्कार के बाद बहुत देर तक वहां बैठी रहना चाहती थी.सरदार पटेल ने मुझे ढाढस बंधाया और अपने घर ले गए.मेरे लिए वह सब अकल्पनीय था.

दो दिन पहले तक बापू हमारे साथ थे.कल तक कम-से-कम उनका शरीर तो था और आज मैं एकदम अकेली हूं.मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है. ”


गांधीजी के जाने के बाद हालात बदल गए थे.गांधीजी के अनुयायियों और खद्दरधारी नेताओं को मनुबेन अब चुभने लगी थीं.उपेक्षित और अपमानित होकर रहना मुमकिन नहीं था और आख़िरकार, उन्हें दिल्ली छोडनी पड़ी.

मनुबेन की डायरी में अगली और आख़िरी प्रविष्टि 21 फ़रवरी 1948 की है, जब वह दिल्ली से ट्रेन में बैठकर गुजरात के भावनगर के पास स्थित महुवा के लिए रवाना हुईं.इसमें उन्होंने लिखा-

” आज मैंने दिल्ली छोड़ दी. ”



महुवा में मनुबेन ने अपने जीवन के शेष क़रीब 22 साल एकदम अकेले और केवल बापू की यादों के सहारे काटे.वहां वे बच्चों का एक स्कूल चलाने के साथ-साथ भगिनी समाज नामक एक संस्था भी स्थापित की थी, जो महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए काम करती थी.

भगिनी समाज की 22 सदस्यीय टीम में भानुबेन लाहिड़ी मनुबेन की मुख्य सहयोगी थीं.स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से ताल्लुक रखनेवाली भानुबेन को बख़ूबी याद है कि उस समय भी मनुबेन के दिलोदिमाग़ पर गांधी जी का कितना असर था.वह बताती हैं कि एक बार जब मनुबेन ने एक ग़रीब लड़की के विवाह के लिए उनसे चुनरी ली तो बोल पड़ीं-

” मैं तो स्वयं को मीराबाई मानती हूं, जो केवल और केवल अपने ‘यामलो’ (कृष्ण) के लिए जीती रही. ”



जिस तरह मनु बापू के जीवन के अंतिम क्षणों तक साथ रही, ठीक उसी तरह बापू भी उसकी अंतिम सांस तक उसके मन मंदिर में बसे रहे.ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में बापू की सबसे अहम साथी गुमनामी में ही इस दुनिया से विदा हो गई.
                         



तथ्यों का विश्लेषण

गांधीजी मनुबेन के लिए एक मां थे या उनके अंदर की मीरा के श्याम या फिर कुछ और इसे परखने के लिए गांधीजी और मनुबेन के जीवन से जुड़े दस्तावेज़ी साक्ष्य पर्याप्त रूप में उपलब्ध हैं.गांधीजी के चरित्र का पोस्टमॉर्टेम तो अनेकानेक देशी-विदेशी लेखक और समीक्षक बहुत पहले ही कर चुके हैं, और वे अब केवल राजनीतिक उपकरण मात्र रह गए हैं.मनुबेन का भी वही हाल है.राष्ट्रीय अभिलेखागार में उनकी डायरी पहुंचने और प्रकाश में आने के बाद पिछले आठ सालों में उन का भी बहुत छीछालेदर हो चुका है.

सच कहा जाए तो गांधीजी और मनुबेन को परिभाषित और विश्लेषित करने के लिए मनुबेन की अकेली डायरी ही पर्याप्त है, जिसमें जगह-जगह ख़ुद गांधीजी के हस्ताक्षर हैं.इसलिए उसपर सवाल उठाया नहीं जा सकता.इसके अलावा काफ़ी सारा साहित्य उपलब्ध है तमाम रिश्ते नातों की हक़ीक़त बयान करने के लिए.
  
खोखली नींव पर खड़ी दीवारें और उन दीवारों पर टिकी छत का वजूद कैसा होता है, ये सभी जानते हैं.
 



गांधी मनुबेन की ‘मां’ थे?

बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलता है कि मनुबेन ने कुछ ही स्थानों पर अथवा बहुत कम बार गांधीजी और अपने बीच संबंध के संदर्भ में मां शब्द का प्रयोग किया है.ख़ासतौर से निचले स्तर की बातों और संदर्भों की चर्चा के बाद या फ़िर शुरुआत में ही, उन्होंने ऐसा किया है.

ऐसा लगता है कि मां शब्द को उन्होंने या तो आडंबर या ज़रूरी ओट के रूप में लिया है.

दूसरी ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि मनुबेन ‘बापू मेरी मां हैं’ की तुलना में इस बात पर ज़्यादा बल देती हैं कि ‘बापू ख़ुद को मेरी मां’ कहते हैं.उदाहरण के लिए 18 जनवरी, 1947 की दिल्ली के बिड़ला हाउस में उनकी डायरी की प्रविष्टि को देखें, तो ये साबित हो जाता है.यहां मनुबेन लिखती हैं-

” …..बापू बोले कि उनके जीवन में (वास्तव में- ब्रह्मचर्य के प्रयोगों में) मेरी जैसी जहीन लड़की (वास्तव में- कमसिन और ख़ूबसूरत लड़की) कभी नहीं आई और यही वजह थी कि वे ख़ुद को सिर्फ़ मेरी मां कहते थे. ” 

 

 
अब सवाल ये है कि गांधीजी मनुबेन की सिर्फ़ मां ही क्यों थे? बाप क्यों नहीं थे? या फ़िर मां-बाप, दोनों (माता भी और पिता भी) क्यों नहीं थे? अक्सर ऐसा देखा जाता है कि मां या बाप में से किसी एक के गुज़र जाने के बाद, जो ज़िन्दा होता है वह दोनों की ही भूमिका में रहता/समझा जाता है.

गांधीजी क्या इसलिए मनुबेन के ‘पिता’ नहीं थे (पिता नहीं बने) क्योंकि उनके पिता अभी जीवित थे और मां बन गए, क्योंकि उनकी मां का देहांत हो चुका था? वास्तव में, ये तर्क भी उचित नहीं ठहरता क्योंकि उस वक़्त मनुबेन कोई दूध पीती बच्ची नहीं थीं, जो एक मां के बिना ज़िन्दा रहना मुश्किल था, बल्कि उस वक़्त तो उनकी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा की ज़रूरत पूरी करने के लिए मां के बजाय एक बाप की ज़रूरत ज़्यादा थी.ऐसे में, बापू मनु की मां/केवल मां बने, इसे क्या कहेंगें? क्या ये भावनात्मक जाल नहीं था? यह, कोमल मन पर क़ब्ज़ा करने का, एक षडयंत्र ही तो लगता है.

ख़ुद को मनु की मां बतानेवाले गांधीजी, इससे पहले ख़ुद को सुशीला का पिता बता चुके थे.ये पता नहीं चलता कि अम्तुस्सलाम से क्या रिश्ता जोड़ा था, और ऐसे पारिवारिक संबंध-संबोधनों की इस यज्ञ, ‘प्रयोग’ या ‘अभ्यास’ में ज़रूरत क्या थी- और एक ही तरह की सेविकाओं के साथ अलग-अलग तरह के संबंध-संबोधन क्यों जोड़े गए?
    
गांधीजी को कई जगहों पर समलैंगिक, पैनसेक्सुअल, कामविकृत और पता नहीं क्या-क्या बताया गया है, हरमन कलेनबाख और पोलक दंपत्ति (हेनरी पोलक और मिली पोलक) से उनके रिश्ते के चर्चे पढ़ने-सुनने को मिलते हैं.बहरहाल, विभिन्न लड़कियों-महिलाओं से उनके संबंध जगजाहिर हैं और उनकी सही संख्या बताना कठिन है.डेढ़-दो दर्ज़न नाम तो उंगलियों पर गिनाए जा सकते हैं, जिनमें से कईयों ने उनका साथ छोड़ दिया था और उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को सेक्स स्कैंडल बताया था.

