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लीच थैरेपी का बढ़ता चलन और संभावनाएं

लीच थैरेपी या जोंक चिकित्सा में जोंक से रोगी के शरीर के प्रभावित स्थान पर कटवाकर वहां से गंदे खून को चुसवाया जाता है.इस प्रक्रिया को जलौकावचरण या जलौका लगाना कहते हैं.जब जोंक काटती है, तो अपनी लार (सलाइवा) स्रावित करती है, जिसमें जैविक रूप से सक्रिय 100 से अधिक विभिन्न पदार्थ होते हैं, जो रोगी के खून में मिलकर कई प्रकार के लाभ पहुंचाते हैं.

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अपनी ख़ास जगह बना चुकी लीच थैरेपी या जोंक चिकित्सा का दायरा बढ़ता जा रहा है.अनेक रोगों, और उन जटिलताओं में भी यह कारगर साबित हो रही है जहां आधुनिक चिकित्सा पद्धति या एलोपैथी नाक़ाम हो जाती है.इसे यूं कहिये कि अब यह एक पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा की परिधि से बाहर निकलकर अपनी विशिष्टता सिद्ध करती दिखाई देती है.कुछ मामलों में तो जोंक चिकित्सा आज एकमात्र उपचार विधि या आख़िरी सहारा मानी जा रही है.आयुर्वेद के विशेषज्ञों के मुताबिक़ जोंक की लार में 100 से अधिक जैव सक्रिय पदार्थ (बायो एक्टिव सब्सटांसेस) होते हैं, जिनमें से कईयों का पता लगाया जा चुका है, और आगे अध्ययन जारी है.मानव जाति की भलाई के लिए कई शोधकर्ता और चिकित्सक आयुर्वेद और महर्षि सुश्रुत की इस प्राचीन उपचार विधि की उपलब्धियों को गहराई से जानने और पुनर्स्थापित करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं.

अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान और सर्जन एवं लीच थैरेपी विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता

औषधीय जोंक चिकित्सा की जड़ें प्राचीन भारत में हैं.यह पारंपरिक भारतीय चिकित्सा आयुर्वेद का एक सक्रिय हिस्सा रही है.साक्ष्य के रूप में, आयुर्वेद के देवता, भगवान धन्वंतरी अपने चार हाथों में से एक में जोंक रखते हैं.सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान के अध्याय 13, जलौकवाचरणीय अध्याय में जलौकावचरण या जोंक से उपचार का विस्तृत वर्णन है.आचार्य चरक ने जोंक चिकित्सा को शल्य प्रक्रिया माना है.

दरअसल, मानव सभ्यता के उद्गम स्थल प्राचीन भारत से जलौका या जोंक से रक्तपात की यह आयुर्वेदिक चिकित्सकीय विधा कालांतर में मेसोपोटामिया, मिस्र, यूनान, माया और एज्टेक सभ्यता तक पहुंची.इसे यूं कहिये कि वे घुमंतू भारतीय ही थे जिन्होंने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जाकर अपनी अलग पहचान बनाई, मगर अपनी परंपराओं को जारी रखते हुए आयुर्वेद के ज्ञान को आगे बढाया.लेकिन, वक़्त और हालात में बदलावों और भाषाई भिन्नता के कारण प्राचीन जलौकावचरण आगे चलकर हिरुडोथैरेपी या लीच थैरेपी के नाम से जाना गया.फिर, धीरे-धीरे यह दुनिया के अन्य भागों में भी फैलता गया, और लोग इसका लाभ उठाते रहे.

मगर 20 वीं सदी की शुरुआत में (1930 के आसपास) एंटीबायोटिक दवाओं की उत्पत्ति और विकास के कारण लीच थैरेपी का महत्त्व काफ़ी हद तक कम या लगभग नहीं के बराबर हो गया.फिर, पुनर्निर्माण सर्जरी में इसके उपयोग के कारण यह पुनर्जीवित हुआ.दरअसल, यह वह दौर था जब लीच थैरेपी के विभिन्न पहलुओं पर शोध शुरू हुए, और विभिन्न चिकित्सीय संकेतों को फिर से मान्यता मिली.हाल के कुछ दशकों में नए-नए प्रकार के रोग और जटिलताएं उभरी हैं, तो लीच थैरेपी पर शोध ने नए संकेत भी खोजे हैं, और यह लगातार जारी है.

राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त सर्जन-चिकित्सक और प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार लीच थैरेपी पर नए-नए शोध का ही परिणाम है कि आज अनेक रोगों के इलाज की प्रक्रिया आसान, किफ़ायती और दुष्प्रभाव रहित हुई है.उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में स्थिति और बदलेगी, और जोंक कई जानलेवा बीमारियों को ठीक करने में अपना करिश्मा दिखाती नज़र आयेंगीं.

दरअसल, नवीनता के भ्रमजाल में हमने जिन कई प्राचीन विशिष्टताओं को भुला दिया था, उन पर फिर से मंथन चल रहा है जैसे खोये हुए को फिर से पाने की कोशिश हो रही हो.जोंक चिकित्सा भी इसमें शामिल है.इस चिकित्सा में आज हम तंत्रिका तंत्र की विसंगतियों (Nervous System Anomalies), दांतों की समस्या, त्वचा संबंधी बीमारियों और संक्रमण के इलाज से आगे बढ़कर ट्यूमर, अल्सर, बवासीर, आंखों के रोग, थ्रोम्बोसिस या घनास्त्रता, असाध्य घाव या नासूर, फ्लेबिटिस और गाउट, ह्रदय रोग (हार्ट ब्लॉकेज), किडनी की समस्या, सर्जरी के बाद रक्त के थक्के बनने की समस्या में, अस्थमा के उपचार में, विभिन्न प्रकार के दर्द, ऑस्टियोआर्थराइटिस (टखने, कूल्हे, घुटने, कंधे, छोटे जोड़ों में दर्द) में, स्थानीय संक्रमण, जैसे फोड़े-फुंसी, व्यंग (वायु दोष के कारण निकलने वाली फुंसियां या दाने), स्तनदाह (मैस्टाइटिस), अंगुलबेल (पैरोनिशिया) में, हाई ब्लड प्रेशर और माइग्रेन के इलाज में, एलोपेसिया या गंजेपन की समस्या, वैरिकोज वेंस (स्पाइडर वेंस या वैरिकोसिटिज), कॉस्मेटिक सर्जरी से जुड़ी जटिलताओं, इत्यादि अनेक मामलों में अच्छे नतीजे प्राप्त कर रहे हैं.कैसर के इलाज में सीधे लाभ मिलने की उम्मीद है.

इस प्रकार, यह चिकित्सा काफ़ी महत्वपूर्ण है.यही कारण है कि इसके बारे में कई ग्रंथों में चर्चा मिलती है.सुश्रुत संहिता में तो एक पूरा अध्याय जोंक चिकित्सा को समर्पित है.बावजूद इसके, आज भी कम ही लोग इसके बारे में जानते हैं.ऐसे में, ज्ञानवर्धन और जनकल्याण के उद्देश्य से इसके सभी पहलुओं पर चर्चा आवश्यक हो जाती है.

लीच थैरेपी क्या है जानिए

लीच थैरेपी (Leech Therapy) यानि, जोंक पद्धति या जोंक चिकित्सा एक प्रकार का इलाज है, जो जोंक द्वारा किया जाता है.जोंक, जिसे अंग्रेजी में लीच (Leech) या ब्लड सकर (Blood sucker) कहते हैं, पानी का कीड़ा है, जो प्राणियों का खून चूसता है.इस दौरान वह अपनी लार ग्रंथियों (Salivary glands) से जैविक रूप से सक्रिय विशेष पदार्थों का मिश्रण स्रावित करता है, जो अनेक रोगों के उपचार में सहायक होता है.लीच या जोंक चूंकि हिरुडीनीया उपवर्ग (Hirudinea Subclass) से संबंधित परजीवी या कीड़ा है इसलिए, इसके द्वारा इलाज को हिरुडोथैरेपी भी कहा जाता है.

