Ads
राजनीति

मुस्लिम तुष्टिकरण: नेहरू की राह पर चल रहे हैं मोदी

Don't miss out!
Subscribe To Newsletter
Receive top education news, lesson ideas, teaching tips and more!
Invalid email address
Give it a try. You can unsubscribe at any time.
– ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ जुमले या नारे में ‘सबका विश्वास’ का मतलब केवल और केवल नेहरू की राह पर चलते हुए मुसलमानों का दिल जीतना है
 
– नेहरू से भी आगे निकलकर मोदी गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल बनना चाहते हैं और वह सब कुछ करना चाहते हैं, जो मुसलमानों की हितैषी समझी जाने वाली कंग्रेस ने उनके लिए अब तक नहीं किया है
 
– जम्मू-कश्मीर नीति, वक्फ़ बोर्ड, मदरसा, मज़ार-दरगाह, हज, रोज़ा इफ़्तार के आयोजन, मुस्लिम समाज के उत्थान और विकास के नाम पर विशेष व्यवस्था और ख़र्च को तुष्टिकरण बताने वाले इन्हें सद्भाव कह रहे हैं
 
– जो गांधी को खलनायक बताते रहे, वे ही उन्हें अपना इष्टदेव बनाकर पूज रहे हैं, और नाथूराम गोडसे को गालियां दे रहे हैं
  
जब लक्ष्य देशहित के बजाय स्वहित का हो, राजधर्म के ऊपर अंधी सोच हावी हो, तो अच्छे-बुरे का भेद मिट जाता है और झूठ के रेगिस्तान में भटकता मन हरियाली का छद्म आवरण अपने इर्द-गिर्द फैला लेता है.ऐसा ही आज़ादी की लड़ाई के दिनों में हुआ.फिर, टूटी-फूटी और बंटी हुई आज़ादी के बाद तो यही भाव रच बस गया.जो राजनैतिक प्रतिमान नेहरू स्थापित कर गए, देश उसी ढ़र्रे पर चलता रहा है, और अब तो भारत में युग परिवर्तन का सपना दिखाकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी भी उसी पगडंडी पर चल रहे हैं, जिसको तिलांजलि देकर वे और उनका पूरा भगवाधारी कुनबा, दोनों राष्ट्रवाद की तकनीक आधारित हाइवे बनाने का दम भरते थे.
 
 
मुस्लिम तुष्टिकरण, गांधीवाद, नेहरू की नीति
मुस्लिम तुष्टिकरण, महात्मा गांधी, नेहरू और मोदी (सांकेतिक)

 

जो गांधी को खलनायक बताते रहे, वे ही उन्हें अपना इष्टदेव बनाकर पूज रहे हैं, और नाथूराम गोडसे को गालियां दे रहे हैं.जम्मू-कश्मीर नीति, मदरसा, मज़ार-दरगाह, हज, रोज़ा इफ़्तार के आयोजन, मुस्लिम समाज के उत्थान और विकास के नाम पर ख़र्च और विशेष व्यवस्था को तुष्टिकरण मानने वाले इन्हें सद्भाव कह रहे हैं.नेहरू की ग़लतियों या उनके द्वारा जानबूझकर किए गए देशविरोधी कार्यों और उसके बाद क़रीब 2014 तक की उनकी विरासत वाली कांग्रेस या कांग्रेस-नीत सरकारों की हिन्दुओं से भेदभाव और उनके ख़िलाफ़ दमनात्मक तमाम नीतियों-कार्यक्रमों को, हुबहू या फिर उनके नाम बदलकर बढ़ाया-चलाया जा रहा है.
 
अज़ीब खेल है यह.इसे वैचारिक दोगलापन कहें या आंखों में धूल झोंकना, या फिर प्रचंड बहुमत से दूसरी बार सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाले बहुसंख्यक हिन्दू समाज की पीठ में छुरा भोंकना कहें, इसी को आज की राजनीति कहते हैं, जिसे कथित शुचिता वाली मोदी-नीत भाजपा की सरकार ने आत्मसात कर लिया है.
 
नेहरूवाद को ही सुविधाजनक और अपने रंग के आवरण में लपेटकर अपने एजेंडे में शामिल कर लिया गया है.थोड़ा-बहुत भी मान-सम्मान और जो साख बची है, उससे समझौता कर देश और राष्ट्र की बर्बादी की नई इबारत लिखी जा रही है.
 
इस प्रकार, कथित भगवा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी किस तरह और किन-किन मामलों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पदचिन्हों पर चल रहे हैं, उनका वर्णन और विश्लेषण करना ज़रूरी हो गया है.
 
 

केंद्र की राष्ट्विरोधी नीति

भारत की राजसत्ता भारत राष्ट्र के विरुद्ध है.यानि दिल्ली में स्थापित राजनीतिक सत्ता या शासन, जिसके हाथ में देश की बागडोर है वह सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों ही रूप में भारत राष्ट्र की प्रकृति और आत्मा के प्रतिकूल है.यह आक्रांताओं-आतताईयों की पोषक और भारत की सभ्यता और संस्कृति विरोधी मानसिकता से ग्रसित है.पिछले सात दशकों से चली आ रही यही मानसिकता अब शासन का आदर्श या नीति प्रतिमान (Policy Paradigm) बन चुकी है.
 
दरअसल, हुआ यूं कि आज़ादी की लड़ाई के दिनों में महात्मा (?) गांधी ने जो हिन्दुओं की लाशों पर राजनीति की, भारत की सभ्यता और संस्कृति मिटाने का जो वातावरण तैयार किया, उसको लेकर वह सब कुछ उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े और अपने सबसे चहेते शिष्य जवाहरलाल नेहरू को समझा-बुझा दिया था कि उन्हें क्या करना है.
 
