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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

दिल इतना कमज़ोर क्यों हो गया है?

ग़ैर-संचारी रोगों में ह्रदय रोग या दिल की बीमारी पर आयुर्वेद में हजारों साल पहले शोध हुए थे, और निदान बता दिए गए थे.इसके आसान, सस्ते और घरेलू नुस्ख़े आज भी प्रासंगिक हैं.

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वो भी एक समय था जब ह्रदय संबंधी समस्या को आमतौर पर मन से जोड़कर देखा जाता था.किसी से किसी को नेह हो जाता था, तो कहा जाता था कि मन का रोग लग गया है.दिल के रोग को लोग दिल में दबाए रखते थे, और उसे पारखी ही पहचान पाते थे.मगर आज मन से ज़्यादा तन की चर्चा है.

मानव ह्रदय (स्रोत)

अब दिल की ऐसी बीमारी है, जिसमें एकनिष्ठ होने या किसी में रम जाने और अद्भुत अनुभूति पाने के बजाय लोग ज़ेरबार हुए जा रहे हैं.तबाह हुए जा रहे हैं.

हालांकि दिल की प्रवृत्ति तो प्राकृतिक रूप से अब भी वैसी ही है; नैनों के ज़रिए इसे पढ़ा-समझा जा सकता है, मगर यह कुछ ज़्यादा ही कमज़ोर और लाचार हो गया है.मन से ज़्यादा यह तन को खाए जा रहा है.क्या अधेड़, क्या बूढ़े, यह तो जवानों को भी निगल रहा है.स्थिति ऐसी है कि ‘हार्ट डिजीज’ या ‘दिल की बीमारी’ के नाम से डॉक्टर की दुकान से होता हुआ यह फार्मा कंपनियों और दवाइयों के बाज़ार में एक बहुत बड़े व्यापार का ज़रिया बन गया है.

ज्ञात हो कि ग़ैर-संचारी रोगों में ह्रदय रोग कोई नई समस्या नहीं, बल्कि पुरानी व्याधि है, जिस पर आयुर्वेद में हजारों साल पहले शोध हुए थे, और निदान बता दिए गए थे.इसमें बहुत ही आसान, सस्ते और घरेलू इलाज की बातें हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं.मगर 1000 साल की ग़ुलामी में जहां दुनिया की सबसे प्राचीन स्वास्थ्य प्रणाली को मिटाने-दबाने का भरसक प्रयत्न होता रहा वहीं, आज़ाद भारत में भी इसके साथ भेदभाव होता रहा है.इसकी उपेक्षा कर एलोपैथी की जटिल और महंगी प्रक्रिया को जो बढ़ावा दिया जाता रहा है, कमोबेश आज भी जारी है.

बहरहाल, ह्रदय रोग या दिल की बीमारी, जिसे अंग्रेजी में कार्डियोवैस्कुलर डिजीज (सीवीडी) कहते हैं विश्व स्तर पर ऐसा सबसे आम ग़ैर-संचारी रोग या एनसीडी (नॉन कम्युनिकेबल डिजीज) है, जो अकेला सालाना लाखों लोगों की मौत के लिए ज़िम्मेदार है.

इनमें से तीन चौथाई से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं.

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक़, भारत में इसका प्रभाव बहुत ज़्यादा है, और स्थिति काफ़ी गंभीर है.

ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिजीज स्टडी के अनुसार, भारत में आयु-मानकीकृत सीवीडी (कार्डियोवैस्कुलर डिजीज) मृत्यु दर प्रति 100,000 जनसंख्या पर 272 है, जो प्रति 100,000 जनसंख्या पर 235 के वैश्विक औसत से अधिक है.

अध्ययन बताता है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ह्रदय संबंधी जोखिम कारकों के प्रसार में व्यापक विषमता के बावजूद, ग़रीब राज्यों और ग्रामीण क्षेत्रों सहित सभी क्षत्रों में ह्रदय रोग मृत्यु के प्राथमिक कारण के रूप में सामने आया है.

ख़ासतौर से, 40 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं, निम्न सामाजिक-आर्थिक जीवन जीने वाली विधवा या तलाक़शुदा महिलाएं यहां इसकी आसान शिकार हैं.

लेकिन, क्यों? क्या वज़ह है कि भारत में इसका प्रभाव इतना अधिक है? क्यों वृद्ध, और अधेड़ अवस्था को प्राप्त कर चुके लोगों के अलावा नौजवानों में भी यह समस्या बढ़ती जा रही है, इस पर चर्चा आवश्यक हो जाती है.

ह्रदय संबंधी समस्याओं के कारण क्या हैं?

