नेहरू परिवार का इतिहास: पूर्वजों की अपनी ही बनाई कहानी में फंस गए जवाहरलाल नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकार-लेखक
अधिकांश लोगों का मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम के काल में राजनीतिक मजबूरियों के चलते भारतीय जनमानस में विवादित नेहरू की छवि को सुंदर और श्रेष्ठ रूप में दिखाने-स्थापित करने के मक़सद से उनके अज्ञात परिवार की कुछ कहानियां गढ़ दी गईं.ऐसी कहानियां, जिनकी कडियां आपस में नहीं मिलती हैं.
गांधीजी को शिखर पर खड़ा करने और उन्हें आज़ादी का असली और सबसे बड़ा हीरो बताने के लिए कांग्रेसी और राजनीति से प्रेरित-लाभांवित बुद्धिजीवियों द्वारा जिस तरह योजनाबद्ध तरीक़े से काम हुआ था, कुछ वैसी ही रणनीति जवाहरलाल नेहरू के लिए भी अपनाई गई थी.जवाहरलाल नेहरू की छवि को सजाने-संवारने और विशिष्ट दिखाने के लिए ख़ासतौर से उनके पूर्वजों के इतिहास पर ज़ोर दिया गया, उनके राजे-रजवाड़े और बादशाहों से क़रीबी रिश्ते दिखाए गए.मगर क़ामयाबी नहीं मिली.अपनी ही बनाई कहानी में जवाहरलाल नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकार-लेखक फंस गए.
कई ऐसी किताबें हैं, जिनमें नेहरू के पूर्वजों का ज़िक्र है.हालांकि अधिकांश में वही सब कुछ कहा गया है, जो स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘माय ऑटोबायोग्राफी’ (साल 1936 में लिखी गई) में अपने परिवार के इतिहास के बारे में लिखा है.लेकिन, कुछ किताबों में कुछ और जोड़ा या विस्तारित किया गया है तो कुछ में कुछ नई बातें भी बताई गई हैं.मगर सभी एक ही दिशा में जाती दिखाई देती हैं, और मिलती-जुलती बातें कहती हैं.सबका निचोड़ एक ही है.
लेकिन, इनका आधार क्या है, कहीं कोई चर्चा नहीं है.न कोई दस्तावेज़ है, न सर्वमान्य विचार और नतीज़े हैं.ऐसा लगता है कि जैसे बिना सबूत और गवाह के फ़ैसला लिख दिया गया हो.
यही वज़ह है कि आज अधिकांश लोगों का मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम के काल में राजनीतिक मजबूरियों के चलते भारतीय जनमानस में विवादित नेहरू की छवि को सुंदर और श्रेष्ठ रूप में दिखाने-स्थापित करने के मक़सद से उनके अज्ञात परिवार की कुछ कहानियां गढ़ दी गईं.ऐसी कहानियां, जिनकी कडियां आपस में नहीं मिलती हैं.जो भी बातें हैं, खोखली और तथ्यहीन नज़र आती हैं.
इस प्रकार, कहां-कहां चूके, या फंस गए हैं नेहरू व उनके दरबारी इतिहासकार-लेखक रूपी कहानीकार, आइए देखते हैं.
कौल-नेहरू परिवार की कहानी नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकार-लेखकों की जुबानी
नेहरू खानदान के बारे में लिखने वाले नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकार-लेखक, दोनों इसकी शुरुआत राज कौल नामक व्यक्ति से करते हैं, और उन्हें नेहरू खानदान का पहला ज्ञात पूर्वज बताते हैं.
राज कौल और उनके वंशजों का परिचय इस प्रकार दिया गया है-
“राज कौल कश्मीरी पंडित या ब्राह्मण थे.उनका जन्म कश्मीर के हब्बा कदल गांव में साल 1695 के आसपास हुआ था.बड़े होकर वे संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान बने, और धन और यश कमाने के लिए कश्मीर की तराइयों से नीचे उपजाऊ मैदान में आकर बस गए.यह वह दौर था जब औरंगजेब की मौत (साल 1707 में) हो चुकी थी, और मुग़ल साम्राज्य के पतन की शुरुआत हो चुकी थी.
साल 1710 में राज कौल ने कश्मीर के इतिहास (History of Kashmir) पर एक किताब लिखी, जिसका नाम था तारीख़-ए-कश्मीर.इससे उन्हें प्रसिद्धि मिली, और वे कश्मीर में मशहूर विद्वानों में शुमार हो गए.
साल 1716 में कश्मीर दौरे पर गया मुग़ल बादशाह फर्रुख्सियर वहां के तीन ख़ास लोगों से मिलकर बहुत प्रभावित हुआ.उनमें से दो, इनायतुल्लाह कश्मीरी और मोहम्मद मुराद को तो उनकी क़ाबिलियत और तज़ुर्बे को लेकर उसने मनसबदारी दे दी वहीं, पंडित राज कौल को उनकी फ़ारसी पर पकड़ के चलते दिल्ली आकर बसने का न्यौता दिया.
राज कौल अपने परिवार के साथ दिल्ली पहुंचे, और शाही परिवार के बच्चों को फ़ारसी पढ़ाने लगे.बदले में बादशाह की ओर से उन्हें कुछ जागीर और रहने के लिए हवेली मिली.