इब्राहिमी मज़हबों में जैसे उपरवाला किसी को चुनता है, उसी तरह गांधी जी ने नेहरु को चुना और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाकर यह सुनिश्चित कर दिया कि आगे भी भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की ही नीति चलेगी.
 
नेहरू उन नीतियों पर खरे उतरे और बख़ूबी वह सारे कार्य किए, जिससे चहुंओर से भारत असुरक्षित और कमज़ोर होकर, भविष्य में टुकड़े-टुकड़े होकर कई इस्लामिक राष्ट्रों (क़ौमों) में तब्दील हो जाए.इसके लिए एक थ्योरी गढ़ी गई, जिसमे कहा गया कि सेक्यूलर भारत के मुसलमान (बंटवारे के बाद भारत में रह रहे मुसलमान, जिन्हें गांधी-नेहरु ने लालच, सुरक्षा की गारंटी और हर तरह की जायज़-नाजायज़ मांगों को पूरा करने का आश्वासन देकर पाकिस्तान जाने से रोक दिया था, जबकि मज़हब के नाम पर अपने लिए वे क़रीब आधा भारत ले/हड़प चुके थे) हक़ीक़त में न केवल सुरक्षित, हर तरह की सुविधा और अधिकार-प्राप्त हों, बल्कि दुनिया को भी यह दिखना चाहिए कि वे यहां आज़ाद और खुश हैं.
 
इस तरह, दुनिया को दिखाने के मक़सद से, या इसी के बहाने भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की एक रिवायत-सी बन गई.उन्हें पहले दर्ज़े के नागरिक के तौर पर स्थान दिया गया.शासन में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित और प्रदर्शित करने के लिए न केवल जम्मू-कश्मीर राज्य को धारा 370 और 35 ए के ज़रिए अलगाववादियों-जिहादियों के हवाले कर दिया गया, बल्कि इसी तर्ज़ पर देशभर में उन्हें सुशोभित-सम्मानित और व्यवस्थित किया गया.
 
एक सेक्युलर देश में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना कर शरिया व्यवस्था लाई गई.इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए वक्फ़ बोर्ड बनाकर उए ज़मीनें और धन देने के साथ-साथ समय-समय पर विशेष शक्तियां प्रदान की जाने लगीं.धर्मस्थल यथास्थिति अधिनियम बनाया गया और क़ब्रों-मज़ारों-दरगाहों के अलावा, मुस्लिम आक्रांताओं-आतताईयों द्वारा हिन्दू-जैन धर्मस्थलों को तोड़कर उन पर बनाई गई विभिन्न इमारतों को सजाया-संवारा जाने लगा.
 
जनता के टैक्स के पैसे से मदरसों की फंडिंग होने लगी.
मुसलमानों के जीवन स्तर सुधारने और उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ने के नाम पर उनके लिए जो आरक्षण की व्यवस्था हुई, उसे न सिर्फ़ मज़बूत किया जाता रहा है, बल्कि उसका दायरा भी बढ़ाया जाता रहा है.
2014 में आई मोदी सरकार भी इससे अछूती नहीं रह सकी और उसने भी पांच सालों में हिन्दुओं-दलितों को साधने के बाद अपनी दूसरी पारी में अब मुसलमानों के बीच पैठ बनाने और उनके दिल में उतरने के मक़सद से अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ मिलकर एक विशेष कार्ययोजना तैयार की, जिसमें सबका साथ सबका विकास नारे में सबका विश्वास भी जोड़ दिया गया.
यह सबका विश्वास का जुमला या नारा दरअसल, वही छलावा है, जिसकी आड़ में गांधी-नेहरूवाद आधारित पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारें अकलियतों के उत्थान और उनकी भलाई के नाम पर मुसलमानों का तुष्टिकरण करती आई है.भाजपा इसे अल्पसंख्यकों के हित में कार्य और सद्भाव बता रही है, जिसका असली मक़सद हर क़ीमत पर वोटबैंक बढ़ाना है.
 
 

धारा 370 और 35 ए का खेला

नेहरूमय हो चुके मोदी के सामने अब एक बड़ा गेम प्लान था.एक तरफ़ तो जम्मू-कश्मीर से धारा 370 व 35 ए हटाकर हिन्दुओं के दिल में ख़ुद को स्थापित करना था, जिसका वादा बीजेपी व उसका वैचारिक संगठन शुरूआत से ही करते आए थे, तो दूसरी तरफ़ कुछ ऐसी भी व्यवस्था भी करनी थी कि जिसमें यह सारी कार्यवाही सिर्फ़ कागज़ी बनकर रह जाए और कश्मीरी मुसलमानों और अलगाववादियों-जिहादियों पर इसका कोई फ़र्क भी ना पड़े.
दरअसल, सरकार चाहती थी कि आम हिन्दू समझ ही ना पाए कि हक़ीक़त में आख़िर हुआ क्या, वे भूलभुलैया में फंसे रहें, जबकि मुसलमानों में यह संदेश चला जाए कि कश्मीर कल भी उनका था, आज भी उनका ही है, और आगे भी उन्हीं का रहेगा, साबुत, वैसे का वैसा.
 
हुआ भी यही.जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35 ए हटाए जाने के तुरंत बाद डोमिसाइल कानून की दीवार खड़ी कर दी गई, ताकि बाहर के लोग वहां की स्थाई नागरिकता हासिल कर जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) पर असर ना डाल सकें.
 