लीच थैरेपी या जोंक चिकित्सा को आयुर्वेद में जलौकावचरण कहा गया है.जलौकावचरण= जलौका (जोंक) + अवचारण (प्रक्रिया, चिकित्सा विज्ञान में कोई क्रिया या प्रक्रिया).यानि, जलौका के उपयोग से उपचार की प्रक्रिया को जलौकावचरण कहते हैं.

जलौका= जल (पानी) + ओका (निवास स्थान).जोंक का निवास चूंकि जल में है इसलिए, उसे जलौका कहा गया है.

जोंक को जलयुका भी कहा जाता है क्योंकि पानी ही इसका जीवन है.जोंक पानी से निकलती है, ठंड में रहती है, और मीठी होती है इसलिए, पित्त दोष की स्थिति में इसका उपयोग जलौकावचरण क्रिया द्वारा रक्तमोक्षण के लिए किया जाता है.

रक्तमोक्षण= रक्त (खून) + मोक्षण (छोड़ना).रक्त को छोड़ना यानि, बहने देना रक्तमोक्षण कहलाता है.ज्ञात हो कि जलौका लगाने के बाद अशुद्ध रक्त को बहने दिया जाता है.

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार रक्तमोक्षण एक प्रकार के शोधन या शुद्धिकरण, निराविषन (detoxification) क्रिया है, जो पंचकर्म के अंतर्गत आती है.चरक संहिता में शोधन चिकित्सा को 5 के समूह में रखा गया है, और उन्हें पंचकर्म कहा गया है- वमन (उल्टी), विरेचन (रेचक औषधि द्वारा उदर के विकारों की शुद्धि), वस्ति (एनिमा), नास्यम (जड़ी-बूटियों के तरल या तेलों से नाक की सफ़ाई) और रक्तमोक्षण (रक्त छोड़ना).

इलाज में किस प्रकार की जोंक उपयोग में लाई जाती है?

जोंक चिकित्सा के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता के अनुसार सुश्रुत संहिता में 12 प्रकार के जलौका या जोंक का वर्णन है.इन्हें 2 वर्गों में विभाजित किया गया है- सविष (विषैली या ज़हरीली) और निर्विष (विषहीन या ग़ैर-ज़हरीली).प्रत्येक संख्या में 6 हैं.यानि, 6 सविष और 6 निर्विष हैं.

ज़हरीली क़िस्मों की जोंक: ऐसी जोंक, जो ज़हरीली मछलियों, मेंढकों और अन्य जलीय कीड़ों के मल-मूत्र और उनके सड़े-गले शवों वाले जल निकाय में (पानी के स्रोत) में जन्म लेती हैं और निवास करती हैं, ज़हरीली होती हैं.ये निम्नलिखित हैं-

कृष्ण जलौका- काले रंग और बड़े सिर वाली

करबुरा जलौका- यह भूरी, मछली जैसी, खंडित पेट वाली, और उभरी हुई होती है.

अल्गार्दा जलौका- यह रोयेंदार, बड़े पार्श्व (बगल, कांख के नीचे का भाग) और काले मुंह वाली होती है.

इंद्रयुद्ध जलौका- इसकी पीठ पर इन्द्रधनुष के रंगों वाली धारियां होती हैं.

समुद्रिका जलौका- इसके शरीर पर काले और पीले रंग के धब्बे या फूलों जैसे निशान होते हैं.

गोचंदना जलौका- इसके शरीर का निचला हिस्सा दो भागों में बंटा हुआ और मुंह छोटा होता है.

इनके द्वारा काटे गए स्थान पर सूजन और खुजली हो सकती है.साथ ही, जलन, दर्द, उल्टी, बुखार, कमज़ोरी, नशा या बेहोशी भी हो सकती है.इसलिए इलाज में इनका प्रयोग वर्जित है.

