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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

लव को सेक्स समझने वाले लोग ही प्रेम को रोग बताते हैं

स्वाभाविक प्रेम प्रत्येक मनुष्य के अन्तःस्थल में विद्यमान वह गुण या विशेषता है, जो अपने आप में तो पूर्ण है ही, अपने प्रभाव से किसी व्यक्ति को भी पूर्ण और विशिष्ट बना देता है.

पश्चिम का ‘लव’ पूरब के ‘प्रेम’ से बिल्कुल अलग है.उसमें शरीर है तो इसमें मन या आत्मा है.यहां चमड़ी और मांसलता का ज़ोर नहीं है इसलिए कोई रोग भी नहीं है.कोई प्रेमी कभी रोग नहीं हो सकता है.

प्रेम का रोग (प्रतीकात्मक) (स्रोत)

अंग्रेजी में सेक्स करने को ‘मेकिंग ऑफ़ लव’ या ‘लव मेकिंग’ कहते हैं.साथ ही, ‘रिलेशन’ और ‘अफ़ेयर’ भी ‘फिजिकल रिलेशनशिप’ या शारीरिक संबंध को ही दर्शाते हैं, जबकि प्रेम संबंधों से परे है.यह व्यक्ति से भी परे है, और अनंत आकाश की तरह है, जिसकी कोई सीमा नहीं है.

हालांकि खिचड़ी जैसे भौगोलिक और सामाजिक माहौल मिलकर इंसान के सोचने पर असर डालते हैं.इसलिए पूरब की सोच में भी आ रहे फ़र्क की यही सबसे बड़ी वज़ह है मगर, मूल तो मूल है, यह सदैव सदाबहार प्रेम की वक़ालत करता है.इसी को श्रेष्ठ मानता है.

अध्ययनों के पता चलता है कि पश्चिम के लोग खुदगर्ज़ होते हैं.उनके लिए अपनी ख़ुशी सबसे पहले आती है, और दूसरे ठगे जाते हैं.मगर, इस ठगी या चालाकी का उन्हीं पर दुष्प्रभाव होता है, और नतीज़तन तृष्णा या राग द्वेष से ग्रसित होकर वे विभिन्न प्रकार की समस्याओं से घिर जाते हैं.

मगर मज़े की बात यह है कि जैसे वे ख़ुद हैं वैसा ही वे सारी दुनिया को समझते और मानते हैं.ऊपर से ज़्यादा ज्ञानी-ध्यानी होने का भ्रम भी है उन्हें.इसलिए, तथाकथित ये अग्रणी लोग केवल और केवल अपनी प्रमुखता या श्रेष्ठता दिखाने के लिए आधुनिकता और विज्ञान के नाम पर अज़ीबोगरीब दलीलों का सहारा लेते हैं.

क्या सच में प्रेम एक रोग है?

पश्चिम के कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रेम एक रोग है, जिसके लिए एक रसायन ज़िम्मेदार होता है.उनके अनुसार, किसी व्यक्ति का यह रोग दूर करना हो, तो उसके उस एंजाइम या प्रोटीन को रोक दिया जाए, जो डोपामाइन रसायन (शरीर से मष्तिष्क को संकेत भेजने वाला रसायन, जिसे न्यूरोट्रांसमीटर भी कहा जाता है) के साथ प्रतिक्रिया करता है.

इसके लिए वे शराब का उदाहरण देते हैं.कहते हैं कि जब कोई शराब पीता है, तो यह रसायन उसे मज़ा देता है.इस प्रकार, नशा या सुरूर बढ़ता जाता है और चरम पर पहुंचकर उसे यह क्रिया बार-बार दोहराने (शराब पीने) के लिए उकसाता है.