 
मुस्लिम तुष्टिकरण, गांधीवाद, नेहरू की नीति
धारा 370 और 35 ए तथा डोमिसाइल से संबंधित नोटिफिकेशन

 

कश्मीर समस्या का एकमात्र कारण वहां मुसलमानों का बहुसंख्यक (तक़रीबन शत प्रतिशत) होना है.ज्ञात हो कि जहां भी मुसलमान कुल आबादी का 30 प्रतिशत या उससे अधिक हो जाते हैं, वहां वे उत्पात शुरू कर देते हैं, अहकाम-ए-इलाही और निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा के तहत शरीयत की स्थापना करना चाहते हैं.अगर ऐसा नहीं होता, तो उत्पात होता है, जिसे इस्लामिक जिहाद कहा जाता है.
 
कश्मीर में भी यही स्थिति है, जिसे आबादी में संतुलन स्थापित कर सुधारा जा सकता है.मगर, सरकार ऐसा नहीं चाहती क्योंकि देश को गांधी-नेहरूवाद के तहत ही चलाना है, जिसमें मुख्य रूप से कुछ बातों का होना ज़रूरी है.
 
 

मुसलमानों की ख़ुशी पहली प्राथमिकता

भारत में मुसलमानों को खुश रखना ही गांधी-नेहरूवाद का सार है.इस थ्योरी के मुताबिक़, मुसलमानों की ख़ुशी में ही देश क ख़ुशी निहित है.उनकी हर जायज़-नाजायज़ मांग को पूरा करना है, ताकि व नाराज़ ना हों, चाहे इसके लिए कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े.
 
 

कश्मीर को सत्ता का केंद्र और जम्मू को उसका उपनिवेश बनाए रखना

कश्मीर मुस्लिम बहुल है इसलिए उसे सत्ता का केंद्र बनाए रखना है, जबकि हिन्दू बहुल जम्मू (जो कि वास्तव में कश्मीर से अधिक आबादी वाला हिस्सा है) को उसके उपनिवेश (Colony) के रूप में ही रखना है.इससे कश्मीरी मुसलमान तो खुश होंगें ही, देश के बाक़ी मुसलमानों के दिमाग़ में ‘भारत में इस्लामिक शासन की छवि भी बनी रहेगी.
 
 

सेक्युलर चेहरा क़ायम करना

जम्मू-कश्मीर की सता मुसलमानों के हाथ में देकर विश्व समुदाय में इस  हिन्दू बहुल देश का सेक्युलर चेहरा स्थापित करना है.इससे दुनिया के मुस्लिम देश भारत की पीठ तो थपथपाएंगें ही, संयुक्त राष्ट्र संघ में भी वाहवाही लूटी जा सकेगी.
 
इन सबके अलावा, एक अन्य महत्वपूर्ण बात है, जो पिछले सात दशकों में एक रिवायत-सी बन गई है.यह है कश्मीर मुद्दा, जिसे एक एजेंडे के तहत चुनावों में उछाला जाता है.अलगाववादियों-जिहादियों के समर्थन में बयान दिए जाते हैं, और पाकिस्तान को उकसाया जाता है.
 
यानि, कश्मीर को हमेशा सुलगाये रखना है.कश्मीर सुलगता-जलता रहेगा, तो सीमा पर तनाव का दिखेगा, युद्ध के बादल उमड़ते-घुमड़ते नज़र आएंगें, सैनिक वीरगति को प्राप्त होते रहेंगें और देशवासियों का खून उबलता रहेगा.लोगों को जब देश ख़तरे में नज़र आयेगा, तो बाक़ी मुद्दे अपने आप ही गौण हो जाएंगें और सरकार के ख़राब प्रदर्शनों की ओर भी ध्यान नहीं जाएगा.बहरहाल, इस सबसे घटिया राजनीति या देश-विरोधी गिद्ध-नीति को जिंदा रखने के लिए धारा 370 और 35 ए की जगह डोमिसाइल (अधिवास) कानून एक कारगर हथियार है.
 
एक खास मक़सद से ही जम्मू-कश्मीर की स्थाई नागरिकता की प्रक्रिया को कठिन बनाया गया है.इसके तहत डोमिसाइल सर्टिफिकेट (प्रोसीजर) रूल्स 2020 के तहत ज़रूरी शर्तें पूरी करनी होंगीं, जिनमें 15 साल तक यहां रहने समेत दूसरी अनिवार्यता के नियम लागू हैं.
 
दरअसल, दूसरे प्रदेशों के वे ही लोग जम्मू-कश्मी के स्थाई नागरिक बन सकते हैं, जो यहां 15 साल तक निवास कर चुके हों या सात साल तक यहां पढ़ाई की हो.इसके लिए भी शर्त यह है कि पढ़ाई करने वाले लोगों ने दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में भाग लिया हो.
 
इसके अलावा, केंद्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों के अधिकारी, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारी व बैंक कर्मचारी स्थाई नागरिकता के लिए आवेदन दे सकते हैं, जिन्होंने 10 साल तक जम्मू-कश्मीर में काम किया हो.मगर, समझना यह है कि आवेदनों की जांच और उस पर निर्णय देने वाले सक्षम अधिकारी मसलन तहसीलदार और दूसरे अफ़सर कितनी ईमानदारी बरतेंगें, यह चुनावों के बाद यह जम्मू-कश्मीर राज्य में बनने वाली अलगाववादियों की सरकार पर निर्भर करेगा.नागरिकता हासिल करने बाहर से आए हर एक व्यक्ति को अदालतों के चक्कर लगाने होंगें.
 