विषहीन या ग़ैर-ज़हरीली जोंक: विषहीन या ग़ैर-ज़हरीली जोंक स्वच्छ जल निकाय (साफ़ पानी) वाली जोंक हैं.ये कमल, लिली या कुमुदिनी, आदि फूलों से समृद्ध और सुगंधित जल में रहती हैं तथा अस्वास्थ्यकर या विषैले पदार्थों को खाने से परहेज़ करती हैं इसलिए, विषहीन होती हैं.ये निम्नलिखित हैं-

कपिला जलौका- ये गहरे भूरे रंग की होती हैं.इनकी पीठ तैलीय या चिकनी होती है, और किनारों पर नारंगी रंग की रेखाएं होती हैं.

पिंगला जलौका- ये हल्के लाल रंग की, और आकृति में गोल होती हैं.ये तेज चलती हैं, और खून भी जल्दी चूसती हैं.

शंकमुखी या शंखमुखी जलौका- ये भूरे रंग की, लंबे व नुकीले मुंह वाली होती हैं.ये तेजी से रक्त पीती हैं.

मूषिका जलौका- ये रंग, आकार और गंध में चूहे की तरह होती हैं.

पुंडरीकमुखी जलौका- ये हरे रंग की होती हैं.इनका मुंह चौड़ा होता है, जो कमल के फूल के समान दिखाई देता है.

सावरिका जलौका- ये गुलाबी रंग की, औरों से लंबी और तैलीय प्रकृति की (फिसलने वाली) होती हैं.इनका उपयोग मवेशियों के इलाज में किया जाता है.

आयुर्वेद में यही 6 प्रकार की जोंक महत्वपूर्ण बताई गई हैं.इन्हें मेडिसिनल लीच (Medicinal Leech) या औषधीय जोंक कहा जाता है, और इलाज में इन्हीं का उपयोग होता है.

जलौका लगाने का तरीक़ा जानिए

लीच थैरेपी या जोंक चिकित्सा का मतलब है लीच (Leech) यानि, जोंक या जलौका से रोगी के शरीर के प्रभावित स्थान या अंग पर कटवाकर वहां से अशुक्त रक्त या गंदे खून को चुसवाना.इस प्रक्रिया को जलौकावचरण या जलौका लगाना कहते हैं.ज्ञात हो कि जब जोंक काटती है, तो अपनी लार (सलाइवा) स्रावित करती है, जिसमें जैविक रूप से सक्रिय 100 से अधिक विभिन्न पदार्थ होते हैं, जैसे एंटीप्लेटलेट एग्रीगेशन फैक्टर (प्लेटलेट को आपस में चिपकने से रोकने वाले कारक), एनेस्थेटिक या संवेदनाहारी, सूजनरोधी और एंटीबायोटिक या प्रतिजैविक पदार्थ या यौगिक, आदि.ये रोगी के खून में मिलकर कई प्रकार के लाभ पहुंचाते हैं.

चेहरे और सिर पर जोंक लगाते चिकित्सक

प्रोफ़ेसर व्यासदेव महंता बताते हैं कि जोंक की लार में एंटीकोगुलेंट या थक्कारोधी, हिरुडिन (पेप्टाइड या प्रोटीन) भी होता है, जो रक्त के थक्के बनने से रोकता है, और थ्रोम्बी या रक्त के थक्के को घोलता है.इससे दूरस्थ धमनियों में आंशिक और पूर्ण रुकावटें दूर होती हैं.

प्रोफ़ेसर महंता के मुताबिक़ जब जोंक काटती है, तो उनकी लार में मौजूद रसायन रोगी की रक्त वाहिकाओं को फैलाते हैं, और उनके रक्त को पतला करते हैं.साथ ही, एनेस्थेटिक या संवेदनाहारी पदार्थ स्रावित करने से काटने से होने वाला दर्द भी नहीं होता है, जिससे जोंक की मौजूदगी का पता नहीं चलता है.