यह हवेली नहर के किनारे पर स्थित थी इसलिए, उन्हें नहरू कहा जाने लगा.फिर, नहरू से वे नेहरू हो गए , और उनका कौल उपनाम या कुलनाम (सरनेम) ग़ायब हो गया.
साल 1725 में राज कौल के बेटे विश्वनाथ कौल का जन्म हुआ.पर्शियन कॉलेज, दिल्ली में पढ़ाई कर वे मुग़ल कोर्ट में नौकरी करने लगे.
विश्वनाथ कौल के तीन बेटे हुए- साहिबराम, मंशाराम और टीकाराम.बड़े होकर ये तीनों फ़ारसी के विद्वान हुए.सबसे पहले इन्होंने ही अपने नाम के आगे ‘नेहरू’ लगाया.
इस वक़्त तक जागीरी (जमींदारी) सीमित हो गई थी, लेकिन यह परिवार दिल्ली में ही रहा.मंशाराम नेहरू और साहिबराम नेहरू तक जागीरी क़ायम रही.
मंशाराम नेहरू के बेटे लक्ष्मीनारायण नेहरू ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से मुग़ल दरबार में वकील थे.
लक्ष्मीनारायण नेहरू के बेटे गंगाधर नेहरू का जन्म 1827 में हुआ था.
गंगाधर नेहरू कद-काठी से मजबूत, अच्छी सूझबूझ वाले और बहादुर थे.वे एक अच्छे घुड़सवार भी थे.इन्हीं खूबियों के चलते क़रीब 1845 में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की हुकूमत की ओर से उन्हें दिल्ली का कोतवाल नियुक्त किया गया.वे इस पद पर 1857 के महासंग्राम के समय तक बने रहे.यानि, गंगाधर नेहरू दिल्ली के आख़िरी कोतवाल थे.
गंगाधर नेहरू का विवाह मुग़ल कोर्ट में कैलिग्राफर पद पर काम करने वाले सीताराम बाज़ार निवासी शंकरलाल जुत्शी की बेटी इंद्राणी जुत्शी से हुआ था.
ग़दर यानि, 1857 के संग्राम की वज़ह से दिल्ली इस परिवार के लिए सुरक्षित नहीं रही.इस खानदान के सारे दस्तावेज़ भी तहस-नहस हो गए.ऐसे में, दिल्ली छोड़ने वाले और कई लोगों की भीड़ में गंगाधर नेहरू भी अपने दो बेटों, बंशीधर नेहरू और नंदलाल नेहरू तथा दो बेटियों, महारानी नेहरू और पटरानी नेहरू के साथ आगरा के लिए निकले.
रास्ते में अंग्रेज सिपाहियों ने गंगाधर नेहरू को पकड़ लिया था क्योंकि उनके लिबास इस्लामी या मुसलमानों वाले थे.चेहरे पर दाढ़ी और सिर पर टोपी थी.मगर बंशीधर और नंदलाल की अंग्रेजी शिक्षा और ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के अधिकारियों से क़रीबी रिश्ते की वज़ह से उनकी जान बच गई.
‘कश्मीरी पंडितों के अनमोल रत्न’ नामक पुस्तक के लेखक डॉ. बैकुंठ नाथ सरगा के मुताबिक़ आगरा में साल 1861 के फ़रवरी महीने में गंगाधर नेहरू की मौत हो गई.उसके तीन महीने बाद, 6 मई, 1861 को इंद्राणी जुत्शी (स्वर्गीय गंगाधर नेहरू की विधवा) ने अपने तीसरे बेटे मोतीलाल नेहरू को जन्म दिया.
मोतीलाल नेहरू के बड़े भाई नंदलाल नेहरू राजस्थान की खेतड़ी रियासत के दीवान थे.किताब ‘मेकर्स ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ के लेखक-इतिहासकार बी. आर. नंदा के अनुसार मोतीलाल नेहरू की प्रारंभिक शिक्षा इसी खेतड़ी रियासत में काजी सदरुद्दीन के यहां हुई, जो अरबी और फ़ारसी पढ़ाते थे.
इसके बाद, मोतीलाल नेहरू आगरा और कानपुर में रहे.वहां कानून की पढ़ाई पूरी कर वे इलाहाबाद हाईकोर्ट में वक़ालत करने लगे.
बी. आर. नंदा के अनुसार मोतीलाल नेहरू ने साल 1900 में मुरादाबाद निवासी कंवर परमानंद से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में 19,000 रुपये में एक पुराना आलिशान मकान ख़रीदा, और इसकी मरम्मत व सजावट करवाकर उसे आनंद भवन नाम दिया.यहीं पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को हुआ.वे यहीं पले-बढ़े और प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की.
सच की पड़ताल: राज कौल का हब्बा कदल गांव व उनके जन्म का वर्ष
हब्बे कदल या हब्बा कदल की बात करें तो यह जम्मू और कश्मीर के श्रीनगर शहर का एक पुराना इलाक़ा है, किसी गांव विशेष का नाम नहीं है.वर्तमान में यह जम्मू और कश्मीर विधानसभा के 90 निर्वाचन क्षेत्रों में से एक तथा श्रीनगर लोकसभा का हिस्सा है.