कई लेखकों-विचारकों का स्पष्ट मत है कि कि ब्रह्मचर्य के प्रयोग के नाम पर एक नाबालिग लड़की को गिनी पिग (सूअर की आकृति और चूहे के आकार का एक जीव, जिसपर वैज्ञानिक परीक्षण होते हैं, बलि का बकरा) की तरह इस्तेमाल किया गया.उसे सेक्स ग़ुलाम बनाकर रखा गया था.
           


गांधी मनुबेन के मन की मीरा के ‘श्याम’ थे?

मीरा और श्याम तो आध्यात्मिक प्रतिमान हैं, पवित्र और पूज्य हैं, मनु-बापू के संबंधों को, दुनियावी की प्रसिद्द और शीर्ष स्तरीय प्रेमकथाओं के नायक-नायिका हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट और लैला-मजनूं से जोड़कर देखना, किसी भी प्रकार से अनुचित एवं अन्यायपूर्ण कार्य होगा.वहां विशुद्ध प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा है, तो यहां यौनविकृति और मनोरोग का संगम साफ़ दिखाई देता है.

७७ साल के एक बूढ़े व्यक्ति और 17 साल की एक नाबालिग लड़की के बीच नंगे सोने वाली रात्रि-चर्या को क्या प्रेम कहा जा सकता है? नहीं, यह प्रेम और प्रेम शब्द, दोनों का ही अपमान होगा.

दरअसल, गांधीजी के बालिका मनु के साथ सेक्स के प्रयोगों का उनके (मनुबेन के) मनोमस्तिष्क पर गहरा असर हुआ था.वह मनोरोग की शिकार हो गई थीं.

एक कोमल ह्रदय नवयौवना/कमसिन लड़की द्वारा, अविवाहित विधवा के रूप में अपने काल्पनिक पति की यादों के सहारे पूरी ज़िंदगी बिताने का लिया गया निर्णय, मन की असामान्य अवस्था को ही दर्शाता है.

जाने माने मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ मनु-बापू के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों और उनके प्रभावों के बारे में कहते हैं-

” इन प्रयोगों के दौरान महात्मा गांधी अपनी भावनाओं पर इतने अधिक केंद्रित हो गए थे कि मुझे लगता है कि उन्होंने इन प्रयोगों में शामिल महिलाओं पर उनके प्रभाव को अनदेखा करने का निर्णय लिया होगा. ”


अध्ययनों में ये पाया गया है कि अन्य आयुवर्गों की तुलना में, किशोरावस्था उम्र का वह पड़ाव है, जब किसी प्रकार की यौनक्रियाओं का सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ता है.विभिन्न प्रकार के संक्रमणों के साथ-साथ मूड संबंधी विकारों जैसे एंग्जाइटी और डिप्रेशन की आशंका भी ज़्यादा हो सकती है.

गांधीजी ने मनुबेन के मन पर कितना गहरा असर डाला था, इसकी ज़बरदस्त झलक 19 अगस्त, 1955 को जवाहलाल नेहरु के नाम लिखे गए मोरारजी देसाई के पत्र में मिलती है.उस वक़्त मनुबेन एक ‘अज्ञात रोग’ के इलाज़ के लिए बॉम्बे हॉस्पिटल में भर्ती थीं.वहां उनकी हालात देखकर मोरारजी देसाई ने लिखा था-

” मनु की समस्या शरीर से अधिक मन की है.लगता है, वे जीवन से हार गई हैं और सभी प्रकार की दवाओं से उन्हें एलर्जी हो गई है. ”



ऐसा लगता है कि गांधीजी के देहांत के बाद उनकी दूसरी सेविकाओं को पुरस्कारस्वरुप जो अवसर, प्रोत्साहन और प्रोन्नति की प्राप्ति हुई, वह सब, यदि मनुबेन को भी मिलता और वे उपेक्षित न होतीं, तो हालात कुछ दूसरे ही होते और शायद इस तरह की बातें भी सुनने को नहीं मिलतीं.                                   
           
        
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