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बाबा बाज़ार

साईं बाबा की असलियत





साईं बाबा वास्तव में क्या थे,एक मुस्लिम फ़क़ीर या हिन्दू संत या फ़िर ‘कुछ और‘,ये आज भी एक सवाल बना हुआ है.एक बड़ा सवाल, जिसका ज़वाब ढूंढो तो उल्टे सवालों पर सवाल यूँ खड़े होते चले जाते हैं जैसे साईं कोई अबूझ पहेली हों या रहस्य्लोक के क़िरदार.असलियत क्या है? साईं दरकिनार किए गए हैं या फिर उन्हें जानबूझकर तिलिस्मी चादर में लपेटकर रहस्यमय बना दिया गया है, इसका खुलासा आज ज़रूरी हो गया है, ताकि फ़ैल रही भ्रांतियां दूर हों और साथ ही सामाजिक समरसता भी बनी रहे.


राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
प्रश्न-चिन्ह (साईं क्या थे?)


तमाम खाक़ छानने के बाद ये पता चलता है कि जवानी के दिनों में साईं शिर्डी पहुंचे.उससे पहले यानि बचपन से लेकर जवानी के बीच की उनकी ज़िन्दगी से जुड़े तथ्य मसलन उनके माँ-बाप, कुल-गोत्र, जन्म व जन्मस्थान के बारे में सबकुछ अज्ञात है अथवा उसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है.लेकिन, शिर्डी में उनके डेरा डालने से लेकर मृत्युकाल तक का उनका जीवन सफ़र एक खुली क़िताब की तरह बिल्कुल स्पष्ट है.इसका श्रेय जाता है साईं सच्चरित्र को जो एक पुस्तक के रूप में वो आईना है जिसमें साईं के जीवनचरित को साफ़-साफ़ देखा व परखा जा सकता है.इसमें अपार कल्पनाओं, विरोधाभासों के साथ यथार्थ का भी वर्णन बख़ूबी किया गया है ताकि रोचकता बनी रहे व भ्रमजाल फ़ैला रहे.

  
कहते हैं साईं सच्चरित्र स्वयं साईं द्वारा रचित है अथवा उनकी प्रेरणा से उनके परम शिष्य गोविंदराव दाभोलकर द्वारा लिखी गई है, इसलिए इसमें, सुसमाचारों(यीशु से जुड़े गॉस्पेल ट्रूथ) की तरह ही, कही गई हर बात कसौटी पर खरी है तथा झूठ की कोई गुंजाइश नहीं है.ऐसे में, यहाँ निर्विवादित साईं सच्चरित्र को आधार बनाकर हम साईं को विश्लेषित एवं परिभाषित कर सकते हैं.


राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
साईं के जीवन-चरित से जुड़ी मूल पुस्तक साईं सच्चरित्र 



ग़ौरतलब है कि किसी व्यक्ति का खान-पान,उसका रहन-सहन,उसकी बोलचाल और व्यवहार आदि वो अवयव अथवा घटक होते हैं जो उसके चरित्र को बनाते हैं.ये ही उसे निर्धारित एवं वर्गीकृत भी करते हैं.ऐसे में,साईं के वास्तविक चरित्र की पहचान के मद्देनज़र इन्हीं ज़रूरी बिंदुओं से सम्बंधित वर्णन पर ही ध्यान केंद्रित कर सवालों के ज़वाब हमें साईं सच्चरित्र में तलाशने की ज़रूरत है.
 

साईं हिन्दू संत थे ?

साईं सच्चरित्र (अध्याय-7,पेज़-50-52) कहता है-


” यदि कहा जाए कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे.कोई भी ये निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन(मुसलमान-उस समय अफ़ग़ानिस्तान से आए मुसलमानों को भारतीय यवन कहा करते थे). ”


साईं सच्चरित्र आगे कहता है-

” यदि कहें कि वे यवन थे तो उनके कान छिदे हुए थे और यदि कहें कि वे हिन्दू थे तो वे सुन्नत (ख़तना) कराने के पक्ष में थे.

और यह भी कि… 

” यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करे तो वे सदा मस्ज़िद में निवास करते थे और यदि कोई यवन कहे तो वे सदा वहां धूनी प्रज्वलित रखते थे.
वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किए बिना ही समाधि में लीन रहते थे.
वे सिर पर एक साफ़ा,क़मर में एक धोती और तन ढंकने के लिए एक कफ़नी धारण करते थे.  
कुत्ते भी उनके भोजन-पात्र में मुंह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे,परन्तु उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की. 
सांई बाबा माथे पर चंदन का टीका लगाते थे जिसे देखकर लोग विस्मय में पड़ जाते थे.
वे कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिए दक्षिण मुख हो धूनी तपते थे.वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे-(अध्याय-5,पेज़-37 )
एक बार बाबा के भक्त मेघा ने उन्हें गंगाजल से स्नान कराने का आग्रह किया तो बाबा ने कहा-‘मुझे इस झंझट से दूर ही रहने दो। मैं तो एक फकीर हूं,मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन?-(अध्याय 28,पेज-198)
बाबा ने स्वयं कभी उपवास नहीं किया और न ही उन्होंने किसी को करने दिया-(अध्याय 32,पेज-228
अध्याय 38(पेज़-269-271) में लिखा है कि बाबा स्वयं बाज़ार जाकर सभी प्रकार की वस्तुएं नगद दाम देकर ख़रीद लाया करते थे.वे कभी मीठे चावल बनाते और कभी मांस-मिश्रित चावल (मटन बिरयानी) बनाते थे.जब भोजन तैयार हो जाता,तब वे मस्ज़िद से बर्तन मंगाकर मौलवी से फ़ातिहा पढने को कहते थे.
एक एकादशी के दिन बाबा ने दादा केलकर को कुछ रुपए देकर बाज़ार से कुछ मांस खरीदकर लाने को कहा.ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा केलकर को नमकीन पुलाव(मटन बिरयानी) चखकर देखने को कहा.केलकर ने मुंहदेखी कह दिया कि अच्छा है.तब बाबा ने केलकर की बांह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले-थोड़ा सा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चखकर देखो.
फ़कीरों के साथ बाबा आमिष (मांस) और मछली का सेवन भी कर लेते थे-(अध्याय-7,पेज़-51)
एक बार बाबा ने शामा से कहा-मैं मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने वाला हूं.जाकर हाज़ी सिद्दीक फालके से पूछो कि उसे क्या रूचिकर होगा-बकरे का मांस,नाध या अंडकोष-(अध्याय-11,पेज़-86)   
एक बार मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने के लिए लाया गया.साईं बाबा ने काका साहेब दीक्षित से कहा-मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का काम करूँगा-(अध्याय-23,पेज़-162) 
‘अल्लाह मालिक़’ सदा उनके(बाबा ) होठों पर था-अनेक बार इसका ज़िक्र किया गया है.
हाथ झुलस जाने पर मुंबई के डॉक्टर से इलाज़ कराने की बाबत नानासाहेब चांदोरकर के अनुरोध को बाबा ने ये कहते हुए ठुकरा दिया कि ‘केवल अल्लाह ही मेरा डॉक्टर है’-(अध्याय-7,पेज़-56) ”     


