साईं बाबा की असलियत
प्रश्न-चिन्ह (साईं क्या थे?) |
तमाम खाक़ छानने के बाद ये पता चलता है कि जवानी के दिनों में साईं शिर्डी पहुंचे.उससे पहले यानि बचपन से लेकर जवानी के बीच की उनकी ज़िन्दगी से जुड़े तथ्य मसलन उनके माँ-बाप, कुल-गोत्र, जन्म व जन्मस्थान के बारे में सबकुछ अज्ञात है अथवा उसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है.लेकिन, शिर्डी में उनके डेरा डालने से लेकर मृत्युकाल तक का उनका जीवन सफ़र एक खुली क़िताब की तरह बिल्कुल स्पष्ट है.इसका श्रेय जाता है साईं सच्चरित्र को जो एक पुस्तक के रूप में वो आईना है जिसमें साईं के जीवनचरित को साफ़-साफ़ देखा व परखा जा सकता है.इसमें अपार कल्पनाओं, विरोधाभासों के साथ यथार्थ का भी वर्णन बख़ूबी किया गया है ताकि रोचकता बनी रहे व भ्रमजाल फ़ैला रहे.
कहते हैं साईं सच्चरित्र स्वयं साईं द्वारा रचित है अथवा उनकी प्रेरणा से उनके परम शिष्य गोविंदराव दाभोलकर द्वारा लिखी गई है, इसलिए इसमें, सुसमाचारों(यीशु से जुड़े गॉस्पेल ट्रूथ) की तरह ही, कही गई हर बात कसौटी पर खरी है तथा झूठ की कोई गुंजाइश नहीं है.ऐसे में, यहाँ निर्विवादित साईं सच्चरित्र को आधार बनाकर हम साईं को विश्लेषित एवं परिभाषित कर सकते हैं.
साईं हिन्दू संत थे ?
साईं सच्चरित्र (अध्याय-7,पेज़-50-52) कहता है-
” यदि कहा जाए कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे.कोई भी ये निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन(मुसलमान-उस समय अफ़ग़ानिस्तान से आए मुसलमानों को भारतीय यवन कहा करते थे). ”
” यदि कहें कि वे यवन थे तो उनके कान छिदे हुए थे और यदि कहें कि वे हिन्दू थे तो वे सुन्नत (ख़तना) कराने के पक्ष में थे.
और यह भी कि…
” यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करे तो वे सदा मस्ज़िद में निवास करते थे और यदि कोई यवन कहे तो वे सदा वहां धूनी प्रज्वलित रखते थे.
वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किए बिना ही समाधि में लीन रहते थे.
वे सिर पर एक साफ़ा,क़मर में एक धोती और तन ढंकने के लिए एक कफ़नी धारण करते थे.
कुत्ते भी उनके भोजन-पात्र में मुंह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे,परन्तु उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की.
सांई बाबा माथे पर चंदन का टीका लगाते थे जिसे देखकर लोग विस्मय में पड़ जाते थे.
