इतिहास
गोडसे का वो बयान, जिसे सुनकर अदालत में लोगों की आंखें भर आईं
. नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपने बयान में कहा – मैंने पहले ही ये सोच-समझ लिया था कि गांधी-वध के बाद मैं पूरी तरह बर्बाद हो जाऊंगा, लेकिन चूंकि मेरी मातृभूमि और करोड़ों हिन्दू मेरी ज़ान से ज़्यादा प्रिय हैं, इसलिए ऐसा किया. गोडसे ने ये भी कहा- ‘अगर देशभक्ति/राष्ट्र के प्रति समर्पण पाप है, तो मैं मानता हूं कि मैंने वह पाप किया है और उसके लिए कोई दया नहीं चाहता और न मैं यह चाहता हूं कि कोई दूसरा मेरे लिए दया की भीख मांगे’
गोडसे को कोई हत्यारा कहता है तो कोई सिरफिरा.कुछ लोग उन्हें एक पागल हिन्दू बताकर नफ़रत के भाव व्यक्त करते हैं.क़िताबों में भी यही लिखा है- एक पागल हिन्दू ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी.अधिकांश लोगों की यही राय है.मगर क्या वास्तव में नाथूराम गोडसे का वैसा ही चरित्र था, जैसा हमें बताया-सुनाया जाता है? क्या गांधी भी वैसे ही थे जैसा हम जानते हैं? गोडसे और गांधी को क़रीब से जानने वाले और उनके जीवन के बारे में अध्ययन करने वाले कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बिल्कुल अलग ही राय रखते हैं.बेल्जियम के इंडोलॉजिस्ट और गांधी की हत्या मामले का अध्ययन करने वाले कोनराड एल्स्ट का ये बड़ा स्पष्ट मानना था कि नाथूराम गोडसे गांधी कहीं ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष थे.
गांधी की हत्या मामले की सुनवाई कर रहे जज के सामने जो बयान गोडसे ने दिया, उसे सुनकर अदालत में मौज़ूद सभी लोगों को आंखें भर आई थीं और कई तो रोने लगे थे.
जस्टिस जी डी खोसला ने अपनी क़िताब ‘ द मर्डर ऑफ़ द महात्मा‘ में लिखा है कि अगर उस समय अदालत में मौज़ूद लोगों को जूरी बना दिया जाता और उनसे फ़ैसला देने को कहा जाता, तो अवश्य ही वे प्रचंड बहुमत से नाथूराम को निर्दोष होने का फ़ैसला देते.
नाथूराम गोडसे का बयान
नाथूराम वि. गोडसे का यह बयान जस्टिस जी डी खोसला की क़िताब ‘द मर्डर ऑफ़ द महात्मा’ और गोपाल गोडसे की क़िताब ‘गांधी वध क्यों‘ पर आधारित अदालत के सामने दिया गया बयान है.अच्छी तरह समझने की दृष्टि से इसे निम्नलिखित बिन्दुओं में व्यक्त कर सकते हैं.