इस प्रकार,साईं सच्चरित्र के उपरोक्त तमाम वर्णनों में जो बातें निकलकर सामने आती हैं,उनका मत्लब बहुत आसान एवं स्पष्ट है.ये अलग बात है कि तमाम खुलासों के बावज़ूद लेखक स्वयं में भ्रमित नज़र आता है तथा ये निर्णय लेने में असमर्थ है कि साईं हिन्दू थे अथवा मुसलमान.वो कद-काठी,पहनावे तथा आचार-विचार की बातें तो कहता है लेकिन उन्हें आधार मानकर निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय संभावनाओं अथवा कल्पनाओं में कहीं खो जाता है मानो वो काया छोड़ उसकी परछाईं के पीछे भागता दिखता है.शून्य की ओर.सच से कोसों दूर.अज्ञात.
   
अब साईं के माथे का तिलक तथा उनके कान छिदे होने का तर्क देखिए.लेखक उन्हें उनके हिन्दू होने का प्रमाण मानता है.जबकि सच्चाई ये है कि सुलेमानी मुसलमानों तथा विवादित सूफ़ी मौलानाओं का ये इतिहास रहा है कि उन्होंने छद्म रूप धरे तथा हिन्दुओं के बीच रहकर उन्हें भरमाया और अंततः इस्लाम की तरफ़ मोड़ दिया.साईं भी वैसे ही थे.उनके छिदे कान और चन्दन का टीका देख लोग भ्रमित हो जाते थे अन्यथा मुस्लिम फ़कीर जानकर वे उन्हें नकार देते.
   
कद-काठी की बात छोडिए,कोई हिन्दू संत सुन्नत यानि ख़तना का समर्थन नहीं कर सकता.उसके मस्ज़िद में निवास करने की बात तो दूर प्नवेश की भी कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती.
  
बाबा कई दिनों तक नहाते नहीं थे जबकि हिन्दू संतों को कम से कम प्रातः तथा संध्या काल में स्नान अनिवार्य है.इसके बिना योग,ध्यान आदि क्रिया प्रारम्भ नहीं होती.
 
किसी हिन्दू के लिए गंगा स्नान ज़िन्दगीभर का ख़्वाब होता है.गंगाजल का दर्शन भी हिन्दुओं में अति पवित्र माना जाता है जबकि साईं उसे बखेड़ा बताते हैं.


राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
गंगा-स्नान कर ध्यान करता हिन्दू 


सनातन हिन्दू धर्म में उपवास,व्रत एवं पूजा का महात्म्य है मगर बाबा ने सदैव इनका विरोध किया.


बाबा कोई धुनी नहीं रमाते थे जैसा कि नाथ सम्प्रदाय के लोग करते हैं.ठंड से बचने के लिए वे एक स्थान पर लकड़ियाँ इकट्ठी कर आग जलाते थे.उनके इस आग जलाने को लोगों ने धुनी रमाना समझा.

बाबा मांस-मछली खाते व खिलाते थे.किसी हिन्दू संत के मांसाहारी होने का अबतक के इतिहास में कोई ज़िक्र नहीं मिलता.मांसाहार का समर्थन भी पाप माना जाता है.बकरा हलाल तो अकल्पनीय है.
 

राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
बकरा हलाल करने की मुद्रा में साईं(सांकेतिक) 

एकादशी का दिन हिन्दुओं का सबसे पवित्र उपवास का दिन होता है.इस दिन कई घरों में चावल तक नहीं पकता.ये कितनी विचित्र बात है कि बाबा ने इस दिन बाज़ार से मांस लाने का आदेश दिया.

 
जीवनभर बाबा ने ‘अल्लाह मालिक’ बोला.अल्लाह ही उनका सबकुछ था.कभी भी उनके मुंह से राम,कृष्ण शिव अथवा भगवान शब्द नहीं निकला.इसे क्या कहेंगें?


निष्कर्ष
 
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनज़र साईं बाबा को एक हिन्दू संत तो बहुत दूर की बात है उन्हें एक हिन्दू भी कहना सर्वथा अनुचित होगा.ये ना सिर्फ़ सनातन हिन्दू धर्म का अपमान होगा बल्कि एक गहरा षड्यंत्र समझा जाएगा.वे पूजा उपासना के ही नहीं हिन्दू धर्म के भी धुर विरोधी थे.1936 में हरि विनायक साठे(एक साईं भक्त)ने अपने साक्षात्कार में नरसिम्हा स्वामी को कहा था-

बाबा किसी भी हिन्दू देवी-देवता या स्वयं की पूजा मस्जिद में नहीं करने देते थे,न ही मस्जिद में किसी देवता के चित्र वगैरह लगाने देते थे.”