एक नए शोध में कथित प्राप्त जानकारी का दावा करने वाले पश्चिम के ही कुछ अन्य वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इश्क़ में अगर क़रार न मिले, तो इश्क़ परेशानी का सबब बन जाता है.यानि, प्यार में अगर सफलता मिल जाती है (आशिक़ को माशूक़ और माशूक को उसका आशिक़ मिल जाने पर), तो प्यार का दुष्प्रभाव या लवसिकनेस (Lovesickness) समाप्त हो जाता है अन्यथा प्यार इंसान को बीमार बना देता है.

इनके अनुसार, प्यार होते ही कोर्टिसोल या स्टेरॉयड हार्मोन (जो ब्लड शुगर और मेटाबॉलिज्म को नियंत्रित करने, सूजन को कम करने के साथ स्मरण शक्ति को भी मजबूती दने का काम करता है) खून की नलियों के ज़रिए हमारे आमाशय (पेट) में पहुंच जाता है, जिससे गुड़गुड़ाहट होने लगती है, और भूख भी नहीं लगती है.लेकिन फिर, जैसे-जैसे प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे के साथ सहज होते जाते हैं, स्थिति सामान्य होने लगती है.

यानि, प्यार एक रोग है, या रोग का कारण है वगैरह वगैरह.

परंतु, यह पूरा सच नहीं है.इसमें आधा सच और आधा झूठ है.यहां तक कि यदि तर्कों में जाएं, तो इसे पूरी तरह ग़लत भी साबित किया जा सकता है. मगर, कैसे?

हम सभी जानते हैं कि इन्द्रियों के विषय स्वाद, स्पर्श, गंध, श्रवण, रूप आदि आसक्ति और विमुखता की ओर ले जाकर व्यक्ति को असंयमी बना देते हैं.इससे न तो उसका मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रह जाता है, न ही उसकी बुद्धि दृढ़ हो पाती है.

यूं समझ लीजिए कि जिस तरह तेज हवा अपने तेज प्रवाह (बहाव) से पानी पर तैरती हुई नाव को बहाकर दूर तक ले जाती है उसी तरह वह इंद्रिय (शरीर का अवयव, जिससे विषयों का ज्ञान व कर्म संपादित होता है), जिसमें मन अधिक रमा या लिप्त रहता है, बुद्धि को भ्रष्ट कर देती है.

ऐसे में, न केवल मन अशांत रहने लगता है, बल्कि शरीर के अंदर बनने वाले विभिन्न रसायन विपरीत प्रतिक्रिया करते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करने लगते हैं, और व्यक्ति को बीमार बना देते हैं.

यानि, यहां परिस्थिति दूसरी है.यहां वह मन का भाव या ह्रदय की स्थिति, जिसे प्रेम कहा जा रहा है वह दरअसल, प्रेम नहीं वासना है.सेक्सुअल डिजायर (कामेच्छा) है, जो ‘लव अफेयर’ (इश्क़) या ‘फिजिकल रिलेशनशिप’ (शारीरिक संबंध, हमबिस्तरी) की ओर ले जाता है.

ऐसे में, प्रेम या प्यार क्या है, किसे सच्चा प्यार कहा जाता है और किसे झूठा, इन सब की तर्कपूर्ण व्याख्या आवश्यक हो जाती है.

प्रेम आख़िर है क्या?

प्रेम को शाब्दिक रूप में देखें, तो यह किसी व्यक्ति, वस्तु, कार्य, बात, विषय आदि के प्रति मन में पैदा होने वाला राग, प्रीति, प्यार, स्नेह, अनुराग, मुहब्बत, इश्क़, माया, लोभ, आदि हो सकता है.

प्रेम को परिभाषित करें, तो यह ऐसा एहसास है, जो दिमाग़ से नहीं दिल से होता है, जिसमें अनेक भावनाओं व अलग-अलग विचारों का समावेश होता है.

मगर, ज्ञानी जनों या विशेषज्ञों की राय में प्रेम कोई भावना नहीं, यह तो हमारा अस्तित्व है.यही हमारा मूल है.प्रेम हम सब से परे है.