हिंदुत्व का पूजारी और समतामूलक समाज का पक्षधर
” एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने क कारण मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू इतिहास और हिन्दू संस्कृति की पूजा करता हूं.इसलिए मैं संपूर्ण हिंदुत्व पर गर्व करता हूं.जब मैं बड़ा हुआ तो मैंने अपने आप में, खुले विचारों के साथ ऐसा जीवन जीने की प्रवृति विकसित की, जो किसी भी राजनैतिक और धार्मिक ‘वाद’ के पाखंड और अंधविश्वासी निष्ठा से मुक्त हो.इसीलिए, मैंने जन्म-आधारित जाति-व्यवस्था और छुआछूत को मिटाने के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया.मैं ये मानता हूं कि सभी को समान धार्मिक और सामाजिक अधिकार मिलना चाहिए क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी जाति या पेशे में जन्म लेने के कारण छोटा या बड़ा नहीं होता.छोटा या बड़ा तो लोग योग्यता और विचारों से बनते हैं, जो वे ख़ुद अपने अंदर विकसित करते हैं.भेदभाव और छुआछूत मिटाने के मक़सद से ही मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित सहभोज कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करता था, जहां हजारों की संख्या में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार और भंगी इकठ्ठे होते थे.हम सभी वहां जाति के बंधनों को तोड़कर एक परिवार की तरह एक साथ बैठकर भोजन करते थे. ”
अध्ययन-चिंतन और उद्देश्य
” मैंने दादाभाई नौरोजी, विवेकानंद, गोखले, तिलक की रचनाओं-भाषणों के साथ-साथ भारत और विश्व के प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ़्रांस, अमरीका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को पढ़ा है.इतना ही नहीं, मैंने समाजवाद और मार्क्सवाद के सिद्धांतों का भी अध्ययन किया है.लेकिन सबसे बढ़कर मैंने वीर सावरकर और गांधीजी ने जो कुछ लिखा और बोला है, उसका मैंने बहुत बारीकी से अध्ययन किया, क्योंकि मेरे विचार से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले क़रीब तीस वर्षों में भारतीय जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभाई है.इन समस्त अध्ययन और चिंतन से मुझे विश्वास हो गया है कि, सबसे बढ़कर, एक देशभक्त और यहां तक कि एक मानवतावादी के रूप में हिंदुत्व और हिन्दुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्त्तव्य है.क्या यह सच नहीं है कि लगभग तीस करोड़ हिन्दुओं की स्वतंत्रता और उनके न्यायसंगत हितों की रक्षा करना समस्त मानव जाति के पांचवे भाग की स्वतंत्रता की रक्षा और कल्याण है?इस पक्के इरादे के साथ ही मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी, नए हिन्दू संगठनों की विचारधारा और उनके कार्यक्रमों में लगा देने का फ़ैसला किया, क्योंकि मुझे यक़ीन है कि सिर्फ़ इसी तरीक़े से मेरी मातृभूमि हिंदुस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को हासिल किया और सुरक्षित रखा जा सकता है और इसके साथ ही मानवता की सच्ची सेवा भी हो सकेगी. ”
मुस्लिम अत्याचारियों के साथ खड़े होते थे गांधी
