अर्थ जगत
RERA: 5 साल, 9 दिन चले अढ़ाई कोस
जब हम रेरा की नाक़ामियों की बात करते हैं, तो सवाल सरकारों की नीयत पर भी उठते हैं.कुछ तो इसकी अपनी ख़ामियां थीं, जो इसकी कमज़ोरी की वज़ह बनीं, बाक़ी सफ़ेदपोशों, प्रॉपर्टी माफ़िया और काले धन के कारोबारियों के चहुंओर फ़ैले मकड़जाल ने इसे लाचार बना दिया.
घर ख़रीदारों को न्याय दिलाने वाले चर्चित क़ानून रेरा को देश में आए हुए पांच साल से ज़्यादा का वक़्त गुज़र चुका है मगर, लगता है कि यह अब तक नाबालिग ही है.यह वयस्क कब होगा और अपने उद्देश्यों को पूरा करने में समर्थ होगा यह, स्पष्ट रूप से कहना बड़ा मुश्किल है.कुछ जगहों पर तो यह नज़र ही नहीं आता और जहां दीखता भी है वहां भी सिर्फ़ इसकी मौजूदगी भर का एहसास होता है.नतीजा ये है कि रियल एस्टेट में स्वच्छता लाकर उसे बुलंदियों पर पहुंचाने आया कथित महाबली सफेदपोशों, भूमाफ़िया और काले धन के कारोबारियों के बीच दुर्बल और नाक़ाम साबित हो रहा है.कई लंबित निर्माण परियोजनाएं आज भी अधूरी हैं, कुछेक लोगों को ही राहत मिली है और अपने लिए एक अदद घर को लेकर लुटे-पिटे लोग अब भी आंसू बहा रहे हैं.कुल मिलाकर 5 साल में 9 दिन चले अढ़ाई कोस…
लंबित परियोजनाओं की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी
रेरा यानि रियल एस्टेट (रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट) एक्ट, 2016 के आने के बाद भी देश के विभिन्न शहरों में बहुत सारी निर्माण परियोजनाएं ऐसी हैं, जो सालों से लंबित पड़ी हैं.कईयों में काम पूरी तरह ठप्प है, तो कईयों में यह रुक-रुक कर और बहुत धीमी गति से चल रहा है.
एनारौक (प्रापर्टी डॉट इन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 44 शहरों में 5 लाख, 23 हज़ार, 918 घरों का निर्माण कार्य पूरी तरह ठप्प है.जानकारी के अनुसार, इनका औसत विलंब 5 साल है.अकेले नोएडा-ग्रेटर नोएडा में ही 1 लाख से ज़्यादा मकानों का निर्माण कार्य तक़रीबन 5-10 साल से ज़्यादा देरी से चल रहा है.
रिपोर्ट के अनुसार, 11 लाख, 13 हज़ार, 604 आवासीय इकाइयों का काम देरी से चल रहा है.देश के 44 शहरों में इनका औसत विलंब क़रीब अढ़ाई साल है.
आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई, कोलकाता आदि सात शहरों में छह महीने पहले तक 6 लाख 29 हज़ार मकानों का निर्माण पूरा नहीं हो पाया था.
रेरा का रिपोर्ट कार्ड
रेरा की ओर से निपटाई गई शिक़ायतों का ब्यौरा देखें तो यह काफ़ी निराशाजनक है.देशभर में रेरा के तहत पंजीकृत परियोजनाओं और उनसे जुड़ी शिक़ायतों के मुकाबले यह ऊंट के मुंह में जीरा समान है.साथ ही, निपटाई गई शिक़ायतों से संबंधित यह ब्यौरा भी उपलब्ध नहीं है कि कितने मामलों में वास्तव में ग्राहकों को राहत मिली या फिर केवल आदेश हुए हैं.क्योंकि शिक़ायतों का निपटारा होने से न्याय नहीं मिल जाता, क़ब्ज़े का आदेश कितने मामलों में हुआ, कितने मामलों में पैसे वापस हुए, यह बताना ज़रूरी है.
घर ख़रीदारों को घर मिल गया पर, सुविधाएं नहीं मिलीं, इन सबका ब्यौरा रेरा के पास नहीं है.