 

वक्फ़ बोर्ड के अतिक्रमण को बढ़ावा, सरकारी धन का दुरूपयोग

मज़हब के नाम पर भारत बंटा और पाकिस्तान बना.मगर, भारत में मुसलमानों को मज़बूत करने और इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए नेहरू जी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.इसके लिए उन्होंने न केवल ग़ैर-संवैधानिक व्यवस्थाएं कीं, बल्कि उनको बेशक़ीमती ज़मीनें और पैसा देना शुरू किया.उन्हीं में से एक है वक्फ़ बोर्ड, जो आज बहुत मज़बूत और विस्तृत संस्थान बन चुका है.
 
आज रेलवे और डिफेंस के बाद वक्फ़ बोर्ड तीसरी वह संस्था है, जिसके पास देश में सबसे ज़्यादा ज़मीनें हैं.वक्फ़ मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ़ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 2020 तक क़रीब 8 लाख एकड़ ज़मीनों पर कुल 6 लाख, 59 हज़ार, 877 संपत्तियां वक्फ़ बोर्ड के नाम पर दर्ज़ हैं, जिन्हें अब मोदी सरकार सजा-संवार रही है.उन पर ब्याज़-मुक्त लोन दिए जा रहे हैं, जबकि ऐसा करना अनुचित ही नहीं ग़ैर-संवैधानिक भी है.यह आर्टिकल 14 (समानता के अधिकार के विरुद्ध), 15 (जो कहता है कि मज़हब के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए), 21, 25, 26 और 27 के भी विरुद्ध है, जो कहता है कि सरकारी धन को किसी विशेष धर्म पर ख़र्च नहीं किया जा सकता है.
 
मोदी सरकार इस वक्फ़ व्यवस्था पर तो ख़र्च कर रही है, इसे बचाने में भी लगी हुई है, जिसे ख़त्म करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है.
 
ज्ञात हो कि 1955 में नेहरू जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण और देश को लूटने-बांटने के लिए वक्फ़ एक्ट नामक सबसे घटिया कानून बनाया.इसे गुंडा एक्ट भी कहते हैं.इसके तहत अलग-अलग राज्यों के लिए वक्फ़ बोर्डों की स्थापना के साथ इनकी निगरानी के लिए एक सेंट्रल वक्फ़ काउंसिल भी बनी, जो अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय मंत्री की देखरेख में काम करती है.प्रत्येक बोर्ड में सात सदस्य होते हैं, जिनमें एक एमएलए, एक एमपी, एक वकील, एक आइएएस/पीसीएस रैंक का सरकारी अधिकारी, एक टाउन प्लानर या इंजीनियर, एक मुतवल्ली (जो नमाज़ आदि पढ़ाते हैं), एक कुरान का जानकार आदि सभी मुस्लिम होते हैं.इनके कामकाज और ऐशोआराम पर सालाना करोड़ों रुपए ख़र्च होते हैं, जो सरकार वहन करती है.
     
सरकारी ख़र्च पर चलने वाला यह बोर्ड कहने के लिए तो मुसलमानों द्वारा दान की गई ज़मीनों-संपत्तियों की रक्षा करता है मगर, इसका असली काम दूसरों की ज़मीनों पर अतिक्रमण और अवैध क़ब्ज़ा करना है.
 
यह ज़मीन जिहाद का एक आधिकारिक संगठन है, जो अप्रत्यक्ष रूप से गजवा-ए-हिन्द के तहत भारत में चल रहा है.
 
ख़ासतौर से, 1995 और 2013 में संशोधनों के बाद वक्फ़ बोर्ड इतना ताक़तवर बन चुका है कि कोई ज़मीन चाहे वह मठ-मंदिर हो, अखाड़ा हो, गुरुद्वारा या चर्च हो, सरकारी ज़मीन हो, नुजूल की हो या चारागाह हो, जिस पर भी यह हाथ रख देता है, वह ज़मीन फंस जाती है.
 
वक्फ़ इस पर नोटिस जारी कर सकता है, जिसके ज़वाब में ज़मीन के मालिक या दावेदार को किसी अदालत यानि लोअर कोर्ट (निचली अदालतें जैसे मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या सेशन जज की अदालत), हाईकोर्ट और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी जाने का अधिकार नहीं होता.उस वक्फ़ ट्रिब्यूनल जाना होता है, जहां मामले में वक़्त लगता है, और पक्षपात की शिकायतें भी सुनने को मिलती हैं.
 
ट्रिब्यूनल के फैसले के बाद ही अपील में कोई अदालतों में जा सकता है, जहां उसे नए सिरे से लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की लड़ाई लड़नी पड़ सकती है.पूरी ज़िन्दगी खप सकती है/ख़प जाती है अपनी ज़मीन का एक टुकड़ा अतिक्रमणकारी और लुटेरे वक्फ़ बोर्ड के चंगुल से छुड़ाने में.
 
ऐसे वक्फ़ बोर्ड को मोदी सरकार ने विशेष बजट के तहत वक्फ़ प्रॉपर्टी को अतिक्रमण से बचाने, उसके व्यवसायिक उपयोग के लिए विकसित करने लिए ब्याज़-मुक्त लोन की व्यवस्था की है.
 
ज्ञात हो कि 1 लाख हिन्दू मठ-मंदिरों से सरकार 4 लाख करोड़ वसूलती है.उनके लिए कोई संस्था नहीं है मगर, मुसलमानों के लिए बोर्ड बनाए गए हैं और सरकार हिन्दुओं के दान के पैसे को मस्जिदों और मज़ारों-दरगाहों पर ख़र्च करती है.
 