वे कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिए दक्षिण मुख हो धूनी तपते थे.वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे-(अध्याय-5,पेज़-37 )
एक बार बाबा के भक्त मेघा ने उन्हें गंगाजल से स्नान कराने का आग्रह किया तो बाबा ने कहा-‘मुझे इस झंझट से दूर ही रहने दो। मैं तो एक फकीर हूं,मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन?-(अध्याय 28,पेज-198)बाबा ने स्वयं कभी उपवास नहीं किया और न ही उन्होंने किसी को करने दिया-(अध्याय 32,पेज-228)अध्याय 38(पेज़-269-271) में लिखा है कि बाबा स्वयं बाज़ार जाकर सभी प्रकार की वस्तुएं नगद दाम देकर ख़रीद लाया करते थे.वे कभी मीठे चावल बनाते और कभी मांस-मिश्रित चावल (मटन बिरयानी) बनाते थे.जब भोजन तैयार हो जाता,तब वे मस्ज़िद से बर्तन मंगाकर मौलवी से फ़ातिहा पढने को कहते थे.एक एकादशी के दिन बाबा ने दादा केलकर को कुछ रुपए देकर बाज़ार से कुछ मांस खरीदकर लाने को कहा.ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा केलकर को नमकीन पुलाव(मटन बिरयानी) चखकर देखने को कहा.केलकर ने मुंहदेखी कह दिया कि अच्छा है.तब बाबा ने केलकर की बांह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले-थोड़ा सा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चखकर देखो.फ़कीरों के साथ बाबा आमिष (मांस) और मछली का सेवन भी कर लेते थे-(अध्याय-7,पेज़-51)एक बार बाबा ने शामा से कहा-मैं मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने वाला हूं.जाकर हाज़ी सिद्दीक फालके से पूछो कि उसे क्या रूचिकर होगा-बकरे का मांस,नाध या अंडकोष-(अध्याय-11,पेज़-86)एक बार मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने के लिए लाया गया.साईं बाबा ने काका साहेब दीक्षित से कहा-मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का काम करूँगा-(अध्याय-23,पेज़-162)‘अल्लाह मालिक़’ सदा उनके(बाबा ) होठों पर था-अनेक बार इसका ज़िक्र किया गया है.हाथ झुलस जाने पर मुंबई के डॉक्टर से इलाज़ कराने की बाबत नानासाहेब चांदोरकर के अनुरोध को बाबा ने ये कहते हुए ठुकरा दिया कि ‘केवल अल्लाह ही मेरा डॉक्टर है’-(अध्याय-7,पेज़-56) ”
कद-काठी की बात छोडिए,कोई हिन्दू संत सुन्नत यानि ख़तना का समर्थन नहीं कर सकता.उसके मस्ज़िद में निवास करने की बात तो दूर प्नवेश की भी कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती.
बाबा कई दिनों तक नहाते नहीं थे जबकि हिन्दू संतों को कम से कम प्रातः तथा संध्या काल में स्नान अनिवार्य है.इसके बिना योग,ध्यान आदि क्रिया प्रारम्भ नहीं होती.
किसी हिन्दू के लिए गंगा स्नान ज़िन्दगीभर का ख़्वाब होता है.गंगाजल का दर्शन भी हिन्दुओं में अति पवित्र माना जाता है जबकि साईं उसे बखेड़ा बताते हैं.
गंगा-स्नान कर ध्यान करता हिन्दू |
सनातन हिन्दू धर्म में उपवास,व्रत एवं पूजा का महात्म्य है मगर बाबा ने सदैव इनका विरोध किया.
बाबा मांस-मछली खाते व खिलाते थे.किसी हिन्दू संत के मांसाहारी होने का अबतक के इतिहास में कोई ज़िक्र नहीं मिलता.मांसाहार का समर्थन भी पाप माना जाता है.बकरा हलाल तो अकल्पनीय है.
बकरा हलाल करने की मुद्रा में साईं(सांकेतिक) |
एकादशी का दिन हिन्दुओं का सबसे पवित्र उपवास का दिन होता है.इस दिन कई घरों में चावल तक नहीं पकता.ये कितनी विचित्र बात है कि बाबा ने इस दिन बाज़ार से मांस लाने का आदेश दिया.
जीवनभर बाबा ने ‘अल्लाह मालिक’ बोला.अल्लाह ही उनका सबकुछ था.कभी भी उनके मुंह से राम,कृष्ण शिव अथवा भगवान शब्द नहीं निकला.इसे क्या कहेंगें?
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनज़र साईं बाबा को एक हिन्दू संत तो बहुत दूर की बात है उन्हें एक हिन्दू भी कहना सर्वथा अनुचित होगा.ये ना सिर्फ़ सनातन हिन्दू धर्म का अपमान होगा बल्कि एक गहरा षड्यंत्र समझा जाएगा.वे पूजा उपासना के ही नहीं हिन्दू धर्म के भी धुर विरोधी थे.1936 में हरि विनायक साठे(एक साईं भक्त)ने अपने साक्षात्कार में नरसिम्हा स्वामी को कहा था-
”बाबा किसी भी हिन्दू देवी-देवता या स्वयं की पूजा मस्जिद में नहीं करने देते थे,न ही मस्जिद में किसी देवता के चित्र वगैरह लगाने देते थे.”
