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शिक्षा एवं स्वास्थ्य

बाज़ार में उपलब्ध अधिकांश 'चांदी का वरक़' न तो सेहत के लिए मुफ़ीद है, न भगवान को चढ़ाने लायक

फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया द्वारा चांदी के वरक़ बनाने के गंदे तरीक़ों व उसमें ख़तरनाक़ चीज़ों के इस्तेमाल पर रोक लगाए हुए छह साल से ज़्यादा का वक़्त गुज़र चुका है मगर, स्थिति सुधरने के बजाय बदतर हो गई है.हाल ये है कि आज बाज़ार में मिलने वाला अधिकांश चांदी का वरक़ मांसाहारी और ज़हरीला है.यह न तो खाने लायक है, और न ही भगवान को चढ़ाने लायक.


चांदी का वरक़, मांसाहारी उत्पाद, जागरूकता की कमी
चांदी के वरक़ की चमक-दमक (प्रतीकात्मक)
देश में दिवाली और होली के अलावा बाक़ी दिनों में भी चांदी के वरक़ चढ़ी मिठाइयां पसंद की जाती हैं.पान, च्यवनप्राश, तंबाकू, आयुर्वैदिक दवाओं में इसका इस्तेमाल होता है.फलों (कुछ फलों) पर अगर चांदी का वरक़ लगा हो, तो उनकी क़ीमत बढ़ जाती है.यहां तक कि भगवानों जैसे हनुमान जी और गणेश जी की मूर्तियां भी चांदी के वरक़ से सजाई जाती हैं.इन सब पर भारत में सालाना 300 टन से ज़्यादा चांदी के वरक़ की खपत होती है.मगर, हक़ीक़त यह है कि बहुत कम ही लोग जानते हैं कि चांदी के वरक़ को बनाने में मवेशियों जैसे गाय, बैल, इनके बछड़ों और भेड़ों की आंत का इस्तेमाल होता हैं.

हालांकि फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया ने चांदी के ऐसे वरक़ पर पाबंदी लगा रखी है.इनको लेकर सख्त़ नियम हैं.फिर भी, पूरे देश में धड़ल्ले से इनकी ख़रीद-फ़रोख्त जारी है.यहां तक कि चांदी के वरक़ के नाम पर बाज़ार में ऐसे वरक़ भी बिक रहे हैं, जिनमें एल्युमिनियम, क्रोमियम, निकेल, लेड तथा केडमियम आदि धातुओं की मिलावट पाई गई है.इनसे कैंसर, फेफड़े, लीवर, किडनी और दिमाग़ की गंभीर बीमारियां हो सकती हैं.

शास्त्रों के ज्ञाता बताते हैं कि मांसाहारी चांदी का वरक़ मूर्तियों पर चढ़ाने या उनके श्रृंगार में इस्तेमाल करने से जातक मुश्किल में पड़ सकता है.उसे फ़ायदे की जगह गंभीर नुकसान हो सकते हैं क्योंकि हिन्दू देवी-देवताओं को ऐसे तामसी पदार्थ अर्पित करना स्वीकार्य नहीं है, और यह अक्षम्य अपराध माना गया है.


क्या है ये वरक़?

वरक़ जिसे ग़लत उच्चारण कर वर्क बोला जाता है दरअसल, यह एक अरबी शब्द है.इसका मतलब होता है सोने, चांदी आदि का बहुत पतला पत्तर, पृष्ठ (किताब-कॉपी का पेज), तबक (तह, परत).

मिसाल के तौर पर, मशहूर शायर बशीर बद्र की ग़ज़ल का एक शेर देखिए-

जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का,
कहीं आंसुओं से मिटा हुआ कहीं आंसुओं से लिखा हुआ |

इतिहास के अनुसार, इस वरक़ शब्द के साथ ही वरक़साजी का काम भी मुस्लिम आक्रांता भारत लाए थे.उन्होंने ही यहां जानवरों (ख़ासतौर से मवेशियों) का चमड़ा छीलने, पीटने और उस से कई तरह के सामान बनाने की शुरुआत की थी.