 

जम्म-कश्मीर में फ़र्ज़ी जनगणना के आधार पर परिसीमन, नया चुनावी खेल

जम्मू-कश्मीर में जनगणना के नाम पर अब तक फर्जीवाड़ा ही होता आया है.फ़र्ज़ी जनगणना के आधार पर परिसीमन होते रहे हैं, और फिर इसी आधार पर चुनाव कराए जाते रहे हैं, ताकि वह मक़सद पूरा हो, जो कश्मीर के सुन्नी मुसलमान चाहते है और जिसके लिए केंद्र की सरकार ही प्रतिबद्ध है.2014 से पहले यह सारा खेल कांग्रेस की सरकारें खेला करती थीं, अब मोदी सरकार मैदान में है, नए नियमों और दांव-पेच के साथ.
 
दरअसल, नेहरू के नक्शेक़दम पर चलते हुए मोदी भी वह सब पूरे करना चाहते हैं, जो कुछ कश्मीरी मुसलमान चाहते हैं.
 
कश्मीरी मुसलमान चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में उनका राज हो,और इस ज़मीन पर सीरिया और फिलिस्तीन का मॉडल खड़ा कर यहां से शेष भारत में गजवा-ए-हिन्द का मार्ग प्रशस्त करें.ज्ञात हो कि इस जिहादी जुनून को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने न सिर्फ़ हवा दी थी, बल्कि बाक़ायदा इसके लिए उन्होंने पूरी व्यवस्था बनाई थी.धारा 370 और 35 ए के ज़रिए पूरी छूट दे दी थी कि वे जो चाहे, जैसे चाहे कर सकते थे/करते थे.अब मोदी सरकार ने धारा 370 और 35 ए तो हटा दी है मगर, व्यवहार में नीति वही जारी रखी है, जिस पर पुरानी व्यवस्था आधारित थी.
 
बदलाव सिर्फ़ कागज़ी है, धरातल पर सब कुछ वैसे का वैसा ही है.
 
मिसाल के तौर हालिया जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटों के परिसीमन को ही लीजिए.यह 2011 की जनगणना के आधार पर कराया गया है, जो फ़र्ज़ी है.इसे जनसंख्या घोटाला के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें जम्मू संभाग की आबादी को एकदम से 10 फ़ीसदी घटाकर उसे बहुत नीचे पहुंचा दिया गया था वहीं, कश्मीर की आबादी में 14 लाख की बढ़ोतरी कर दी गई थी.
 
नंबरों की इस बाजीगरी का एक ही मक़सद था-जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कश्मीर की सीटें अधिक हों, ताकि प्रदेश की सत्ता मुसलमानों के हाथ में रहे और वे शासक बनकर जम्मू संभाग और वहां के हिन्दुओं पर एकक्षत्र राज करते हुए हमेशा उनका दोहन और शोषण करते रहें.इस तरह, इस्लाम का प्रसार होता जाएगा, भेदभाव प्रताड़ना का रूप धर लेगा और धीरे-धीरे यहां से भी हिन्दू या तो ख़ुद पलायन कर जाएंगें या फिर कश्मीरी पंडितों की तरह मार-मारकर भगा दिए जाएंगें.
 
देखें तो जिहाद के विभिन्न प्रकारों में एक नाम जनसंख्या जिहाद का भी आता है, जिसका मतलब और मक़सद एक ही होता है- अपनी आबादी को बढाकर अपनी क़ौम के वोटों के ज़रिए सरकारों को दबाव में लाकर अपनी जायज़-नाजायज़ मांगों को मनवाना.मगर, जम्मू-कश्मीर में ठीक इसके उल्टा है.इसके तहत यहां (ख़ासतौर से कश्मीर में) दूसरी जाति-धर्मों के लोगों को या तो मार-काटकर, भगाकर उनकी आबादी को कम किया जाता रहा है या फिर सरकारी कागजों पर उनके आंकड़ों में हेराफ़ेरी कर उनकी संख्या घटाकर दिखाई जाती रही है, ताकि ख़ुद शासन में बैठकर उन पर शासन किया जा सके.
 
कश्मीरी पंडितों के बाद अब जम्मू के लोगों के साथ जो कुछ हो रहा है वह, उनके साथ दशकों हुए अन्याय और पीड़ा को याद दिला रहा है.और यह तब हो रहा है जब धारा 370 और 35 ए हटने के बाद लगता था कि उनकी बदनसीबी के हालात ख़त्म हो गए हैं और अब अच्छे दिन आने वाले हैं.कुछ बदला नहीं, स्थिति जस की तस है.खूंटा वही है, जगह बदल गई है.
 
आज भी मीडिया उसी तरह चुप है जैसे वह कश्मीरी पंडितों के साथ हुई नाइंसाफी पर बोली नहीं थी.
 
किसी की अनुपस्थिति में या उसके जाने बिना या फिर छल से उसकी कोई चीज़ ले लेते हैं, तो उसे चोरी कहते हैं.लेकिन, यही काम अगर दहाड़े और लोगों के सामने ज़बरदस्ती होता है, तो इसे कानून की भाषा में लूट या डकैती कहा जाता है.जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ भी यही हो रहा है.ग़ैर-संवैधानिक तरीक़े से खुल्लम-खुल्ला उनका हक़ छीना जा रहा है, और उन्हें उन्हीं के हाथों में फिर सौंपा जा रहा है, जिन्होंने पिछले सात दशकों से सत्ता में रहते हुए योजनाबद्ध तरीक़े से उनका नरसंहार, शोषण और उत्पीड़न किया है.
 
