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समसामयिक

आख़िरकार सेंगोल को उसकी जगह मिल गई

कभी ऐसी परिस्थितियां भी बन जाती हैं कि असंभव भी संभव बन जाता है.तभी तो नई संसद भवन के निर्माण का कार्य पूरा होने को आया, तो कांग्रेसियों द्वारा छुपाया-दबाया गया हमारा सेंगोल भी बाहर आ गया.

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सैकड़ों साल की ग़ुलामी में भूमिगत रहा था भारत का सेंगोल.और आज़ादी के बाद बाहर आया भी तो फिर से उसे म्यूजियम के किसी अंधेरे कोने अलमारियों में छुपा दिया गया था.मगर, 75 साल बाद एकबार फिर से उसका उचित स्थान उसे मिल गया है, या यूं कहिए कि अखंड भारत की संवौधानिक व्यवस्था और राजनीतिक शक्ति का प्रतीक पुनर्स्थापित हो गया है.

ऐतिहासिक सेंगोल

पहाड़ों, नदियों, जंगलों, गांवों और शहरों को मिलाकर देश तो बनता है मगर, एक राष्ट्र को उसकी सभ्यता और संस्कृति आधारित प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है.इसके बिना एक मजबूत राष्ट्र की कल्पना भी व्यर्थ है.जिस प्रकार एक व्यवस्था में अनुशासन बनाए रखने के लिए निश्चित नियम होते हैं उसी प्रकार व्यवस्थागत-संस्थागत उद्देश्यों या लक्ष्यों की प्राप्ति को लेकर प्रतीक हुआ करते हैं.सेंगोल भी एक प्राचीन प्रतीक है, जो समृद्ध और शक्तिशाली भारत की छवि के साथ इसकी लोकतांत्रिक परंपरा को भी दर्शाता है.

सेंगोल का अर्थ क्या है, जानिए

सेंगोल का सामान्य अर्थ है राजदंड, राजशासन, शक्ति या दंड का प्रतीक.इसका एक अर्थ संपदा से संपन्न भी होता है.

सेंगोल मूल रूप से संस्कृत के संकु शब्द से आया है, जिसका मूल अर्थ है शंख.शंख को सनातन हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र माना जाता है.मंदिरों और घरों में आरती के समय आज भी शंख का प्रयोग किया जाता है.पौराणिक मान्यता के अनुसार, शंख एश्वर्य की देवी लक्ष्मी का भाई माना जाता है.

कुछ विद्वानों का कहना है कि ‘सेंगोल’ का संबंध भाषाओं की जननी संस्कृत के अलावा तमिल से भी है.उनके अनुसार, तमिल भाषा के सेम्मई शब्द से इसकी उत्पत्ति हुई है और इसका अर्थ है ‘न्याय’ या ‘नीतिपरायणता’.शिलप्प्दीकारकम, मणिमेखले और तिरुक्कुरल महाकाव्य में सेंगोल का उल्लेख मिलता है.

कैसा है सेंगोल?

भरत की नई संसद में पुनर्स्थापित सेंगोल या राजदंड दरअसल, एक गदानुमा छड़ी है.इसकी लंबाई 5 फुट (1.5 मीटर) है.

यह चांदी का बना है, जिसके ऊपर सोने की परत चढ़ी है.साथ ही, बेशक़ीमती हीरे और रत्न जड़े हैं.

सेंगोल के शीर्ष पर नंदी (भगवान शिव का वाहन) विराजमान हैं, जो शक्ति, सत्य और न्याय के प्रतीक हैं.

नंदी के नीचे (निचले हिस्से में) देवी लक्ष्मी की आकृति व उनके आसपास हरियाली के रूप में फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे हुए हैं, जो राज्य की सम्पन्नता को दर्शाते हैं.

सेंगोल का इतिहास

धार्मिक स्रोत और इतिहास बताते हैं कि प्राचीन काल में भारत में राज्याभिषेक के बाद जब राजा सेंगोल या राजदंड लेकर सिंहासन पर बैठता था, तो विधि या परंपरानुसार, वह अदण्ड्योअस्मि, अदण्ड्योअस्मि, अदण्ड्योअस्मि यानि, मैं अदंड्य हूं, मैं अदंड्य हूं, मैं अदंड्य हूं (यानि, ‘मुझे कोई दंड नहीं दे सकता’) ऐसा तीन बार कहता था.फिर, पास ही खड़ा एक लगोटधारी सन्यासी पलाश (सुंदर फूलों वाला एक पेड़ जिसे जंगल की आग भी कहा जाता है) की लकड़ी की पतली और छोटी छड़ी या डंडे से तीन बार मारते (मारने का अभिनय करते) हुए कहता था- हे राजा! यह अदण्ड्योअस्मि अदण्ड्योअस्मि ग़लत है.दण्ड्योअसि, दण्ड्योअसि, दण्ड्योअसि यानि, तुझे भी दंडित किया जा सकता है, ऐसा कहो.’