हब्बा कदल का सदियों पुराना इतिहास है, जो कश्मीर की अंतिम हिन्दू रानी कोट रानी के शासन काल (1323-1339) से जुड़ा है.कोट रानी राजा उद्वनदेव की रानी थीं.
इतिहासकारों के मुताबिक़ कोट रानी ने कश्मीर की झेलम नदी के ऊपर सात कदल या पुल बनाकर कई इलाके आबाद किये थे.आगे चलकर ये इलाके विभिन्न कदल के नाम से जाने गए.यानि, उनके स्थानीय नाम के आगे कदल शब्द जुड़ गया.हब्बा कदल उन्हीं इलाकों में से एक है.
बताते हैं कि हब्बा कदल का नाम पहले कुछ था (क्या था, यह अब तक अज्ञात है, और इस पर शोध की आवश्यकता है).कश्मीर के सुल्तान गियास-उद-दीन जैन-उल-आबिदीन ने अपने काल (1423-1474) में इस पुल की मरम्मत या पुनर्निर्माण कराकर इसका नाम जैना कदल रखा था.ऐसा ही सुल्तान हबीब शाह (1557-1561) ने किया, और फिर, युसुफ शाह चक (1579-1586) ने अपने वक़्त में हब्बा ख़ातून के नाम पर इसका नाम रख दिया हब्बा कदल.
अब भाषाई दृष्टिकोण से देखें, तो कश्मीरी में कदल शब्द का अर्थ पुल (ब्रिज) होता है.मगर यह तो मूलतः एक संस्कृत (संज्ञा, पुल्लिंग) शब्द है, जिसका वास्तविक अर्थ कदली वृक्ष या केला होता है.
फिर, पुल को कदल क्यों कहा गया? इसके पीछे तर्क यह हो सकता है कि कदल का वृक्ष जिस प्रकार नाजुक या कमज़ोर होता है यह यह पुल भी कच्चा और लकड़ी का था, कमज़ोर था, इस कारण इसे कदल नाम मिला होगा.
बहरहाल, हब्बा कदल इलाक़े में 2000 साल पुराना शीतलेश्वर मंदिर है.यहीं प्राचीन पुरुसियार मंदिर भी है.कश्मीरी पंडितों के पुश्तैनी घर हैं.उनके पूर्वजों की निशानियां और दस्तावेज़ मौजूद हैं, मगर तथाकथित राज कौल और उनके पूर्वजों से जुड़ा कुछ भी उपलब्ध नहीं है.
किसी को नहीं पता है कि हब्बा कदल क्षेत्र में कभी राज कौल नामक व्यक्ति हुआ करता था, नहीं कहीं कोई वर्णन है.क्यों?
ज्ञात हो कि पिछले कुछ दशकों में कई सभ्यताएं ढूंढ ली गई हैं, वह रामसेतु भी सही साबित हो चुका है, जिसे कांग्रेसी काल्पनिक बताते थे, लेकिन न तो कौल परिवार का पुश्तैनी घर (जिसमें राज कौल पैदा हुए, युवावस्था तक रहकर संस्कृत और फ़ारसी का अध्ययन किया, और विद्वान बने) खोजा जा सका है, नहीं उस दूसरे घर (तराइयों से नीचे उपजाऊ मैदानों वाला घर, जिसमें रहते हुए राज कौल ने तारीख़-ए-कश्मीर नामक किताब लिखी थी) का पता लगाया जा सका है, जिसे राज कौल ने बाद में ख़ुद बनाया था.यहां तक कि अब तक राज कौल और उनके पूर्वजों से जुड़ा कोई लिखित स्रोत भी नहीं मिल पाया है.
जब राज कौल के बारे में कुछ ज्ञात ही नहीं है, तो उनके जन्म का वर्ष (साल 1695) कैसे बताया जा सकता है, समझ से परे है, या यूं कहिये कि यह भी एक कोरा मज़ाक ही है.
सच की पड़ताल: राज कौल की विद्वता, और उनकी किताब तारीख़-ए-कश्मीर
इतिहास में 17 वीं और 18 वीं सदी के दौर के कश्मीर के हब्बा कदल और उसके आसपास के इलाकों से ताल्लुक रखने वाले संस्कृत और फ़ारसी के कई विद्वानों के नाम मौजूद हैं.इनमें संस्कृत के विद्वानों में दो साहेब कौल या साहेबराम कौल हुए.पहले वाले साहेब या साहेबराम कौल औरंगजेब के शासन काल (1658-1707) के दौरान थे, जिन्होंने ‘कृष्णावतार चरित’ सहित एक दर्ज़न से अधिक मूल्यवान पुस्तकें लिखी थी तो दूसरे वाले डोगरा महाराजा रणबीर सिंह के दरबार के एक महान विद्वान थे.
इनके अलावा, कई और कवि-लेखकों के बारे में जानकारी मिलती है, मगर राज कौल कहीं नज़र नहीं आते हैं.
