समसामयिक

नेपाली लड़कियों की तस्करी: तस्करों की कामयाबी नहीं, व्यवस्था की नाकामी है

मानव तस्करी की जितनी भी निंदा की जाए, वह कम ही होगी.मगर, इससे भी ज़्यादा इसके विभिन्न पहलुओं और उत्तरदायी पक्षों पर चिंतन ज़रूरी है, जो दिखाई नहीं देता है.निष्पक्ष आकलन का भी अभाव है.

Don't miss out!
Subscribe To Newsletter
Receive top education news, lesson ideas, teaching tips and more!
Invalid email address
Give it a try. You can unsubscribe at any time.

नेपाली लडकियों की तस्करी के मामलों में कमी आने के बजाय उनमें बढ़ोतरी का अनुमान है.भारत-नेपाल सीमा पर तैनात सीमा बलों एवं पुलिस के सूत्रों, एनजीओ और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, नेपाल से रोज़ाना दर्ज़नों लड़कियां-महिलाएं तस्करी कर विभिन्न मार्गों से भारत में दाख़िल कराई जाती हैं.यहां से फिर उन्हें सुदूर देशों में पहुंचा दिया जाता है.यह आपराधिक कार्य के साथ अमानवीय भी है पर, परवाह किसे है?

नेपाली लड़कियों की तस्करी (प्रतीकात्मक)

दरअसल, अपने की परवाह और सम्मान की चिंता जागरूकता तो लाती ही है, ऐसी रणनीति तैयार करने की भावना भी भर देती है, जो कठिन परिस्थितियों में भी मजबूत और कारगर सिद्ध होती है.मगर, दुर्भाग्य से नेपाल में जहां विपरीत परिस्थितियों से ज़्यादा बौद्धिक समस्याएं हावी हैं वहीं, भारत की ओर से भी ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं देता है कि जिसे नेपाली लड़कियों की तस्करी और दुर्दशा को रोकने की दिशा में ख़ास क़दम कहा जा सके.जानकारों के मुताबिक़, दोनों देशों ने अभी तक इस संदर्भ में एक दस्तावेज़ समझौता ज्ञापन (एमओयू) या एकीकृत मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) का एक व्यापक सेट भी विकसित नहीं किया है.

हालांकि नेपाल के लिए लड़कियों की तस्करी कोई नई समस्या नहीं है.दूसरी तरफ़, भारत उनका पुराना ठिकाना है.इसलिए बदलते दौर में उन्हें दुनिया के दूसरे देशों में भी भेजने के गोरखधंधे में इसका प्रमुख ज़रिया या ‘ट्रांजिट पॉइंट’ बन जाना स्वाभाविक है.

लेकिन, लज्जाजनक बात तो है.कहा जाता है कि एक अपनी इज्ज़त बेचता है तो दूसरा उसकी दलाली करता है.

लेकिन, समस्या के लिए उत्तरदायी क्या केवल ये ही पक्ष हैं? या फिर अन्य पक्षों के साथ कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जो गहराई में गए बगैर समझ नहीं आते हैं और अक्सर छुपे रह जाते हैं.इसलिए, नेपाल और भारत को अंदर से देखने के साथ ही सुदूर देशों के सक्रिय तस्करी और उस पर आधारित देह व्यापार के गोरखधंधे के नेटवर्क का खुलासा और निष्पक्ष चर्चा आवश्यक हो जाती है.

राजनीतिक अकर्मण्यता का दंश झेल रही हैं नेपाली लड़कियां-महिलाएं

‘ने’ ऋषि का प्राचीन देश ‘नेपा’ या नेपाल दक्षिण एशिया का हिम श्रृंखलाओं वाला जितना खूबसूरत देश है उतना ही पिछड़ा और ग़रीब भी है.इसकी सबसे बड़ी वज़ह है इसका माओवादी माहौल, जो लोकतंत्र को पनपने-बढ़ने नहीं दे रहा है, और रचनात्मक प्रवृत्ति वाले नेपालियों को भ्रष्टाचार और अराजक स्थिति में धकेले जा रहा है.

इसकी सबसे बड़ी शिकार हैं यहां की महिलाऐं.इनका जीवन सुधरने के बजाय और नारकीय होता चला जा रहा है.