इसके अलावा, जोंक खून को पीकर उत्तकों की सूजन को कम करते हैं, और उपचार को बढ़ावा देते हैं.ये सूक्ष्म परिसंचरण क्रियाएं (शरीर में रक्त की निरंतर गति या प्रवाह) दरअसल, सामान्य परिसंचरण की बहाली से पहले रोगी के प्रभावित क्षेत्रों तक ताज़ा ऑक्सीजन युक्त रक्त को पहुंचने में सक्षम बनाती हैं.

इस प्रकार, एक सामान्य सा दिखने वाला कीड़ा वास्तव में सामान्य नहीं है.बहुत ख़ास है.इसी प्रकार इसके उपयोग की प्रक्रिया सरल होते हुए भी जानकारी, सावधानी और कुछ नियमों से बंधी है.सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि जो चिकित्सक जोंक के निवास स्थान, उन्हें पकड़ने का तरीक़ा, उनकी क़िस्मों, प्रकृति, पालन और उनके उपयोग के बारे में अच्छी तरह जानता है, उसे ही जलौका लगानी चाहिए.यानि, जलौकावचरण की सफलता दर चिकित्सक के अनुभव व विशिष्टता पर भी निर्भर करती है.

जलौका लगाने की तैयारी: सबसे पहले जोंक के निवास स्थान अथवा जहां उसे रखा गया हो, वहां से निकालकर ताजे पानी वाले बर्तन में रख देना चाहिए.

फिर, उसकी अच्छी तरह सफ़ाई कर उसके शरीर पर सरसों और हल्दी मिला घोल लगाकर उसे दूसरे साफ़ पानी से भरे बर्तन में क़रीब 28 मिनट तक रखना चाहिए.इससे वह सक्रिय होकर काटने और खून चूसने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाएगी.

जलौकावचरण की विधि: रोगी को या तो बिठाना चाहिए या फिर लिटा देना चाहिए.

अब, प्रभावित स्थान या अंग पर मिट्टी या गोबर के चूर्ण से हल्का रगड़कर खुरदरा कर देना चाहिए.लेकिन यदि, रोगग्रस्त स्थान पर घाव हो, तो उसे रुई के फाहे (टुकड़े) को गर्म पानी में भिगोकर साफ़ करना चाहिए.

फिर, उस स्थान पर जोंक को रख देना चाहिए.वह काटना और रक्त चूसना शुरू कर देगी.बताया गया है कि जोंक को 45 मिनट तक के लिए छेड़ना नहीं चाहिए, उसे यूं ही स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए.

कैसे पता चलता है कि जोंक काट-चूस रही है?

जब जोंक घोड़े की नाल की आकृति में मुंह बनाकर गर्दन ऊपर उठाये, तो समझ लेना चाहिए कि उसने काट लिया है, और खून चूस रही है.ऐसी स्थिति में, उस पर सूती का गीला कपड़ा या रुई का टुकड़ा डाल देना चाहिए.

जोंक अगर नहीं काटती है, तो क्या करना चाहिए?

जोंक अगर नहीं काटती है, तो उसके मुंह पर दूध या मरीज़ के खून की एक बूंद टपका देनी चाहिए.इसके बजाय, प्रभावित स्थान पर एक छोटा सा चीरा लगाकर उस पर जोंक को रखा जा सकता है.

इसके बावजूद, जोंक चिपकती या काटती नहीं है, तो उसे हटाकर उसके बदले दूसरी जोंक लगा देनी चाहिए.

जोंक के काटने-चूसने से दर्द और खुजली हो, तो क्या करना चाहिए?

जोंक काटती है, तो एनेस्थेटिक या संवेदनाहारी पदार्थ स्रावित करती है.इससे रोगी को दर्द महसूस नहीं होता है.यहां तक कि उसे अपने शरीर पर जोंक की उपस्थिति का भी पता नहीं चलता है.यदि ऐसा नहीं है, रोगी को जोंक द्वारा काटे गए स्थान पर चुभन जैसा दर्द और खुजली महसूस हो, तो समझ लेना चाहिए कि जोंक शुद्ध रक्त पी रही है.ऐसे में, उसके मुंह पर या सिर की तरफ़ हल्दी चूर्ण या सेंधा नमक डालकर हटा देना चाहिए.

