गांधीवादी-वामपंथी सोच ने भूमकाल विद्रोह के नायक गुंडाधुर को गुमनामी में धकेला!
गांधीवादी-वामपंथी कहिए या फिर ग़ुलाम मानसिकता के लोगों ने भारत और भारतीयता को विकृत कर हमारी एक अलग ही छवि पेश करने की कोशिश की.यही कारण है 20 वीं सदी का सारा इतिहास विदेशी संस्कृति के पक्षधर और अंग्रेजों के दलालों के इर्द-गिर्द ही घूमता नज़र आता है.देश की मिट्टी से ताल्लुक रखने वाले त्यागी और बलिदानी शख्शियतों को या तो हाशिये पर रखा गया, या फिर गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया गया.मगर, भला हो उन शुभचिंतकों और देशप्रेमियों का जो आज़ादी के दीवानों को भूले नहीं, और उनकी कहानियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचारित होकर ज़िन्दा रहीं.ऐसे नायकों को हम लोककथाओं या किवदंतियों के पात्र के रूप में जानते हैं.इन्ही में से एक बस्तर का माटीपुत्र गुंडाधुर भी है.
वो गुंडाधुर असल में बागा धुरवा थे.छत्तीसगढ़ के बस्तरिये.गांव था नेतानार.इनका नाम अंग्रेजों ने बिगाड़ा और ये पहले भारतीय थे, जिनके नाम के साथ गुंडा शब्द लगा.मगर, काम ऐसे थे, जिसके उदाहरण विरले ही मिलते हैं.
साल 1910 में बस्तर में आदिवासी समाज के अविस्मरणीय भूमकाल विद्रोह की अगुआई करने वाले, जिसने अंग्रेजों को धूल चटायी, उन्हें मार भगाकर गुफ़ाओं में छुपने और घुटने टेकने को मज़बूर किया, ऐसे महान योद्धा को इतिहास में जगह नहीं मिली.उसे गुमनामी में धकेल दिया गया.
दरअसल, जिसके कंधे पर झंडा होता है जीत का सेहरा उसी के सिर पर बंधता है.इसी सोच ने आज़ादी के बड़े-बड़े दीवानों के चरित्र को परदे के पीछे रखा, जबकि जो लोग जेल में मज़े में बैठकर किताबें लिखते थे, महिलाओं-लड़कियों संग नंगे नहाते-सोते हुए कथित ब्रह्मचर्य का प्रयोग करते थे, उन्हें हीरो बताया गया और उनकी शान में क़सीदे लिखे-पढ़े गए.
गुंडाधुर के लिए स्वतंत्रता संग्राम कोई राजनीतिक यात्रा (पोलिटिकल टूर) नहीं था, बल्कि यह वह सशस्त्र संघर्ष था, जिसमें उनके नेतृत्व में पूरा आदिवासी समाज कूद पड़ा था.एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई थी, जिसमें क़रीब 25 हज़ार लोगों ने अपनी क़ुर्बानी दी थी.
इसमें एक ओर बंदूक और तोपें थीं तो दूसरी ओर पारंपरिक हथियार जैसे कुल्हाड़ी, तीर-धनुध और भाले थे.फिर भी, आदिवासी रणबांकुरों का साहस और रणकौशल शिक़स्त देने में समर्थ था.वे फिरंगियों पर भारी पड़े थे.फिरंगियों ने घुटने टेक दिए और फिर छल का सहारा लिया.मगर, लाख कोशिशों के बावजूद गुंडाधुर न मारे गए और न पकडे ही जा सके.आख़िरकार, उन्होंने गुंडाधुर की फ़ाइल इस टिप्पणी के साथ बंद कर दी कि ‘कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुंडाधुर कौन है, और कहां है’.
भूमकाल विद्रोह की नींव दो दशक पहले ही पड़ गई थी
भूमकाल विद्रोह की नींव साल 1891 में ही पड़ गई थी जब अंग्रेजों ने बस्तर में मनमानी शुरू कर दी थी.फिर, हालात ऐसे बनते गए कि आदिवासी एकसूत्र में बंधकर एक संगठित सेना के रूप में उठ खड़े हो गए.
लोककथाओं, लोकगीतों और जनश्रुतियों में संकलित जानकारी के अनुसार, बस्तर के राजा रूद्र प्रताप देव तो अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली थे मगर, दीवान पद पर तैनात उनके चाचा कालेन्द्र सिंह बड़ी सुझबुझ से काम करने वाले व्यक्ति थे.वे जनहित के बारे में सोचते थे और उनका जनता से जुड़ाव भी था.ख़ासतौर से, आदिवासी समाज में उनका बड़ा आदर था.
मगर, अंग्रेजों ने उन्हें हटाकर उनकी जगह पंडा बैजनाथ को बस्तर का प्रशासन सौंपा, तो आदिवासियों में अंग्रेजों के प्रति रोष और बढ़ गया.
फिर, आदिवासियों से उनका जंगल छीनने-बेदखल करने के प्रयास और ईसाई मिशनरियों द्वारा उनके धर्मान्तरण की घटनाओं ने आग में घी का काम किया.
ऐसे में, कालेन्द्र सिंह ने आदिवासियों को सनागठित होने का आह्वान किया, तो गुंडाधुर के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ़ सशस्त्र भूमकाल आन्दोलन या विद्रोह की तैयारी शुरू हो गई.
