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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

क्षार सूत्र क्या है? यह कैसे बनता है, और किन-किन बीमारियों में इस्तेमाल होता है जानिए

मेडिकल साइंस कहता है कि शरीर के कई ऐसे हिस्से हैं जिन पर सर्जरी के औजारों का प्रयोग नहीं होना चाहिए.एनस या गुदा (मलद्वार) भी ऐसा ही अंग है.ऐसे में इससे संबंधित रोगों, जैसे पाइल्स, फिशर, फिस्टुला, आदि की एलोपैथी में सर्जरी को अनुचित ही कहा जायेगा.इसके विपरीत, क्षार सूत्र चिकित्सा को दुनियाभर में स्वीकार किया जा रहा है.यही सबसे अच्छा विकल्प है.

क्षार सूत्र आयुर्वेद की एक पैरा सर्जिकल तकनीक है, जो मेडिकेटेड या औषधियुक्त धागे के रूप में विख्यात है.शास्त्रों में सूत्र रूप से वर्णित क्षार सूत्र की चिकित्सा विधि कई बीमारियों, जैसे बवासीर, फिशर, फिस्टुला, आदि को समूल नष्ट करने में सक्षम मानी जाती है.विशेषज्ञों के मुताबिक़ कई बार एलोपैथिक सर्जरी के बाद भी मरीज़ पूरी तरह ठीक नहीं हो पाता है, और इसके दुष्प्रभाव भी होते हैं, जबकि क्षार सूत्र विधि से ऐसे रोगों का जड़ से इलाज संभव है.महर्षि सुश्रुत, चरक और वाग्भट की इस क्षार सूत्र विधि को विकसित कर व्यावहारिक स्वरुप में स्थापित करने का श्रेय बीएचयू (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) को है.अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान, दिल्ली; राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर; स्नातकोत्तर अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, जामनगर आदि शीर्ष सरकारी संस्थान बेहतर क्षार सूत्र तकनीक प्रदान करते हैं.डब्ल्यूएचओ (WHO) भी क्षार सूत्र को बढ़ावा देता है, जिसे उसकी वेबसाइट पर देखा जा सकता है.

दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान और सर्जन-प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता (फ़ोटो- सोशल मीडिया)

आयुर्वेद और योग जैसी प्राचीन पद्धतियों की अतुलनीय विरासत वाले भारत में हज़ारों सालों से क्षार सूत्र द्वारा इलाज किया जा रहा है.अब तो इसे एलोपैथी ने भी अपना लिया है.विश्व स्वास्थ्य संगठन इसको बढ़ावा दे रहा है, जिससे क्षार सूत्र विधि भारत तक सीमित न होकर, आज दुनिया के कई देशों में प्रचलन में है.ऐसे में, इसकी महत्ता को देखते हुए क्षार सूत्र क्या है, यह कैसे बनता है, और किन-किन बीमारियों में इस्तेमाल होता है, यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है.

क्षार सूत्र आख़िर है क्या?

क्षार (एल्कली) का अर्थ होता है वानस्पत्य औषधियों की राख का नमक, जो पानी में घुल सके, और सूत्र का मत्लब धागा होता है.इस प्रकार, जिस धागे (थ्रेड) या सूत्र पर क्षार (एल्कली) का लेप चढ़ा हो, उसे क्षार सूत्र कहते हैं.

अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान के डॉक्टर और प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार, “पक्के (मजबूत) धागे पर क्षार की क़रीब 21 परतें चढ़ाकर तैयार किया गया सूत्र या धागा क्षार सूत्र कहलाता है.इसका इस्तेमाल सर्जरी में किया जाता है.”

ज्ञात हो कि क्षार सूत्र से इलाज की प्रक्रिया को ‘क्षार सूत्र-चिकित्सा’ कहते हैं.क्षार सूत्र चिकित्सा यानि, एक आयुर्वेदिक शल्य (सर्जिकल) प्रक्रिया जिसमें सर्जरी, सर्जिकल औजारों के बजाय क्षार सूत्र से की जाती है.यानि, यह आयुर्वेदिक मेडिकेटेड या औषधियुक्त धागा ऐसा है, जो सर्जरी के औजार का काम करता है.यह सर्जरी के औजार ही की तरह शरीर के किसी अंग को काटने, हटाने की क्षमता रखता है.

प्रोफ़ेसर महंता के मुताबिक़ क्षार सूत्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह औजार न होते हुए भी किसी अंग को काटने, हटाने की उतनी ही क्षमता रखता है जितना कि कोई सर्जिकल औजार.

क्षार सूत्र प्रक्रिया दरअसल, ऐसी शल्य क्रिया है जिसमें कोई बड़ा ज़ख्म नहीं बनता है, और न ही खून निकलता है.यह ब्लड लेस सर्जरी का बेहतरीन उदाहरण है.

