मुस्लिम देशों में महिलाएं: तस्वीर बदलती नज़र नहीं आती?
औरत बेजुबान नहीं है, और न कमज़ोर ही है.मगर, इस्लामी दुनिया में कुछ ऐसा है, जिससे इस पर मर्दों का ज़ोर या यूं कहिए कि उनकी हुकूमत चलती है.
बदलती दुनिया में आज एक अच्छी बात यह है कि महिलाएं जागरूक हो रही हैं.इसके ज़्यादातर हिस्सों में तो औरत और मर्द बराबरी में खड़े भी नज़र आते हैं.लेकिन, जहां भी इस्लाम का प्रभुत्व या प्रभाव है औरतों की हालत अच्छी नहीं है, यह एक कड़वी सच्चाई है.
दुनिया के नक़्शे पर नज़र घुमाएं तो पाएंगें कि ग़रीब देशों की कौन कहे, वे मुस्लिम देश जिनकी अमीरी की चर्चा दुनियाभर में होती है उनके यहां भी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है या यूं कहिए कि हालत कमोबेश बदतर ही है.
संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे संपन्न राष्ट्रों को ही देख लीजिए.विदेशी पर्यटकों और निवेशकों को लुभाने के लिए जो कुछ वे कर रहे हैं उनसे क्या महिलाओं की दशा में सुधार हो रहा है? कितना सुधार आया है? दरअसल, सच्चाई यह है कि वे महिलाओं की बेहतरी के लिए काम नहीं, बल्कि महिलाओं से जुड़े नियमों में छद्म परिवर्तन कर दिखावा कर रहे हैं.
यह साफ़ दिखाई देता है कि बड़ी संख्या में अरब मुल्क आज भी औरतों के साथ इंसाफ़ नहीं कर रहे हैं.
दरअसल, कई बार लोग भूल जाते हैं कि यह इंटरनेट का युग है.उन्हें शायद यह भी याद नहीं रहता है कि इंटरनेट चीज़ ऐसी है, जो सीमाओं को लांघती है, और कहीं भी पहुंच जाती है.इस युग में कुछ भी छुपा नहीं रहता है.
विश्व बैंक की 2019 और 2022 की ‘वुमन बिजनिस एंड लॉ’ नामक रिपोर्टों में मुस्लिम देशों में महिलाओं की स्थिति की देखिए और फिर इनमें तुलना कीजिये तो सारा माजरा समझ आ जाता है.यह साफ़ हो जाता है कि किस क़दर लोग उस पुरानी दुनिया में डूबे और धंसे हुए या लकीर के फ़कीर बने रहना चाहते हैं, जिसे आज की पीढ़ी एक काला अतीत के रूप में देखती है, और इससे बाहर निकलकर खुले दिल से खुली हवा में सांस लेना चाहती है.
यही नहीं, हम रोज़ाना प्रसारित और वायरल होने वाली देश दनिया की उन ख़बरों से भी आंखें चुराना चाहते हैं, जो हमें शर्मिंदा करती हैं.मगर, क्या यह मुमकिन है?
बहरहाल, हम उस दकियानूसी सोच के पीछे की सोच या आधार को उजागर करें उससे पहले मुस्लिम देशों में महीलाओं की वर्तमान स्थिति क्या है इसको जानना ज़रूरी है.ख़ासतौर से, उन देशों की चर्चा ज़्यादा महत्वपूर्ण व आवश्यक है, जो दौलतमंद हैं और आधुनिकता का प्रदर्शन करते हैं क्योंकि पिछड़े और कंगालों की हक़ीक़त तो उनकी मुफ़लिसी और जाहिलियत के पीछे छुप जाती है.
क़तर में महिलाएं
अरब देशों के परिवार में क़तर एक छोटा-सा मगर आज का सबसे अमीर मुस्लिम देश है.मगर, क़रीब 27 लाख की इसकी कुल आबादी में महिलाओं का हिस्सा क़रीब एक तिहाई ही है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक़, क़तर में हर 3 पुरुष पर 1 ही महिला है, या यूं कहिए कि 100 महिलाओं के मुक़ाबले 266 पुरुष हैं.
अतः लिंगानुपात (जेंडर रेश्यो) के मामले में यह दुनिया का सबसे पिछड़ा देश है.
जहां तक महिला अधिकारों की बात है इसमें भी क़तर में तालिबान की झलक दिखाई देती है.यहां की व्यवस्था में महिलाएं पुरुषों के संरक्षण (गार्जियनशिप) में रहती हैं.यानि, एक तरह से ताउम्र वे नाबालिग ही बनी रहती हैं.