फ़ारसी के विद्वानों में हक़ीम मुल्ला मोहम्मद अज़ीम, मिर्ज़ा अबुल कासिम, हक़ीम मुल्ला हबीब उल लाह, हक़ीम हसन अली, आदि कई नाम आते हैं, राज कौल की कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती है.
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कश्मीरी साहित्यकार मोहम्मद युसुफ टैंग जो कि शेख अब्दुल्ला की जीवनी ‘आतिश-ए-चिनार’ के लेखक-संपादक और जम्मू-कश्मीर की कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी के सचिव रहे हैं, वे राज कौल नामक किसी कश्मीरी व्यक्ति के संस्कृत और फ़ारसी के एक प्रसिद्ध विद्वान होने की बात को सिरे से नकारते हैं.
टैंग का कहना है-
राज कौल का ज़िक्र उस दौर के कश्मीरी इतिहासकारों के यहां नहीं मिलता है.वे एक मशहूर विद्वान हों, इसकी संभावना नहीं लगती है.
अब बात करते हैं तारीख़-ए-कश्मीर की.तारीख़-ए-कश्मीर या कश्मीर का इतिहास दरअसल, कश्मीर के सल्तनत काल के इतिहास की कई किताबों को संदर्भित करता है.उनमें कुछ तो खो गईं, जबकि ज़्यादातर आज भी उपलब्ध हैं.
इनमें सैय्यद अली की किताब रतिख-ए-कश्मीर 2 (तारीख़-ए-कश्मीर) है, जो 1586 ई. में कश्मीर पर मुग़लों की जीत से पहले कश्मीर में लिखी गई थी.
1590 ई. में लिखी गई एक अज्ञात लेखक की तारीख़-ए-कश्मीर सबसे शुरुआती फ़ारसी स्रोतों में से एक है.
हैदर मलिक चदुराह की तारीख़-ए-कश्मीर किताब 1586 ई. से 1621 ई. तक की अवधि की जानकारी देती है.
हसन-बिन-अली कश्मीरी द्वारा रचित तारीख़-ए-कश्मीर कश्मीर के शुरुआती वक़्त से लेकर 1616 ईस्वी तक का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है.
इसी प्रकार, नारायण कौल नामक एक कश्मीरी पंडित द्वारा फ़ारसी में लिखी एक किताब मुंतखबुत-तवारीख़ (तारीख़-ए-कश्मीर) की भी चर्चा मिलती है.कहा गया है कि उसमें कश्मीर के प्रारंभिक काल से 1710 ईस्वी तक का वर्णन था.ज्ञात हो कि एक ऐसी ही किताब फिलाडेल्फिया की ‘फ्री लाइब्रेरी’ की वेबसाइट पर दिखाई देती है.इसमें (कोलोफ़ोन में) लेखक का नाम नारायण कौल, और इस पर फ़ारसी में काम (चित्रकारी, साज-सज्जा) करने वाले का नाम पंडित जनार्दन छपा है.
ग़ौरतलब है कि इसका प्रकाशन वर्ष 1700 ईस्वी दिखाई देता है, जबकि कहा गया है कि इसमें प्रारंभ से 1710 ईस्वी तक की अवधि का वर्णन है.कश्मीर में संस्कृत के इतिहास का संक्षिप्त वर्णन.साथ ही, इसमें दूसरी पुस्तकों की सामग्री भी मूल रूप में जोड़ी गई बताई गई है.
बहरहाल, यहां भी नारायण कौल हैं, राज कौल नहीं हैं.राज कौल और नारायण कौल एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते हैं.तो फिर, कांग्रेसी और दरबारी लेखकों-इतिहासकारों किस तारीख़-ए-कश्मीर की बात की है, जिसे कथित राज कौल ने लिखी?
कहां है वह किताब?
दरअसल, यहां भी घालमेल और फर्जीवाड़ा है.जैसे गांधीजी की लाश के मुंह में ‘हे राम’ शब्द डाला गया था वैसे ही यहां एक काल्पनिक व्यक्ति को इतिहासकार बताया गया है.कौल सरनेम या उपनाम के बहाने एक व्यक्ति की जगह दूसरे व्यक्ति को स्थापित करने की कोशिश की गई है.ऐसी कोशिश, जिसे ख़ुद नेहरू के अपने ही शब्द- ‘मेरे पूर्वज (कश्मीर वाले) का नाम राज कौल (नारायण कौल नहीं) था’, नाक़ाम कर देते हैं.(जवाहरलाल नेहरू, ऐन ऑटोबायोग्राफी, पेज-1, पैरा-3)
सच की पड़ताल: फर्रुख्सियर का कश्मीर दौरा, राज कौल से मुलाक़ात-दिल्ली का न्यौता
मुग़ल बादशाह फर्रुख्सियर का शासन कुल 6 वर्षों का था.इस दौरान उसने कभी कश्मीर का दौरा किया हो, ऐसी इतिहास में कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती है.ऐसे में, राज कौल की उससे कश्मीर में मुलाक़ात की कहानी सिरे से खारिज़ हो जाती है.
