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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

पर्यावरण को बचायेंगें तभी हम भी बचेंगें

हमारे चारों तरफ़ जो भी जैविक और अजैविक चीज़ें पाई जाती हैं, वे सभी पर्यावरण को दर्शाती हैं.इसमें भूमि, जंगल, जल, वायु और तमाम जीव-जंतु शामिल हैं.

पर्यावरण संरक्षण आमतौर पर कुछ पेड़-पौधे लगाने, हरियाली की बातें करने और पर्यावरण दिवस मनाने तक ही सीमित-संकुचित दिखाई देता है.मगर, वास्तव में इसका बहुत व्यापक अर्थ है.इसका तात्पर्य तमाम पेड़ों, पौधों, पशुओं, पक्षियों और पूरे ग्रह की सुरक्षा से है.

प्रदूषण और हमारा पर्यावरण

बाग-बगीचे तो रहे नहीं, गमलों तक हरियाली सिमटकर रह गई है.ऐसे में, हमारी सोच भी पर्यावरण के संवर्धन तो दूर इसके संरक्षण की व्यापकता तक भी पहुंच नहीं रखती.दूसरी तरफ़, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय गिरावट ने दुनिया को कुछ यूं प्रभावित किया है कि मानव जाति के भविष्य और अस्तित्व पर संकट के बादल दिखाई दे रहे हैं.

वर्तमान में ही एक समस्या जाती नहीं है कि दूसरी आ धमकती है.मौसम का मिजाज़ समझ नहीं आ रहा है, और चहुंओर आपदाओं-विपदाओं का शोर सुनाई दे रहा है.तमाम प्रगति, विज्ञान और तकनीक की उंचाइयों को छूते हुए भी हम किंकर्तव्यविमूढ़ हैं.लाशों पर मातम मनाने और नुकसान की भरपाई के गणित में सारी उर्जा खपा रहे हैं मगर, एक छोटी सी बात समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि पर्यावरण को बचायेंगें तभी हम भी बचेंगें.

क्या है पर्यावरण?

पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है वातावरण, परिवेश, माहौल आदि.यह दो शब्दों ‘परि’ और ‘आवरण’ से मिलकर बना है.परि यानि, जो हमारे चारों ओर है, और आवरण यानि, जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है.यानि, पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों का सामूहिक रूप है, जो किसी जीवधारी या पारितंत्रीय (पारिस्थितिकी) जनसांख्यिकी पर असर डालते हैं, और उनके रंग-रूप, जीवन और तौर-तरीक़ों को निर्धारित करते हैं.यह चारों तरफ़ है, और हर जीव इससे जुड़ा है.

सामान्य भाषा में कहें तो हमारे चारों तरफ़ जो भी जैविक और अजैविक चीज़ें पाई जाती हैं, वे सभी पर्यावरण को दर्शाती हैं.इसमें भूमि, जल, जंगल, वायु और तमाम जीव-जंतु शामिल हैं.

इन सभी की गुणवत्ता को बनाए रखना ही पर्यावरण की रक्षा व जिससे (जिस क्रिया से) इनका विस्तार व वृद्धि हो, उसे पर्यावरण का संवर्धन कहते हैं.

जंगल रहेंगें तो प्रकृति का संतुलन बना रहेगा

आधुनिक जगत में उद्योगों के विकास को विकास की धुरी माना जाता है और इसे प्रमुखता दी जाती है.यह ग़लत भी नहीं है क्योंकि उत्पादन, रोज़गार और आवश्यकता और पूर्ति के चक्र को समुचित-संतुलित रूप में बनाए रखने के लिए इसकी महत्ता को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.

अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन भारत में भी उद्योग-धंधे चरम पर थे, और पूरी दुनिया से हमारे व्यावसायिक-व्यापारिक संबंध थे.मगर, जिस तरह कृषि और सिंचाई पर ज़ोर दिया जाता था उसी तरह वनों या जंगलों को भी महत्त्व दिया जाता था, और कभी भी इनकी उपेक्षा नहीं होती थी.