ये नहीं भूलना चाहिए कि साईं सच्चरित्र के लेखक गोविंदराव दाभोलकर जिन्हें बाबा हेमाडपंत कहते थे,वो दरअसल साईं दरबार के एक मुलाज़िम थे.इसे यों भी कह सकते हैं कि वे बाबा के टुकड़ों पर पलते थे.एक  पंजीकृत चाटुकार.किराए के लेखक.


राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
साईं सच्चरित्र के लेखक गोविंदराव दाभोलकर 



अध्याय-3 के 17 वें पेज़ पर दाभोलकर लिखते हैं-

1916 में अवकाश ग्रहण करने के बाद जो पेंशन मुझे मिलती थी,वह मेरे कुटुंब(परिवार)के निर्वाह के लिए अपर्याप्त थी.उसी वर्ष गुरुपूर्णिमा के दिवस मैं अन्य भक्तों के साथ शिर्डी गया.वहां अन्ना चिन्च्निकर ने स्वतः ही मेरे लिए बाबा से इसप्रकार प्रार्थना की-”इनपर कृपा करो.जो पेंशन इन्हें मिलती है,वो निर्वाह-योग्य नहीं है.कुटुंब में वृद्धि हो रही है.कृपया और कोई नौकरी दिला दीजिये,ताकि इनकी चिंता दूर हो और ये सुखपूर्वक रहें”.बाबा ने उत्तर दिया कि ”इन्हें नौकरी मिल जाएगी,परन्तु अब इन्हें मेरी सेवा में ही आनंद लेना चाहिए.इनकी इच्छाएं सदैव पूर्ण होंगीं,इन्हें अपना ध्यान मेरी ओर आकर्षित कर,अधार्मिक तथा दुष्टजनों की संगति से दूर रहना चाहिए.इन्हें सबसे दया और नम्रता का बर्ताव और अंतःकरण से मेरी उपासना करनी चाहिए.यदि ये इसप्रकार का आचरण कर सकें तो नित्यानंद के अधिकारी होंगें. 



फ़िर उन्होंने बाबा की चाकरी शुरू कर दी.बाबा के निर्देशन में उन्होंने बाबा की एक काल्पनिक कथा लिख डाली.राइ का पहाड़ बना दिया.मगर एक बात साफ़ है कि जो सच उन्होंने छुपाया नहीं,ज्यों-का-त्यों रख दिया,उनकी अंतरात्मा की आवाज़ यानि एक लेखक की इमानदारी थी या फ़िर एक अपरिपक्व लेखन-क्षमता,ये शोध का विषय है.यदि वे ईमानदार थे तो निश्चय ही मैं उनका आभारी हूं.


 

साईं ‘मुस्लिम फ़कीर’ थे?  

बाबा ने अपना सारा जीवन मस्ज़िद में गुज़ारा.एक रात भी वे किसी हिन्दू मंदिर में नहीं रहे.सिर पर कफनी थी और ज़ुबान पर अल्लाह मालिक.इसके सिवा कुछ और कभी उनके मुंह से नहीं निकला.इसके अलावा भी,साईं बाबा से जुडी कई अन्य निम्नलिखित बातें हैं जिनका साईं सच्चरित्र में स्पष्ट वर्णन है:-

पहली बार बाबा औरंगाबाद के धुपगाँव निवासी चाँद पाटिल को दिखे थे.दरअसल,चाँद पाटिल की घोड़ी खो गई थी.दो महीने के अथक प्रयास के बाद भी जब  घोड़ी नहीं मिली तो निराश होकर वे वापस अपने गाँव लौट रहे थे.रास्ते में एक आम के पेड़ के नीचे उन्होंने एक फ़कीर(साईं बाबा) को चिलम तैयार करते देखा,जिसके सिर पर एक टोपी (मुसलमानी टोपी),तन पर एक कफनी और पास में एक सटका था-(अध्याय-5,पेज़-30)
मस्ज़िद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घकाल तक तकिया में रहे-(अध्याय-5,पेज़-37) 
रायबहादुर विनायक साठे का रसोईया मेघा शिर्डी साईं से मिलने पहुंचा.साईं उसकी ओर देखकर कहने लगे, ‘तुम तो एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हो और मैं बस निम्न जाति का यवन (मुसलमान).तुम्हारी जाति भ्रष्ट हो जाएगी.इसलिए तुम यहां से बाहर निकलो-(अध्याय-28,पेज़-197)
बाबा सुन्नत यानि ख़तना कराने के पक्षधर थे-(अध्याय-7,पेज़-50)
फ़कीरों के साथ बाबा मांस-मछली का सेवन भी कर लेते थे.(अध्याय-7,पेज़-51)
बाबा मीठे चावल के साथ मांस-मिश्रित चावल(मटन बिरयानी) भी बनाते थे.जब भोजन तैयार हो जाता,तब वे मस्ज़िद से बर्तन मंगाकर मौलवी से फ़ातिहा पढवाते थे.फ़िर,वे म्हालसापति तथा तात्या पाटिल के प्रसाद का भाग पृथक कर शेष भोजन ग़रीब व अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे-(अध्याय-38,पेज़-270) 
एक बार ऐसा हुआ कि अर्धरात्रि को बाबा ने ज़ोर से पुकारा कि,”ओ अब्दुल! कोई दुष्ट प्राणी मेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है.” दरअसल,उन्होंने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा था.लालटेन लाकर वहां देखा गया तो पता चला कि एक सांप कुंडली मारे हुए बैठा हुआ था और अपना फन हिला रहा था.उस सांप को फ़ौरन मार डाला गया-(अध्याय-22,पेज़-155)
एक बार बाबा ने शामा से कहा-मैं मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने वाला हूं.जाकर हाज़ी सिद्दीक फालके से पूछो कि उसे क्या रूचिकर होगा-बकरे का मांस,नाध या अंडकोष-(अध्याय-11,पेज़-86)   
एक बार मस्ज़िद में एक बकरा हलाल करने के लिए लाया गया.साईं बाबा ने काका साहेब दीक्षित से कहा-मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का काम करूँगा.तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फ़कीर(मुसलमान)बैठते हैं,वहां चलकर इसकी बलि देनी चाहिए.जब बकरा वहां ले जाया जा रहा था तभी रास्ते में वह गिरकर मर गया-(अध्याय-23,पेज़-162)
साईं बाबा मालेगांव के फ़कीर पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा का बड़ा आदर किया करते थे.इस कारण वे सदैव उनकी दाहिनी ओर ही बैठा करते थे.सबसे पहले वे ही चिलम पीते और फ़िर बाबा को देते,बाद में अन्य भक्तों को.जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता,तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपनी दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते.बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्र होती,उसमें से वे 50 रुपए प्रतिदिन बड़े बाबा को दिया करते थे.जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम तक जाया करते थे-(अध्याय-23,पेज़-161)
एक रोहिला मुसलमान जो बाबा के साथ मस्ज़िद में ही रहता था,वह आठों पहर अपनी उच्च और कर्कश आवाज़ में कुरान शरीफ़ के कलमे पढता और ”अल्लाहो अक़बर” के नारे लगाता था.शिर्डी के अधिकांश लोग खेतों में दिनभर काम करने के पश्चात जब रात्रि में घर लौटते तो रोहिला की कर्कश पुकारें उनका स्वागत करती थीं.इस कारण उन्हें रात्रि में विश्राम न मिलता था,जिससे वे अधिक कष्ट और असुविधा का अनुभव करने लगे.कई दिनों तक तो वे मौन रहे,परन्तु जब कष्ट असहनीय हो गया,तब उन्होंने बाबा के समीप जाकर रोहिला को मना कर इस उत्पात को रोकने की प्रार्थना की.बाबा ने उनकी समस्या दूर करने की बजाय उन्हें ही डांट कर भगा दिया-(अध्याय-3,पेज़-18)        