ऐसे उदहारण मिलते हैं कि सबसे पहले सिकंदर लोदी ने यहां के लड़ाके क्षत्रिय चंवरवंशियों को ग़ुलाम बनाकर ज़बरन उनसे चमड़े का काम करवाया.साथ ही, उसने ज़लील करते हुए इन्हें चमार नाम भी दिया.

क्योंकि मध्यकालीन शासन (इस्लामी शासन) से पहले भारत में चमड़ा और उसकी सफाई काम नहीं होता था.हिन्दू इसे निषिद्ध और हेय समझते थे इसलिए, ये क्षत्रिय चंवरवंशी समाज में अलग-थलग पड़ गए.कालांतर में उन्होंने चमार शब्द के साथ चमड़े के काम को अपना पेशा बना लिया.

बहरहाल, चांदी (या सोने) का वरक़ बनाने का काम न पहले कभी उन्होंने किया और न ही वे आज करते हैं.यह काम धर्मांतरित (हिन्दू से मुसलमान बने) मुस्लिम ही करते हैं, जिन्हें पसमांदा मुस्लिम के नाम से जाना जाता है.

  

कैसे बनता है चांदी का वरक़?

चांदी का वरक़ बनाने के अलग-अलग तरीक़े हैं, जिन्हें हम परंपरागत व आधुनिक तरीक़ों में वर्गीकृत कर सकते हैं.


देशी या परंपरागत तरीक़ा

चांदी का वरक़ तैयार करने के तरीक़ों में देशी या परंपरागत तरीक़ा बहुत पुराना है.यह सैकड़ों साल से चला आ रहा है और इसमें केवल मुस्लिम समुदाय के लोग शामिल हैं.इसमें बड़े पैमाने पर मवेशियों (गाय-बैल और उनके बछड़ों) की आंत और चमड़ी का इस्तेमाल होता है.


चांदी का वरक़, मांसाहारी उत्पाद, जागरूकता की कमी
इसके तहत मारे गए पशुओं की आंत और चमड़ी (Intestine and Skin) को तुरंत इकठ्ठा कर उन पर प्रयोग शुरू कर दिए जाते हैं क्योंकि विशेषज्ञों के अनुसार, कुछ घंटों के भीतर ही वे (ख़ासतौर से आंतें) सख्त़ हो जाती हैं और काम की नही रह पातीं.ऐसे में, तुरंत उनमें से रक्त और मल को निकाल कर उन्हें पानी के बने गड्ढों में डाल दिया जाता है.

एक निश्चित अवधि के बाद उन्हें बाहर निकाला जाता है.इनकी, परतों के रूप में झिल्लियों को अलग-अलग किया जाता है और काटकर रंगा और सुखाया जाता है.फिर, पन्नों (पेज) के आकार में इन्हें और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर छोटी-छोटी किताबें बनाई जाती हैं, जिनमें जिल्द के तौर पर जानवर के चमड़े का इस्तेमाल होता है.

अब आती है चांदी का वरक़ तैयार करने की बारी.इसमें चांदी के छोटे-छोटे टुकड़े (जिसकी दिल्ली और देश के कुछ अन्य चुनिंदा शहरों में लडियां बनाई और सप्लाई की जाती हैं) किताब के पन्नों (या झिल्लियों) के बीच रखकर उन्हें एक ख़ास तरह के हथौड़े (छोटे हथौड़े जिनमें लकड़ी  के हत्थे लगे होते हैं) से लगातार पीटा जाता है.

कुछ घंटे पीटने या कूटने के बाद चांदी के छोटे-छोटे टुकड़े फैलकर किताब के पन्ने की शक्ल अख्तियार कर लेते है.फिर, फूंक मारकर इन्हें अलग (किताब के पन्नों के बीच से हटाकर) किया जाता है और कागज़ों के बीच रखकर पैक कर दिया जाता है.

ज्ञात हो कि हथौड़े से चांदी के टुकड़ों की कुटाई (पीटने) के दौरान आंत के कुछ उत्तक (टिशू) पन्नी यानि वरक़ के साथ चिपक जाते हैं और मांसाहार के रूप में ग्राहकों तक पहुंचते हैं.यहीं नहीं, आंतों को गंदले पानी के जिन खुले गड्ढों में रखा जाता है वहां काफ़ी गंदगी होती है.वहां मक्खी-मच्छर के अलावा कई तरह के कीड़े-मकोड़े तैरते रहते हैं, जो कई तरह की बीमारियों के वाहक माने जाते हैं.