”1916 में अवकाश ग्रहण करने के बाद जो पेंशन मुझे मिलती थी,वह मेरे कुटुंब(परिवार)के निर्वाह के लिए अपर्याप्त थी.उसी वर्ष गुरुपूर्णिमा के दिवस मैं अन्य भक्तों के साथ शिर्डी गया.वहां अन्ना चिन्च्निकर ने स्वतः ही मेरे लिए बाबा से इसप्रकार प्रार्थना की-”इनपर कृपा करो.जो पेंशन इन्हें मिलती है,वो निर्वाह-योग्य नहीं है.कुटुंब में वृद्धि हो रही है.कृपया और कोई नौकरी दिला दीजिये,ताकि इनकी चिंता दूर हो और ये सुखपूर्वक रहें”.बाबा ने उत्तर दिया कि ”इन्हें नौकरी मिल जाएगी,परन्तु अब इन्हें मेरी सेवा में ही आनंद लेना चाहिए.इनकी इच्छाएं सदैव पूर्ण होंगीं,इन्हें अपना ध्यान मेरी ओर आकर्षित कर,अधार्मिक तथा दुष्टजनों की संगति से दूर रहना चाहिए.इन्हें सबसे दया और नम्रता का बर्ताव और अंतःकरण से मेरी उपासना करनी चाहिए.यदि ये इसप्रकार का आचरण कर सकें तो नित्यानंद के अधिकारी होंगें.
फ़िर उन्होंने बाबा की चाकरी शुरू कर दी.बाबा के निर्देशन में उन्होंने बाबा की एक काल्पनिक कथा लिख डाली.राइ का पहाड़ बना दिया.मगर एक बात साफ़ है कि जो सच उन्होंने छुपाया नहीं,ज्यों-का-त्यों रख दिया,उनकी अंतरात्मा की आवाज़ यानि एक लेखक की इमानदारी थी या फ़िर एक अपरिपक्व लेखन-क्षमता,ये शोध का विषय है.यदि वे ईमानदार थे तो निश्चय ही मैं उनका आभारी हूं.
साईं ‘मुस्लिम फ़कीर’ थे?
पहली बार बाबा औरंगाबाद के धुपगाँव निवासी चाँद पाटिल को दिखे थे.दरअसल,चाँद पाटिल की घोड़ी खो गई थी.दो महीने के अथक प्रयास के बाद भी जब घोड़ी नहीं मिली तो निराश होकर वे वापस अपने गाँव लौट रहे थे.रास्ते में एक आम के पेड़ के नीचे उन्होंने एक फ़कीर(साईं बाबा) को चिलम तैयार करते देखा,जिसके सिर पर एक टोपी (मुसलमानी टोपी),तन पर एक कफनी और पास में एक सटका था-(अध्याय-5,पेज़-30)मस्ज़िद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घकाल तक तकिया में रहे-(अध्याय-5,पेज़-37)रायबहादुर विनायक साठे का रसोईया मेघा शिर्डी साईं से मिलने पहुंचा.साईं उसकी ओर देखकर कहने लगे, ‘तुम तो एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हो और मैं बस निम्न जाति का यवन (मुसलमान).तुम्हारी जाति भ्रष्ट हो जाएगी.इसलिए तुम यहां से बाहर निकलो-(अध्याय-28,पेज़-197)बाबा सुन्नत यानि ख़तना कराने के पक्षधर थे-(अध्याय-7,पेज़-50)फ़कीरों के साथ बाबा मांस-मछली का सेवन भी कर लेते थे.(अध्याय-7,पेज़-51)बाबा मीठे चावल के साथ मांस-मिश्रित चावल(मटन बिरयानी) भी बनाते थे.जब भोजन तैयार हो जाता,तब वे मस्ज़िद से बर्तन मंगाकर मौलवी से फ़ातिहा पढवाते थे.फ़िर,वे म्हालसापति तथा तात्या पाटिल के प्रसाद का भाग पृथक कर शेष भोजन ग़रीब व अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे-(अध्याय-38,पेज़-270)एक बार ऐसा हुआ कि अर्धरात्रि को बाबा ने ज़ोर से पुकारा कि,”ओ अब्दुल! कोई दुष्ट प्राणी मेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है.” दरअसल,उन्होंने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा था.लालटेन लाकर वहां देखा गया तो पता चला कि एक सांप कुंडली मारे हुए बैठा हुआ था और अपना फन हिला रहा था.