जोंक ख़ुद अलग न हो, तो क्या करना चाहिए?

45 मिनट की अधिकतम समय सीमा में जोंक का पेट भर जाता है.इसलिए, वह रक्त पीना बंद कर स्वयं उस स्थान से अलग हो जाती है जहां उसने काटा है.मगर यदि, ऐसा नहीं होता है, इतने संमय बाद भी जोंक चिपकी रहती है, तो उसे हटाने के लिए उसके सिर पर एक चुटकी हल्दी या सैन्धव लवण का चूर्ण (सेंधा नमक) डाल देना चाहिए.इससे जलन के कारण कुछ ही क्षणों में वह अलग हो जाएगी.

अशुद्ध रक्त पूरी तरह बाहर न निकले, तो क्या करना चाहिए?

जोंक अगर पूरा अशुद्ध रक्त पीये बिना स्थान छोड़ देती है अथवा जोंक के चूसने के बावजूद अशुद्ध रक्त शेष रह जाता है, तो उस स्थान पर हल्दी, गुड़ और शहद मिला लेप लगा देना चाहिए.कुछ ही देर में बाक़ी बेकार खून भी निकल जायेगा.

इलाज के बाद की क्रिया- मरीज़ के साथ

जोंक द्वारा काटे गए स्थान या घाव से रक्त अच्छी तरह निकल या बह जाने के बाद उसकी सफ़ाई कर उस पर शतधौत घी या जात्यादी घृतम में डुबोया हुआ सूती कपड़ा या रुई का फाहा रखकर हल्की पट्टी बांध देनी चाहिए.

इलाज के बाद की क्रिया- जोंक के साथ

उपचार के बाद जोंक के लिए वमन क्रिया या उल्टी ज़रूरी है.इसलिए, ऐसा कहा गया है कि जब जोंक रक्त पीकर गिर जाये या रोगी के शरीर से अलग हो जाये, तो उसके साथ उल्टी की क्रिया करनी चाहिए.इसके लिए पहले जोंक के शरीर पर चावल का आटा छिड़कना या नमक और तेल का घोल मलना चाहिए.फिर, उसके निचले या पूंछ के सिरे को ऊपर की ओर उठाकर मुंह की ओर हल्का दबाना चाहिए.इससे वह सारा खून उगल देगी जिसे उसने निगला या पीया है.

इसकी जांच के लिए, उसे जलपात्र (पानी से भरे बर्तन) में डालकर देखना चाहिए.यहां अगर वह तेजी से इधर-उधर (भोजन की तलाश में) भागती नज़र आये, तो समझना चाहिए कि उसने उल्टी अच्छी तरह कर दी है.

लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है, जोंक पानी में डूब जाती है या कोई हरक़त नहीं करती है, तो समझ लेना चाहिए कि उसने पूरी उल्टी नहीं की है, अब भी उसके पेट में रक्त शेष है.ऐसे में, एक बार फिर से उल्टी करवानी चाहिए.

ज्ञात हो कि जोंक अगर ठीक से उल्टी नहीं करती है, उसके पेट में अशुद्ध रक्त शेष रह जाता है, तो उसे इंद्रमद नामक लाइलाज बीमारी हो जाती है.इससे उसकी मृत्यु भी सकती है.

लीच थैरेपी में जोखिम

लीच थैरेपी या जोंक चिकित्सा बहुत सुरक्षित प्रक्रिया है.मगर जैसा कि हम जानते हैं कि किसी कार्य में सावधानी बरतना आवश्यक होता है अन्यथा नुकसान की गुंजाइश रहती है.इसलिए, जोंक के उपयोग से पहले रोगी के स्वास्थ्य की जांच होनी चाहिए.यदि,वह प्रतिराक्षविहीन है या एंटीकोगुलेंट दवा ले रहा है, हीमोफीलिया या धमनी अपर्याप्तता जैसे रक्तस्राव विकार वाला है, उसे एलर्जी की समस्या है, ज़्यादा कमज़ोर हो, तो उसके लिए यह प्रक्रिया उचित नहीं है, ऐसा कहा गया है.गर्भवती महिला के साथ भी इस प्रक्रिया की मनाही है.