” 1946 और उसके बाद नोआखाली में सुहरावर्दी के सरकारी संरक्षण में हिन्दुओं पर किए गए मुस्लिम अत्याचारों से हमारा खून खौल उठा.इसी दौरान हमने देखा कि गांधीजी उसी सुहरावर्दी के समर्थन/रक्षा में आगे आए थे और प्रार्थना सभाओं में भी उसे शहीद साहब (शहीद आत्मा) जैसे शब्द से नवाज़ते थे.इतना ही नहीं, वहां से दिल्ली आने के बाद, गांधीजी ने भंगी कालोनी के एक हिन्दू मंदिर में अपनी प्रार्थना सभाएं आयोजित करनी शुरू की और विरोध के बावज़ूद उस हिन्दू मंदिर में प्रार्थना के एक हिस्से के रूप में क़ुरान के कुछ अंश भी पढ़ने लगे.हिन्दू उपासकों के लाख मना करने पर भी वे नहीं माने और यह सब चलता रहा.वहीँ मुसलमानों के विरोध के बाद वे मस्ज़िद में गीता पढ़ने की हिम्मत नहीं कर सके क्योंकि उन्हें मालूम था कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो मुसलमानों की कितनी भयानक प्रतिक्रिया होगी.लेकिन उनका यह विश्वास कि वह सहिष्णु हिन्दुओं की भावनाओं को सुरक्षित रूप में कुचल सकते थे, उसे झूठलाने के लिए मैंने गांधीजी को यह साबित करने की ठानी कि जब उनका अपमान होगा तो हिन्दू भी सहनशील हो सकते हैं. ”
कांग्रेस सरकार और मुसलमानों का हिन्दुओं पर अत्याचार
” इसके (गांधी के भेदभावपूर्ण बर्ताव) ठीक बाद पंजाब और भारत के दूसरे हिस्सों में मुसलमानों ने भयानक उत्पात मचाया.लेकिन जब बिहार और कलकत्ता (अब कोलकाता) में हिम्मत कर इनके विरोध में हिन्दू मज़बूती के साथ उठ खड़े हुए तो कांग्रेस सरकार उन्हें ही सताने लगी, उनपर गोलियां चलवाई.पंजाब और अन्य स्थानों पर.हमारा डर सच होता दिख रहा था; और फ़िर भी हमारे लिए यह कितना दर्दनाक और शर्मनाक था कि 15 अगस्त 1947 को रौशनी और उत्सवों के साथ मनाया गया, जबकि पूरा पंजाब मुसलमानों द्वारा लगाई गई आग में धू-धू कर जल रहा था, और हिन्दुओं का खून नदियों में बह रहा था.मेरे अनुनय-विनय के कारण हिन्दू महासभाईयों ने उत्सव और कांग्रेस सरकार का विरोध और मुसलमानों द्वारा किए जा रहे हमलों के खिलाफ़ संघर्ष छेड़ने का फ़ैसला किया. ”
गांधी की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति
” पांच करोड़ भारतीय मुसलमान अब देशवासी नहीं रहे/पाकिस्तानी हो गए.पश्चिमी पाकिस्तान में वे ग़ैर-मुसलमान अल्पसंख्यक जो यहां सदियों से रहते आए थे, उन्हें वहां से मार-मार कर भगा दिया गया या फ़िर उनका क़त्ल कर दिया गया.यही प्रक्रिया पूर्वी पाकिस्तान में उग्र रूप से काम कर रही है.11 करोड़ लोग अपने घरों से उजड़/उखड़ गए हैं, जिनमें कम से कम 40 लाख मुसलमान हैं, और जब मैंने पाया कि इतने भयानक परिणामों के बाद भी गांधीजी तुष्टिकरण की उसी नीति पर चलते रहे तो मेरा खून खौल उठा और मैं बर्दाश्त नहीं कर सका.वास्तव में, अब मैं और सहन नहीं का सकता था.मेरा मत्लब व्यक्तिगत रूप से गांधीजी के खिलाफ़ कठोर शब्दों का इस्तेमाल करना नहीं है, न ही मैं उनकी नीति और तरीक़ों के आधार से अपनी पूरी असहमति और अस्वीकृति को छुपाना चाहता हूं.गांधीजी वास्तव में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अनुसरण में वह करने में सफल रहे जो अंग्रेज़ हमेशा से करना चाहते थे.उन्होंने भारत को विभाजित करने में उनकी मदद की और अभी तक यह निश्चित नहीं है कि उनका (अंगेजों का) शासन समाप्त हो गया है या नहीं. ”
विफलताओं और समस्याओं के लिए गांधी अकेले दोषी