मगर, आज स्थिति दूसरी है.आज खाद्यान उत्पादन के लिए कृषि और सिंचाई को तो तरज़ीह दी जाती है मगर, वनों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है.ये आज हमारे प्राथमिक विषयों में शामिल ही नहीं हैं.

लोग जंगल को फ़ालतू समझते हैं.उनकी नज़र में यह ज़मीन घेरने वाली चीज़ है, और इसे खेती या सफ़ाई के लिए काट देने में कुछ बुरा नहीं है.

साथ ही, लकड़ी का भी बहुत बड़ा बाज़ार है, जिसमें आम लकड़ियों और ईमारती लकड़ियों की भारी मांग है.ऐसे में, इसके व्यवसाय-व्यापार ने जंगलों को काफ़ी क्षति पहुंचाई है.पेड़ों को इतनी तादाद में और इस तरह से काटा गया है कि छोटे-मोटे जंगलों की तो सूरत ही बदल गई है.वे जंगल नहीं, बल्कि खर-पतवार और झाड़ियों भरे इलाक़े नज़र आते हैं.

ज्ञात हो कि पुराने और ख़ुद गिर चुके पेड़ों के साथ काटे गए पेड़ों की जगह नए पेड़ लगाने की ज़रूरत होती है.मगर, ऐसा नहीं होने के कारण हम वन संपदा के मामले में ग़रीब हो गए हैं और पर्यावरण के लिए कई दुष्प्रभावों का सामना कर रहे हैं.

शायद हम यह भूल गए हैं कि पेड़-पौधों से पृथ्वी हरी-भरी रहती है, और इसके कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ हैं.इनसे इंधन और लकड़ी तो मिलती ही है, फल-फूल और दवाइयां भी प्राप्त होती हैं, जो स्वास्थ्य के आवश्यक और प्राकृतिक समाधान हैं.

ये जैविक खाद के भी स्रोत हैं.

पेड़-पौधे वातानुकूलन (एयर कंडिशनिंग) में सहायक होते हैं.ये वर्षा का संतुलन बनाए रखने, मिट्टी का कटाव और बाढ़ की रोकथाम करने के साथ-साथ उन पक्षियों को भी आश्रय देते हैं, जो कीड़े-मकोड़ों को खाकर हमारी फसलों की रक्षा करते हैं.

पेड़-पौधों के बारे में रोचक तथ्य यह है कि जो इन पर निर्भर करते हैं उन्हीं पर ये भी निर्भर करते हैं.यानि, ये भी पक्षियों, कीड़े, सरीसृप आदि पर ही जीवित रह सकते हैं.

पेड़-पौधे हमारे ग्रह के फेफड़े की तरह हैं, जो हवा को छानकर (फ़िल्टर कर) उसे शुद्ध बनाए रखने का काम करते हैं.ये स्वयं कार्बन डाईऑक्साइड लेते हैं और हमारे लिए आवश्यक ऑक्सीजन देते हैं.

पेड़-पौधों से प्रकृति का सानिध्य तो मिलता ही है, घर पर इन्हें लगाने से घर का वास्तु दोष भी दूर होता है.

सनातन हिन्दू धर्म में कई पेड़-पौधों को पूजनीय माना गया है.शास्त्रों के अनुसार, तुलसी, बरगद, पीपल और केला जैसे कई पेड़-पौधों में देवी-देवताओं का वास होता है.

हिन्दू धर्मशास्त्रों में वन को वरदान और इसके विनाश को अभिशाप की संज्ञा दी गई है.ऐसा बताया गया है कि जहां वन नष्ट हो जाते हैं वहां जल का अभाव सामने आता है, भूमि की उर्वरता और फसलों का उत्पादन कम हो जाता है तथा पशु-पक्षी मर जाते हैं.

जंगल की बर्बादी के पांच भयंकर परिणाम होते हैं- बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी.

जल ही जीवन है

बचपन से ही हम पढ़ते-सुनते हैं कि जल ही जीवन है यानि, जल के अभाव में किसी भी जीव का जीवन संभव नहीं है.इसी प्रकार, जल है तो कल है यानि, यानि जल के बिना सुनहरे कल की कल्पना नहीं की जा सकती है.मगर, क्या हम इस पर कभी गौर भी करते हैं, यह अपने आप से पूछने की ज़रूरत है.