अपनी निजी ज़िन्दगी के हर ज़रूरी अहम फैसले के लिए उन्हें अपने पुरुष अभिभावक की लिखित अनुमति लेना ज़रूरी होता है.इसके बिना शादी और तलाक़ तो बड़ी बात है, न तो वे पढ़ाई (देश या विदेश में) के लिए दाख़िला ले सकती हैं, और न किसी प्रकार की यात्रा (देश या विदेश में) ही कर सकती हैं.
यहां रोज़गार हो या नौकरी, लिंग के आधार पर भेदभाव होता है.इसके लिए कोई ख़ास क़दम उठाना तो दूर कार्यस्थल पर इन्हें यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए भी कोई कानून नहीं बना है.ऊपर से मज़हबी ठेकेदारों का दबाव इतना रहता है कि ऊपर से नीचे तक काले बुर्क़े में ढंकी हुई या रंग-बिरंगे हिजाब में ये अज़ीबोगरीब नज़ारे पेश करती नज़र आती हैं.
क़तर में औरतें मर्दों की तरह दूसरी शादी (पुनर्विवाह) नहीं कर सकती हैं.मां-बाप की जायदाद में भी इन्हें बराबर (भाइयों के बराबर) हक़ हासिल नहीं है.
सऊदी अरब में महिलाएं
सऊदी अरब तो इस्लाम की मूल धरती है इसलिए यहां की महिलाओं की स्थिति लंबे समय से अध्ययन का विषय रही है.आधुनिक दौर में यहां कुछ बदलाव भी देखने को मिले हैं.पर, वे औपचारिक ही हैं, और उनसे औरतों की ज़िन्दगी में कोई विशेष सुधार होता नज़र नहीं आ रहा है.आज भी यहां ऐसे कानून हैं, जो उन्हें बाहरी दुनिया से काटते हैं, और दरवाज़ों के पीछे सिमटकर रहने को मज़बूर करते हैं.
साल 2015 में सऊदी महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला.फिर, 2017 में इन्हें गाड़ी चलाने और अकेली विदेश यात्रा करने की इज़ाज़त देकर दुनियाभर में अपनी महिलाओं के लिए दरियादिली का ढिंढोरा पीटा गया लेकिन, हक़ीक़त क्या है, किसी से छुपी नहीं है.
दरअसल, इनके साथ भेदभाव की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिसे सामने रख दिया जाए, तो सुधारवादी सरकार बेनक़ाब हो जाएगी.मसलन कोई सऊदी औरत किसी मर्द रिश्तेदार की मंजूरी के बिना शादी नहीं कर सकती है.
यह आर्थिक क्षेत्र में क़दम उठाने, आगे बढ़ने और आत्मनिर्भर होने के लिए स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकती है.यानि, यहां भी एक मर्द की इज़ाज़त की दरकार है.
कोई सऊदी औरत किसी वज़ह से पुलिस हिरासत या जेल में है, तो बिना किसी मर्द रिश्तेदार की जमानत के वह बाहर नहीं निकल सकती है.
यह अपने बच्चों को अपने स्तर से न तो नागरिकता दिला सकती है और न ही उनके निक़ाह-तलाक़ में इसकी कोई भूमिका या हक़ है.
संयुक्त अरब अमीरात में महिलाएं
संयुक्त अरब अमीरात (युएई) का नाम जेहन में आते ही पर्यटन और जीवनशैली (जो कि इसे अमीर देशों की सूची में पहुंचाते हैं) से ज़्यादा सुंदरता और विलासिता की ओर ध्यान चला जाता है.
विस्तारित और खूबसूरत गगनचुंबी इमारतों वाले दुबई और अबू धाबी को दुनिया में कौन नहीं जानता है.
लेकिन, महिलाओं के अधिकारों के मामले में स्थिति एकदम उलट है.यहां भी इनके अधिकारों और आज़ादी के आड़े आने वाली परिस्थितियां कमोबेश दूसरे अरब देशों जैसी ही हैं.
हालांकि 2015 और 2021 के बीच कामकाजी महिलाओं और ख़ासतौर से महिला उद्यमियों को लेकर कुछ कानूनी बदलाव हुए हैं फिर भी, अभी भी वे पारंपरिक संरक्षकता (पुरुष गार्जियनशिप) प्रणाली के अधीन ही हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक़, किसी महिला को शादी करने के लिए अपने पुरुष अभिभावक का मुंह ताकना पड़ता है.
यहां मर्द औरतों को एकतरफ़ा तलाक़ दे सकते हैं, जबकि औरतों को तलाक़ हासिल करने के लिए अदालत में लड़ना होता है, जो कि आसान नहीं है.