यह आसान, सुरक्षित और सबसे कामयाब है.इस प्रक्रिया की पूरी जानकारी आयुवेद की ‘सुश्रुत संहिता’ में दी गई है.महर्षि सुश्रुत को ‘फ़ादर ऑफ़ सर्जरी या ‘शल्य चिकित्सा का जनक’ कहा जाता है.

क्षार सूत्र कैसे बनता है जानिए

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता बताते हैं कि क्षार सूत्र बनाने के लिए ख़ासतौर से 4 चीजों की ज़रूरत होती है- विशेषज्ञ, औषधियां, पक्का धागा और धागा बांधने के लिए एक फ्रेम.

औषधियों में होते हैं- स्नुही दूध (कैक्टस के पौधे का तरल पदार्थ), क्षार और हल्दी चूर्ण.

एक फ्रेम पर धागा पहले ही कस दिया जाता है.

क्षार सूत्र निर्माण (सांकेतिक फोटो)

अब शुरू होती है धागे पर लेप लगाने की प्रक्रिया.इसमें पहले 10 बार धागे पर स्नुही दूध लगाकर हर बार धूप में सुखाया जाता है.

इसके बाद, 7 बार स्नुही दूध लगाकर और फिर क्षार (चूर्ण के रूप में) लगाकर सूखा लिया जाता है.

और आख़िर में, 4 बार स्नुही दूध, फिर क्षार और हल्दी, तीनों को धागे के ऊपर लगाकर तेज धूप में सुखाया जाता है.

ज्ञात हो कि 21 बार की लेप की इस प्रक्रिया में धागे को हर बार यानि, 21 बार सुखाया जाता है.यानि, लेपित (लेप लगे हुए) धागे पर अगला लेप तभी लगाया जाता है जब वह अच्छी तरह सूख चुका होता है.

फिर, धागा फ्रेम से उतार लिया जाता है.यही धागा क्षार सूत्र कहलाता है.

इसे 1-1 फुट की लंबाई में काटकर कांच की परखनली या अच्छी क्वालिटी की पॉलिथीन की थैली में सील करके रखा जाता है, ताकि उसमें हवा प्रवेश न कर सके.

इस प्रकार देखें तो क्षार सूत्र बनाना काफ़ी तकनीकी और वैज्ञानिक कार्य है.इसमें विशेषज्ञों की मेहनत के साथ समय भी लगता है.इसके अलावा, कई और चीजें और व्यवस्थागत बातें महत्वपूर्ण होती हैं जो कि क्षार सूत्र की क्षमता और सटीकता के लिए मायने रखती हैं.इन पर काम हो रहा है, और काफ़ी प्रगति भी हुई है.

कई आयुर्वेद संस्थान क्षार सूत्र बना रहे हैं.अब तो केंद्रीय आयुर्वेदिक अनुसंधान केंद्र द्वारा आईआईटी, दिल्ली के सहयोग से ऑटोमेटिक मशीन तैयार कर ली गई है, जिसकी मदद से कम वक़्त में ज़्यादा से ज़्यादा क्षार सूत्र बनाये जा सकते हैं.

क्या होता है क्षार, और यह कैसे बनता है?

एल्कली (Alkali) यानि, क्षार उस पदार्थ को कहते हैं जो जल में आसानी से घुल जाता है.7 से अधिक पीएच मान वाले इस रसायन को विशेषज्ञों की देखरेख में तैयार किया जाता है.क्षार सूत्र के अलावा, यह दवा के रूप में खाने के लिए भी इस्तेमाल होता है.

क्षार बनाने के लिए औषधीय पौधों, जैसे अपामार्ग (लटजीरा), यव, अर्क, मूली, पुनर्नवा आदि में से जिसका भी क्षार बनाना हो, उसके पंचांग यानि, जड़, तना, पत्तियां, फूल और फल को सबसे पहले अच्छी तरह धोकर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है.

क्षार बनाने की सामग्री और विधि (प्रतीकात्मक चित्र)

सूखने के बाद, इन्हें टुकड़े कर कड़ाही या भगोने में रखकर जला देते हैं.

ज्ञात हो कि इन्हें जलाने में किसी प्रकार का इंधन या दूसरी चीज़ का प्रयोग नहीं किया जाता है.

जलने के बाद बनी राख को क़रीब 8 गुना अधिक पानी में घोला जाता है.

इसके बाद, एक महीन कपड़े की मदद से इस पानी को 21 बार छानकर तब तक उबाला जाता है जब तक कि पूरा पानी भाप न बन जाये.

आख़िर में, बर्तन में जो लाल या भूरे रंग का पाउडर शेष रह जाता है, उसे ही क्षार कहते हैं.इसे खुरचकर कांच की शीशी या बर्तन में रखकर उसका ढक्कन कसकर बंद कर देते हैं, ताकि हवा से उसका बिल्कुल भी संपर्क न बन सके.

ज्ञात हो कि क्षार हवा की नमी सोखकर बेअसर हो जाते हैं.