लाल मिर्च, मिट्टी का धनुष-बाण और आम की टहनियां थीं क्रांति का संदेश
1857 की क्रांति के समय जैसे रोटी और कमल प्रतीक चिन्ह थे वैसे ही बस्तर के गांवों में लाल मिर्च, मिट्टी का धनुष-बाण और आम की टहनियां लोगों के घर-घर पहुंचाने का काम यह संदेश देने के लिए होता था कि वे अपना जल, ज़मीन और जंगल बचाने के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ उठ खड़े हों.
बागा धुरवा या गुंडाधुर पर लोगों में अटूट श्रद्धा भी थी.वे उन्हें दिव्य शक्ति-संपन्न मानते थे, और उनके इशारे पर अपने प्राणों की आहूति देने को तैयार हो जाते थे.
गुंडाधुर के सबसे क़रीबी साथी एलंगनार निवासी डेबरीधुर लोगों के सीधे संपर्क में रहते हे.वे रणनीतिक निर्णयों की जानकारी सैन्य टुकड़ियों रूपी समूहों को भिजवाते थे.
अंग्रेजों ने घुटने टेके, मिट्टी की क़सम खाई
भूमकाल विद्रोह जल, जंगल और ज़मीन को लेकर एक सशस्त्र संघर्ष था, जिसमें आदिवासी समाज ने अल्पकालिक ही सही मगर, महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की थी.इसमें अंग्रेजों को पराजय का सामना ही नहीं करना पड़ा था, बल्कि बड़ी शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ी थी.
2 फरवरी 1910 को विद्रोह की शुरुआत पुलिस चौकियों, सरकारी कार्यालयों पर हमले और बाज़ारों की लूट के रूप में हुई.मगर, देखते ही देखते विद्रोहियों ने जगदलपुर शहर को छोड़ बस्तर के अधिकांश क्षेत्रों से अंग्रेजी सेना को खदेड़कर वहां क़ब्ज़ा कर लिया.
इसको लेकर एक साथ कई मोर्चों पर युद्ध हुआ, जिसमें आदिवासी वीरों ने अपना पराक्रम दिखाया.
कुछ लेखकों के अनुसार, नेतानार के क़रीब अलनार के जंगलों में 26 मार्च को हुए भयानक युद्ध में आदिवासी लड़ाकों ने अंग्रेजी टुकड़ियों पर इतने तीर चलाए थे कि सुबह देखा गया, तो चारों ओर तीर ही तीर नज़र आ रहे थे.
कुल मिलकर कुल्हाड़-फरसाधारी आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन की आग उगलने वाले हथियारों वाली सेना को भागने पर मज़बूर कर दिया था.
अब ब्रिटिश हुकूमत परेशान हो गई थी और उसे महसूस हो चुका था कि गुंडाधुर के कुशल नेतृत्व में लड़ रहे विद्रोहियों से सीधे लड़कर पार पाना आसान नहीं है.ऐसे में, उन्होंने छल की रणनीति अपनाते हुए आदिवासियों से समझौते का दिखावा किया.
एक अंग्रेज अफ़सर गेयर ने हाथ में मिट्टी लेकर क़सम खाई कि आदिवासी लड़ाई जीत गए हैं, और शासन का कामकाज उन्हीं के मुताबिक़ चलेगा.इससे भोले-भाले आदिवासी अंग्रेजों के झांसे में आ गए, और बदले में उन्होंने भी यह मिट्टी की क़सम खाई कि जब तक बातचीत की प्रक्रिया चलेगी वे आक्रमण नहीं करेंगें.
मगर, धोखा हुआ.कई क्षेत्रों से फिर से सेना इकट्ठी कर अंग्रेज ख़ुद हमले करने लगे.ये हमले अक्सर रात में होते थे जब विद्रोही लड़ाके गहरी नींद में होते थे.
बताया जाता है कि सोनू मांझी नामक एक गद्दार ने अपने समूह के उस महत्वपूर्ण ठिकाने जहां गुंडाधुर और उनका दायां हाथ माने जाने वाले डेबरीधुर भी मौजूद थे, और उसकी स्थिति की जानकारी अंग्रेज अफ़सर को दे दी.इसका लाभ उठाकर उन्होंने अचानक हमला कर कई सोये हुए लड़ाकों की हत्या कर दी.
इसमें गुंडाधुर तो वहां से निकलने में सफल रहे लेकिन, डेबरीधुर समेत कई साथी पकडे गए.इन्हें जगदलपुर के गोलबाजार चौक पर स्थित इमली के पेड़ पर उल्टा फांसी पर लटका दिया गया.
फिर, अंग्रेजी सेना ने गुंडाधुर को खोजने के लिए सारी ताक़त झोंक दी मगर, वे क़ामयाब नहीं हो पाए.
बस्तरिये मानते हैं कि गुंडाधुर जंगलों में विचरते हैं.आज भी बस्तर के लोकगीतों में गुंडाधुर और भूमकाल की गाथा गाई और सुनाई जाती है.जब भी रात के अंधेरे में भूमकाल के गीत कोई छेड़ता है, तो आदिवासियों के पांव ठहर जाते हैं.
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