इसके अलावा, अविवाहित महिलाओं के लिए अपनी पैदा हुई संतान का रजिस्ट्रेशन कराना बहुत मुश्किल काम है क्योंकि इसके लिए मैरिज सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत पड़ती है.
युएई का कानून कहता है कि अमीराती मर्द के बच्चे स्वतः युएई की नागरिकता के हक़दार हैं, जबकि अमीराती माएं और विदेशी पिता से पैदा हुए बच्चे को यह अधिकार नहीं है.
दरअसल, 2018 से पहले दुनिया युएई की सिर्फ़ चकाचौंध की ओर देखती थी.लेकिन, जब दुबई के शासक की बेटी शहज़ादी लतीफ़ा ने अपने पिता पर उन्हें क़ैद में रखने का आरोप लगाते हुए अपनी जान का ख़तरा बताया, तो यहां की महिलाओं की स्थिति पर मीडिया का ध्यान गया, और अज़ीबोगरीब ख़बरें बाहर आने लगीं.
बताया जाता है कि लतीफ़ा की बहन शम्सा ने भी युएई की घुटन भरी ज़िन्दगी से तंग आकर वहां से भागने की कोशिश की थी.
2019 में इनकी एक सौतेली मां हया बिन्त हुसैन भी यहां से भागकर जर्मनी में शरण ली थी.
ईरान में महिलाएं
ईरान तो महिलाओं के मामले में काफ़ी बदनाम देश है.यहां इनके खानपान, पहनावे और जीवनशैली से संबंधित अन्य मामलों में काफ़ी सख्त़ी है.यहां तक हिजाब भी मज़हबी मानदंडों के अनुसार धारण नहीं करने पर महिलाओं के साथ अत्याचार किए जाने की ख़बरें आती हैं.महसा अमिनी की यहां की मोरेलिटी पुलिस द्वारा हत्या को लोग भूले नहीं हैं.
ईरान में कानूनन एक बाप अपनी बेटी (गोद ली हुई) से हिजाब से छुटकारा (अपने सामने हिजाब न पहनने की आज़ादी) दिलाने के नाम पर शादी तक कर सकता है.
इसके अलावा, अनेक ऐसी चीज़ें (जैसे अपनी पसंद के कपड़े पहनने, मेकअप करने, उंची हिल्स और स्टाकिंग पहनने, स्विमसूट पहनकर बीच या चौपाटी पर नहाने इत्यादि) हैं, जिनको लेकर ईरान में महिलाएं आज़ाद नहीं हैं या यूं कहिए कि वे मर्दों की ग़ुलाम हैं.
इन्हीं कारणों से ईरान ‘महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग’ (कमीशन ऑन द स्टेटस ऑफ़ वीमेन- सीएसडब्ल्यू) के 2022-2026 के कार्यकाल से बाहर किया जा चुका है.
एमनेस्टी इंटरनेशल के अनुसार, ईरान में महिलाएं शादी और तलाक़, विरासत, बाल संरक्षण (कस्टडी), राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय यात्रा आदि के अधिकारों से वंचित हैं.
इनके साथ घरेलू हिंसा और कार्यस्थल (वर्कप्लेस) पर शोषण और उत्पीड़न से बचाने के लिए भी यहां कोई कानून नहीं है.
तुर्की में महिलाएं
दुनिया के सबसे अमीर मुस्लिम देशों की सूची में तुर्की 8 वें नंबर पर है लेकिन, विश्व आर्थिक मंच के लिंग अंतर सूचकांक में 149 देशों में से 130 वें स्थान पर है.बताया जाता है कि महिलाओं के अधिकार यहां लगभग नहीं के बराबर हैं.हलांकि आधुनिक और विकसित शहर इस्तांबुल, जो कि तुर्की की राजधानी भी है, वहां हालात थोड़े बेहतर हैं लेकिन, देश के बाक़ी हिस्सों में औरतों पर इतनी बंदिशें हैं कि वे ग़ुलामों जैसी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं.
तुर्की में लिंग आधारित भेदभाव और शोषण (शाररिक एवं मानसिक) की तो पूछिए मत, आए दिन महिलाएं यहां ऑनर किलिंग की शिकार होती रहती हैं.कई शोधों और सरकारी एजेंसियों की रिपोर्ट से पता चलता है कि स्थानीय लोगों के साथ-साथ प्रवासी लोगों में भी हिंसा व्याप्त
2022 में आईं ख़बरों के मुताबिक़, तुर्की में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और उनकी हत्याएं गंभीर समस्या हैं.हर दिन यहां कईयों का बलात्कार होता है, उन्हें पीटा जाता है या मार दिया जाता है, जबकि कठमुल्ला सरकार दुर्व्यवहार करने वाले और हिंसक पुरुषों को दंड से मुक्ति देकर उनकी रक्षा करती है.