प्रसिद्ध लेखक अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘कश्मीरनामा’ में भी इस बात का खुलासा हो जाता है.इसमें मोहम्मद युसुफ टैंग (प्रसिद्ध शोधकर्ता, विद्वान, आलोचक, लेखक, और इतिहासकार) के हवाले से वे लिखते हैं-
मुग़ल बादशाह फर्रुख्सियर कभी कश्मीर गया ही नहीं.इसलिए, यह दावा कि वहां राज कौल पर बादशाह की नज़र पड़ी, और उसके बुलावे पर वे दिल्ली आए, सही नहीं लगता है.
यानि, यह कहानी झूठी है.
ज्ञात हो कि 16 वीं सदी में शुरू और 19 वीं सदी में ख़त्म होने वाले मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर कुल 19 बादशाहों (बाबर से लेकर बहादुर शाह ज़फ़र तक) ने राज किया.इनमें फर्रुख्सियर या फ़र्रुख सियर (11 जनवरी 1713-28 फ़रवरी 1719) 10 वां बादशाह था, जो अपने चाचा जहांदार शाह का क़त्ल करके गद्दी पर बैठा था.
फर्रुख्सियर केवल नाम का बादशाह था, साम्राज्य की कमान सैय्यद बंधुओं (सैय्यद हसन अली खान और सैय्यद हुसैन अली खान, दोनों भाइयों) के हाथों में थी.यहां तक कि गवर्नर, मनसबदार, जागीरदार, आदि की नियुक्ति की शक्ति भी उसके पास नहीं थी, उन्हें हुक्म या फ़रमान सैय्यद बंधु ही देते थे.
कश्मीर के गवर्नर सआदत खान को दक्षिण भारत के गवर्नर चिन किलिच खान ने नियुक्त किया था.
इतिहासकारों के मुताबिक़ फर्रुख्सियर ने जैसे ही सैय्यद बंधुओं के नियंत्रण से मुक्त होने की कोशिश की उन्होंने उसे सत्ता से बेदख़ल कर कैदखाने में डाल दिया.वहां उसकी आंखें फोड़ी गईं, और फिर गला घोंटकर मार डाला गया.उस वक़्त वह महज़ 33 साल का था.
सच की पड़ताल: जवाहरलाल नेहरू के दादा गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल थे
ग़ौरतलब है कि 1857 की क्रांति से जुड़ा एक भी ऐसा आधिकारिक दस्तावेज़ नहीं है जो यह कहता हो कि उस समय गंगाधर नाम का कोई व्यक्ति दिल्ली का कोतवाल था.यही नहीं, उससे पहले के भी कोतवालों की सूची में गंगाधर नाम नदारद है.
ज्ञात हो कि ‘ग़ालिब की गिरफ़्तारी’ शीर्षक इतिहास में 1845 की एक घटना का ज़िक्र मिलता है, जिसमें उर्दू-फ़ारसी के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब जुआ खेलते हुए पकड़े गए थे.बताया गया है कि उन्हें गिरफ़्तार करने वाला कोतवाल फैजुलहसन था, जिसे आगरा से बदलकर दिल्ली में तैनात किया गया था.
उस घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार है-
साल 1845 में आगरा से बदलकर एक नया कोतवाल फौजुलहसन दिल्ली आया.उसे शेरो सुख़न (काव्य, साहित्य) से लगाव नहीं था इसलिए, ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके दिल में नहीं हो सकती थी.ऊपर से वह एक सख्त आदमी था.ऐसे में, आते ही उसने शराब पीने और जुआ खेलने-खिलाने को लेकर बदनाम ग़ालिब के ख़िलाफ़ सख्ती से तफ्तीश करनी शुरू की.
फिर, एक दिन उसने छापा मारा, तो दूसरे सभी लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे, पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए.अदालत ने उन्हें 3 महीने की क़ैदे बामुशक्कत (सश्रम कारावास) की सज़ा दी.
दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया (JMI) में इतिहास एवं संस्कृति विभाग में प्रोफ़ेसर एस. एस. अजीजुद्दीन हुसैन की किताब ‘1857 रिविजिटेड बेस्ड ऑन पर्सियन एंड उर्दू डाक्यूमेंट्स’ के मुताबिक़ दिल्ली में ग़दर (1857 की क्रांति) के वक़्त गंगाधर का कोई शख्स कोतवाल नहीं था.उस दौरान दिल्ली का कोतवाल क़ाज़ी फैजुल्लाह था, ऐसा स्पष्ट कहा गया है.
एम इकराम चगाताई द्वारा संपादित एवं लाहौर से प्रकाशित ‘1857 इन द मुस्लिम हिस्टोग्राफी’ में कहा गया है कि क़ाज़ी फैजुल्लाह से पहले दिल्ली का कोतवाल नवाब मोईनुद्दीन नाम का शख्स था.
इसके अनुसार नवाब मोईनुद्दीन ने एक किताब लिखी थी, जिसका अनुवाद एक अंग्रेज अफ़सर ने किया था.वर्ष 1898 में ‘टू नैटिव नैरेटिव्स ऑफ़ द म्युटिनी इन डेल्ही’ नाम से प्रकाशित उस किताब में कहीं भी गंगाधर नामक कोतवाल का वर्णन नहीं है.
एडिनबर्ग युनिवर्सिटी प्रेस की 2007-2008 की छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ 1857 के महासंग्राम के समय दिल्ली में गंगाधर नाम कोई कोतवाल नहीं था(7).उसमें किसी गाज़ी खान का ज़िक्र (8), (9) मिलता है.