यदि हम जलीय स्थिति समझते और इस बारे में कुछ करते, तो हालात कुछ और होते.वास्तव में, न तो हम वैश्विक जल संकट की स्थिति में होते और न ही जल जनित बीमारियों से जूझ रहे होते.

वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम (विश्व आर्थिक मंच) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दुनिया में जहां 75 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी पानी की कमी की समस्या से जूझ रही है वहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, दुनियाभर में 86 फ़ीसदी से अधिक बीमारियों की वज़ह असुरक्षित व दूषित पेयजल है.

इसके अनुसार, पानी की गुणवत्ता बेहद ख़राब है.हाल यह है इसमें क़रीब 1600 जलीय प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं, जबकि दुनिया की क़रीब 1.10 अरब आबादी मज़बूरी में गंदा और दूषित पानी पीने को मज़बूर है.

ज्ञात हो कि पृथ्वी या धरती के तीन हिस्सों में पानी मौजूद है मगर, इसमें से 97 फ़ीसदी पानी खारा है.यह पीने लायक नहीं है.

धरती का 3 फ़ीसदी पानी ही पीने लायक है.मगर, इसमें से भी 2 फ़ीसदी पानी ग्लेशियर और बर्फ़ के रूप में है.अब, बाक़ी सिर्फ़ और सिर्फ़ 1 फ़ीसदी पानी ही ऐसा है, जो इंसान को पीने के लिए उपलब्ध है.

दूसरी तरफ़, तेजी से शहरीकरण औद्योगीकरण और आबादी में लगातार बढ़ोतरी के साथ बढ़ता प्रदूषण समस्या को और भी विकराल बना रहा है.

जब आज ही प्रत्येक व्यक्ति के लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक चुनौती है, तो कल क्या होगा, इसका नदाज़ा लगाना कठिन नहीं है.

ऐसे में, पानी का हरेक बूंद क़ीमती है.यह या तो सतह का हो भूमिगत, इसका संरक्षण बहुत आवश्यक है.वर्षा जल का संचयन पानी और पर्यावरण को बचाने का बेहतर उपाय है.

मिट्टी की गुणवत्ता का संरक्षण-संवर्धन ज़रूरी

समाज और देश से प्यार करने और उस पर कुर्बान होने वालों को भारत में माटीपुत्र कहा गया है.माटी यानि, मिट्टी.वही मिट्टी, जिससे कुछ दशकों पहले तक इलाज होता था, वह पहले जैसी नहीं रह गई है.

जिस मिट्टी को चोट व ज़ख्मों पर लगा लेने से लाभ होता था वही मिट्टी आज उल्टा असर करने लगी है.इसमें पैदा होने वाले अनाज, शाक-सब्जियां अपना स्वाद ही नहीं खो चुकी हैं, बल्कि ज़हरीली भी हो गई हैं.

स्थिति यह है कि इन्हें खाकर लोग बीमार हो रहे हैं.मर भी रहे हैं.एक रिपोट के अनुसार, दुनियाभर में आज क़रीब 4 से 20 लाख से ज़्यादा लोग दूषित खाद्य पदार्थों के सेवन के कारण अपनी जान गवां देते हैं.

कारण हैं वे ख़तरनाक़ रसायन, जैसे हैवी मेटल सायनाइड, डीडीटी व अन्य कीटनाशक, जो पैदावार बढ़ाने और फसलों की सुरक्षा के नाम पर हम मिट्टी में मिलाते चले जा रहे हैं.

भारत में क़रीब 165 छोटे-मोटे और बड़े रासायनिक खादों के उद्योग हैं, जो सिंथेटिक केमिकल बनाकर हमारे खेतों में पहुंचा रहे हैं.