उस सांप को फ़ौरन मार डाला गया-(अध्याय-22,पेज़-155)एक बार बाबा ने शामा से कहा-मैं मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने वाला हूं.जाकर हाज़ी सिद्दीक फालके से पूछो कि उसे क्या रूचिकर होगा-बकरे का मांस,नाध या अंडकोष-(अध्याय-11,पेज़-86)एक बार मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने के लिए लाया गया.साईं बाबा ने काका साहेब दीक्षित से कहा-मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का काम करूँगा.तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फ़कीर(मुसलमान)बैठते हैं,वहां चलकर इसकी बलि देनी चाहिए.जब बकरा वहां ले जाया जा रहा था तभी रास्ते में वह गिरकर मर गया-(अध्याय-23,पेज़-162)साईं बाबा मालेगांव के फ़कीर पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा का बड़ा आदर किया करते थे.इस कारण वे सदैव उनकी दाहिनी ओर ही बैठा करते थे.सबसे पहले वे ही चिलम पीते और फ़िर बाबा को देते,बाद में अन्य भक्तों को.जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता,तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपनी दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते.बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्र होती,उसमें से वे 50 रुपए प्रतिदिन बड़े बाबा को दिया करते थे.जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम तक जाया करते थे-(अध्याय-23,पेज़-161)एक रोहिला मुसलमान जो बाबा के साथ मस्ज़िद में ही रहता था,वह आठों पहर अपनी उच्च और कर्कश आवाज़ में कुरान शरीफ़ के कलमे पढता और ”अल्लाहो अक़बर” के नारे लगाता था.शिर्डी के अधिकांश लोग खेतों में दिनभर काम करने के पश्चात जब रात्रि में घर लौटते तो रोहिला की कर्कश पुकारें उनका स्वागत करती थीं.इस कारण उन्हें रात्रि में विश्राम न मिलता था,जिससे वे अधिक कष्ट और असुविधा का अनुभव करने लगे.कई दिनों तक तो वे मौन रहे,परन्तु जब कष्ट असहनीय हो गया,तब उन्होंने बाबा के समीप जाकर रोहिला को मना कर इस उत्पात को रोकने की प्रार्थना की.बाबा ने उनकी समस्या दूर करने की बजाय उन्हें ही डांट कर भगा दिया-(अध्याय-3,पेज़-18)
ख़तना कोई हिन्दू तो कराता नहीं.ना ही कोई हिन्दू ख़तना का समर्थन करेगा.फ़िर,बाबा क्यों हिन्दुओं का ख़तना करवाते थे? हमें इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि एक बार एक ब्राह्मण के बेटे का ख़तना करवाने के जुर्म में पुलिस उन्हें पकड़ने गई थी.
कोई हिन्दू संत तो क्या एक आम हिन्दू भी,जिसका ज़रा भी धर्म-कर्म से रिश्ता है,वो मटन बिरयानी तो दूर लहसन-प्याज़ से भी दूरी बनाए रखता है.मगर साईं तो मटन-बिरयानी के शौक़ीन थे.इसके अलावा,खाना तबतक परोसा नहीं जा सकता था जबतक मौलवी फ़ातिहा ना पढ दे.मतलब साफ़ है साईं प्रारंभ नहीं बिस्मिल्लाह करते थे जैसा कि इस्लाम में कोई भी काम शुरू करने से पहले करते हैं-अल्लाह के नाम से.
‘बकरा हलाल करने वाला’ तथा उसका ‘मांस’, ‘नाध’ और ‘अंडकोष’ खाने खिलाने वाला व्यक्ति चाहे वो कोई आम इंसान हो या फ़कीर या तो वो मुसलमान होगा या फ़िर ईसाई या यहूदी.