इस प्रकार, हम यहाँ देखते हैं कि साईं बाबा के मुसलमान होने के अनेकानेक प्रमाण साईं सच्चरित्र में ही उपलब्ध हैं और जिन्हें कहीं और तलाशने की आवश्यकता नहीं है.अब, चाँद पाटिल का ही वाकया ले लीजिए.पहली बार उन्होंने ही साईं को देखा था.साईं मुसलमानी टोपी में नज़र आए थे.साईं चाँद पाटिल की बारात में शिर्डी पहुंचे.वहां बारातियों के स्वागत में खड़े खंडोबा के पुजारी म्हालसापति ने ‘आओ साईं’ कहकर बुलाया.साईं शब्द फ़ारसी है, जो सिर्फ़ मुस्लिम फ़कीरों के लिए ही प्रयुक्त होता है.
   
मेघा को साईं स्पष्ट शब्दों में कहते है कि वो एक नीच जाति के यवन हैं.विदित हो कि अफ़ग़ानिस्तान से आए लोगों को पहले भारत के लोग यवन कहते थे.

मस्ज़िद में निवास करने के पूर्व बाबा लंबे वक़्त तक तकिया में रहे थे.तकिया अथवा ‘अल तकिया’ का मत्लब होता है चतुराई और षड्यंत्रों के ज़रिए इस्लाम के विस्तार की योजनाएं बनाने व उनपर अमल करने का ज्ञान.सुन्नी विद्वान इब्न कथिर की व्याख्या के अनुसार,”मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के बीच कभी मित्रता नहीं होनी चाहिए.अगर,किसी कारणवश ऐसा करना भी पड़े तो वो मित्रता तभी तक ही रहनी चाहिए जबतक मकसद पूरा नहीं हो जाता.” इसका मत्लब ये हुआ कि मक़सद ख़त्म तो दोस्ती ख़त्म.इसमें खुदगर्ज़ी के साथ नफ़रत भी साफ़ दिखाई देती है.साईं ने ऐसा ज्ञान लिया था.एक मुसलमान के सिवाय कोई अन्य ऐसा ज्ञान लेगा,ऐसी चर्चा भी बेमानी होगी.

क़फनी एक प्रकार का पहनावा है जो मुस्लिम फ़कीर पहनते हैं.

अल्लाह मालिक़ और अल्लाहो अक़बर सिवाय मुस्लिम के कोई और नहीं बोलता.
 
ख़तना कोई हिन्दू तो कराता नहीं.ना ही कोई हिन्दू  ख़तना का समर्थन करेगा.फ़िर,बाबा क्यों हिन्दुओं का ख़तना करवाते थे? हमें इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि एक बार एक ब्राह्मण के बेटे का ख़तना करवाने के जुर्म में पुलिस उन्हें पकड़ने गई थी.

साईं सच्चरित्र ने साफ़ कर दिया है कि साईं के दिल में जीवदया नाम की कोई चीज़ नहीं थी.सांप जैसे निरीह प्राणी को वो दुष्ट प्राणी बताते हैं तथा उसे पकड़कर जंगल में छोड़ने या भगा देने की बजाय उसे मरवा डालते हैं.ये एक ऐसा तथ्य है जो साईं के विवेक और भाव (स्वाभाव) दोनों से जुड़ा है.
 
कोई हिन्दू संत तो क्या एक आम हिन्दू भी,जिसका ज़रा भी धर्म-कर्म से रिश्ता है,वो मटन बिरयानी तो दूर लहसन-प्याज़ से भी दूरी बनाए रखता है.मगर साईं तो मटन-बिरयानी के शौक़ीन थे.इसके अलावा,खाना तबतक परोसा नहीं जा सकता था जबतक मौलवी फ़ातिहा ना पढ दे.मतलब साफ़ है साईं प्रारंभ नहीं बिस्मिल्लाह करते थे जैसा कि इस्लाम में कोई भी काम शुरू करने से पहले करते हैं-अल्लाह के नाम से.
    