यह ध्यान रखना चाहिए कि जोंक प्रभावित स्थान से इधर-उधर न जाये.

आंधी-तूफान में, बारिश के मौसम में, दोपहर, शाम या रात के समय यह प्रक्रिया नहीं करनी चाहिए.

भरपेट भोजन या भोजन के तुरंत बाद जलौका नहीं लगाना चाहिए.

जोंक से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

1.बताया जाता है कि वैश्विक स्तर पर 700 से भी अधिक जोंक की प्रजातियां हैं, जिनमें से हिरुडो मेडिसिनलिस, हिरुडो वर्बेना, मैक्रोबडेला डेकोरा, हेमेंटेरिया ऑफिसिनलिस, हिरुडीनरिया मैनीलेंसिस, हिरुडोट्रेक्टिना, हिरुडो क्विन्क्वेस्ट्रीयाटा, हिरुडो निप्पोनिया, पॉइसिलोबडेला ग्रानलोज, और हिरुडीनरिया जावानिका औषधीय या चिकित्सा प्रयोग के योग्य मानी जाती हैं.

2.औषधीय जोंक को 21 जून, 2004 को खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा एक चिकित्सा उपकरण के रूप में प्रमाणित किया गया था.

3.जोंक उभयलिंगी (नर और मादा, दोनों के लिंगों वाली) होती हैं.मगर प्रजनन के लिए एक साथी की आवश्यकता होती है.पारस्परिक निषेचन से प्रजनन होता है.वयस्क होने और प्रजनन करने में सक्षम होने में इन्हें 1-3 वर्ष और 3-5 रक्त-भोजन लगते हैं.प्रजनन से पहले ये एक बार रक्त अवश्य पीती हैं.2 वर्ष की अवस्था में जोंक चिकित्सीय प्रयोग के योग्य हो जाती हैं.

4.जोंक का जीवनकाल 10 वर्षों का होता है.आमतौर पर ये 10 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान में रहती हैं.इनके प्रजनन के लिए 18 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है.

5.बिना भोजन के जोंक 100 दिनों तक जीवित रह सकती है.

6.जैविक फार्मों में जोंको को कंटेनर में ग़ैर-क्लोरिनयुक्त पानी में तालाबों आदि की प्राकृतिक गाद के साथ संग्रहित किया जाता है.इनके भोजन के लिए शैवाल, जलीय जीवों के अवशेष और कंद-मूल का चूरा तथा बिस्तर के लिए पुआल, जलीय पौधों की पत्तियां, आदि रखी जाती हैं.इनके कंटेनरों का पानी हर तीसरे दिन और कंटेनर को हर हफ़्ते बदला जाता है.

7.जोंक के दो मुंह होते हैं- आगे का और पीछे का.आगे का मुंह चूसने वाला होता है, जिसमें जबड़ा और दांत होते हैं.इसका उपयोग ये भोजन के लिए मेजबान से चिपकने के लिए करते हैं.वहीं, पीछे का मुंह मुख्य रूप से उत्तोलन उद्देश्यों (भार ऊपर की ओर उठाने) के लिए उपयोग किया जाता है.इनका लगातार जुड़ना और अलग होना जोंको की गति में मदद करता है.

8.जोंक के काटने पर वाई-आकार का निशान बनता है, जो कुछ समय बाद मिट जाता है.

9.लगभग आधे घंटे (30 मिनट) में जोंक 10-15 एमएल खून चूसने में सक्षम होती है.

अस्वीकरण: इस लेख में कही गई बातें अध्ययन और विशेषज्ञों की राय पर आधारित सामान्य जानकारी प्रदान करती हैं.यह कोई व्यक्तिगत सलाह नहीं है.खुलीज़ुबान.कॉम इसको लेकर किसी भी प्रकार का दावा नहीं करता है.इसलिए, कोई भी निर्णय लेने से पहले चिकित्सक से परामर्श अवश्य लें.

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5 Comments

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