यहां की राजनीतिक अराजकता राजनीतिक अस्थिरता पैदा करती रहती है जिस कारण विकास मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है.प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में तो बहुसंख्यक आबादी प्रभावित होती है है, यह देश जैसे बिखर-सा जाता है.

तभी तो 2015 के भयानक भूकंप और फिर कोरोना की मार से नेपाल अब तक उबर नहीं पाया है.

वहां की स्थिति सामान्य नहीं है.ऐसे में, बाक़ी दनिया की तरह नेपाल में भी इंसान जीवन-यापन के लिए अन्य विकल्प तलाशता है.

मगर, कोई विकल्प है क्या सिवाय बाहर निकलकर श्रम और शरीर बेचने के? नहीं.इसके लिए समुचित प्रयास भी नहीं हो रहे हैं.

इसीलिए लड़कियां स्वदेशी कालीन और कपड़ा कारखानों, कढ़ाई की दुकानों, ईंट-भट्ठों आदि में फंसकर सस्ते में ग़ुलामी करने और शोषण की शिकार बनने के बजाय जहां अपने समाज और देश को छोड़कर आंखें मूंदकर निकल पड़ती हैं वहीं, आधुनिकता की चमक-दमक पाने को बेताब उनके अपने लोग भी उन्हें बेचने और दलाली करने में भी गुरेज़ नहीं करते हैं.

जहां तक तस्करी को रोकने और दोषियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने की बात है इसमें कई बड़ी खामियां हैं.कई स्तरों पर लापरवाही और भ्रष्टाचार देखने को मिलता है.

तस्करों और राजनेताओं के बीच सांठगांठ: नेपाल में तस्करों और राजनेताओं की मिलीभगत सबसे बड़ा कारण है लड़कियों की दुर्दशा का.इसी के चलते पुलिस पर दबाव बना रहता है.हाथ बंधे होने के कारण जगह-जगह सक्रिय असामाजिक तत्वों पर नज़र नहीं रखी जाती है या जानते हुए भी आपराधिक गतिविधियों को नज़रंदाज़ किया जाता है, और घटना हो जाने पर अपराध को छुपाने और अपराधियों को बचाने की क़वायद होती रहती है.

आरोप तो यह भी लगाया जाता है कि स्थानीय पुलिस और सीमा बलों के समर्थन और सहयोग से भी तस्करी की वारदातों को अंजाम दिया जाता है.

सूत्र बताते हैं भारत में कई बार तस्करों के खिलाफ़ कार्रवाई कर लड़कियों को बचाने की मुहिम में अड़चनें आती हैं क्योंकि नेपाल से राजनयिक स्तर पर समय से और पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पाता है.

इसमें नेपाली दूतावास से जब तक संपर्क व समन्वय स्थापित हो पाता है तब तक बहुत देर हो जाती है.

न्याय दिलाने में हीलाहवाली: महिलाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र विकास कोष के अध्ययन से पता चलता है कि तस्करी संबंधी बहुत ही कम मामले अदालतों तक पहुंच पाते हैं.

इनमें भी 70 फ़ीसदी केस में पुलिस जांच रिपोर्ट जमा करने की आख़िरी तारीख को सरकारी वकील को सौंपती है.

23 फीसद मामलों में तो वकील भी तारीख़ पर कोर्ट में हाज़िर नहीं होते हैं.

कुछ चर्चित मामलों को छोड़कर, पर्याप्त सुरक्षा के अभाव पीड़ितों को अपनी जान का ख़तरा बना रहता है.

गवाहों को परेशान करना और धमकाना आम बात है.

एनजीओ और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नाकामी

भारत की तरह नेपाल में भी मानवाधिकार आयोग पुलिस, जांच एजेंसियों और सुरक्षा बलों से ज़्यादा अपराधियों-माओवादियों पर भरोसा करता है.वह उन पर कठोर कार्रवाई के खिलाफ़ खड़ा होता है, और लड़ाई लड़ता है.तस्कर भी इन्हीं में आते हैं.

वैसे भी ये सभी एक ही नाभि नाल से जुड़े हैं.

अब एनजीओ ही रह जाते हैं, जो लड़कियों-महिलाओं का सहारा बन सकते हैं.मगर, अस्थिरता, अराजक वातावरण और आधुनिक चुनौतियों के सामने ये अपर्याप्त, लाचार और असफल ही दिखाई देते हैं.