ग़ौरतलब है कि ज़्यादातर मामलों में रेरा रिफंड (धन वापसी) का आदेश तो देता है लेकिन, बिल्डर उसे मानता नहीं है.ऐसे में, रेरा रिकवरी सर्टिफिकेट जारी करता है, जो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास जाता है.वहां यह मामला भी देश में लंबित करोड़ों अदालती मामलों की तरह चलता रहता है.रिकवरी आसान नहीं है.
ज्ञात हो कि नगालैंड को छोड़कर बाक़ी सभी राज्य व केंद्र शासित क्षेत्र रेरा नियमों को अधिसूचित कर चुके हैं.31 राज्य/केंद्र शासित प्रदेश रेरा प्राधिकरण बना चुके हैं (25 नियमित व 6 अंतरिम).लद्दाख, मेघालय, सिक्किम और पश्चिम बंगाल ने नियम अधिसूचित कर दिए हैं लेकिन, प्राधिकरणों का गठन नहीं हुआ है.
केंद्र सरकार के आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक़ देशभर में प्राधिकरणों ने अब तक कुल 87 हज़ार 163 शिक़ायतों का निपटारा किया है.पांच साल के लिहाज़ से देखा जाए, तो 17 हज़ार से ज़्यादा शिक़ायतें हर साल निपटी हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली के 40 रजिस्टर्ड प्रोजेक्ट से संबंधित अब तक जहां 202 मामले निपटाए गए हैं वहीं, आंध्र प्रदेश के 2420 प्रोजेक्ट में कुल 158 मामले ही सुलझाए गए हैं.
झारखंड में 109 और पुड्डूचेरी में 3 शिक़ायतें निपटी हैं.त्रिपुरा में तो इसकी संख्या शून्य है.यहां एक भी शिक़ायत नहीं आना, क्या दर्शाता है?
आख़िर, ये क्या हो रहा है? रेरा का ये कैसा रिपोर्ट कार्ड है?
विभिन्न संगठनों, निजी वित्तीय संस्थान और दूसरे विभिन्न स्रोतों के आंकड़ों से पता चलता है कि देशभर में रेरा के तहत रजिस्टर्ड 77 हज़ार 789 प्रोजेक्ट और 60 हज़ार 746 रियल एस्टेट एजेंटों वाले मकड़जाल में लाखों की संख्या में विवाद हैं.मगर, रेरा तक कितनी शिक़ायतें पहुंचीं हैं, उनका कोई आधिकारिक ब्यौरा उपलब्ध नहीं है, जबकि यह प्रावधान था कि रेरा सालाना रिपोर्ट देगा.महाराष्ट्र, गुजरात और यूपी रेरा के सिवा किसी ने भी रिपोर्ट नहीं दी है.
दरअसल, कई लोगों को तो रेरा के बारे में पता ही नहीं है और वे आज भी उपभोक्ता न्यायालयों का रूख़ करते हैं.मगर जिन्हें पता है, वे भी रेरा में जाकर समझ चुके हैं कि यहां भी न्याय पाना आसान नहीं है.
बहुत कठिन है डगर पनघट की…
रेरा की नाक़ामियों की वज़ह क्या है?
कहते हैं कि नीयत साफ़ हो, तो कमज़ोर से कमज़ोर साधन भी क़ामयाब होते हैं.मगर, नीयत में खोट हो, तो मज़बूत से मज़बूत हथियार भी नाक़ाम हो जाते हैं.रेरा का भी यही हाल है.दरअसल, केंद्रीय रेरा कानूनों को राज्यों ने तोड़-मरोड़कर अथवा हल्का कर पुनर्व्याख्यायित कर दिया है, जिससे यह कमज़ोर होकर बेअसर साबित हो रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वक़ील अश्विनी उपाध्याय कहते हैं-
” रेरा में शक्ति की कोई कमी नहीं है.जो कुछ है, उसी का अगर सही इस्तेमाल कर लें, तो समस्याएं दूर हो सकती हैं.ख़रीदारों के प्रति निष्ठा नहीं होने के कारण लोग धक्के खा रहे हैं. ”
रेरा की नाक़ामियों की और भी कुछ वज़हें हैं.एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय भी ये मानते हैं कि रेरा नियमों में कुछ कमियां हैं, जिन्हें दूर कर अथवा इसमें कुछ नए उपबंध जोड़कर इसे और भी प्रभावी बनाया जा सकता है.