‘बकरा हलाल करने वाला’ तथा उसका ‘मांस’, ‘नाध’ और ‘अंडकोष’ खाने खिलाने वाला व्यक्ति चाहे वो कोई आम इंसान हो या फ़कीर या तो वो मुसलमान होगा या फ़िर ईसाई या यहूदी. 
 
बाबा के पास मुस्लिम फ़कीरों का जमावड़ा लगा रहता था.वे उन्हीं के बीच उठते बैठते और हिन्दुओं (काफ़िरों) द्वारा दान की गई रक़म यानि चढ़ावे का बंटवारा करते थे.मसलन,पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा को उस वक़्त साईं बाबा प्रतिदिन 50 रुपए दिया करते थे जब 20 रुपए तोला सोना बिकता था.

साईं को रोहिला मुसलमान द्वारा चीख-चीखकर क़ुरान के कलमे पढना और अल्लाहो अक़बर के नारे इतने पसंद थे कि उनके सामने ग़रीब मज़दूरों का दर्द नहीं दिखा.मौला साईं का दिल नहीं पसीजा.


निष्कर्ष 

साईं एक फ़कीर(मुस्लिम फ़कीर)थे या नहीं ये एक अलग विषय है.परन्तु,वे एक मुसलमान थे,इसमें कोई दो राय नहीं.उनके खानपान,रहन-सहन,स्वभाव और सरोकार से जुड़ी हर एक बात उन्हें इस्लाम से जोड़ती है.चूँकि वे एक फ़कीर का भेष धारण किए हुए थे इसलिए उन्हें ‘मुस्लिम फ़कीर’ समझा गया.इसीलिए यहाँ उन्हें समक्ष रखकर एक मुस्लिम फ़कीर के तौर पर विश्लेषित किया गया है.क्योंकि हिन्दू अथवा मुस्लिम होने से कोई संत या फ़कीर नहीं हो जाता,उसके लिए कई सारे मापदंड होते हैं,इसलिए यहाँ आशय(अभिप्राय)समझने की आवश्यकता है.मेरा अभिप्राय यहाँ साईं के व्यक्तिगत धर्म से है कि साईं क्या थे-हिन्दू या मुसलमान.कहते हैं-‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या’ बिलकुल साफ़ और तथ्यों के साथ साईं सच्चरित्र ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है.वैसे भी भारत का आम जनमानस अब ये मान चुका है कि साईं यवनी ही थे.


 

साईं ‘कुछ और‘ थे?

साईं हिन्दू नहीं थे.वे एक यवनी यानि मुसलमान थे.पर,वे एक ‘फ़कीर’ थे,ये भी साबित नहीं होता.साईं सच्चरित्र में कई ऐसे प्रसंग व तथ्य मौज़ूद हैं जो ये बताते हैं कि साईं एक फ़कीर नहीं बल्कि ‘कुछ और‘ थे.आइए देखते हैं साईं सच्चरित्र के वे पन्ने और उन पन्नों में दर्ज़ वो बातें,जो साईं को एक मुस्लिम फ़कीर के चरित्र और उसूलों से भिन्न दर्शाती हैं:-