बाबा के पास मुस्लिम फ़कीरों का जमावड़ा लगा रहता था.वे उन्हीं के बीच उठते बैठते और हिन्दुओं (काफ़िरों) द्वारा दान की गई रक़म यानि चढ़ावे का बंटवारा करते थे.मसलन,पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा को उस वक़्त साईं बाबा प्रतिदिन 50 रुपए दिया करते थे जब 20 रुपए तोला सोना बिकता था.
निष्कर्ष
साईं एक फ़कीर(मुस्लिम फ़कीर)थे या नहीं ये एक अलग विषय है.परन्तु,वे एक मुसलमान थे,इसमें कोई दो राय नहीं.उनके खानपान,रहन-सहन,स्वभाव और सरोकार से जुड़ी हर एक बात उन्हें इस्लाम से जोड़ती है.चूँकि वे एक फ़कीर का भेष धारण किए हुए थे इसलिए उन्हें ‘मुस्लिम फ़कीर’ समझा गया.इसीलिए यहाँ उन्हें समक्ष रखकर एक मुस्लिम फ़कीर के तौर पर विश्लेषित किया गया है.क्योंकि हिन्दू अथवा मुस्लिम होने से कोई संत या फ़कीर नहीं हो जाता,उसके लिए कई सारे मापदंड होते हैं,इसलिए यहाँ आशय(अभिप्राय)समझने की आवश्यकता है.मेरा अभिप्राय यहाँ साईं के व्यक्तिगत धर्म से है कि साईं क्या थे-हिन्दू या मुसलमान.कहते हैं-‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या’ बिलकुल साफ़ और तथ्यों के साथ साईं सच्चरित्र ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है.वैसे भी भारत का आम जनमानस अब ये मान चुका है कि साईं यवनी ही थे.
साईं ‘कुछ और‘ थे?
साईं हिन्दू नहीं थे.वे एक यवनी यानि मुसलमान थे.पर,वे एक ‘फ़कीर’ थे,ये भी साबित नहीं होता.साईं सच्चरित्र में कई ऐसे प्रसंग व तथ्य मौज़ूद हैं जो ये बताते हैं कि साईं एक फ़कीर नहीं बल्कि ‘कुछ और‘ थे.आइए देखते हैं साईं सच्चरित्र के वे पन्ने और उन पन्नों में दर्ज़ वो बातें,जो साईं को एक मुस्लिम फ़कीर के चरित्र और उसूलों से भिन्न दर्शाती हैं:-
साईं बाबा नर्तकियों का अभिनय व नृत्य देखते और ग़ज़ल-कव्वालियाँ भी सुनते थे-(अध्याय-4,पेज़-22)बाबा पैरों में घुंघरू बांधकर प्रेमविह्वल होकर सुंदर नृत्य व गायन भी करते थे-(अध्याय-5,पेज़-37)वेनुबाई कौजलगी जिन्हें लोग मौसीबाई भी कहते थे,वे दोनों हाथों की अंगुलियाँ मिलाकर बाबा के शरीर को मसल रही थीं.जब वे बलपूर्वक उनका पेट दबातीं तो पेट और पीठ का प्रायः एकीकरण हो जाता था.बाबा भी इस दबाव के कारण यहाँ-वहां सरक रहे थे-(अध्याय-24,पेज़-168)जब वेनुबाई उर्फ़ मौसीबाई साईं बाबा के शरीर को मसल रही थीं उसी वक़्त अन्ना भी दूसरी ओर सेवा में व्यस्त थे.अनायास ही मौसीबाई का मुख अन्ना के अति निकट आ गया.मौसीबाई ने आरोप लगाते हुए कहा-”यह अन्ना बहुत बुरा व्यक्ति है और यह मेरा चुम्बन करना चाहता है.इसके केश तो पक गए हैं,परन्तु मेरा चुम्बन करने में तनिक भी लज्जा नहीं आती है.” अन्ना ने पलटवार किया.फ़िर,दोनों झगड़ने लगे.बाक़ी वहां उपस्थित लोग आनंद ले रहे थे.बाबा ने कुशलतापूर्वक विवाद का निपटारा कर दिया-(अध्याय-24,पेज़-169)एक बार औरंगाबाद से एक संभ्रांत यवन परिवार(मुस्लिम परिवार) साईं बाबा के दर्शनार्थ आया.स्त्रियाँ आगे बढीं और उन्होंने बाबा के दर्शन किए.उनमे से एक महिला ने मुंह पर से घूँघट हटाकर बाबा के चरणों में प्रणाम कर फ़िर घूँघट डाल लिया.