ख़ुद तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैय्यप एर्दोआन भी महिलाओं के ढंका हुआ रहने की बात करते हैं.उनकी बेग़म यानि, देश की प्रथम महिला एमीन एर्दोआन भी हिजाब पहनती हैं.
श्रम बल में यहां महिलाओं की भागीदारी यूरोपीय संघ के औसत के आधे से भी कम है.शिक्षा का हाल यह है कि कम ही लड़कियां माध्यमिक शिक्षा भी पूरी कर पाती हैं.
कितने अज़ीब हैं हालात.दरअसल, इन महिलाओं को किसी दर्ज़े की नागरिक कहना भी शायद मुनासिब नहीं होगा क्योंकि ग़ुलामी में जीने वालों की नागरिकता का कोई मतलब नहीं होता है.
इनसे अच्छे तो वे जानवर हैं, जो जंगलों में रहते हैं, अपने मन का खाते-पीते हैं, अपने हिसाब से रहते हैं और स्वच्छंद विचरते हैं.
मगर, औरत बेजुबान नहीं है.कमज़ोर भी नहीं है यह अलग बात है कि इस्लामिक दुनिया में जिधर देखो उधर इन पर मर्द का ज़ोर है.कमोबेश ऐसे ही हालात कुवैत, बर्नी, बहरीन, ओमान, मिस्र (इजिप्ट), अल्जीरिया, लीबिया आदि मुल्कों में भी हैं.
मगर, क्यों? क्या वज़ह है कि बाक़ी दुनिया आज बदल-सी गई है और औरतें अपने हक़-हुक़ूक़ के साथ मर्दों की बराबरी में खड़ी हैं; कई जगहों पर तो वे आगे दिखाई देती हैं, जबकि इस्लामी दुनिया में सब कुछ उल्टा-पुल्टा है, और हालात उस युग की ओर जाते या लौटते दिखाई देते हैं, जिसे मध्यकालीन संसार या मध्ययुग कहते हैं, इसको समझने की ज़रूरत है.
मज़हबी किताबों से मिलती है महिलाओं के साथ भेदभाव की प्रेरणा
मुस्लिम देशों में चाहे कितनी भी आधुनिकता और समानता की बातें की जाएं, ये देश मज़हबी किताबों और शरिया से ही चलते हैं.और इस्लाम यह मानता है कि औरत मर्द की बायीं पसली से पैदा हुई है इस कारण यह निचले दर्ज़े की या कमतर है.फिर, पिछले 1400 सालों से दुनियाभर में उलेमाओं ने कुरान और हदीसों में लिखी बातों की अपने-अपने तरीक़े से व्याख्या की है, और स्त्री को न सिर्फ़ पुरुष के अधीन रखने की बात कही है, बल्कि पुरुषों को उन पर अत्याचार करने के असीमित अधिकार भी दिए हैं.
जब इस्लाम चरम पर था (इस्लामिक विस्तारवाद का वह युग, जिसे कुछ लोगों ने इस्लामिक स्वर्णकाल भी कहा है), तो औरतों को हरम में क़ैद कर दिया गया था.
आज भी बहुत कुछ बदला नहीं है और मनोदशा कमोबेश पुरानी ही है.
समीक्षकों की राय में यह दावा ग़लत है कि इस्लाम में मर्द और औरत बराबर हैं.हक़ीक़त तो यह है कि इस्लाम ने किसी भी स्तर पर औरत को मर्द के बराबर दर्ज़ा नहीं दिया है.कुरान में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं.
औरत से ऊंचा है मर्द का दर्ज़ा
सूरह अल-बक़रा की आयत 228 में यह साफ़ हो जाता है कि मर्द और औरत की बराबरी की बात बेमानी है.
यहां (रेखांकित पंक्तियों में) कहा गया है-
औरतों का वही हक़ (मर्दों पर) है, जो मर्दों का (औरतों पर) है लेकिन, मर्दों को उन पर (औरतों पर) एक दर्ज़ा हासिल है.
यानि, पुरुष और स्त्री को एक दूसरे पर एक जैसे अधिकार हैं पर, पुरुषों को स्त्रियों पर श्रेष्ठता (प्रधानता) प्राप्त है अथवा पुरुष स्त्री से श्रेष्ठ हैं.
औरत की दिमाग़ी ताक़त मर्द से कम है
सूरह अल-बक़रा की आयत 282, जिसे आम बोलचाल की भाषा में लेनदेन वाली आयत भी कहा जाता है, में औरत को मर्द से कमतर बताया गया है.