दो तरह के होते हैं क्षार

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार क्षार दो तरह के होते हैं- पानीय और प्रतिसारणीय.जिसका इस्तेमाल दवा के रूप में खाने के लिए होता है, उसे पानीय क्षार कहते हैं.दूसरी तरफ, प्रतिसारणीय क्षार का उपयोग ज़ख्म या प्रभावित अंग पर लगाने के लिए होता है.

क्षार सूत्र चिकित्सा में प्रतिसारणीय क्षार का ही इस्तेमाल होता है.

किन बीमारियों में होता है क्षार सूत्र का इस्तेमाल, जानिए

अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान के डॉक्टर व प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार क्षार सूत्र का इस्तेमाल गुदा रोगों, जैसे बवासीर (पाइल्स), भगंदर (फिस्टुला), आदि बीमारियों में किया जाता है.इसे सर्जरी या शल्य क्रिया कहते हैं, जिसे आयुर्वेदिक सर्जन द्वारा किया जाता है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि इस प्रक्रिया में किसी तरह की काट-छांट नहीं होती है, न ही खून निकलता है.यह ब्लड लेस सर्जरी की बेहतरीन मिसाल है.

गुदा रोगों के अलावा, क्षार सूत्र का इस्तेमाल नाड़ीव्रण (साइनस), त्वचा के मस्से और कील, नाक के अंदरूनी मस्से, त्वचा पर उभार या गांठों, आदि की समस्याओं में भी किया जाता है.डॉक्टर महंता के मुताबिक़ इनको क्षार वाले धागे यानि, क्षार सूत्र से बांध दिया जाता है, जिससे ये धीरे-धीरे कटकर अपने आप ही गिर जाते हैं.

बवासीर की बीमारी में क्षार सूत्र से इलाज का तरीक़ा जानिए

बवासीर की समस्या में गुदा के मस्सों को क्षार सूत्र से बांध दिया जाता है, जिससे वे अपने आप ही सूखकर-कटकर गिर जाते हैं.

बवासीर रोग से पीड़ित पुरुष व स्त्री (प्रतीकात्मक चित्र)

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार इसके दो तरीक़े हैं.मस्से अगर बड़े हैं, तो गुदा (एनस) के बाहर और अंदर वाली बवासीर की जड़ों में क्षार सूत्र को बांध दिया जाता है.वहीं, छोटे या अंदरूनी हिस्सों तक फैले मस्सों की जड़ों में क्षार सूत्र को आर-पार कर उसे चारों तरफ़ से कसकर बांधा जाता है.

इस दौरान लोकल एनीस्थीशिया (कभी-कभी स्पाइनल या जनरल एनीस्थीशिया भी) का इस्तेमाल किया जाता है, ताकि मरीज़ को बिना तकलीफ़ के क्षार सूत्र अच्छी तरह पिरोने और बांधने की प्रक्रिया पूरी हो सके.

जानिए भगंदर के इलाज में कैसे होता है क्षार सूत्र का प्रयोग

फिस्टुला या भगंदर में सबसे पहली ज़रूरत होती है फिस्टुलस ट्रैक्ट या असामान्य मार्ग (जो शरीर में अंगों या गुहाओं को जोड़ता है) की पहचान, और मूल्यांकन.इसमें भगंदर पथ की गहराई, लंबाई और शाखा पैटर्न के संबंध में जानकारी भी शामिल होती है.

उच्च गुदा भगंदर, आवर्तक भगंदर और कई खुलेपन और शाखाओं वाले पैटर्न वाले फिस्टुला जैसे जटिल मामलों में यूएसजी या फिस्टुलोग्राम को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में समझा जाता है.

भगंदर (फिस्टुला) की बीमारी से ग्रस्त मर्द और औरत (सांकेतिक चित्र)

इसके बाद, क्षार सूत्र को ट्रैक्ट के अंदर डालकर बाहर से बांध दिया जाता है.इस प्रक्रिया में लोकल एनीस्थीशिया (कभी-कभी स्पाइनल या जनरल एनीस्थीशिया भी) का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे क्षार सूत्र बांधने का काम सही तरीक़े से हो सके, और मरीज़ को दर्द भी न हो.

ज्ञात हो कि यह क्षार सूत्र या धागा सादा होता है, और वह यथास्थान बना रहता है.एक हफ़्ते बाद मेडिकेटेड धागा डालने की शुरुआत होती है, जिसकी विभिन्न परतें घुलती, संक्रमित उत्तकों को काटती और अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालती रहती हैं.

इसे हर हफ़्ते बदला जाता है.

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के मुताबिक़ क्षार सूत्र बदलने का काम हर सातवें दिन किया जाता है जब तक कि फिस्टुला ख़त्म न हो जाये.इससे भगंदर पथ की लंबाई हर हफ़्ते 0.5 मिलीमीटर से 1 सेंटीमीटर तक ठीक हो जाती है.हालांकि कई कारक (जैसे डायबिटीज आदि की समस्या) फिस्टुला पथ की उपचार दर को प्रभावित करते हैं.इनका ध्यान रखना होता है.

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रामाशंकर पांडेय

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