नाना साहेब उसके सौन्दर्य से आकर्षित हो गए और एक बार पुनः वह छवि देखने को लालायित हो उठे-(अध्याय-49,पेज़-344)साईं बाबा गुस्से में आते थे और गालियां भी बकते थे। ज्यादा क्रोधित होने पर वे अपने भक्तों को पीट भी देते थे। बाबा कभी पत्थर मारते और कभी गालियां देते-(अध्याय-6,10,23 और 41)गेंहूँ पीसने की कथा में लेखक कहता है- पिसे हुए आटे को चार भागों में बांटकर स्त्रियाँ घर को जाने लगीं.अभी तक शांत मुद्रा में निमग्न बाबा क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे-”स्त्रियों! क्या तुम पागल हो गई हो? तुम किसके बाप का माल हड़पकर ले जा रही हो? क्या कोई कर्ज़दार का माल है,जो इतनी आसानी से उठाकर लिए जा रही हो? अच्छा,अब एक काम करो कि इस आटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ.”-(अध्याय-1,पेज़-3)कुत्ते भी उनके (बाबा के) भोजन-पात्र में मुंह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे परंतु,उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की.ऐसा अपूर्व और अद्भूत श्री साईं बाबा का अवतार था –(अध्याय-7,पेज़-51)साईं बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्र होती,उसमें से वे 50 रुपए प्रतिदिन मालेगांव के पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा को दिया करते थे-(अध्याय-23,पेज़-161)मस्ज़िद में जब बकरा हलाल करने का मसला चल रहा था तब पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा भी वही साईं बाबा के समीप खड़े थे.साईं बाबा उनका बड़ा आदर करते थे.मगर उन्होंने जब उन्हें(बड़े बाबा को) बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है-(अध्याय-23,पेज़-161)बकरा हलाल करने को लेकर ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फ़कीर(मुसलमान)बैठते हैं,वहां चलकर इसकी बलि देनी चाहिए.जब बकरा वहां ले जाया जा रहा था तभी रास्ते में वह गिरकर मर गया-(अध्याय-23,पेज़-162)शिर्डी में एक पहलवान था,जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था.बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया.फलस्वरूप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गए.इसके पश्चात बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया.वे क़फनी पहनते,लंगोट बांधते और एक कपडे से सिर ढंकते थे.वे आसन तथा शयन के लिए एक टाट का टुकड़ा ही काम में लाते थे.इसप्रकार फटे-पुराने चीथड़े पहनकर वे बहुत संतुष्ट प्रतीत होते थे.वे सदैव ही यही कहा करते थे कि,”ग़रीबी अव्वल बादशाही,अमीरी से लाख सवाई,ग़रीबों का अल्ला भाई.” साईं बाबा न लोगों से मिलते न वार्तालाप करते.जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे –(अध्याय-5,पेज़-35-36)अनेक आलोचनाएं साईं बाबा के सम्बन्ध में पहले सुनने में आया करती थीं तथा अभी भी आ रही हैं.किसी का कथन था कि जब हम शिर्डी गए तो बाबा ने हमसे दक्षिणा मांगी.क्या इस भांति दक्षिणा ऐंठना एक संत के लिए शोभनीय था? जब वे इसप्रकार आचरण करते हैं तो फ़िर उनका साधु-धर्म कहाँ रहा?-(अध्याय-35,पेज़-248)
साईं नाच-गाने के शौक़ीन थे
साईं महिलाओं से मसाज़ कराते थे
अश्लील बातें और वासना के भाव
क्रोध,गाली-गलौज़ और मारपीट
कुत्तों के संग भोजन
भक्तों से दक्षिणा ऐंठना
मदद की बजाय बंदरबांट
मुसलामानों का वर्चस्व
बाबा का अहंकार टूटा
निष्कर्ष
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