 
साईं बाबा नर्तकियों का अभिनय व नृत्य देखते और ग़ज़ल-कव्वालियाँ भी सुनते थे-(अध्याय-4,पेज़-22)
बाबा पैरों में घुंघरू बांधकर प्रेमविह्वल होकर सुंदर नृत्य व गायन भी करते थे-(अध्याय-5,पेज़-37)
वेनुबाई कौजलगी जिन्हें लोग मौसीबाई भी कहते थे,वे दोनों हाथों की अंगुलियाँ मिलाकर बाबा के शरीर को मसल रही थीं.जब वे बलपूर्वक उनका पेट दबातीं तो पेट और पीठ का प्रायः एकीकरण हो जाता था.बाबा भी इस दबाव के कारण यहाँ-वहां सरक रहे थे-(अध्याय-24,पेज़-168)
जब वेनुबाई उर्फ़ मौसीबाई साईं बाबा के शरीर को मसल रही थीं उसी वक़्त अन्ना भी दूसरी ओर सेवा में व्यस्त थे.अनायास ही मौसीबाई का मुख अन्ना के अति निकट आ गया.मौसीबाई ने आरोप लगाते हुए कहा-”यह अन्ना बहुत बुरा व्यक्ति है और यह मेरा चुम्बन करना चाहता है.इसके केश तो पक गए हैं,परन्तु मेरा चुम्बन करने में तनिक भी लज्जा नहीं आती है.” अन्ना ने पलटवार किया.फ़िर,दोनों झगड़ने लगे.बाक़ी वहां उपस्थित लोग आनंद ले रहे थे.बाबा ने कुशलतापूर्वक विवाद का निपटारा कर दिया-(अध्याय-24,पेज़-169)  
एक बार औरंगाबाद से एक संभ्रांत यवन परिवार(मुस्लिम परिवार) साईं बाबा के दर्शनार्थ आया.स्त्रियाँ आगे बढीं और उन्होंने बाबा के दर्शन किए.उनमे से एक महिला ने मुंह पर से घूँघट हटाकर बाबा के चरणों में प्रणाम कर फ़िर घूँघट डाल लिया.नाना साहेब उसके सौन्दर्य से आकर्षित हो गए और एक बार पुनः वह छवि देखने को लालायित हो उठे-(अध्याय-49,पेज़-344)
साईं बाबा गुस्से में आते थे और गालियां भी बकते थे। ज्यादा क्रोधित होने पर वे अपने भक्तों को पीट भी देते थे। बाबा कभी पत्‍थर मारते और कभी गालियां देते-(अध्याय-6,10,23 और 41)
गेंहूँ पीसने की कथा में लेखक कहता है- पिसे हुए आटे को चार भागों में बांटकर स्त्रियाँ घर को जाने लगीं.अभी तक शांत मुद्रा में निमग्न बाबा क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे-”स्त्रियों! क्या तुम पागल हो गई हो? तुम किसके बाप का माल हड़पकर ले जा रही हो? क्या कोई कर्ज़दार का माल है,जो इतनी आसानी से उठाकर लिए जा रही हो? अच्छा,अब एक काम करो कि इस आटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ.”-(अध्याय-1,पेज़-3)     
कुत्ते भी उनके (बाबा के) भोजन-पात्र में मुंह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे परंतु,उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की.ऐसा अपूर्व और अद्भूत श्री साईं बाबा का अवतार था –(अध्याय-7,पेज़-51)
साईं बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्र होती,उसमें से वे 50 रुपए प्रतिदिन मालेगांव के पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा को दिया करते थे-(अध्याय-23,पेज़-161)
मस्ज़िद में जब बकरा हलाल करने का मसला चल रहा था तब पीर मोहम्मद उर्फ़ बड़े बाबा भी वही साईं बाबा के समीप खड़े थे.साईं बाबा उनका बड़ा आदर करते थे.मगर उन्होंने जब उन्हें(बड़े बाबा को) बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है-(अध्याय-23,पेज़-161)
बकरा हलाल करने को लेकर ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फ़कीर(मुसलमान)बैठते हैं,वहां चलकर इसकी बलि देनी चाहिए.जब बकरा वहां ले जाया जा रहा था तभी रास्ते में वह गिरकर मर गया-(अध्याय-23,पेज़-162)
शिर्डी में एक पहलवान था,जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था.बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया.फलस्वरूप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गए.इसके पश्चात बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया.वे क़फनी पहनते,लंगोट बांधते और एक कपडे से सिर ढंकते थे.वे आसन तथा शयन के लिए एक टाट का टुकड़ा ही काम में लाते थे.इसप्रकार फटे-पुराने चीथड़े पहनकर वे बहुत संतुष्ट प्रतीत होते थे.वे सदैव ही यही कहा करते थे कि,”ग़रीबी अव्वल बादशाही,अमीरी से लाख सवाई,ग़रीबों का अल्ला भाई.” साईं बाबा न लोगों से मिलते न वार्तालाप करते.जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे (अध्याय-5,पेज़-35-36)
अनेक आलोचनाएं साईं बाबा के सम्बन्ध में पहले सुनने में आया करती थीं तथा अभी भी आ रही हैं.किसी का कथन था कि जब हम शिर्डी गए तो बाबा ने हमसे दक्षिणा मांगी.क्या इस भांति दक्षिणा ऐंठना एक संत के लिए शोभनीय था? जब वे इसप्रकार आचरण करते हैं तो फ़िर उनका साधु-धर्म कहाँ रहा?-(अध्याय-35,पेज़-248)


साईं सच्चरित्र में दर्ज़ उपरोक्त उद्वरणों को हम निम्नलिखित प्रकार से भी दर्शा सकते हैं:-


साईं नाच-गाने के शौक़ीन थे 

साईं नर्तकियों (महिला डांसर) की अदाओं और उनका नाच (डांस) देखने के शौक़ीन थे.ये यदि किसी मंदिर में या धार्मिक-सांस्कृतिक समारोह में प्रदर्शित ईश्वर के गुणगान पर आधारित नृत्य हो तो इसे भक्ति-भाव से जोड़कर देखा जाता है.परन्तु सामान्य रूप में ये अय्याशी अथवा भोग की सामग्री कहलाता है.इन्हें प्रदर्शित करने वाली नृत्यांगनाएं तवायफ़ कहलाती हैं.
  
साईं की इस विशेष रुचि के पीछे कोई धार्मिक आधार नहीं बल्कि व्यक्तिगत आमोद-प्रमोद(मनोरंजन) कारक था,जो किसी संत या फ़कीर में देखने को नहीं मिलता.मुस्लिम फ़कीर के लिए तवायफों का नाच हराम माना जाता है.वे सिर्फ़ अल्लाह व पैगम्बर  की  शान में ग़ज़लें-कव्वालियाँ सुनते हैं.
     
हालाँकि साईं सच्चरित्र ये भी कहता है कि बाबा पैरों में घुंघरू बांधकर प्रेमविह्वल होकर सुंदर नृत्य व गायन भी करते थे.मगर लगता है कि ऐसा बताकर उन्हें सूफ़ी संतों से जोड़ने का निरर्थक प्रयास किया गया है क्योंकि सूफ़ी संत भी तवायफों का डांस नहीं देखते.


साईं महिलाओं से मसाज़ कराते थे 

वेनुबाई एक महिला थीं.बाबा उनसे मसाज़ कराते थे.संभव है अन्य महिलाएं भी ऐसा करती हों.क्या ये उचित था? नहीं.निश्चय ही,ऐसा अनुचित कार्य कोई संत या फ़कीर नहीं कर सकता.

ग़ौरतलब है कि व्यवहारिक रूप में,मस्ज़िद में महिलाओं का प्रवेश वर्जित रहा है.साईं बाबा यदि मुस्लिम फ़कीर थे तो कैसे वो महिलाओं को प्रवेश देते थे,जबकि उनकी अनुमति के बिना,हाज़ी सिद्दीक़ (मुस्लिम फ़कीर) नौ माह तक मस्ज़िद की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सका?

मस्ज़िद में महिलाओं का प्रवेश यदि इबादत के लिए हो तो उसे अच्छा कहा जाएगा,ये उनका अधिकार भी है .लेकिन,यदि व्यक्तिगत और शारीरिक/सांसारिक सुख (मसाज़ या फ़िर अन्य सुख) के लिए ऐसा हो तो वह धर्म ही नहीं समाज के भी विरुद्ध है.