रॉबर्ट हार्डी एंड्रूज़ की किताब ‘ए लैंप फॉर इंडिया- द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित (A Lamp for India- The story of Madame Pandit) में भी उपरोक्त (प्रयागराज स्थित आनंद भवन और दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर दिखने वाले कथित गंगाधर का) फ़ोटो छपा है.इसमें उसे एक सुन्नी मुसलमान बताया गया है.
वैसे भी कपड़ों, दाढ़ी और मुस्लिम टोपी (Islamic Cap) में व्यक्ति मुसलमान ही नज़र आता है, उसे किसी भी प्रकार से हिन्दू नहीं कहा जा सकता है.
इस प्रकार, स्पष्ट रूप से यहां दो ही संभावनाएं हैं- या तो गंगाधर नामक कोतवाल की कहानी झूठी, या फिर गंगाधर नामक वह व्यक्ति ही काल्पनिक है, जिसे जवाहरलाल नेहरू का दादा बताया गया है.
सच की पड़ताल: राज कौल की जागीर-हवेली, ख़ानदानी दस्तावेज़
अपने पूर्वजों की कहानी में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि ”जब हम नेहरू के नाम से (साहिबराम, मंशाराम और टीकाराम के वक़्त) पहचाने जाने लगे तो एक ऐसा डांवाडोल ज़माना आया कि उसमें हमारे पारिवारिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, जागीर भी तहस-नहस हो गई.”
उनके अनुसार जब यह जागीर ख़त्म हुई, तो जागीरदार राज कौल के पोते मंशाराम नेहरू थे.
इसी प्रकार, कुछ लोगों का कहना है कि ”फर्रुख्सियर की हत्या के बाद जागीर का अधिकार घटता गया, लेकिन राज कौल का परिवार दिल्ली ही में रहा.उनके पोते मंशाराम और साहिबराम तक जागीरी का हक़ क़ायम रहा.”
यानि, राज कौल की जागीर के ख़त्म होने में 100 साल से ज़्यादा का वक़्त लगा.आख़िर, वह कितनी बड़ी जागीर थी? वह जागीर, जो फर्रुख्सियर की हत्या (1719 में) के बाद ही से घटती रही, क़रीब 100 साल बाद भी (1815-1820 तक) ख़त्म नहीं हुई! वह भी मुग़लों के पतन काल में! और आख़िरकार, उसे अंग्रेजों ने हड़पा, यह कहानी भी कई प्राचीन कहानियों जैसी कपोलकल्पित ही लगती है.
सवाल यह भी है कि नहर के किनारे वाली उस हवेली का क्या हुआ, जिसकी वज़ह से कौल परिवार को नेहरू बनना पड़ा, या यूं कहिये कि अपनी पहचान बदलनी पड़ी? उसे भी अंग्रेजों ने क़ब्ज़ा किया या नहीं; यदि क़ब्जाई गई, तो वह कहां ग़ुम हो गई, इस पर सभी मौन क्यों हैं?
बरसों पुरानी मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली ढूंढी और आबाद की जा सकती है, तो देश के सबसे बड़े परिवार की ख़ानदानी हवेली रूपी महत्वपूर्ण घर, जिसमें पीढियां रहीं, उसे भुला देना (या चुप्पी साध लेना) संदेह पैदा करता है.
नेहरू खानदान के कागज-पत्र और दस्तावेज़: नेहरू खानदान का ऐसा इतिहास है जिसके प्रमाण इतिहास ही में नहीं मिलते हैं.क्यों नहीं मिलते हैं, इसका ज़वाब भी काफ़ी दिलचस्प है.कहा गया है कि नेहरू परिवार के कागज-पत्र और दस्तावेज़ (जिनके आधार पर लोग उन्हें जान सकें) उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि वे तहस-नहस हो गए.
कितनी अज़ीब बात है! मगर यह हुआ कैसे और कब, इस बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं है? कोई तो स्रोत होना चाहिए वर्ना इस बात की पुष्टि कैसे होगी?
जैसा कि हम जानते हैं कि हर घटना का कोई कारण होता है.ऐसी परिस्थितियां अवश्य होती हैं, जो घटना से जुड़ती दिखाई देती हैं.मगर हैरानी की बात यह है कि नेहरू खानदान की कहानी में ऐसा कोई संकेत भी नहीं छोड़ा गया है कि जिसके आधार पर उसके दस्तावेज़ की ज़ब्ती या लूटपाट, या फिर अन्य कारणों से उनके नष्ट होने की कोई संभावना भी व्यक्त की जा सके.
कौल-नेहरू परिवार की कहानी से क्या पता चलता है, देखिये-
राज कौल एक विद्वान पुरुष और लेखक थे.शाही परिवार के शिक्षक थे, और हवेली में रहते थे.ऐसे में, वे हर तरह से सुरक्षित थे.
राज कौल के बेटे विश्वनाथ कौल मुग़ल कोर्ट में नौकरी करते थे.