ख़ासतौर से, अपनी कार्यशैली को लेकर अक्सर ये सवालों के घेरे में रहते हैं.

हालांकि संख्या बल में ये कम नहीं हैं.कहा जाता है कि नेपाल में अगर कुछ सबसे ज़्यादा है, तो वह एनजीओ हैं.

मगर, धरातल पर कितने हैं?

आंकड़ों के हिसाब से नेपाल में क़रीब 2 लाख एनजीओ हैं, जिनमें से 40 हज़ार ही पंजीकृत हैं.इनमें से भी क़रीब 82 फ़ीसदी (अकेले स्वास्थ्य के क्षेत्र में) एनजीओ निष्क्रिय बताये जाते हैं.

जानकारों के अनुसार, 204 एनजीओ ऐसे भी हैं, जिन्हें दुनिया तो जानती है पर, नेपाल के लोग बहुत कम जानते हैं.इन्हें आईएनजीओ यानि, अतर्राष्ट्रीय एनजीओ (अंतर्राष्ट्रीय ग़ैर-सरकारी संस्थान) कहा जाता है.

‘वे तो फ़ोटो खिंचाने आते हैं’, यह तस्करों के चंगुल से निकली एक लड़की ने कहा जब मीडिया ने उससे पूछा कि ‘एनजीओ वालों ने आपकी क्या मदद की.’

अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है कि ‘जैसे ही यौन तस्करी अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे में दिखाई दी, नेपाल में एनजीओ की संख्या में भारी वृद्धि के साथ धन की मांग भी बढ़ी.सरकारी और ग़ैर-सरकारी, दोनों स्तरों पर बढ़ोतरी के सुझावों का अंबार लग गया.’

आज भी यही सब चल रहा है.

मगर, तस्करों के खिलाफ़ कार्रवाई से संबंधित किसी भी एनजीओ का ‘रिपोर्ट कार्ड’ दिखाई नहीं देता है.

तस्करी छोड़िए, तस्करों क चंगुल से निकली लड़कियों के लिए सबसे बड़ी ज़रूरत आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता होती है.मगर, विभिन्न शोधों में पीड़ितों के साक्षात्कार से पता चलता है कि एनजीओ के शेल्टर होम में रहने वाली लड़कियों-महिलाओं के लिए सिलाई और परिधान बनाने जैसे पारंपरिक कौशल प्रशिक्षण वर्तमान अर्थव्यवस्था और वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के हिसाब से अपर्याप्त हैं, और ये स्थाई आजीविका के लिए योग्य और सक्षम नहीं बनाते हैं.

ज्ञात हो कि वर्ष 1996 की मुंबई के वेश्यालयों पर छापेमारी (जिसमें क़रीब 900 महिलाओं को बचाया गया था, और जिनमें से अकेले 600 नेपाली लड़कियां-महिलाएं थीं) के बाद आज़ाद होकर नेपाल पहुंचीं रीना और आस्था (बदले हुए नाम) समेत 128 महिलाओं ने मशहूर शक्ति समुहा नामक स्वयंसेवी संस्था को इसलिए जन्म दिया था क्योंकि पीड़ितों के आंसू व दर्द न सिर्फ़ वे समझती थीं, बल्कि सही मायने में उनका सहारा भी बनना चाहती थीं.

वह संकल्प पूरा नहीं हुआ.

दरअसल, जिस तरह उस वक़्त (शक्ति समुह के जन्म से पहले) WOREC Nepal, ABC Nepal, SWIN, मैती नेपाल, नवा ज्योति केंद्र और स्त्री शक्ति जैसे संगठनों के अस्तित्व में रहते रीना और आस्था आदि लड़कियां असुरक्षित और कमज़ोर थीं उसी तरह और उतनी ही आज शक्ति समुहा, चेंज नेपाल और एंजेल्स नेपाल आदि हजारों संथाओं की मौजूदगी में भी नेपाली लड़कियां लाचार और असहाय हैं.

क्या बदला है?

हालात और बदतर हो गए हैं.