भारत में ह्रदय रोग की समस्या का मुख्य कारण बदलता परिवेश है, जिसमें पश्चिमी जीवनशैली और चाइनीज खानपान की प्रवृत्ति निहित है.ऐसी असामान्य परिस्थितियों में शरीर में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगते हैं और विभिन्न अंग प्रभवित होकर ह्रदय (हार्ट) को भी कमज़ोर और लाचार बना देते हैं.

विशेषज्ञों के अनुसार, आधुनिक जीवन में भोगवादी संस्कृति हावी है, जिसमें दिनचर्या तो ग़लत है ही, तीव्र इच्छाएं और ग़लत आहार-विहार के चलते व्यक्ति के कार्य-व्यवहार भी असामान्य और अप्राकृतिक हो चले हैं.अनियमितता हमें मानसिक असंतुलन की ओर ले जा रही है और यही कारण है कि हमारा शरीर विकारों का घर बनकर ह्रदय को क्षति पंहुचा रहा है.

आसान शब्दों में कहें तो विलासी जीवन, शारीरिक निष्क्रियता, चिकनाई युक्त खानपान और तंबाकू तथा शराब के सेवन के कारण उच्च रक्तचाप, उच्च कोलेस्ट्रोल, मधुमेह (डायबिटीज) और मोटापा की समस्याएं ह्रदय रोग और स्ट्रोक के लिए सबसे महत्वपूर्ण व्यावहारिक जोखिम कारक बन जाती हैं.

दरअसल, हाड़-मांस का बना हमारा शरीर प्रकृति की सबसे खूबसूरत रचना और उपहार है.मगर उचित देखभाल करने के बजाय इसका एक कृत्रिम यंत्र की भांति उपयोग हो रहा है.इसके पंचतत्व (जल, वायु, मिट्टी आदि), जिससे यह निर्मित है, वे दूषित तो हो ही चुके हैं, सामान्य एवं स्वस्थ सामाजिक वातावरण से भी यह कटता जा रहा है.ध्यान-प्राणायाम और योग की कौन पूछे, व्यायाम की भी लोगों को फ़ुर्सत नहीं है.ऊपर से हर छोटी-बड़ी शारीरिक-मानसिक समस्या के लिए अंग्रेजी (एलोपैथी) दवाइयों का उपयोग हमारे अंगों को भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है, नाश कर रहा है.

एलोपैथी दवाइयां ही नहीं, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ, फ़ास्ट फ़ूड, माइक्रोवेव में बना खाना और फ्रिज की बासी चीज़ें हमारे दिलोदिमाग़ में ज़हर भर रही हैं, जबकि हमारी परंपरागत जीवनशैली ताजे, शुद्ध और संतुलित भोज्य पदार्थ की बात करती है.

हमारे आहार-विहार कैसे हों, किस रूप में हों, ताकि हमारा शरीर तो स्वस्थ रहे ही, हमारा ह्रदय भी स्वस्थ और प्रसन्न रहे, यही आयुर्वेद बताता है.

हजारों साल पहले लिखे ‘चरक संहिता’, ‘सुश्रुत संहिता’ और ‘अष्टांग हृदयम’ आदि में वर्णित बहुत ही आसान, सस्ते और घरेलू नुस्ख़े आज भी न केवल प्रासंगिक हैं, अपितु मॉडर्न मेडिकल साइंस की जटिल और खर्चीली उपचार विधि पर भारी हैं.

सदियों पहले जब शेष दुनिया जीवविज्ञान के बारे में जानती तक न थी, और अज्ञानता के अंधकार में भटक रही ही तभी हमारे आयुर्वेदाचार्यों ने कह दिया था कि दिल की नालियों में ब्लॉकेज (अवरोध, रूकावट) होना शुरू हो रहा है, तो इसका मतलब है कि रक्त में अम्लता (एसिडिटी) बढ़ी हुई है.

यही रक्त की अम्लता जब ह्रदय की धमनियों (कोरोनरी आर्टरीज) में रक्त की आपूर्ति बाधित करती है, तो इससे रक्त के थक्के बनने लगते हैं, और फिर ‘हार्ट अटैक’ या ‘दिल का दौरा’ पड़ता है.

इसके लिए उन्होंने क्षारीय (एल्कलाइन) चीज़ें, जैसे लौकी या कद्दू खाने या उसका रस पीने की सलाह दी है, ताकि अम्लता तटस्थ (न्यूट्रल) हो जाए.

इसके अलावा, अनार, अर्जुन वृक्ष की छाल, दालचीनी, लाल मिर्च, अलसी के बीज, लहसुन, हल्दी, नींबू, अंगूर, अदरक, इलाइची, गोझरण अर्क, तुलसी और पीपल के पत्ते आदि के सेवन की बात बताई है.

इनके प्रयोग से हम विभिन्न प्रकार के विकारों का न केवल शमन कर सकते हैं, बल्कि अपने दिल को स्वस्थ और मजबूत रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक दीर्घायु जीवन जी सकते हैं.

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रामाशंकर पांडेय

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