” 32 वर्षों की संचित उत्तेजना, जो उनके अंतिम मुस्लिम समर्थक उपवास के रूप में परिणत हुई, ने मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि गांधीजी के अस्तित्व को तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए.दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने पर उन्होंने एक व्यक्तिपरक मानसिकता विकसित की जिसके तहत उन्हें अकेले ही सही या ग़लत का अंतिम न्यायाधीश होना था.अगर देश को उनका नेतृत्व चाहिए तो उसे उन अचूकता को स्वीकार करना होगा; अगर ऐसा नहीं होता, तो वह कांग्रेस से अलग हो जाते और अपने तरीक़ों से चलते रहते.ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता, या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वमीमांसा तथा आदिम दृष्टिकोण में स्वर में स्वर मिलाए अथवा उनके बिना काम चलाए.वे अकेले ही सबके और हर चीज़ के जज थे.वे सविनय अवज्ञा आंदोलन अ मार्गदर्शन करने वाले ‘मास्टर ब्रेन’ (प्रमुख दिमाग, सर्वेसर्वा) थे; उस ‘आंदोलन की तकनीक’ को कोई नहीं जानता था; वह अकेले जानते थे कि इसे कब शुरू करना है और कब इसे वापस लेना है.आंदोलन सफल हो या असफल, इससे चाहे कितनी बड़ी समस्या खड़ी हो जाए या राजनैतिक उलटफेर हो जाए महात्मा की अचूकता पर कोई फ़र्क नहीं पड़ सकता.‘ एक सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ यह अपनी अचूकता की घोषणा करने उनका अपना फ़ार्मूला था और उनके अलावा कोई नहीं जानता था कि सत्याग्रही कौन था.इस तरह गांधीजी अपने ही मामले में न्यायाधीश और वक़ील बन गए.ये बचकाना पागलपन और कठोर तपस्या के साथ के साथ मिलकर जीवन के, अथक परिश्रम और उदात्त चरित्र ने गांधीजी को दुर्जेय और अप्रतिरोध्य बना दिया.बहुत से लोग, जो ये सोचते थे कि गांधीजी की राजनीति विवेकहीन थी, उन्हें या तो कांग्रेस को छोड़ना पड़ा या फ़िर अपना दिमाग गांधी के चरणों में डालना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे.ऐसी पूर्ण ग़ैर-ज़िम्मेदारी की स्थिति में गांधीजी ग़लती के बाद ग़लती, विफलता के बाद विफलता और पैदा हुई अनेकानेक समस्याओं के लिए दोषी थे.उनके 33 वषों के राजनीतिक प्रभुत्व काल में एक उनकी एक भी राजनीतिक जीत/सफलता का दावा नहीं किया जा सकता. ”
सत्य और अहिंसा का नाटक
” जब तक गांधीवादी पद्धति उत्थान पर थी, सिर्फ़ और सिर्फ़ असफलता और निराशा अपरिहार्य परिणाम थी.गांधीजी ने हर उत्साही क्रांतिकारी, उग्र और ज़ोरदार व्यक्ति और समूह का विरोध किया और लगातार अपने चरखे, अहिंसा और सत्य को बढ़ावा दिया.गांधीजी के 34 वर्षों के सर्वोत्तम प्रयासों के बाद चरखे ने मशीन से चलने वाले कपड़ा उद्योग का 200 प्रतिशत से अधिक विस्तार किया.मगर अब भी इसे (खादी कपड़े को) देश के एक फ़ीसदी लोग भी नहीं पहन पा रहे हैं/पहनते.जहां तक अहिंसा का सवाल है, 40 करोड़ लोगों (भारतीयों) को छोड़कर दुनिया में कहीं भी इतने ऊंचे स्तर पर अपने जीवन को नियंत्रित करना बेतूका तर्क था और 1942 में यह साफ़तौर पर चकनाचूर हो गया था.सत्य के संबंध में मैं कम से कम इतना कह सकता हूं कि औसत कांग्रेसी की सच्चाई किसी भी तरह से गली-कूचे के किसी आदमी की तुलना में उच्च-क्रम का नहीं है, और यह कि बहुत बार यह असत्य है, वास्तव में ढ़ोंग वाली सच्चाई के पतले लिबास में ढंका हुआ है. ”
नेहरु के लिए मार्ग बनाते थे गांधी
” मुझे अत्यंत दुख होता है जब नेहरु दोमुंही बातें करते हैं.हमेशा उनकी कथनी और करनी में फ़र्क होता है.वे यहां-वहां कहते रहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है जबकि वे भूल जाते हैं कि पाकिस्तान को पंथधारित यानि इस्लामिक देश बनाने में उनका एक बड़ा योगदान है और उनका यह कार्य गांधीजी द्वारा लगातार मुसलमानों के तुष्टिकरण की नीति के कारण बहुत आसान हो गया था. ”