थोड़ा कमज़ोर था, लाचार बना दिया गया
एक तो रेरा एक्ट की अपनी ही कुछ कमजोरियां हैं, जिनके बारे में न तो पहले सोचा गया था और न ही अब इस ओर ध्यान दिया जा रहा है.इस कारण, परिस्थितयां लगभग़ पहले जैसी ही बनी हुई हैं.लोग परेशान हैं, जबकि बिल्डर, डेवलपर और प्रापर्टी डीलरों की नाक में नकेल पूरी तरह कसी नहीं जा सकी है.दूसरी, केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर कुछ कानूनी अड़चनों के कारण राज्य अपनी मनमानी कर रहे हैं.ये आम जनता से ज़्यादा सफ़ेदपोशों, प्रापर्टी माफ़िया और काले धन के कारोबारियों को तरज़ीह देते हुए रेरा नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं.इनका रवैया ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और अन्यायपूर्ण है.
राज्यों ने जानबूझकर रेरा एक्ट के प्रावधानों को हल्का कर अपने यहां लागू किया है, ताकि कानून निष्प्रभावी रहे और बिल्डर तथा डेवलपर अपनी मनमानियां करते रहें.
मॉडल बिल्डर-बायर एग्रीमेंट
रेरा एक्ट की कमज़ोरियों के संदर्भ में देखें तो इसमें मॉडल एग्रीमेंट (आदर्श अनुबंध) के प्रावधान का न होना ग्राहकों के लिए बड़ा नुकसानदेह है.मॉडल बिल्डर-बायर एग्रीमेंट के अभाव में प्रमोटर, बिल्डर और रियल एस्टेट एजेंट ग्राहकों के पैसे का ग़लत उपयोग करने की नीयत से एकतरफ़ा एग्रीमेंट करते हैं, जिससे उन्हीं का पक्ष मज़बूत रहता है और वे ख़रीदारों पर हावी रहते हैं.यह ग़लत ही नहीं, बल्कि एक आपराधिक साज़िश, कार्पोरेट फ्रॉड और धोखाधड़ी के साथ-साथ मौलिक अधिकारों का हनन भी है.
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय के मुताबिक़, देश में केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग बिल्डर-बायर एग्रीमेंट स्वरुप हैं.इनमें एकरूपता नहीं है.
पूरे देश में एक समान बिल्डर-बायर एग्रीमेंट (बिल्डर और ख़रीदार के बीच क़रार) लागू करने को लेकर एडवोकेट उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तीन महीने के भीतर इसकी जांच कर रिपोर्ट दाख़िल करने को कहा है.
विलंब से चल रहे प्रोजेक्ट जानने का कोई तंत्र नहीं
जो निर्माण परियोजनाएं देरी से चल रही हैं, रेरा में उन्हें स्वयं जानने को लेकर कोई तंत्र नहीं बना है.दूसरे शब्दों में, बिना शिक़ायत बिल्डर से देरी के लिए ज़वाब मांगने और उस दिशा में कोई क़दम उठाने को लेकर कोई व्यवस्था नहीं है.
यदि विलंब की शुरुआत में ही कार्रवाई हो, तो कोई प्रोजेक्ट सालों-साल अटका नहीं रहेगा.
पुराने प्रोजेक्ट में ज़्यादा समस्याएं हैं
रेरा अधिनियम के आने से पहले वाली परियोजनाओं में ज़्यादा समस्याएं हैं.इनमें मुख्य समस्या बिल्डर द्वारा फंड डायवर्ट करना (ग्राहकों की जमा रक़म दूसरी योजनाओं में स्थानांतरित करना) है, जिनमें रेरा के रिफंड आर्डर पर भी अमल नहीं हो रहा है.फिर, रेरा की कार्रवाई का मतलब क्या है?
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि रेरा के तहत दंड व्यवस्था प्रभावी नहीं है.इसके तहत दिया जाने वाला दंड बहुत कम और अस्पष्ट है.स्पष्ट है कि रेरा में संशोधन की ज़रूरत है.