यहां (रेखांकित पंक्तियों में) कहा गया है-
और (इस मसले पर) अपने मर्दों में से दो की गवाही करा लो, फिर अगर दो मर्द न हों, तो एक मर्द और दो औरतें हों (होनी चाहिए), ताकि एक भूल जाएगी, तो दूसरी उसे याद दिलाएगी.
यानि, औरत भूल सकती है, या भुलक्कड़ होती है.इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि एक औरत की दिमाग़ी ताक़त एक मर्द की दिमाग़ी ताक़त के मुक़ाबले आधी होती है.इसलिए, गवाही के लिए एक मर्द के बदले दो औरतों की ज़रूरत है.
इस हिसाब से औरत की हैसियत आधी ही है.
मर्द औरत की पिटाई भी कर सकता है
सूरह अन-निसा, आयत 34 में ‘मर्द औरत की पिटाई भी कर सकता है’, ऐसा कहा गया है.
यहां कहा गया है-
मर्द औरत पर हाकिम और मुसल्लत (अच्छादित) है इसलिए अल्लाह ने कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे (ऊपर) रखा है और इसलिए भी कि मर्द अपना माल ख़र्च करते हैं तो जो नेक बीवियां हैं, वे मर्दों के हुक्म पर चलती हैं और शौहर की ग़ैर-हाज़िरी में उस चीज़ की हिफ़ाज़त करती हैं, जिसकी हिफ़ाज़त के लिए अल्लाह उन्हें हुक्म देता है.और जिन औरतों से तुम्हें बेवफ़ाई या सरकशी (हुक्मउदूली, अवज्ञा) का डर है, उन्हें पहले जुबानी समझाओ, अगर न समझें, तो फिर उनके साथ सोना छोड़ दो.अगर इस पर भी न मानें, तो मारो-पीटो , और फरमाबदार (आज्ञाकारिणी) हो जाएं, तो उन्हें तकलीफ़ देने का बहाना मत ढूंढो.बेशक़, अल्लाह सबसे बड़ा, महान है.
ज्ञात हो कि सभी पारंपरिक विद्वान इस बात से सहमत हैं कि नुशूज़ यानि, सरकशी (नाफ़रमानी) के लिए किसी न किसी तरह से पिटाई एक विकल्प है, जो मनुष्य के लिए उपलब्ध है.
औरत को सेक्स की मशीन समझते हैं अरब देशों के मर्द
अरब न्यूज़ वेबसाइट Raseef22 में 2016 में छपे एक लेख में अरब देशों और उनके इतिहास में महिलाओं की वास्तविक स्थिति उजागर हो जाती है.इसमें बताया गया है कि मर्दों ने यहां औरत को सेक्स की मशीन से ज़्यादा कुछ समझा ही नहीं है.
लेखक हसन अब्बास ने कुछ इस प्रकार वर्णन किया है-
‘स्त्रियों की आत्मा उनकी योनि में है’, एक अरबी ‘मौलाना’ ने यह वाक्य उस व्यक्ति से कहा, जो अपनी बीवी की शिक़ायत लेकर उसके पास गया था क्योंकि उसकी बीवी ने उसकी ‘पेशकश’ ठुकरा दी थी.यह कथन यह दर्शाता है कि अरबी मर्द औरतों को किस नज़र से देखते हैं.पुरानी किताबों में ऐसे कई उद्धरण उपलब्ध हैं, जो यह बतलाते हैं कि मर्दों ने औरत को सेक्स की मशीन से ज़्यादा कभी कुछ समझा ही नहीं है.
अरब साहित्य में महिलाओं के बारे में क्या कहा गया है, हसन अब्बास लिखते हैं-
सेक्स और यौन संबंधी विषयों पर आधारित पुस्तकों के अध्ययन से मालूम होता है कि अरब मर्द औरतों से किस क़दर भयभीत हैं.भय की यह भावना पितृसत्तात्मक मूल्यों से आती है, जो पुरुष के प्रभुत्व का आह्वान करते हैं, और इसे संकट में डालने वाली किसी भी वस्तु से भयभीत होती है.पुराने अरबी साहित्य में स्त्रियों को प्रायः निम्फोमेनिक यानि, सेक्स के लिए बेताब दिखाया गया है.
इसीलिए कहा गया है कि समस्या का समाधान ढूंढने से पहले समस्या की पहचान कर लेनी चाहिए.लक्षण तो समस्या के कारण उत्पन्न होते ही रहते हैं, उन पर विचार करना प्रक्रिया का दूसरा चरण होता है.
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