 

अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमानों के लिए योजनाएं, ख़र्च

हमारी राजनीति में अल्पसंख्यकों के कल्याण के नाम पर केवल एक विशेष समुदाय को खुश करने की पुरानी परिपाटी है.इसमें नाम तो कईयों के लिए जाते हैं पर, योजनाएं ख़ासतौर से मुसलमानों के लिए बनती-चलती हैं, और पैसे भी तक़रीबन उन्हीं पर ख़र्च किए जाते हैं.इस भेदभाव और अनुचित कृत्य की एक हक़ीक़त यह भी है कि इसमें लक्ष्य कल्याण और आर्थिक विकास नहीं, बल्कि इसके नाम पर सरकारी पैसे को इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर लुटाकर कट्टरपंथियों को ख़ुश करना होता है.अगर ऐसा नही होता, तो 75 सालों बाद भी क़रीब आधी मुस्लिम आबादी निरक्षर नहीं होती और न ही क़रीब 67 फ़ीसदी लोगों को दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए रोज़ाना संघर्ष करना पड़ता.
 
जब भी अल्पसंख्यकों की बात होती है, तो हमारे नेताओं को जैन, सिख, बौद्ध, पारसी आदि कहीं नज़र नहीं आते, एकमात्र मुस्लिम सामने होता है.उसी की पीड़ा की बातें होती हैं, उसके विकास के नाम पर मज़हब के लिए सरकारी खज़ाना और कितना खोला जाए, इस पर मंथन चलता रहता है.अब तो, इस चिंता-चिंतन में बेचारे दलित भी पीछे छूटते जा जा रहे हैं.
 
मगर सही मायने में देखा जाए तो, यदि अल्पसंख्यक सूची में शामिल सभी अल्पसंख्यक समान रूप से लाभान्वित होते हैं, तो भी यह व्यवस्था ठीक नहीं है.यह गैर-संवैधानिक और ग़ैर-बराबरी वाली प्रक्रिया/व्यवस्था है क्योंकि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक न होकर सभी बराबर होते हैं, सब को समान अवसर प्राप्त होता है.कोई भेदभाव नहीं होता है.तो फिर, कोई सामान्य और कोई विशेष क्यों, अगड़ा और पिछड़ा क्यों? मगर, राजनीति तो राजनीति होती है.यह तर्क और तथ्यों पर नहीं, वोटबैंक के आधार पर और अंकगणितीय रीति से चलती है.दुर्भाग्य से, यही रीति-नीति हमारी नियति बन गई है.पूरी व्यवस्था इसी पर आधारित है.गांधी-नेहरू द्वारा चलाई गई इस व्यवस्था को अब प्रधानमंत्री मोदी आगे बढ़ा रहे हैं.
 