एडवोकेट उपाध्याय कहते हैं-
” मेरे आकलन के अनुसार रेरा बीस फ़ीसदी ही क़ामयाब है.लोगों को बिल्डर, डेवलपर और एजेंटों के खिलाफ़ शिक़ायत का एक मंच मिल गया है.जहां कुछ नहीं था, वहां कुछ तो मिल रहा है. ”
ग़ौरतलब है कि वे पुराने प्रोजेक्ट जिन्हें ओसी (अक्युपेंसी सर्टिफिकेट) यानि अधिभोग प्रमाणपत्र नहीं मिले थे, वे भी रेरा में रजिस्टर हो गए क्योंकि केंद्रीय रेरा के तहत ना सिर्फ़ नई भवन निर्माण परियोजनाएं, बल्कि ऐसी सभी चल रही परियोजनाओं को भी शामिल किए जाने का प्रावधान है, जहां परियोजना को पूर्णता का प्रमाणपत्र नहीं मिला है.यानि किसी बिल्डर ने प्रोजेक्ट में निर्माण मानकों और इमारत के उपनियमों का पालन किया है या नहीं, इस ओर ध्यान नहीं दिया गया है.यह बहुत गंभीर विषय है क्योंकि बिना ओसी कोई प्रॉपर्टी वैध प्रॉपर्टी नहीं मानी जाती.
प्रोजेक्ट का भौतिक निरीक्षण नहीं
पिछले पांच सालों में एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया, जिसमें रेरा ने मकानों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाई हो.यह गड़बड़ी होने का इंतज़ार करता है और इसे पहले ही इसके भौतिक परीक्षण के आधार पर रोकता नहीं है.
ये कितनी हैरानी की बात है कि आयकर विभाग को तो आयकर की गड़बड़ियों का पता चल जाता है लेकिन, रेरा को बिल्डरों की गड़बड़ियों का पता नहीं चलता.दरअसल, रेरा को चाहिए कि वह बिल्डरों के प्रोजेक्ट का उसी तरह भौतिक निरीक्षण करे, जिस तरह, आयकर विभाग (Income Tax Department) और सेबी (SEBI) औचक निरीक्षण/जांच करते हैं.
यह समझना होगा कि रेरा कोई प्रोजेक्ट का केवल पंजीकरण करने वाला संस्थान नहीं, बल्कि विधि द्वारा स्थापित एक समस्या निवारण प्राधिकरण और बहुत ही अहम ज़रिया है.इसमें किसी प्रोजेक्ट की स्वतः जांच अथवा भौतिक निरीक्षण की आंतरिक व्यवस्था विकसित किए जाने की ज़रूरत है.इसके बिना इससे न्याय की उम्मीद बेमानी होगी.
सीसी और ओसी का ग़लत तरीक़ा
भवन निर्माण परियोजनाओं में सीसी (कम्पलीशन सर्टिफिकेट- पूर्णता या समापन प्रमाणपत्र) और ओसी (अक्युपेंसी सर्टिफिकेट- अधिभोग या क़ब्ज़ा प्रमाणपत्र) को लेकर तरीक़े बिल्कुल ग़लत हैं.यहां बिल्डर ओसी पहले हासिल कर मकानों के क़ब्ज़े देना शुरू देता है, जबकि कॉमन एरिया डेवलपमेंट (ओपन पार्किंग एरिया, बेसमेंट, सीढ़ियाँ, लिफ्ट और पार्क) का काम वह सबसे बाद में करता है.दरअसल, होना यह चाहिए कि बिल्डर सारे काम पूरे कर सीसी हासिल करे.उसके बाद ही क़ब्ज़े दे.यही कानून का तक़ाज़ा है.
ज्ञात हो कि रेरा की धारा 19 (10) के प्रावधान के अनुसार, ओसी मिलने के दो महीने के अंदर क़ब्ज़े लेना ज़रूरी होता है वर्ना ग्राहक पर ज़ुर्माना लगता है.ऐसे में, क़ब्ज़े लेने के बाद लोग अपने घरों में रहने तो लगते हैं लेकिन, लगातार निर्माण कार्य होने से वहां उन्हें बहुत मुश्किल पेश आती है.इसका समाधान क्या है, इस पर रेरा को सोचना चाहिए.
पीड़ितों की यह शिक़ायत भी ग़ैर-वाज़िब नहीं है कि किसी निर्माण परियोजना की ओसी देने से पहले सरकारी अधिकारी ढ़ांचे की जांच तो करते हैं लेकिन, वे यह नहीं देखते कि ज़रूरी चीजें जैसे कमोड, बाथरूम के नल, बिजली के स्विच आदि लगे हैं या नहीं या बिल्डर ने क़रार में तय बाक़ी चीज़ें पूरी की है या नहीं.