नेपाल के अंदर मानव तस्करों के कई नेटवर्क सक्रिय हैं

नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र ही मानव तस्करी संवेदनशील नहीं हैं, बल्कि पूरे नेपाल में अंदर तक तस्करों का जाल बिछा है.यहां इंसानी ज़िन्दगी का सौदा ऐसे होता है जैसे भेड़-बकरियों की ख़रीद-फ़रोख्त होती है.नेपाल से मानव तस्करी या यूं कहिए कि लड़कियों-महिलाओं की तस्करी एक बड़े कारोबार की तरह है, जिसके तार दुनिया के कई देशों से जुड़े हैं.भारत एक प्रमुख माध्यम है.

यहां के शहरों की चकाचौंध भरी गलियां हों या सुदूर देहात, वहां लड़कियां-महिलाएं तस्करों या कहिए कि सेक्स की दुकानों के दलालों के निशाने पर होती हैं.वहां केबिन रेस्तराओं में फ़िल्मी धुनों पर थिरकन के बीच जहां सीधी बोली लगती है वहीं, गांवों में घर, खेत-खलिहानों और पहाड़ों-जंगलों तक में मेहनतकश लड़कियों पर डोरे डाले जाते हैं, ताकि वहां से उड़ाकर उन्हें किसी और देश में पहुंचाया और बेचा जा सके.

यह सब बड़े-बड़े दावे करने वाली एंटी ह्युमन ट्रेफिकिंग ब्यूरो (मानव तस्करी रोधी ब्यूरो) की नाक के नीचे होता है और सारी व्यवस्था धरी की धरी रह जाती है.

आंकड़े बताते हैं कि हजारों की संख्या (10 से 15 हज़ार या इससे भी अधिक) में हर साल लड़कियां सीमा पार कराकर भारत या फिर भारत के बहाने किसी तीसरे देश पहुंचा दी जाती हैं.

विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, नेपाल में देसी-विदेशी तस्करों के कई नेटवर्क काम कर रहे हैं.

तस्करी से जुड़े लोग अपने मक़सद को अंजाम देने में इसलिए भी अधिकांश सफल होते हैं क्योंकि वहां की परिस्थितियां इसके अनुकूल हैं.

ख़ुद नेपाली पुलिस के मुताबिक़, काठमांडू, सिन्धुपाल चौक, कास्की, तनहू, चितवन, रुपनदेही, नवलपरासी, पाल्पा, बारा, बागलुंग, रामझापा, सुनसरी, रोल्पा, कंचनपुर, गुल्मी, श्यांजा, सल्यान, गोरखा, धाधींग, रुकुम, नुअआकोट, सुर्खेत, जमुनी करनालीपुर, गुलरिया, गणेशपुर, धनौरा, मोरंग आदि जिले तस्करी मामलों में ज़्यादा प्रभावित हैं.

नेपाली लड़कियों की तस्करी में प्रमुख गंतव्य और पारगमन देश है भारत

भारत नेपाली लड़कियों की तस्करी और विभिन्न रूप में उनके शोषण का केंद्र तो है ही, उन्हें दूसरे देशों में भेजने का एक प्रमुख ज़रिया भी है.अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों के मुताबिक़, पाकिस्तान, पश्चिमी एशिया, मध्य पूर्व तथा रूस से थाईलैंड तक तस्करी कर लाई गई नेपाली और बांग्लादेशी लड़कियों के लिए एक पारगमन देश भी है.

हालांकि भारत और नेपाल सनातनी मूल के होने के साथ-साथ आपस में प्राकृतिक और पारंपरिक मित्र देश भी हैं.इनका रोटी-बेटी का रिश्ता है.जनकनंदिनी माता सीता नेपाल की बताई जाती हैं.जनकपुर वासी उन्हें जानकी देवी और जानकी मां कहते हैं.

नेपाल और भारत के सीमावर्ती जिलों में तो भारतीयों और नेपालियों में फर्क करना मुश्किल है.

कुछ ही समय पहले तक लिंगानुपात बिगड़ने के कारण भारतीय ख़ासतौर से बिहार, उत्तरप्रदेश और बंगाल के पुरुष नेपाली लड़कियों को अपने यहां लाकर उनसे विवाह करते रहे हैं.कुछेक जगहों पर आज भी यही देखने को मिलता है.