जिस तरह नेहरू और उनकी नीति पर आधारित कांग्रेस सरकारें तुष्टिकरण के लिए जनता के कर के पैसे को मुसलमानों पर लुटाती, बंदरबांट करती रही, एक ग़लत और ख़तरनाक़ परिपाटी बनाई, उसे नरेंद्र मोदी ने राजधर्म बना लिया और अब देश फिर ऐसी राह पर चल पड़ा है, जो विखंडन और बर्बादी की ओर ले जाने वाली है.
मोदी की मुस्लिम नीति को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय का बजट बेहतर बयान करता है, जिसमें उन्होंने 700 करोड़ से ज़्यादा (2019 के आंकड़ों के अनुसार) का इज़ाफ़ा किया है.
सत्ता संभालते ही मोदी ने अपने पहले बजट में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के बजट में क़रीब 200 करोड़ रूपये की बढ़ोतरी की थी.यानि, 2013-14 के मनमोहन सिंह सरकार में इस मंत्रालय के लिए जो बजट 3511 करोड़ था, उसे मोदी सरकार में अगले ही साल यानि 2014-15 में बढाकर 3711 करोड़ कर दिया.फिर, 2015-16 में 3712.78 करोड़, 2016-17 में 3800 करोड़, 2017-18 में 4195 करोड़ और आगे फिर 2019-20 में तो यह 4700 करोड़ रुपए कर दिया गया.
इस बजट के तहत देशभर में करोड़ों रुपए बतौर छात्रवृत्ति अल्पसंख्यक छात्रों को बांटे जा रहे हैं, जिनमें जम्मू-कश्मीर के छात्र भी हैं.यहां तो वास्तविक अल्पसंख्यक ग़ैर-मुसलमानों जैसे जैन, सिख, बौद्ध, ईसाई, पारसी आदि के हक़ का पैसा भी मुसलमानों में बांटा जा रहा है.इसको लेकर सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) पर 15-सूत्रीय कार्यक्रम के कार्यान्वयन के दिशानिर्देशों की अवहेलना कर सरकारी खज़ाने का दुरूपयोग करने का आरोप लगा है.
मोदी सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण के नाम पर ऐसी कुल 36 पुरानी व नई योजनाएं चला रही है, जो ख़ासतौर से, मुसलमानों के लिए हैं. ऐसा दावा ख़ुद सरकार में बैठे नेता कर रहे हैं, इसे अपनी उपलब्धियों में गिना रहे हैं.
हालांकि इन योजनाओं के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं लंबित हैं, जिनमें केंद्र की ओर से अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनाएं चलाने को ग़लत बताया गया है और यह कहा गया है कि इन योजनाओं के लिए सरकारी खज़ाने से 4700 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है, जबकि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा गया है कि संविधान की धारा-27 करदाताओं से लिए गए धन को सरकार द्वारा किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने की इज़ाज़त नहीं देता है.लेकिन, सरकार वक्फ़ बोर्ड के निर्माण से लेकर अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों और महिलाओं के उत्थान के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपए ख़र्च कर रही है.यह बहुसंख्यक समुदाय के छात्रों और महिलाओं के ‘समानता के मौलिक अधिकार’ का हनन है.
मगर, मोदी सरकार ने अपने हलफ़नामे में कहा है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जा रहीं कल्याणकारी योजनाएं क़ानूनी रूप से वैध हैं.ये योजनाएं असामनता को घटाने पर केंद्रित हैं और इनसे किसी समुदाय (हिन्दुओं) के अधिकारों का हनन/उल्लंघन नहीं होता.
बहरहाल, योजनाएं जारी हैं.विभिन्न योजनाओं में शामिल प्री-मैट्रिक, पोस्ट-मैट्रिक और मेरिट आधारित छात्रवृत्ति योजनाएं चल रही हैं, जिनमें आर्थिक मदद की व्यवस्था है.
मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय फ़ेलोशिप अल्पसंख्यक छात्र योजना चल रही है जिसका उद्देश्य एमफ़िल और उच्चतर पीएचडी डिग्री के लिए छात्रों को पांच साल के लिए वित्त पोषण प्रारूप में फ़ेलोशिप देना है.
पढ़ो परदेश योजना के तहत छात्रों को विदेशों में जाकर पढ़ाई करने के लिए ब्याज़-मुक्त लोन की व्यवस्था है.बताया जाता है कि इस अवसर का लाभ उठाते हुए ज़्यादातर छात्र पाकिस्तान, अरब और ईरान में पढ़ने को इच्छुक हैं.
नया सवेरा योजना में छात्रों के लिए फ्री कोचिंग की व्यवस्था है.
नई उड़ान योजना में भी उन अल्पसंख्यक छात्रों के लिए फ्री कोचिंग की व्यवस्था है, जिन्होंने संघ लोक सेवा आयोग या राज्य सेवा आयोग या फिर स्टाफ़ सेलेक्शन कमीशन (एसएससी) के प्रथम चरण की परीक्षा पास कर ली है, और उन्हें दूसरे चरण की परीक्षा की तैयारी करनी है.
इसी प्रकार, नई रौशनी योजना में अल्पसंख्यक महिलाओं में नेतृत्व क्षमता विकसित करने, नई मंजिल में स्कूल छोड़ चुके छात्रों के ब्रीज़ कोर्स उपलब्ध कराने, सीखो और कमाओ योजना के तहत रोज़गार की ट्रेनिंग, उस्ताद योजना में पारंपरिक कला/शिल्प कौशल और प्रशिक्षण के उन्नयन और ग़रीब नवाज़ कौशल विकास प्रशिक्षण के ज़रिए युवाओं को रोज़गार की ओर ले जाने के लिए अल्पकालिक कौशल विकास प्रशिक्षण की व्यवस्था है.
प्रधानमंत्री शादी शगुन योजना (PMSSY) के तहत शादी से पहले स्नातक की पढ़ाई पूरी कने वाली अल्पसंख्यक समुदाय की युवतियों (ख़ासतौर से मुस्लिम युवतियों) को सरकार की ओर से 51 हज़ार रुपए की आर्थिक मदद दी जा रही है.
हमारी धरोहर योजना में ख़ासतौर से, इस्लामी संस्कृति से जुडी इमारतों की मरम्मत व देखभाल की व्यवस्था है.
क़ौमी वक्फ़ बोर्ड तरक्कीयाती योजना और शहरी वक्फ़ संपत्ति विकास योजना के तहत वक्फ़ बोर्डों को मज़बूत करने और उनकी संपत्तियों की रक्षा व विकास करने की दिशा में काम चल रहा है.
मदरसा शिक्षा योजना में मज़हबी तालीम के साथ आधुनिक विषयों की पढ़ाई और उर्दू-अरबी को बढ़ावा देने को लेकर व्यवस्था है.इस योजना को विस्तृत और विशेष बनाने के लिए प्रचुर मात्रा में धन उपलब्ध कराया जा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने पांच साल में पांच करोड़ छात्रों को स्कॉलरशिप देने की घोषणा की थी.वे मुसलमानों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर देखना चाहते हैं.

मुसलमानों को रिझाने के लिए विशेष कार्ययोजना

बताया जाता है कि नेहरू जी को दो बातें बहुत पसंद थीं.पहली, अपनी पसंदीदा महिलाओं के क़रीब रहना.दूसरी, मुस्लिम नेताओं से संपर्क व संवाद बनाए रखते हुए उनके सुझावों को तरज़ीह देना, उन पर अमल करना.नरेंद्र मोदी के बारे में भी आलोचक कई तरह की बातें करते हैं.जहां तक मुस्लिम नेताओं को लेकर बात है, कहा जाता है कि ऐसे कुछ ख़ास लोगों से ही वे मिलते हैं, और उनसे ज़्यादा क़रीबी संबंध भी नहीं हैं.यही कारण है कि मोदी हमेशा विपक्ष के निशाने पर रहे हैं.यहां तक कि उन्हें मुसलमानों का दुश्मन बताया जाता रहा है.
मगर, अब काफ़ी कुछ बदला हुआ नज़र आ रहा है.दबी ज़ुबान में अब विपक्षी भी कह रहे हैं कि मोदी बदल गए हैं.उनमें जागा मुस्लिम प्रेम कुलांचे भर रहा है, और वे नेहरू से भी आगे निकल कर गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल बनना चाहते हैं.
 