मगर, यह जानकार हैरानी होती है कि इतने गंदे तरीक़े से तैयार चांदी के वरक़ की ही बाज़ार में सप्लाई सबसे ज़्यादा है.सूत्रों के मुताबिक़, क़रीब 70-80 फ़ीसदी मार्किट पर इन्हीं का क़ब्ज़ा है.ऐसे वरक की पहुंच हर ख़ास-ओ-आम की खान-पान की चीज़ों में ही नहीं, मंदिरों में श्रृंगार और प्रसाद सामग्री तक में है.


आधुनिक तरीक़ा

कुछ लोग आधुनिक तरीक़े को बेहतर मानते हैं और इस प्रकार बने चांदी के वरक़ को विश्वसनीय बताते हुए इसके सभी चीज़ों में इस्तेमाल करने की वक़ालत करते हैं.मगर, दावों और हक़ीक़त में फ़र्क है.

बहरहाल, आधुनिक तरीक़ों में कई चीज़ें शामिल हैं.इनमें चांदी का वरक़ जर्मन बटर पेपर नामक शीट पर या ख़ासतौर से बने काले कागज़ का इस्तेमाल कर बनाया जाता है.

चांदी के वरक़ के निर्माण में फ़ूड ग्रेड कैल्शियम पाउडर का भी इस्तेमाल होता है.

मशीनों के द्वारा भी चांदी के वरक़ (Silver Leaf, Foil) बनाए जाते हैं.मगर, इनकी मशीनें इतनी महंगी हैं (एक मशीन क़रीब 4-5 करोड़ रुपए की क़ीमत की है) कि कुछेक कंपनियां ही इस कारोबार में लगी बताई जाती हैं, जो सही तरीक़े (बिना जानवरों की आंत और चमड़ी के इस्तेमाल के) से और शुद्ध चांदी का वरक़ तैयार करती हैं.मगर, इनके द्वारा तैयार चांदी के वरक़ की क़ीमत भी दूसरे तरीक़ों से तैयार वरक़ से कई गुना ज़्यादा होती है.

जहां तक इनकी गुणवत्ता की बात है आईटीआरसी (The Interstate Technology and Regulatory Council) की जांच में बाज़ार में उपलब्ध वरक़ में क़रीब 10 फ़ीसदी एल्युमिनियम मिले, जबकि शेष 90 फ़ीसदी में से 60 फ़ीसदी वरक़ में शुद्ध चांदी नहीं मिली.इनमें एल्युमिनियम के अलावा कॉपर, क्रोमियम, निकेल, लेड और केडमियम की मिलावट पाई गई, स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक़ हैं.

जानकारों के अनुसार, कई कंपनियां (ज़्यादातर बेनामी कंपनियां) बड़ा गोरखधंधा कर रही हैं.कुछ कंपनियां या तो परंपरागत तरीक़ों से ही वरक़ बना रही हैं या फिर परंपरागत तरीक़ों में लगे छोटे कारोबारियों से ही माल ख़रीदकर उन पर अपना लेबल लगाकर बाज़ार में वरक़ बेच रही हैं.

मिठाई के दुकानदार और पनवाड़ी बेनामी कंपनियों के एजेंटों और देशी तरीक़ों से वरक़ बनाने वाले कारोबारियों से सांठगांठ कर मिलावटी और ज़हरीले वरक़ ग्राहकों को परोस रहे हैं.

 

वरक़ की शुद्धता और गुणवत्ता को लेकर गाइडलाइन, क्यों और कैसे?

केंद्र सरकार ने वरक़ की शुद्धता और गुणवत्ता को लेकर छह साल पहले ही गाइडलाइन जारी कर दी थी.इसको लेकर आज भी फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया राज्य सरकारों को समय-समय पर सलाह-निर्देश भी जारी करती रहती है मगर, नियमों का सही तरीक़े से पालन नहीं होने के कारण स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं है.