इतिहासकारों ने मौर्य, गुप्त राजवंश, विजयनगर साम्राज्य आदि में सेंगोल के प्रयोग की चर्चा की है.

कालांतर में चोल काल में भी यही परंपरा चली आई.ऐसा ज़िक्र मिलता है कि चोल शासन में सत्ता हस्तांतरण के समय यानि, जब किसी को राजा बनाया जाता था, तो उसे सेंगोल या राजदंड दिया जाता था.इस अवसर पर 7 वीं सदी के तमिल संत संबंध स्वामी (चोल कालीन तमिलनाडु के नवयुवक शैव कवि) द्वारा रचित गीत गया जाता था.

ज्ञात हो कि दुनियाभर में कई भारतीय वंशों ने विभिन्न स्थान-क्षेत्रों में शासन किया है.ऐसे ही चोल शासकों ने दक्षिण भारत और दुनिया में लंबे समय तक शासन किया है.इनका इतिहास 300 ईसा पूर्व से 13 वीं शताब्दी तक का बताया जाता है.

विभिन्न स्रोतों के अनुसार, चोल राजवंश में जब किसी को राजा बनाया जाता था, तो उसे सेंगोल (राजदंड) दिया जाता था.यानि, संगोलधारी ही राज्यप्रमुख या शासक हुआ करता था.

सत्ता हस्तांतरण के समय माउंटबैटन ने नेहरू को सौंपा था सेंगोल

आज़ादी की लंबी लड़ाई के बाद अंग्रेजों से भारतीयों के हाथ में सत्ता हस्तांतरण के लिए कार्यक्रम होने वाला था.तत्कालीन वायसरॉय (भारत के अंतिम वायसरॉय) लॉर्ड माउंटबैटन ने जवाहरलाल नेहरू से पूछा कि ‘भारत में सत्ता हस्तांतरण की परंपरा क्या है, इसके लिए किस प्रकार का कार्यक्रम रखा जाना चाहिए’ तो वह इसका उत्तर नहीं दे सके.इसके लिए उन्होंने समय मांगा और राजाजी यानि, सी. राजगोपालाचारी (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल) से संपर्क किया, भारतीय इतिहास और संस्कृति का अच्छा ज्ञान रखते थे.

राजाजी ने नेहरू को सत्ता हस्तांतरण को लेकर सेंगोल की परंपरा की बात बताई और उसी प्रकार की विधि और समारोह आयोजित कराने की सलाह दी.इसे नेहरू मान गए और राजाजी को ही इसकी व्यवस्था करने को कहा.

फिर, राजाजी ने तमिलनाडु के तंजौर जिले में 500 साल (तब से) पुराने धार्मिक मठ थिरुवदुथुराई अधीनम से संपर्क किया.

मठ के तत्कालीन महंत अम्बालवाना देशिका स्वामी हालांकि उस समय बीमार थे इसके बावजूद इस अवसर की महत्ता को ध्यान में रखते हुए इसकी ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ली और महत्वपूर्ण सेंगोल चेन्नई के स्वर्णकार (ज्वेलर्स) वुम्मिदी बंगारू चेट्टी से तैयार करवाया.इसके निर्माण कार्य में शामिल रहे कारीगर वुम्मिदी एथिराजुलू और वुम्मिदी सुधाकर के पास इसके साक्ष्य हैं.

बहरहाल, तय कार्यक्रम के मुताबिक़ महंत के शिष्य श्रीला श्री कुमारस्वामी तम्बीरान पुजारियों की एक मंडली के साथ सेंगोल लेकर दिल्ली पहुंचे.

14 अगस्त, 1947 की आधी रात को यह सेंगोल उन्होंने लॉर्ड माउंटबैटन के हाथों में दिया.फिर, वापस लेकर जल से पवित्र कर जवाहरलाल नेहरू दे दिया.इस दौरान परंपरानुसार मंत्रोच्चारण और गायन-वादन हुआ.