 

अश्लील बातें और वासना के भाव 

बाबा के सामने ही उनके भक्तगण अश्लील बातें करते थे.वेनुबाई का ये आरोप कि अन्ना उन्हें चूमना (चुम्बन करना) चाहता था,ये अश्लीलता है.यदि ये मज़ाक था तो भी इसे सही नहीं कहा जा सकता.अश्लील मज़ाक को असभ्यता से जोड़कर देखा जाता है.किसी धार्मिक परिसर में ऐसा कृत्य निंदनीय है. 
बाबा के दर्शन को आई सुंदर महिला को देखकर नानासाहेब फ़िदा हो गए.वासना के भाव पैदा हुए,मर्यादा भंग हुई और मस्ज़िद अपवित्र हो गई.


क्रोध,गाली-गलौज़ और मारपीट   

कहते हैं कि अपनी इन्द्रियों पर काबू पा चुका मनुष्य ही संत अथवा फ़कीर कहलाता है.इसका,सामान्य मनुष्य से इतर मनुष्य के सबसे बड़े शत्रुओं-काम,क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार पर,पूर्ण नियंत्रण होता है. परन्तु,बाबा का अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं था.वे बहुत ज़ल्दी और छोटी-छोटी बातों पर उखड़ जाते थे.सामने पुरुष हो या फ़िर कोई महिला,उसके साथ गाली-गलौज़ कर बैठते थे.इंट,पत्थर या फ़िर कोई और सामान जो कुछ भी उनके हाथ आ जाए,वही दे मारते थे.किसी को भी पीट देते थे.
  
वो ग़रीब महिलाएं जो गेंहूँ पीसने के बाद बिन मांगे आटा आपस में बांटकर घर जाने को तैयार हुईं,बाबा ने उन्हें अपशब्द कहे,वास्तव में बहुत दुखद है.


कुत्तों के संग भोजन  

इतिहास में पहली बार ऐसा सुनने को मिलता है कि कोई फ़कीर कुत्तों के संग खाना खाता था.एक ही थाली में.शिक्षा कि बात छोड़िए,मानसिकता पर सवाल है.


भक्तों से दक्षिणा ऐंठना

बाबा का प्रचार-प्रसार हुआ तो मुंबई आदि जगहों के धनाढ्य लोग भी वहां आने लगे.बाबा को लालच हुआ और वे दक्षिणा मांगने लगे.टोने-टोटके और देसी इलाज़ के नाम पर पैसे वसूलने लगे.वैसे भी भारत में अफ़वाह और भेड़-चाल की परंपरा पुरानी है.इसलिए जो समझ गए कि बाबा कोई फ़कीर नहीं बल्कि एक ठग हैं,उनकी आवाज़ें मूर्खों की भीड़ तले दब गईं.

   

मदद की बजाय बंदरबांट   

बाबा ने  किसी ग़रीब या अकाल,महामारी और भूकंप के शिकार लोगों की कभी मदद नहीं की लेकिन 50 रुपए की बड़ी रक़म(उस वक़्त के लिहाज़ से) वे रोज़ाना पीर मोहम्मद को देते थे.इसीप्रकार वे अन्य सुलेमानी मुसलामानों पर दिल खोलकर पैसा खर्च करते थे.

 

मुसलामानों का वर्चस्व 

बाबा के तकिए के पास बहुत से फ़कीर बैठते थे.ये उनके ओहदे को दर्शाता है.साईं सच्चरित्र में इस बात की चर्चा नहीं मिलती कि किसी हिन्दू संत को भी ये स्थान प्राप्त था.भोजन से लेकर चढ़ावे तक में मुसलामानों की ही हिस्सेदारी थी.उनका ही वर्चस्व था.अधिकारों में समानता नहीं तो एकता(हिन्दू-मुस्लिम) कैसी?

 

बाबा का अहंकार टूटा 

मोहिद्दीन तम्बोली से अखाड़े में चित हुए बाबा का जीवन परिवर्तित हो गया.क्यों? इसमें दो बातें संभव हैं. बाबा हारे तो शर्त के मुताबिक रहन-सहन व पोशाक बदल डाली.दूसरी,खोया सम्मान वापस पाने के लिए एक नया ढोंग शुरू किया.मगर,दोनों ही परिस्थितियों में एक बात साफ़ है कि बाबा का अहंकार टूट गया.


निष्कर्ष  

साईं बाबा फ़कीर थे अथवा नहीं इसे समझने के लिए फ़कीर और फ़कीरी को समझना होगा.दरअसल, फ़कीर अरबी भाषा के शब्द फ़क्र से बना है जिसका अर्थ होता है ग़रीब.इस्लाम में सूफ़ी संतों को फ़कीर इसीलिए कहा जाता था क्योकि वे ग़रीबी और कष्टपूर्ण जीवन जीते हुए दरवेश (भिखारी,मंगन) के रूप में आम लोगों की बेहतरी की दुआ मांगने और उसके माध्यम से इस्लाम पंथ के प्रचार करने का कार्य मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में किया करते थे.
 

राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
कष्टपूर्ण जीवन में धर्मप्रचार करता फ़कीर 


कालांतर में यह शब्द उर्दू,बांग्ला और हिंदी भाषा में भी प्रचलन में आ गया और इसका शाब्दिक अर्थ-‘ तुझ पे फ़क्र (फ़ख्र) है तू शाह(सम्राट,राजा) है’ भिक्षुक या भीख मांगकर गुज़ारा करने वाला हो गया.जिस तरह हिन्दुओं में स्वामी,योगी व बौद्धों में बौद्ध भिक्षु को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी उसी तरह मुसलामानों में भी फ़कीरों को वही दर्ज़ा दिया जाने लगा.



राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
विदेशी मुस्लिम फ़कीर/धर्म-प्रचारक 

  

जहाँ तक साईं बाबा की बात है तो हमें ये पता है कि शिर्डी के सुलेमानी मुसलामानों द्वारा उन्हें एक मस्ज़िद में व्यवस्थित कर बिठाया गया.वे एक भिखारी के रूप में नहीं बल्कि एक बतौर मठाधीश सामने आए.थोड़े दिनों तक उनके भीख मांगने की भी चर्चा हमे साईं सच्चरित्र में मिलती है लेकिन वो बस प्रचार और जनता से जुड़ाव का एक तरीक़ा था.बाबा मालदार थे.उनके पास अपनी एक घोड़ी थी और मस्ज़िद में सैकड़ों लोगों का पेट भरने के लिए भंडारा भी चलता था.सुलेमानी मुसलामानों पर वे पैसा बहाते थे.


राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
मठाधीश के रूप में आए थे साईं 

      

सिर्फ़ मटन-बिरयानी,नाध या अंडकोष पकाने और खाने-खिलाने से कोई मुस्लिम फ़कीर नहीं हो जाता.कई तरह के उसूल और फ़र्ज़ से बंधा होता है वह.फ़कीर मत्लब दीन-ए-इस्लाम को दुनिया में फैलाने वाला.कहा गया है कि उसपर नबी को फ़क्र था इसलिए फ़क्र आप पर मदार शाह.

उपरिलिखित उद्वरण में हमने देखा कि जब साईं बाबा ने बड़े बाबा यानि पीर मोहम्मद को मस्ज़िद में बकरा काटने को कहा तो उन्होंने साफ़ मना करते हुए कहा कि बलि चढ़ाना बेक़ार है.
 
साईं बाबा महिलाओं के नाच-गाने सुनते और उनसे मसाज़ कराते थे.उनकी मंडली यानि वो लोग जिनसे वे सदा घिरे रहते थे वे सिर्फ़ अश्लील बातें ही नहीं करते थे बल्कि अश्लील भाव भी रखते थे.

साईं नशेड़ी थे,हमेशा चिलम फूंकते रहते थे जबकि इस्लाम में नशा को हराम माना गया है.नशा इस्लाम में हराम है तो कोई फ़कीर ऐसा कृत्य कैसे कर सकता है?
 
जिसप्रकार फलों से लदा पेड़ झुक जाता है उसीप्रकार संत/फ़कीर स्थिर-चित्त तथा शांत और सौम्य होता है.उसमे गाली-गलौज़ और मारपीट करने की प्रवृत्ति नहीं होती.
 
हमने उपरोक्त उदाहरणों में देखा कि किस तरह साईं का पहलवान मोहिद्दीन तम्बोली से पहले विवाद होता है.फ़िर वे अखाड़े में भिड़ते हैं लेकिन हार जाते हैं.
   
किसी फ़कीर के कुत्तों के साथ एक थाली में भोजन करने की बात अकल्पनीय है.

जहाँ तक दक्षिणा ऐंठने के आरोपों की बात है तो वो बहुत अहम है.साईं बाबा की असलियत है.इस मूल बात/विषय  की तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया है जबकि तमाम कहानियों/भान्तियों का जड़ यही है.

वास्तविकता ये है कि औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़ल साम्राज्य ख़त्म सा हो गया था.मराठा वीरों ने हिन्दू साम्राज्य की नींव रखी.भले ही ये प्रतीकात्मक थी,मगर इसका प्रभाव अखिल भारतीय था.मुसलमान डर गए.प्रतिरोध में वे एकजूट होकर जिहाद का प्रचार-प्रसार करने में जुट गए.वे सीधी टक्कर नहीं ले सकते थे इसलिए छोटे-मोटे हमलों तक ही सीमित रहे.कुछ पिंडारी लुटेरों का भी उन्होंने इस्तेमाल किया.मगर मुख्य रूप से उन्होंने अपना सूफ़ियाना तरीका अपनाया.ये उनका पुराना तरीका बहुत कारगर था.इसके तहत अल-तकिया के ज्ञान में माहिर छद्म वेषधारी विवादित सूफ़ी मुसलमान हिन्दुओं के बीच रहकर उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रेरित करते थे.इसके उन्हें दो लाभ थे.एक तरफ़ वे हिंदुत्व की धार को कमज़ोर कर रहे थे तो दूसरी ओर वे टोने-टोटके और अन्धविश्वास के ज़रिए ग़रीब और गंवारों को इस्लाम की ओर मोड़ने में भी कामयाब हो रहे थे.साईं बाबा इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुए.

साईं बाबा स्थापित हो गए.उनका मक़सद भी परवान चढ़ रहा था मगर हिन्दुओं ने दरियादिली ज़रा ज्यादा दिखा दी. फलतः साईं की छोटी सी मस्ज़िद कुबेर का भंडार बनने लगी.फ़िर क्या था,लालच ने डेरा डाल दिया.दूर-दराज़ के भी फ़कीर रुपी मुस्लिम ज़िहादियों का वहां मज़मा लगने लगा.यह साईं के मृत्यु-दिवस तक चलता रहा.
 
साईं की मृत्यु के बाद दृश्य बदला.साईं ने जो रूप(छिदे कान,चन्दन टीके वाला)धरा था,इस्लाम में उसकी मान्यता नहीं होने के कारण दावेदारी कमज़ोर थी.साथ ही,धन के स्रोत हिन्दू थे इसलिए क़ब्ज़ा फायदे की जगह नुकसानदेह ही था.आख़िरकार,मुसलमान पीछे हट गए तथा दान और चढ़ावे की दुनिया के माहिर हिदू-जैन खिलाड़ी काबिज़ हो गए.बाद में,राजू (सत्यनारायण राजू) कैसे जेंटलमैन बना और दुनियाभर में व्यापार फैलाया,सबको पता है.
     

राई का पहाड़,तिलिस्मी चादर,झूठ का पर्दाफ़ाश
साईं बाबा के असली और नकली फ़ोटो में फ़र्क 



और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…  

 
झूठी सारी बातें,धोखा हर तक़सीम
गांव से शहर तक,कड़वे सारे नीम

और साथ ही …

झूठ कहने लगा, सच से बचने लगा
हौसले मिट गए, तज़रबा रह गया



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