जिन्ना के आगे बेबस गांधी
” गांधीजी की आंतरिक आवाज़, उनकी आध्यात्मिक शक्ति और उनका अहिंसा का सिद्धांत, जिनसे यहां बहुत जुड़ा दिखाई देता है, जिन्ना की लौह-शक्ति के आगे सारा चकनाचूर हो गया और शक्तिहीन साबित हुआ. ”
राष्ट्रहित के मामलों में भी अहंकार और बेईमानी
” यह जानते हुए कि अपनी आध्यात्मिक शक्तियों से गांधीजी जिन्ना को प्रभावित नहीं कर सकते, उन्हें या तो अपनी नीति बदलनी चाहिए थी या अपनी हार क़बूल कर लेनी चाहिए थी और जिन्ना तथा मुस्लिम लीग से निपटने के लिए विभिन्न राजनीतिक विचारों के दूसरे लोगों को रास्ता देना चाहिए था.लेकिन गांधीजी ऐसा करनेके लिए पर्याप्त ईमानदार नहीं थे.राष्ट्रहित के लिए भी वह अपने अहंकार या स्वयं को नहीं भूल सके.ऐसे थे हालात.ऐसे में, व्यावहारिक राजनीति के लिए कोई जगह नहीं बची, जबकि हिमालय जैसी बड़ी-बड़ी ग़लतियां की जा रही थीं. ”
विभाजन ने भड़का दी क्रोध की ज्वाला
” जो लोग मुझे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं वे मुझे शांत स्वभाव के व्यक्ति के रूप में लेते हैं.लेकिन जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने गांधीजी की सहमति से देश के टुकड़े कर दिए- जिसे हम देवता के रूप में पूजते हैं, मेरा मन भीषण क्रोध के विचारों से भर गया. ”
ज़ान से ज़्यादा क़ीमती देश
” मैंने अपने मन में सोचा और पूर्वाभास किया कि गांधीजी को मारने के बाद मैं पूरी तरह बर्बाद हो जाऊंगा.नफ़रत के सिवा मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा और मैं अपनी वह इज्ज़त खो दूंगा, जो मेरे लिए मेरी ज़ान से भी ज़्यादा क़ीमती है.लेकिन साथ ही मुझे लगा कि गांधी-विहीन भारत की राजनीति निश्चित रूप से व्यावहारिक होगी, ज़वाबी कार्रवाई में सक्षम होगी और सशस्त्र बलों के शक्तिशाली होगी.निःसंदेह मेरा अपना भविष्य पूरी तरह बर्बाद हो जाएगा लेकिन मेरा देश भारत पाकिस्तान की घुसपैठ से बच जाएगा.लोग भले ही मुझे बुद्धिहीन या मूढ़ कहकर पुकारें, लेकिन राष्ट्र उस मार्ग पर चलने के लिए स्वतंत्र होगा, जो उस तर्क पर आधारित है जिसे मैं स्वस्थ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक समझता हूं.इस सवाल पर पूरी तरह से विचार करने के बाद मैंने इस मामले में अंतिम फ़ैसला लिया लेकिन मैंने इस बारे में किसी से कुछ भी नहीं कहा.मैंने अपने दोनों हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर गांधीजी के ऊपर गोलियां दाग दीं. ”
हिन्दुओं को बर्बाद करने वाले को मिटाया
” अब मेरे पास कहने के लिए शायद ही कुछ बचा हो.यदि किसी देश के प्रति समर्पण पाप है, तो मैं मानता हूं कि मैंने वह पाप किया है.यदि यह मेधावी है, तो मैं विनम्रतापूर्वक इसके गुण का दावा करता हूं.मुझे पूरा यक़ीन है कि यदि नश्वर द्वारा स्थापित न्यायालय से परे कोई अन्य न्यायालय हो तो मेरे कृत्य को अन्यायपूर्ण नहीं माना जाएगा.अगर मरने के बाद कोई ऐसी जगह न हो जहां पहुंचना हो या जाना हो, तो कहने के लिए कुछ नहीं रहता.मैंने पूरी तरह से मानवता के लाभ के लिए किए गए कार्यों के आधार पर ही यह कार्य किया है.मैं यह ज़रूर मानता हूं कि मेरी गोलियां एक ऐसे व्यक्ति पर चलाई गई थीं, जिसकी नीतियों और कृत्यों ने करोड़ों हिन्दुओं को सिर्फ़ और सिर्फ़ बर्बाद किया. ”
देश की एकता और अखंडता के उदेश्य से उठाया क़दम