घर ख़रीदारों का कहना है कि सरकारी अधिकारी सिर्फ़ ईंट-गारे की स्वीकृति देते हैं.रेरा भी मकान में बिजली, सीवर और पानी की व्यवस्था तक ही सीमित है और यह बिल्डर द्वारा किए गए बाक़ी वादे पूरे कराने में नाक़ाम है.
सुलभ और सस्ता समझा जाने वाला मंच बहुत महंगा है
रेरा के प्रति जो लोगों को भरोसा था, वह अब ख़त्म हो रहा है.वे अब मानने लगे हैं कि इससे बेहतर और सस्ता न्याय उन्हें कंज्यूमर फ़ोरम में मिलता है.कारण ये है कि रेरा के वक़ील इतने महंगे हैं कि उनकी फ़ीस भरना हर किसी के बूते की बात नहीं है.
आम वक़ीलों का रेरा में कोई मोल नहीं है, रेरा के सदस्य उनकी सुनते नहीं, उपेक्षा करते हैं.
धांधली की शिक़ायतें भी हैं
रेरा में धांधली की शिक़ायतों को लेकर हम यह कह सकते हैं कि काजल की कोठरी में जाने पर मुंह पर कालिख़ लग ही जाती है.मगर, हम उनकी बातों को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं, जो भुक्तभोगी हैं और न्याय पाने के लिए रेरा के चक्कर लगा-लगाकर टूट से गए हैं.
सच चाहे जो भी, जितना भी हो लेकिन, ये बात लोगों के दिमाग में घर कर चुकी है कि रेरा में रियल एस्टेट एजेंटों का बोलबाला है.वहां धांधली है, और न्याय पाना आसान नहीं है.
70 फ़ीसदी रक़म अलग खाते में जमा करने का मामला
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि नए प्रोजेक्ट के साथ-साथ पुराने प्रोजेक्ट में भी बिल्डरों को ख़रीदारों से लिए पैसे में से 70 फ़ीसदी अलग खाते (एस्क्रू एकाउंट) में रखने का प्रावधान तो था लेकिन, कई राज्यों ने इसके लिए बिल्डरों को बाध्य नहीं किया है.अगर सरकारें ऐसा करतीं, तो आज जो विलंब हो रहा है, वह नहीं होता.
प्रशासनिक अधिकारियों की जगह न्यायिक सदस्यों की ज़रूरत
एडवोकेट उपाध्याय के मुताबिक़, रेरा प्राधिकरणों में न्यायिक सदस्य होने चाहिए, न कि प्रशासनिक अधिकारी बिठाने चाहिए.न्यायिक सदस्य कानूनी पेचीदगियों को प्रशासनिक अधिकारियों की तुलना में ज़्यादा बेहतर समझते हैं.उनके द्वारा मामलों को देखे जाने से न सिर्फ़ विश्वसनीयता बढ़ेगी, बल्कि त्वरित न्याय भी हो सकेगा.
जैसा की हम जानते हैं कि हर चीज़ के दूसरे पहलू भी होते हैं.हम उन्हें दरकिनार कर विषय के साथ न्याय नहीं कर सकते.लोगों का ये भी मानना है कि रेरा के आने से फ़र्क पड़ा है.बिल्डर और प्रॉपर्टी डीलर फूंक-फूंककर क़दम रख रहे हैं.कई बेईमान मैदान यानि बाज़ार छोड़कर भाग चुके हैं.धीरे-धीरे ही सही, परिस्थितियां बदल रही हैं.पर क्या, हालात के मददेनज़र यह पर्याप्त है?
बहुत इंतज़ार के बाद देश में रेरा आया.जब यह आया तो मीडिया ने ढ़ोल पीटना शुरू किया और ऐसी तस्वीर पेश की गई कि मानो एक बहुत ही सुलभ और मुफ़्त में समस्याएं निपटाने वाला मंच मिल गया हो.मानो कोई नियामक प्राधिकरण न होकर यह कोई तारणहार हो.मगर, जल्द ही टांय-टांय फिस्स हो गया और लोग ख़्वाबों से उतरकर ज़मीन पर आ गए और आज हालत ये है कि संजीवनी साबित होने वाली एक नई और विशेष व्यवस्था लुटेरों और काले धन के कारोबारियों के जाल में फंसकर रह गया है.अपने आशियाने लिए बर्बाद हो चुके लोग, जो पहले आंसू बहा रहे थे आज भी आंसू बहा रहे हैं.
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