इस समारोह में कई बड़ी राजनीतिक हस्तियों के साथ भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी मौजूद थे.अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘टाइम’ ने इस बारे में ख़बर छापी थी.

सेंगोल को उपहार सामग्री के रूप में नेहरू ने अपने पास रख लिया

सेंगोल कोई व्यक्तिगत वस्तु नहीं, यह राष्ट्र की संप्रभुता का प्रतीक और जनता की थाती है.इसलिए, इसे सम्मान के साथ उचित स्थान पर रखा जाना चाहिए था.मगर, ऐसा नही हुआ.प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे अपने पास रख लिया.

बताते हैं कि विदेशी मानसिकता वाले नेहरू ने अपने घनिष्ठ माउंटबैटन के कहने पर दिखावे के लिए सेंगोल को लिया ज़रूर था लकिन उनके लिए यह घूमने वाली एक छड़ी (वॉकिंग स्टिक) से ज़्यादा कुछ नहीं था.

उनके देहांत के बाद, नेहरू-गांधी परिवार ने भी इसे महत्त्व नहीं दिया.उन्होंने नेहरू की अन्य वस्तुओं के साथ सेंगोल को भी इलाहबाद (अब प्रयागराज) स्थित उनके पैतृक घर आनंद भवन में रखवा दिया.बाद में यह इलाहबाद म्यूजियम की वस्तु बन गया.

नई संसद में कैसे पहुंचा सेंगोल. जानिए

भारत की लोकतांत्रिक आज़ादी का प्रतीक कहिए या अखंड भारत के स्वर्णिम इतिहास का एक विशिष्ट अंग सेंगोल (राजदंड) 75 सालों तक देश प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सरकारी आवास से लेकर उनके पैतृक घर और फिर संग्रहालय के किसी अंधेरे कोने में पड़ा रहा.आख़िरकार, इसे भारत के नवनिर्मित संसद भवन में सम्सम्मान स्थान मिल ही गया.

सच में समय बड़ा बलवान होता है.कभी ऐसी परिस्थितियां भी बन जाती हैं कि असंभव भी संभव बन जाता है.तभी तो नई संसद भवन के निर्माण का कार्य पूरा होने को आया, तो कांग्रेसियों द्वारा छुपाया-दबाया गया हमारा सेंगोल भी बाहर आ गया.

दरअसल, नई संसद भवन को के लेकर विपक्ष के हमलों का ज़वाब देते हुए मोदी सरकार और भजपा ने इसे आत्मनिर्भर भारत और राष्ट्र के स्वाभिमान का प्रतीक बताया, तो कुछ देशप्रेमियों को ख़याल आया कि हमारे पास तो इससे जुड़ी एक ख़ास चीज़ भी है, जो वास्तव में लोकतंत्र के मंदिर में स्थापित करने योग्य मूर्ति समान है.

बताते हैं कि 2018 में एक मैगजीन के लेख में सेंगोल का ज़िक्र आया, तो 2019 में बतौर किसी कंपनी के मार्केटिंग हेड अरुण कुमार नामक व्यक्ति ने पता लगाया कि यह इलाहबाद म्यूजियम रखा गया है.

इसके बाद, नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र गया.बात नरेंद्र मोदी तक पहुंची.मोदी के निर्देश पर इसकी और छानबीन कराई गई और तमाम प्रक्रियाएं पूरी कर 4 नवंबर, 2022 को सेंगोल प्रयागराज संग्रहालय से दिल्ली लाया गया.

मगर, अब नई अड़चनें सामने थीं.विपक्ष सनातन हिन्दू संस्कृति के प्रतीक सेंगोल को संसद भवन में लगाने के विरुद्ध था.कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, जेडीयू, आरजेडी, झामुमो, एआईएमआईएम, टीएमसी, एनसीपी, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट), रालोद समेत 21 दलों ने सेंगोल के विरोध के चलते नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का भी बहिष्कार किया.

मगर, सरकार पीछे नहीं हटी.थिरुवदुथुराई अधीनम मठ के महायाजकों के हाथों ही फिर से (1947 की तरह) विधिपूर्वक सेंगोल प्रधानमंत्री मोदी को सौंपा गया और मोदी ने गत 28 मई, 2023 को नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ ही इसे लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी के बराबर (पोडियम पर) स्थापित कर दिया.

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रामाशंकर पांडेय

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One Comment

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