विश्वनाथ कौल के बेटे साहिबराम, मंशाराम और टीकाराम, ये तीनों फ़ारसी के विद्वान थे इसलिए, उनका रसूख कैसा होगा, समझा जा सकता है.
मंशाराम नेहरू के बेटे लक्ष्मीनारायण नेहरू भी कंपनी सरकार की ओर से मुग़ल दरबार में वकील थे.
लक्ष्मीनारायण नेहरू के बेटे गंगाधर नेहरू तो ख़ुद दिल्ली के कोतवाल थे.दिल्ली उनकी सुरक्षा में थी इसलिए, उनके और उनके परिवार के जानमाल को कोई ख़तरा होने का सवाल ही नहीं पैदा होता है.
गंगाधर नेहरू के बेटे बंशीधर नेहरू और नंदलाल नेहरू भी बड़े योग्य, सम्मानित और ऊंची पहुंच वाले थे.दिल्ली से आगरा जाते समय गंगाधर नेहरू को जब अंग्रेजों ने गिरफ़्तार किया, तो उन्होंने ही अपनी अंग्रेजी शिक्षा और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों से पारिवारिक नजदीकी की वज़ह से छुड़ाकर उनकी जान बचाई थी.
इस प्रकार, सब कुछ ठीकठाक था.परिवार के लोग बहुत समर्थ थे.कोई अनहोनी हुई हो, ऐसा भी नहीं पता चलता है.फिर तो ‘न चोरी हुई न डाका पड़ा फिर भी, लुट गए’, और यह भी कि ‘आग लगी नहीं, मगर सब कुछ स्वाहा हो गया’, यही कहा जा सकता है.
सच की पड़ताल: नंदलाल थे खेतड़ी के दीवान, और अजीत सिंह का उत्तराधिकारी चुना जाना
गंगाधर नेहरू के मंझले (बीच वाले यानि, बंशीधर नेहरू से छोटे और मोतीलाल नेहरू से बड़े) बेटे नंदलाल नेहरू का दीवान (या प्रधानमंत्री) के रूप में तैनात होने का ज़िक्र खेतड़ी रियासत के दस्तावेजों में कहीं भी नहीं मिलता है.वहीं, इतिहास (नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकारों-लेखकों की किताबों) में भी इसको लेकर कोई प्रामाणिक जानकारी या संबंधित स्रोत नहीं है.
नंदलाल नेहरू को लेकर जवाहरलाल नेहरू और उनके दरबारी इतिहासकारों-लेखकों का दावा क्या है, देखिये-
”नंदलाल नेहरू राजस्थान के खेतड़ी में स्कूल मास्टर थे.साथ ही, वे सामाजिक और राजकाज से जुड़े ज्ञान और अनुभव को लेकर भी लोगों में लोकप्रिय थे.जब खेतड़ी के राजा फ़तेह सिंह को यह पता चला, तो उन्होंने नंदलाल को बुलाकर रियासत का दीवान बना दिया.
राजा फ़तेह सिंह निःसंतान थे इसलिए, वे किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाना (गोद लेना) चाहते थे, ताकि उनके मरने के बाद उनका राज आबाद रहे, या यूं कहिये कि उसे अंग्रेज न हड़प सकें.
लेकिन, इससे पहले (साल 1870 में) ही राजा चल बसे.ऐसी परिस्थिति में, नंदलाल ने उनकी मृत्यु का समाचार कुछ समय के लिए छुपाकर रखा, और इस दौरान चुपके से अलसीसर के 9 साल के अजीत सिंह को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करवा दिया.
इस तरह, काम तो हो गया, मगर उनकी नौकरी चली गई.
इसके बाद, नंदलाल अपने छोटे भाई मोतीलाल को लेकर आगरा चले गए, और आख़िर में वक़ालत करने के लिए इलाहबाद (अब प्रयागराज) में बस गए.यहां उनकी विरासत को मोतीलाल, और फिर उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू ने आगे बढ़ाया.”
इस प्रकार, इस कहानी के दो भाग हैं, जिनमें दो बातें मुख्य हैं- नंदलाल नेहरू का खेतड़ी का दीवान होना, और अजीत सिंह का गोद लिया जाना.आइये इनकी जांच करते हैं-
नंदलाल खेतड़ी के दीवान थे या नहीं: ग़ौरतलब है कि आज़ादी से पूर्व के भारतीय और विदेशी इतिहासकारों-लेखकों द्वारा लिखी गई खेतड़ी रियासत के राजा फ़तेह सिंह और राजा अजीत सिंह के काल से जुड़ी किताबों-कहानियों में दीवान गंगाधर नेहरू का नाम नहीं मिलता है.
आज़ादी के बाद प्रकाशित कई पुस्तकों में भी राजा फ़तेह सिंह के प्रशासनिक अमले में किसी गंगाधर का ज़िक्र नहीं है.उनसे यही पता चलता है कि भोपाल सिंह के बाद अनेक ठाकुर खेतड़ी के राजा हुए, जिनमें फ़तेह सिंह उल्लेखनीय हैं.उनके राज में सुख-शांति थी.सभी मंत्री-संतरी जनता से अच्छी तरह पेश आते थे, कहीं कोई ज़ोर-जुल्म नहीं था.