व्यक्तित्व बदलता है.शरीर, मन और व्यवहार बदलते रहते हैं पर, प्रेम सदा बना रहता है क्योंकि यह अपरिवर्तनशील है.शाश्वत है.

किसी घटना, व्यक्तित्व और वस्तु से अप्रभावित रहना ही निर्विकार या शुद्ध प्रेम है.

प्रेम में प्राप्ति का कोई भाव नहीं होता है, जबकि इसमें स्वयं को खो देना ही प्रेम को पा लेना है.

क्या प्रेम भी अलग-अलग प्रकार का होता है?

प्रेम तो एक ही है, जिसका कोई नाम और भेद नहीं है.इसे कोई नाम देना दरअसल, संबंध जोड़ना और इसे सीमित करना है.मगर, इसे समय का फेर कहिए बदलती दुनिया की हक़ीक़त, प्रेम की प्राचीनता लगभग खो गई है; और यह भी अब अलग-अलग रूप या प्रकार में देखा समझा जा सकता है.

आकर्षण वाला प्रेम: वह प्रेम, जो किसी व्यक्ति के आकर्षण के कारण उत्पन्न होता है, आकर्षण वाला प्रेम कहलाता है.या दैहिक प्रेम अक्सर पहली नज़र में हो जाता है.मगर जैसे-जैसे समय बीतता है, यह घटता और विकृत होता जाता है और आख़िरकार नफ़रत में बदलकर ग़ायब हो जाता है.

आकर्षण वाला प्रेम क्षणिक होता है क्योंकि यह अज्ञानता और सम्मोहन या वशीकरण के प्रभाव में जन्म लेता है.पश्चिम में ऐसा ही प्रेम दिखाई देता है, या यूं कहिए कि वहां इसी को प्रेम कहा जाता है.

सुख-सुविधा वाला प्रेम: वह प्रेम, जो जीवन में सुख सुविधाएं प्राप्त करने के उद्देश्य से होता है, या दौलत और शोहरत के कारण मिलता है, सुख-सुविधा वाला प्रेम कहलाता है.इसे अवसरवादी प्रेम भी कह सकते हैं.

यह लोगों को जल्दी क़रीब लाता है.लेकिन, समय और स्थान आधारित इस प्रकार के प्रेम में वास्तविक उत्साह और आनन्द नहीं होता है.

स्वाभाविक प्रेम: स्वाभाविक प्रेम प्रत्येक मनुष्य (या हर जीवजगत में पाया जाने वाला) के अन्तःस्थल में विद्यमान वह गुण या विशेषता है, जो अपने आप में तो पूर्ण है ही, अपने प्रभाव से किसी व्यक्ति के जीवन को भी पूर्ण और विशिष्ट बना देता है.इसे वास्तविक या दिव्य प्रेम भी कहा जाता है.यह सदाबहार (सदा हरा भरा रहने वाला) और सदा नवीन (नया) होता है.

इसमें सुख-दुख और राग और द्वेष का कोई स्थान नहीं होता है क्योंकि यह तो एक योगी के ह्रदय की भांति पवित्र और निश्चल होता है.सदा निश्चिन्त रहता है.

स्वाभाविक प्रेम आकर्षण वाले प्रेम और सुख सुविधाओं वाले प्रेम से बिल्कुल अलग होता है.इसे यूं समझिए कि आकर्षण वाले प्रेम और सुख सुविधाओं वाले प्रेम, दोनों एक सागर की तरह हैं, जिनकी एक सीमा होती है, जबकि स्वाभाविक प्रेम आकाश के जैसा है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है.

सबसे बड़ी या मूल बात यह है कि स्वाभाविक प्रेम व्यक्ति को धो-पोंछकर बिल्कुल साफ़ और इस क़दर मजबूत बना देता है कि उसमें किसी प्रकार के बाहरी संक्रमण या आन्तरिक समस्या पैदा होने की गुंजाइश ही नहीं रहती है.फिर, उसके बीमार होने का सवाल ही नहीं उठता है.

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रामाशंकर पांडेय

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