मगर, अब परिस्थितियां काफ़ी अलग हैं.तस्करी, शोषण और देह व्यापार ही मुख्य दृष्टिकोण और कार्य हैं.

हालात बनाते हैं तस्करी को आसान: नेपाल से भारत में तस्करी दरअसल है भी बहुत आसान.भारत-नेपाल की क़रीब 1800 किलोमीटर लंबी खुली और झरझरा (कई जगहों से प्रवेश के विकल्पों के साथ) सीमा इसके लिए मुफ़ीद बनाती है.साथ ही, 1950 की शांति और मैत्री संधि के तहत कोई आव्रजन नियंत्रण (इमिग्रेशन कंट्रोल) न होने के करण दोनों देशों के नागरिक सीमा के पार बेरोक-टोक आ-जा सकते हैं.

इसके अलावा, भारत में प्रवेश के दौरान तस्कर ख़ुद को प्लेसमेंट एजेंसी (नौकरी दिलाने वाली संस्था) के एजेंट जबकि लड़कियों-महिलाओं को भारत में नौकरी के लिए आवेदक दिखाकर ऐसी वैध स्थिति बना देते हैं कि सीमा अधिकारी उन्हें रो नहीं पाते हैं यह जानते हुए भी कि तस्करी हो रही है.

लड़कियां भी सहयोग नहीं करती हैं.यहां तक कि पकड़े जाने पर उन्हें कहाँ जाना था, अपना देश क्यों छोड़ रही थीं, किसके ज़रिए सीमा पर या उसके भीतर पहुँचीं और दलाल के साथ उनका उनका क्या सौदा हुआ था, यह सब भी नहीं बताती हैं.

भारत में घुसने के बाद होता है लड़कियों के इस्तेमाल पर फ़ैसला: पकड़े गए तस्कर और उनके साथ शामिल दलाल बताते हैं कि नेपाल से निकलने से लेकर भारत में तय स्थान या सुरक्षित अड्डों तक पहुंचने तक लड़कियों को यह पता नहीं होता है कि उन्हें किस तरह का काम मिलेगा या किस तरह उनका इस्तेमाल होने वाला है.

उनके सारे दस्तावेज़ (पासपोर्ट आदि) भी दलालों के पास ही होते हैं जो कि नपाल में ही उनसे ले लिए गए होते हैं.

अब लड़कियों के डील-डौल और यौनाकर्षण के आधार पर स्मगलरों के आका तय करते हैं कि किस तरह के काम के लिए और कहाँ उन्हें आगे भेजना है.

फ़ोटो या वीडियो के ज़रिए होता है विदेशों के लिए सौदा: तस्कर मोबाइल फोन से लड़कियों के फ़ोटो या वीडियो विदेश में बैठे दलालों भेजते हैं जहां उनकी बोली लगती है.सौदा पक्का हो जाने पर वीजा की प्रति आ जाती है, और फिर संबंधित स्थान के लिए लड़कियों को रवाना कर दिया जाता है.

यह सब ज़्यादातर आजकल दिल्ली के उन ब्यूटी पार्लरों और मसाज सेंटरों से होता है, जिन्हें नेपाली लोग चलाते हैं.

मसाज सेंटरों और कोठों के लिए बेची जाती हैं लड़कियां: जो लड़कियां विदेश नहीं जा पातीं या जिनका वहां के लिए किसी कारणवश (जैसे पसंद नहीं आने या कोई अड़चन पैदा होने पर) सौदा नहीं हो पाता है तो उन्हें बड़े शहरों में मसाज पार्लर के नाम से छुपे ‘सेक्स होम’ या फिर खुले रूप में चलने वाले चकलाघरों यानि, कोठों पर बेच दिया जाता है.

ऑर्केस्ट्रा संचालक खरीदते हैं लड़कियां: ऑर्केस्ट्रा में काम करने वाली नेपाली लड़कियां ख़रीदकर लाई जाती हैं.डांस की आड़ में उनसे देह व्यापार का धंधा करवाया जाता है.