मोदी अपनी छवि बदलकर मुसलमानों से जुड़ना चाहते हैं और उनके लिए वह सब कुछ करना चाहते हैं, जो मुसलमानों की हितैषी समझी जाने वाली कांग्रेस ने अब तक नहीं किया है.
यह बदलाव ही है कि प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले विधानसभा चुनावों के विश्लेषण में हस्तक्षेप किया था और अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं से कहा था कि वे मुसलमानों ख़ासतौर से, पसमांदा मुसलमानों (जो कि कुल मुस्लिम आबादी का 85 फ़ीसदी हैं, और दर्ज़ी, धोबी, बढई, लोहार, नाई, कुम्हार, मिस्त्री, हस्तशिल्पकार और पुश्तैनी कामों के कारीगर इसी वर्ग से आते हैं) के बीच में जाकर काम करें और व्यापक पहुंच बनाएं.तब से काफ़ी कुछ हो रहा है.ख़बरों के मुताबिक़, भाजपा संसद और विधायक ‘मुस्लिम जोड़ो अभियान’ में लग गए हैं और अपने क्षेत्रों में स्नेह यात्राएं निकाल रहे हैं.वे घर-घर जाकर लोगों से मिल रहे हैं और मोदी के ‘सबका विश्वास’ का मतलब समझा रहे हैं.
मुसलमानों से नजदीकियां बढ़ाने के लिए संघ ने भी ऐसी ही योजना बनाई है.अब हर साल एक महीने के रमज़ान के शुरुआती 20 दिनों में उन राज्यों में जहां बीजेपी की सरकारें हैं, वहां रोज़ा इफ़्तार की कई दावतें आयोजित की जाएंगीं.साथ ही, रमज़ान माह के आख़िरी 10 दिनों में ईद मिलन के समारोह का सिलसिला भी चलेगा.
कांग्रेस की सरकारों में राष्ट्रति और प्रधानमंत्री की ओर से जो सद्भावना के तहत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की अज़मेर शरीफ़ स्थित दरगाह पर चढाने के लिए चादरें भेंट की जाती थीं वही सिलसिला मोदी के काल में भी जारी है.जानकारों के अनुसार, रमज़ान के दिनों में अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मोदी के कार्यालयों की ओर से भी रोज़ा इफ़्तार के आयोजन की तैयारी है.
संघ और बीजेपी दोनों प्रयास कर रहे हैं कि मुसलमानों को जोड़ा जाए.सघ का मुस्लिम मंच अपने स्तर पर काम कर रहा है वहीं, बीजेपी में भी मुस्लिम प्रकोष्ठ को विस्तार देने की क़वायद चल रही है.ख़ुद मोदी अब मुस्लिम मंचों पर जाकर मुसलमानों की बात कर रहे हैं, उन तक अपना संदेश पहुंचा रहे हैं.हाल ही में मोदी ने विश्व सूफ़ी सम्मलेन में शिरकत करते हुए कहा-

” आतंकवाद और धर्म का कोई रिश्ता नहीं है.आतंकवाद को धर्म से नहीं जोड़ना चाहिए.ऐसा करना ग़लत है. “

मोदी ने आगे कहा-

” इस्लाम शांति का मज़हब है और सूफीवाद इसकी आत्मा.अल्लाह इज़ रहमान एंड रहीम, यह विचारधारा भेदभाव करना नहीं सिखाती.अल्लाह के 99 नामों में से किसी का भी अर्थ हिंसा नहीं है. “

भाजपा-संघ की विशेष कार्ययोजना तो अब चर्चा का विषय बनी है दरअसल, मोदी ने यह सब तीन-चार साल पहले ही शुरू कर दिया था.नेहरू को भी मात देते हुए 2019 में उन्होंने सेना के मेजर जनरल सुभाष शरण को जिहादियों के अड्डे के रूप में बदनाम दारूल उलूम देवबंद भेजकर उनके ज़रिए ‘सबका विश्वास’ के संदेश देने के साथ-साथ वहां के छात्रों को सेना में भर्ती का ऑफर भी दिया था.इससे पहले वहां संघ के दूत के रूप में इंद्रेश कुमार होकर आए थे, और सारे कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर दी थी.
आज हिन्दुओं को यह सब जानकार हैरानी हो रही है मगर, मुसलमान पहले ही समझ चुके हैं कि सत्ता बदली है, सत्ता का मिजाज़ वही है.व्यक्ति दूसरा है मगर, उसकी सीरत वही है जैसे नई बोतल में पुरानी शराब.क्या फ़र्क है नेहरू और मोदी में?
Multiple ads

सच के लिए सहयोग करें


कई समाचार पत्र-पत्रिकाएं जो पक्षपाती हैं और झूठ फैलाती हैं, साधन-संपन्न हैं. इन्हें देश-विदेश से ढेर सारा धन मिलता है. इनसे संघर्ष में हमारा साथ दें. यथासंभव सहयोग करें

रामाशंकर पांडेय

दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है, जो दिखता तो कुछ और है पर, हक़ीक़त में वह होता कुछ और ही है.इस कारण कहा गया है कि चमकने वाली हर चीज़ सोना नहीं होती है.इसलिए, हमारा यह दायित्व बनता है कि हम लोगों तक सही जानकारी पहुंचाएं.वह चाहे समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, धर्म, पंथ, विज्ञान या ज्ञान की अन्य कोई बात हो, उसके बारे में एक माध्यम का पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष होना ज़रूरी है.khulizuban.com का प्रयास इसी दिशा में एक क़दम है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button