इतिहासकारों के अनुसार खेतसिंह निर्वाण द्वारा क़रीब 500 वर्ष पहले स्थापित राजस्थान का खेतड़ी 18 वीं सदी के मध्य में शेखावतों (राजपूत वंश की एक शाखा) के अधिकार क्षेत्र में आ गया था.तब से इस पर अनेक ठाकुरों का शासन रहा, जिनमें शार्दूल सिंह, किशनसिंह, भोपाल सिंह, फ़तेह सिंह, अजीत सिंह, सरदार सिंह, आदि के नाम प्रमुख हैं.इन सभी के दस्तावेज़ी प्रमाण उपलब्ध हैं.
ज्ञात हो कि ठाकुर सरदार सिंह खेतड़ी रियासत (ठिकाना) के 11 वें और आख़िरी राजा थे, जिनकी 1987 में मौत हो गई थी.उनकी कोई संतान नहीं होने के कारण राज्य सरकार ने राजस्थान एस्चीट्स रैगुलेशन एक्ट-1956 के तहत खेतड़ी की क़रीब 2000 करोड़ की संपत्ति पर क़ब्ज़ा कर लिया था.तब से (पिछले 37 सालों से) तीन पक्षों- खेतड़ी ट्रस्ट, ठाकुर सरदार सिंह के कथित उत्तराधिकारी और राज्य सरकार के बीच राजस्थान हाईकोर्ट से शुरू हुआ मालिकाना हक़ का मामला सुप्रीम कोर्ट में आज भी लंबित है.इसमें दिलचस्प बात यह है तीनों पक्षों द्वारा रखे गए तमाम प्रमाणों में किसी में भी खेतड़ी के राजा फ़तेह सिंह के राज में नंदलाल नामक किसी व्यक्ति के दीवान पर तैनात होने का ज़िक्र नहीं है.
अजीत सिंह को राजा फ़तेह सिंह के मरने के बाद गोद लिया गया था, या पहले: अजीत सिंह के प्रारंभिक और फ़तेह सिंह के जीवन के अंतिम भाग की कहानी हमें कई जगहों पर मिलती है, मगर कहीं भी यह पता नहीं चलता है कि राजा फ़तेह सिंह अपना वारिस बनाये बिना इस दुनिया से चल बसे थे, और उनके मरणोपरांत अजीत सिंह के लिए सिंहासन तक का मार्ग किसी के द्वारा चोरी-छिपे तैयार किया गया था.
दरअसल, खेतड़ी नगर जितना मशहूर अपने तांबे की खान को लेकर है उतना ही यह स्वामी विवेकानंद और राजा अजीत सिंह के बीच संबंधों को लेकर भी जाना जाता है.कहते हैं कि राजा अजीत नहीं होते, तो विवेकानंद भी विवेकानंद नहीं होते.यानि, पहले वे विविदिषानंद थे, राजा अजीत सिंह ने उन्हें विवेकानंद नाम दिया; और 1893 में अमरीका के शिकागो में हुई विश्व धर्म संसद में भारत के ज्ञान व संस्कृति का परचम लहराने में सहायक बने.
अजीत सिंह आख़िर थे कौन? ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार अजीत सिंह (1861-1901) खेतड़ी के आठवें राजा थे, जो 1870 में फ़तेह सिंह की मौत के बाद सिंहासन पर बैठे थे.उनका जन्म 16 अक्टूबर, 1861 को शेखावाटी क्षेत्र या यूं कहिये कि उत्तरी राजस्थान के अलसीसर की शेखावत रियासत में हुआ था.उन्हें खेतड़ी के सातवें राजा फ़तेह सिंह ने गोद लिया था.
यानि, बालक अजीत के खेतड़ी के उत्तराधिकारी बनने या बनाने में किसी अन्य की भूमिका नहीं थी, उन्हें राजा फ़तेह सिंह ने अपने जीवन काल में नियुक्त कर दिया था.
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम पुरस्कार से सम्मानित, कई पुस्तकों के लेखक व चिंतक डॉ. जुल्फिकार ने स्वामी विवेकानंद व राजा अजीत सिंह के जीवन पर अपने शोध में कहा है कि ”राजा अजीत सिंह बहादुर सन 1870 से 1901 तक राजस्थान के पंचपना में खेतड़ी की शेखावत संपत्ति (ठिकाना) के शासक थे.उनका जन्म 16 अक्टूबर, 1861 को राजस्थान के झुंझुनूं जिले के अलसीसर क़स्बे में हुआ था.उनके पिता ठाकुर छत्तू सिंह थे, तथा माता उदावत जोधपुर में निमाज के ठाकुर की बेटी थीं.मात्र 6 वर्ष की उम्र में अजीत सिंह के ऊपर से माता-पिता का साया उठ गया था.”
डॉ जुल्फिकार के अनुसार ”खेतड़ी नरेश फ़तेह सिंह ने अलसीसर प्रवास के दौरान अजीत सिंह को दत्तक पुत्र बनाया था.अजीत सिंह 1870 ई. में फ़तेह सिंह की मृत्यु के बाद खेतड़ी नरेश बने.स्वामी विवेकानंद से वे पहली बार 4 जून, 1891 को आबू में मिले थे.”
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