ज्ञात हो कि पिछले क़रीब दो दशक से बिहार और यूपी (ख़ासतौर से पूर्वी उत्तरप्रदेश) में विवाह या अन्य ख़ुशी के अवसरों पर प्रदर्शन करने वाले पारंपरिक ‘नाच के गिरोह’ (जो कि भारत में उत्तर मध्यकाल में शुरू हुए थे) या नचनियों की मंडली (जिनमें लौंडों यानि, पुरुष नचनिये या हिजड़ों के नाच-गान के साथ नाटक आदि भी दिखाए जाते थे) की जगह ऑर्केस्ट्रा (हालांकि कुछेक नाच के गिरोह अब भी अस्तित्व में हैं) ने ले ली है.

इन ऑर्केस्ट्रा में नेपाली लड़कियां पसंद की जाती हैं.मगर, वास्तव में ये देह व्यापार का ज़रिया हैं.

दरअसल, डांस प्रोग्राम के लिए साटा (अनुबंध) तो शादी-ब्याह के मौक़ों पर ही होता है, जबकि बाक़ी दिनों में ख़ाली या बेकार बैठना होता है.इस नुकसान की भरपाई के लिए ऑर्केस्ट्रा ऑपरेटर लड़कियों से वेश्यावृत्ति करवाते हैं.

प्लेसमेंट एजेंसियां खरीदती-बेचती हैं नेपाली लड़कियां: भारत के दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चंडीगढ़ और पटना आदि शहरों में घरेलू मेड या नौकरानी और नौकर के तौर पर नेपाली लड़कियों-महिलाओं और बच्चों की भारी मांग रहती है.यहां इनकी आपूर्ति प्लेसमेंट एजेंसियां करती हैं.

इसके लिए प्लेसमेंट एजेंसियां पहले तो इन्हें तस्करों से खरीदती हैं.फिर, अपने ग्राहक परिवारों से ‘सिक्योरिटी मनी’ के नाम पर एक तय तनख्वाह पर उनको सुपुर्द कर देती हैं.

यह सिक्योरिटी डिपॉजिट दरअसल, नौकर-नौकरानी की एक तरह से क़ीमत होती है, जिसे चुकाकर लोग उन्हें ख़रीद लेते हैं, और उनके साथ मनमानी व शोषण करते हैं.

हद तो यह है कि उनको मिलने वाले मामूली वेतन (न्यूनतम पारिश्रमिक) में से भी एजेंसियां अपना कमीशन रख लेती हैं.

कई बार काम करने वाली लड़कियों के परिवारों तक यह वेतन नहीं पहुंचता, वह भी गबन कर लिया जाता है.

इस्लामी देशों के लिए सेक्स की मशीन हैं नेपाली लड़कियां

अरबी साहित्य कहता है कि स्त्रियों की आत्मा उनकी योनि में होती है.यहां उन्हें निम्फोमेनिक यानि, ‘सेक्स के लिए हमेशा बेताब’ दिखाया गया है.व्यवहार में भी अरब देश ऐसा ही मानते हैं, और औरत को महज़ सेक्स की मशीन समझते हैं.

उनके हिसाब से औरत तो मर्दों के मज़े के लिए बनी है.

ख़ासतौर से, खाड़ी देश, जो अय्याशी का सामान ख़रीदने में सक्षम हैं, वे ‘सेक्स स्लेव’ या रखैलों ख़ूब पैसा ख़र्च करते हैं.

नेपाली लड़कियां तो उनके लिए ‘सस्ता और टिकाऊ’ माल होती हैं.

ज्ञात हो कि नेपाली लड़कियां-महिलाएं कभी भारत की सिर्फ़ ‘रेड लाइट एरिया’, जैसे कोलकाता के सोनागाछी, मुंबई के कमाठीपुरा और दिल्ली के जीबी रोड आदि की तंग गलियों में सजती-बिछती थीं.मगर, विदेश जाना आसान हुआ, तो खाड़ी देशों के लिए भी इनका रास्ता खुल गया.

अब तो तस्करों के निशाने पर जहां 16 साल से लेकर 40 साल तक की वे लड़कियां-महिलाएं हैं, जो नौकरी व अच्छी ज़िन्दगी के झांसे में आ सकती हैं वहीं, ओमान, मलेशिया, युएई, क़तर, किर्गिस्तान, कुवैत, सऊदी अरब, सीरिया और लेबनान में इनके हलके रंग की त्वचा या गोरी चमड़ी लोगों को बहुत भाती है.