शायद हम भूल गए हैं कि मिट्टी ही हमारे भोजन का आधार है.खाद्य पदार्थों की उपज में 95 फीसद की भागीदारी इसी की है.मगर, हक़ीक़त यह है आधी से ज़्यादा उपजाऊ मिट्टी उद्योग क्रांति में हमारे हाथ से निकल चुकी है, जबकि बचे-खुचे हिस्से में से भी 90 फ़ीसदी मिट्टी की गुणवत्ता कम हो गई है.

खाद्य असुरक्षा के मुहाने पर खड़े हैं हम.फिर भी, यह हमारी प्राथमिक चिंता के विषयों में शामिल नहीं है?

स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि एक दिन मिट्टी ही हमें मिटा देगी.इसीलिए, दुनिया के कई देशों में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है.हमारी सरकार को भी चाहिए कि सब्सिडी को वह रासायनिक उद्योगों से जैविक खाद की ओर ले जाए, ताकि किसान रसायन से तो मुक्त होगा ही, ख़ुद भी जैविक खेती को प्राथमिकता देगा.

बंद करें हवा में और ज़हर घोलना

बहुत घोल चुके हैं हम पहले ही हवा में ज़हर.अब, इसे ठीक करने की ज़रूरत है.अगर, हालात नहीं सुधरे, तो आज पैदा होने वाले बच्चे अपने बचपन से लेकर जवानी तक सिर्फ़ ज़हरीली हवा में ही सांस लेंगें.इससे उनमें फेफड़ों और दिल की बीमारियां तो बढेंगी ही, कई अन्य समस्याएं भी पैदा होंगीं, जो उन्हें कभी स्वस्थ नहीं रहने देंगीं.

आज हवा में ज़हर कहिए या वायु में दूषित तत्व, इनका अनुपात इतना अधिक है कि ये मनुष्यों और पशु-पक्षियों का स्वास्थ्य और नज़र ख़राब करने में सक्षम हैं.

हालांकि वायु प्रदूषण में प्राकृतिक प्रक्रियाओं का भी योगदान होता है पर, वर्तमान में मानव गतिविधियां ज़्यादा या बहुत ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं.मोटर गाड़ियों से कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस, कारखानों से निकालने वाली सल्फर डाईऑक्साइड गैस ही नहीं, परमाणु विस्फोट और युद्ध विस्फोटकों के साथ-साथ कई प्रकार ख़तरनाक़ रसायन-युक्त चीज़ें और कोयला या लकड़ी जैसे इंधन के खुले में जलने से हवा में ज़हर घुलता जा रहा है.

इसका नतीज़ा भी सामने है.विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, सालाना लाखों लोगों की मौत का कारण सीधे-सीधे वायु प्रदूषण है.

वायु प्रदूषण से दुनियाभर में हर मिनट क़रीब 13 लोगों की मौत हो रही है.

इस प्रकार, सड़क दुर्घटना से होने वाली मौतों की तुलना में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें अधिक हैं.

इसी को ध्यान में रखते हुए क़रीब दो साल पहले ही डब्ल्यूएचओ ने सभी देशों से ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए COP26 पर निर्णायक कार्रवाई करने का आह्वान किया था.

डब्ल्यूएचओ के अनुसार, लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए उर्जा, परिवहन, प्रकृति, खाद्य प्रणाली और वित्त सहित हर क्षेत्र में परिवर्तनकारी कार्रवाई की ज़रूरत है.इसी से वायु प्रदूषण का असर कम हो सकता है.

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व से रचित शरीरा’.यानि, हमारा शरीर पांच तत्वों- क्षिति (पृथ्वी,), जल (पानी), पावक (अग्नि, आग), गगन (आकाश, आसमान), और समीर (वायु, हवा) से मिलकर बना है.ऐसे में, इनमें से किसी में भी कोई गड़बड़ी होती है, ये दूषित होते हैं, तो हमारा शरीर भी स्वस्थ नहीं रह पायेगा.हम बीमारियों से घिरकर विनाश की ओर अग्रसर होंगें.इनकी रक्षा में ही हमारा बचाव है, दिमाग़ के यह बात अच्छी तरह बिठा लेनी चाहिए.

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रामाशंकर पांडेय

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