” मैंने यह कार्य किया ताकि हिंदुस्तान के नाम से जाना जाने वाला देश फ़िर से एक हो जाए और पराजयवादी मानसिकता को त्यागकर हमलावरों के सामने झुकने की बजाय लोग एक साथ खड़े होकर उनका डटकर मुक़ाबला करें.मेरी ईश्वर से भी यही प्रार्थना है. ”
दया नहीं, इंसाफ़ चाहिए
” मैंने जो भी किया है उसकी पूरी ज़िम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के समक्ष उपस्थित हूं.मुझे यह पूरा विश्वास है कि न्यायाधीश ऐसा आदेश सुनाएंगें, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा.लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूं कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं चाहता और न मैं ये चाहता हूं कि कोई दूसरा मेरे लिए किसी से दया की भीख मांगे.मेरी कार्रवाई के नैतिक पक्ष के बारे में मेरा विश्वास हर तरफ़ से की गई आलोचनाओं से भी नहीं डगमगाया है.मुझे कोई संदेह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे इस कार्य को तौलेंगें और भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगें.जय हिन्द.अखंड भारत. ”
गोडसे के बयान का विश्लेषण
गोडसे का बयान गोडसे की उस सोच को दर्शाता है, जिसमें कोई व्यक्ति अपने देश और उसकी मिट्टी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने की तीव्र इच्छा रखता है.
इसमें, व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रधर्म निभाने के लिए वह कड़े निर्णय और बल प्रयोग का रास्ता चुनता है.
इसके बारे में अलग-अलग विद्वानों की अलग-अलग राय है.कुछ विचारक इसे सच्ची देशभक्ति तो कुछ उग्र राष्ट्रवाद का नाम देते हैं.
बहरहाल, देशभक्ति तो हर नागरिक की रगों में रक्त के रूप में प्रवाहित होनी चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसे विचारों वाले गरम दल के लोगों में गिने जाते थे.उन्हें भी जन समर्थन प्राप्त था मगर, तत्कालीन भारत में वे क्षुद्र राजनीति के शिकार हो गए.
गांधी की हत्या का समर्थन नहीं किया जा सकता, लेकिन भारत के विभाजन और उस दौरान हुए भीषण नरसंहार को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, हिन्दुओं और हिंदुस्तान की बर्बादी को भी नकारा नहीं जा सकता, जो कुछ स्वार्थी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का ही परिणाम था.
गोडसे इसे सहन नहीं कर सके और उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाया.
मगर सवाल ये भी है कि देश के सैनिक हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो क्या देश की रक्षा हो पाएगी? देश के दुश्मन हर जगह पाए जाते हैं – देश के बाहर भी और देश के अंदर भी.
एक और सवाल है.गांधी ने स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को सिर्फ़ माफ़ ही नही किया, उसे गले भी लगाया था.इसी तरह गांधी की हत्या/वध करने वाले गोडसे को गले लगाना छोड़िए, क्या उसे माफ़ भी नहीं किया जा सकता था?
उसके लिए क्या फांसी ही एकमात्र सज़ा थी?
नाथूराम गोडसे को तो देश की सर्वोच्च अदालत में अपील का अधिकार भी नहीं दिया गया?
गांधी वध से बौखलाए गांधी-भक्तों और तथाकथित अहिंसक लोगों ने जो 10 हज़ार से ज़्यादा चितपावन ब्राह्मणों का नरसंहार किया औरत और बच्चों आग में जिंदा झोंक दिया, उसके लिए किसी को सज़ा मिली क्या?
उनके लिए कोई जांच क्यों नहीं हुई, अदालत क्यों नहीं सजी?
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