दरअसल, साल 2012 में ही चांदी के वरक़ के कारोबार की हक़ीक़त उजागर हो गई थी जब, पर्यावरण प्रेमी डॉ. सुधीर खेतावत की जनहित याचिका पर सुनवाई हुई थी.इसमें पता चला कि एक किलोग्राम चांदी का वरक़ बनाने के लिए क़रीब 12 हज़ार मवेशियों को मारा जाता है.इस प्रकार, 300 टन (आंकड़ों के अनुसार) से ज़्यादा वरक़ की खपत होने वाले इस देश में सालाना कितने पशुओं की बलि दी जाती होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

उपरोक्त मामले में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने जो फ़ोटो और अन्य साक्ष्य अदालत में रखे थे, वे विचलित करने वाले थे.साथ ही, अदालत की ओर से सख्त़ी को देखते हुए आरोपी वरक़ निर्माता कंपनी का सीईओ अदालत में हाज़िर हुआ था.उसने कंपनी के लैटरहेड पर लिखकर दिया कि चांदी का वरक़ गाय की अंतड़ियों में कूटा जाता है.

इसके बाद चांदी के वरक़ का गंदा खेल चर्चा का विषय बना ही, 2016 में भारत की प्रसिद्ध राजनेत्री एवं पशु-अधिकारवादी मेनका गांधी के छपे एक लेख ने सरकार की भी आंखें खोल दी.

उस लेख में मेनका गांधी ने स्पष्ट बताया था कि वरक़ शाकाहारी नहीं है.इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने ग्राफ़िक डिटेल भी दी और बताया कि इस कारोबार में बड़े पैमाने पर मुस्लिम समुदाय के लोग शामिल हैं.असंगठित रूप में पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में फैला यह कारोबार न सिर्फ़ पशु-क्रूरता पर आधारित है, बल्कि गंदगी के साथ इसमें गंभीर बीमारियों की संभावनाएं भी बहुत हैं.

इसके बाद सरकार ने दखल देते हुए हाथ से बनने वाले चांदी के वरक़ पर प्रतिबन्ध लगा दिया.साथ ही, फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड के तहत बाक़ायदा गाइडलाइन बनाई गई, जिसमें कहा गया है कि वरक़ में किसी भी स्तर पर पशु-मूल की किसी भी सामग्री का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए.

गाइडलाइन में यह भी स्पष्ट कहा गया है कि चांदी का पत्ता एक समान मोटाई की चादर के रूप में, सिलवट और मोड़ (क्रीज़ एंड फोल्ड) से मुक्त होना चाहिए.इसका वज़न 2.8 ग्राम प्रति वर्गमीटर होना चाहिए, जबकि चांदी की सामग्री कम से कम 999/1000 यानि 99.9 फ़ीसदी शुद्धता की होनी चाहिए.

इस हिसाब से देखें तो नियम बिल्कुल सही और सख्त हैं पर, समस्या यह है कि इसका पालन नहीं होता.सरकारों में बैठे जनप्रतिनिधि और संबंधित विभागों के अधिकारी लापरवाह होने के साथ भ्रष्ट भी हैं.शाकाहारियों के साथ छल हो, किसी का धर्म भ्रष्ट हो या फिर लोग ख़तरनाक़ बीमारियों से ग्रस्त होकर बेमौत मर जाएं, उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
   
दूसरी तरफ़, उपभोक्ता भी कम दोषी नहीं है.यह जानते हुए भी कि चांदी के वरक़ में गंदगी, मिलावट और बीमारियों की संभावनाएं ज़्यादा हैं, लोग केवल सजावट और चमक-दमक को लेकर चांदी के वरक़ के पीछे दीवाने हैं.

कुछ लोग चांदी के असली वरक़ और नक़ली वरक़ की पहचान की बात करते हैं.लेकिन, सवाल उठता है कि असली वरक़ भी शाकाहारी और बीमारियों से मुक्त है, इस बात की पहचान क्या है?

हमें जागरूक होने की इसलिए भी ज़रूरत है कि लाखों बेजुबानों की हत्या के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हम भी तो  ज़िम्मेदार हैं.बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं- जब जागो तभी सवेरा.      
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रामाशंकर पांडेय

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