यहां ख़रीदकर लाई अथवा कथित प्लेसमेंट एजेंसियों के ज़रिए नौकरी के बहाने मंगाई गई (तस्करों के ज़रिए पहुंचाई गईं) नेपाली लड़कियां क़रार के हिसाब से या हुस्नो जमाल (यौनाकर्षण) के ताज़ा रहने तक इस्तेमाल की जाती हैं और फिर वापस कर दी जाती हैं, या घरों में या कारखानों में उनसे बतौर मजदूर काम लिया जाता है.

इस्लामी भाषा में इन्हें लौंडी या बांदी कहा गया है.

हालांकि नेपाल सरकार ने अपने नागरिकों भारतीय हवाई अड्डों से कुछ देशों की यात्रा करने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) ज़रूरी कर दिया है.लेकिन, तस्करों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है; और वे लड़कियों को पहले उन देशों में भेजते हैं जो ऐसी सूची से बाहर हैं, और फिर वहां से उन्हें वहीं (उन्हीं खाड़ी और अफ़्रीकी देशों में) पहुंचा दिया जाता है जहां भेजा जाना तय होता है.

श्रीलंका, चीन और अमरीका में भी है नेपाली लड़कियों की मांग

खाड़ी देशों के अलावा, तस्करी की इस कड़ी में नेपाली लड़कियों को चीन, श्रीलंका और अमरीका भी भेजा जाता है जहां उनसे ज़िस्मफरोशी कराई जाती है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार, नेपाल में कई चीनी लड़के भी सक्रिय हैं.वे लड़कियों को प्यार और शादी के जाल में फांसकर उन्हें नेपाल से बाहर निकालने का मार्ग तैयार करते हैं.उनकी तस्करी कर उन्हें गंतव्य तक पहुंचा भी दिया जाता है लेकिन, नेपाल सरकार की नीतियों और निर्देशों के चलते ऐसे मामलों को दबा दिया जाता है.

इसी तरह, खाड़ी देशों के लिए लड़कियों की तस्करी का एक सुगम मार्ग काठमांडू-नई दिल्ली-मिजोरम-श्रीलंका मार्ग भी है, जिसमें ज़्यादा अच्छे सौदे और ज़्यादा लाभ के लोभ में तस्कर कुछ लड़कियों को श्रीलंकाई दलालों के हाथों बेच देते हैं.

कुछ लड़कियां ख़ासतौर से श्रीलंका के लिए भेजी जाती हैं.

संयुक्त राज्य अमरीका के लिए नेपाली लड़कियों को नई दिल्ली-मास्को-स्पेन-दक्षिण अमरीका के रास्ते भेजा जाता है.

कितना अज़ीब है यह.ऐसा लगता है कि तस्करी और नेपाल, दोनों शब्द पर्यायवाची हो गए हों.पिछले कुछ वर्षों से एक जुमला मशहूर हो चला है- सूर्य अस्त नेपाल मस्त.इस मस्ती या अंधेपन पर भी चिंतन होना चाहिए, यह भी तस्करी को बढ़ावा देने में मददगार बनता है.

सच के लिए सहयोग करें


कई समाचार पत्र-पत्रिकाएं जो पक्षपाती हैं और झूठ फैलाती है, साधन-संपन्न हैं। इन्हें देश-विदेश से ढेर सारा धन मिलता है। इनसे संघर्ष में हमारा साथ दें। यथासंभव सहयोग करें

रामाशंकर पांडेय

दुनिया में बहुत कुछ ऐसा है, जो दिखता तो कुछ और है पर, हक़ीक़त में वह होता कुछ और ही है.इस कारण कहा गया है कि चमकने वाली हर चीज़ सोना नहीं होती है.इसलिए, हमारा यह दायित्व बनता है कि हम लोगों तक सही जानकारी पहुंचाएं.वह चाहे समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, धर्म, पंथ, विज्ञान या ज्ञान की अन्य कोई बात हो, उसके बारे में एक माध्यम का पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष होना ज़रूरी है.khulizuban.com का प्रयास इसी दिशा में एक क़दम है.

Related Articles

One Comment

Leave a Reply

Back to top button
Subscribe for notification

Discover more from KHULIZUBAN

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading