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समसामयिक

सीबीआई में अपने ही लोग बेगाने क्यों हैं?

केन्द्रीय बलों से आए कर्मियों की तरह राज्यों के पुलिसकर्मियों को सीबीआई में समान वित्तीय लाभ मयस्सर नहीं है...

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भारत सरकार के कार्मिक, पेंशन तथा लोक शिक़ायत मंत्रालय के कार्मिक विभाग (जो पीएमओ यानि, प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत आता है) ने सीबीआई में एक ऐसी रेखा खींच रखी है, जिसकी एक ओर तो वे कर्मचारी-अधिकारी हैं, जो मूल रूप से सीबीआई के (सीधी भर्तीवाले) हैं, और साथ ही केन्द्रीय पुलिस बलों से प्रतिनियुक्ति पर आकर सीबीआई में मर्ज हुए कर्मी हैं, तो दूसरी ओर राज्यों की पुलिस से भी प्रतिनियुक्ति पर (केन्द्रीय पुलिस बलों की तरह) सीबीआई में आकर इसमें मर्ज या विलय हुए कर्मचारी हैं.

सीबीआई, कार्मिक विभाग, अर्धसैनिक बल और राज्य पुलिस (प्रतीकात्मक)

अपना वह होता है, जो हमारे हित की बात करता है, जबकि पराया स्वहित या दूसरे (हमारे हित के बजाय) के हित की बात सोचता है.अपने और पराये में यही भेद ऐसा होता है, जिसे कई लोग जीवनभर नहीं समझ पाते हैं और परेशानी में पड़े रहते हैं.मगर, सीबीआई में तो यह खुल्लमखुल्ला हो रहा है.यहां अपने ही मुसीबत का सबब हैं.

सीबीआई जो कि एक लोकतांत्रिक और समानता के अधिकारों वाले देश की सबसे बड़ी एजेंसी है, दूसरों को इंसाफ़ दिलाने वाली है, जबकि इसके अपने ही कुछ लोग असमानता और भेदभाव के शिकार हैं.

दरअसल, भारत सरकार के कार्मिक, पेंशन तथा लोक शिक़ायत मंत्रालय के कार्मिक विभाग (जो पीएमओ यानि, प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत आता है) ने सीबीआई में एक ऐसी रेखा खींच रखी है, जिसकी एक ओर तो वे कर्मचारी-अधिकारी हैं, जो मूल रूप से सीबीआई के (सीधी भर्ती वाले) हैं, और साथ ही केन्द्रीय पुलिस बलों से प्रतिनियुक्ति पर आकर सीबीआई में मर्ज हुए कर्मी हैं, तो दूसरी ओर राज्यों की पुलिस से भी प्रतिनियुक्ति पर (केन्द्रीय पुलिस बलों की तरह) सीबीआई में आकर इसमें मर्ज या विलय हुए कर्मचारी हैं.


यहां राज्यों के पुलिस बल से आकर सीबीआई में मर्ज हुए कर्मी दोयम यानि, दूसरे दर्ज़े के कर्मी हैं.इनकी स्थिति ठीक नहीं है.

सीबीआई में विलय हुआ मानो क़िस्मत ही फूट गई

अलग-अलग राज्यों की पुलिस से प्रतिनियुक्ति पर आकर सीबीआई (केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो) में मर्ज हुए कर्मियों की तो मानो क़िस्मत ही फूट गई.न वे इधर के रहे न उधर के.दोनों विभागों में से किसी का भी लाभ उन्हें नहीं मिलता है.

ज्ञात हो कि सीबीआई में अलग-अलग पुलिस और अर्धसैनिक बलों के कर्मचारी-अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर आते हैं.इनमें केन्द्रीय बलों जैसे सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी, सीआइएसएफ और आरपीएफ के कर्मियों के अलावा राज्यों के पुलिसकर्मी भी होते हैं, जो (कई, अधिकांश) सीबीआई में मर्ज या विलय हो जाते हैं.मगर, सरकार इन दोनों को समानता की नज़र से नहीं देखती.


केन्द्रीय बलों से आए कर्मियों को सीबीआई के मूल कर्मियों के समान जहां तमाम सुविधाएं और अवसर मिल जाते हैं वहीं, राज्य पुलिस से आए कर्मियों के साथ दोहरा मापदंड अपनाया जाता है.इन्हें सबसे बड़ा वित्तीय लाभ या प्रोत्साहन, जिसे हम एमएसीपी के नाम से जानते हैं, वह नहीं मिलता.

जैसा कि हम जानते हैं, पद ख़ाली न होने के कारण कई बार कर्मचारियों को पदोन्नति का मौक़ा नहीं मिलता.ऐसे में, कर्मचारियों को वित्तीय प्रोत्साहन (फाइनेंशियल इंसेंटिव) देने के लिए सुनिश्चित करियर प्रगति योजना या एमएसीपी (MACP- Modified Assured Career Progression) की योजना है.इसमें 10, 20 और 30 वर्ष की नौकरी पर वित्तीय उन्नयन देने की बात है.

यह वित्तीय लाभ अगले ग्रेड पे का दिया जाता है.सीबीआई में आए राज्य पुलिस के कर्मी इससे वंचित रहते हैं.

राज्य पुलिस के कर्मियों पर दोहरी मार पड़ती है.पदोन्नति की समस्या के साथ-साथ इन्हें वित्तीय हानि भी होती है.

यह दोहरा नुकसान केवल और केवल दोहरे रवैये के कारण होता है.राज्य पुलिस के कर्मियों को वह चीज़ नहीं मिलती, जिसके वे हक़दार हैं.मगर, कोई चारा भी नहीं है अपने भाग्य को कोसने के सिवा.सीबीआई की नौकरी में वे बहुत घुटन महसूस करते हैं.

अदालतों ने बताया है ग़लत और अन्यायपूर्ण

सीबीआई में मर्ज (विलय) हुए राज्यों के पुलिसकर्मियों को एमएसीपी का लाभ उनका वाज़िब हक़ है.मगर, केंद्र सरकार यह उन्हें नहीं दे रही है, जबकि कई अदालतें इस बाबत स्पष्ट आदेश/निर्देश दे चुकी हैं.

अदालतों ने कहा है कि इन्हें एमएसीपी के लाभ से वंचित रखना ग़लत है, और यह देश की विधिक समानता के भी ख़िलाफ़ है.मगर, सरकार ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया.


यही वज़ह है कि कुछ सीबीआई कर्मियों द्वारा देश के अलग-अलग हिस्सों की अदालतों मसलन केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण या कैट (सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल- CAT) हाईकोर्ट में बरसों की लड़ाई लड़ने के बाद उनके पक्ष में निर्णय तो आए पर, उन्हें अब तक न्याय नहीं मिल पाया है.

विधि विशेषज्ञों के मुताबिक़, राजस्थान और दिल्ली हाईकोर्ट के इस संबंध में कर्मचारियों के पक्ष में फैसले आने के बाद केंद्र सरकार विरोध में सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी मगर, वहां भी कोर्ट ने उसे आड़े हाथों लेते हुए उसकी याचिका (स्पेशल लीव पेटिशन- एसएलपी) खारिज़ कर दी थी.

अदालती आदेश/फैसले की कॉपी

उनका कहना है कि सरकार इसे ‘मूंछ की लड़ाई’ मानती है, जबकि यह तो न्याय और समानता के अधिकारों की बात है.यह ‘केंद्रीय बल बनाम राज्य पुलिस बल’ से संबंधित मामला भी नहीं है, बल्कि केंद्र के सभी कर्मचारियों, जो मूल रूप से या प्रतिनियुक्ति पर आकर मर्ज होने के बाद केंद्र सरकार के तहत काम करते हैं, के साथ एक तरह के बर्ताव की बात है.


सरकार को अपनी फ़ज़ीहत कराने के बजाय इसे तत्काल लागू कर देना चाहिए.

केंद्र सरकार की दलील सरासर ग़लत, सोच पर सवाल

केंद्र सरकार का कार्मिक मंत्रालय/विभाग (डीओपीटी) मानता है कि जिस दिन राज्य पुलिस बल का कोई कर्मी सीबीआई में मर्ज हुआ है उस दिन से वह सीबीआई का कर्मी है.यानि, विलय की तिथि से ही वह सीबीआई की सेवा या नौकरी में माना जाएगा, भले ही अपने मातृ-संगठन (पेयरेंट डिपार्टमेंट) पहले वह कितने भी साल (10-20 साल या इससे अधिक भी) क्यों न बिता चुका हो.


यह उसकी नई भर्ती या रंगरूट की बहाली के समान है.


विधि विशेषज्ञों के मुताबिक़, यह पुलिसकर्मियों की उस योग्यता और अनुभव का अपमान है, जो उन्होंने वर्षों की मेहनत और सेवा में हासिल किया है.

यहां सरकार उसी आधार को झुठला रही है, जिस आधार पर या जिसकी बदौलत ही राज्य पुलिस के कर्मियों को सीबीआई में मर्ज किया गया है.

ज्ञात हो कि प्रतिनियुक्ति पर लेने से पहले सीबीआई किसी पुलिस कर्मचारी की सर्विस रिकॉर्ड आदि अच्छे से खंगालती है, और पूरी तरह आश्वस्त हो जाने के बाद ही वह उसे अपने यहां बुलाती है.


साथ ही, विलय के वक़्त कर्मचारी की कार्यकुशलता या अच्छे प्रदर्शन (परफार्मेन्स), जो उसने सीबीआई में काम के दौरान किया है, को ही ध्यान में रखा जाता है.

विलय तो आमतौर पर तीन या पांच साल तक सीबीआई में काम करने के बाद होता है.इसलिए, इससे पहले कर्मी के बारे में चाहे जो भी राय हो लेकिन, विलय के बाद तो वह सीबीआई का एक योग्य और अनुभवी कर्मचारी है, जिसने अपनी क़ाबिलियत का यहां (सीबीआई में) बेहतर प्रदर्शन किया है.ऐसे में, किसी प्रकार भी इसे एक नए कर्मचारी के रूप में नहीं समझा जा सकता है, और वित्तीय लाभ से वंचित नहीं रखा जा सकता है.

कानून के जानकारों के अनुसार, सरकार की यह दलील समझ से परे है.यह निहायत ग़लत तो है ही, इसकी सोच पर भी बड़ा सवाल है.

सीबीआई कर्मियों की कार्यक्षमता पर असर

एक समस्या कई समस्याओं को जन्म देती है.और समस्याओं से घिरा होने के कारण व्यक्ति का मनोमस्तिष्क प्रभावित होता है.इससे कार्यक्षमता पर बहुत बुरा असर होता है.ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है.सीबीआई कर्मी भी तो आख़िर इंसान ही हैं.


विशेषज्ञों के अनुसार सज़ा दर (कन्विक्शन रेट या सक्सेस रेट) के मामलों में सीबीआई के पिछड़ने का एक कारण या बड़ा कारण सीबीआई कर्मियों के अंदर की घुटन, कुंठा, संत्रास तथा मानसिक तनाव भी है.यानि, दिलोदिमाग़ पर असर क़ामयाबी पर असर डाल रहा है.

यह समझना कठिन नहीं है कि किसी जांच एजेंसी की किसी टीम का एक सदस्य भी यदि आधे-अधूरे मन से काम करता है, तो सफलता प्रभावित होती है.सीबीआई तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी है.इसका संगठन अमरीकी फेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) से मिलता-जुलता है, और इसकी तुलना विश्व की सर्वश्रेष्ठ जांच एजेंसियों से होती है.

मगर, बीते कुछ सालों में ही देखें तो सज़ा दिलाने के मामले में यह पिछड़ती जा रही है.

पिछले दो-ढ़ाई सालों में सीबीआई की सफलता की दर दो फ़ीसदी और कम हो गई है.यह पांच में से तीन या इससे भी कम मामलों में ही किसी नतीज़े पर पहुंच पा रही है.

पहले जो सज़ा दर 69.83 फ़ीसदी थी वह घटकर 67.56 फ़ीसदी हो गई है.सुसाइड केस (आत्महत्या के मामले) में कन्विक्शन रेट ज़ीरो है.

एक रिपोर्ट में छपे आंकड़ों के मुताबिक़, जांच में कमी और सबूतों के अभाव के कारण सीबीआई के अधिकांश मामले अदालतों में टिक नहीं पा रहे हैं.यह सिर्फ़ छोटी मछलियों को सज़ा दिलवाने तक ही सीमित होकर रह गई है.

ज्ञात हो कि कभी भ्रष्टाचार विरोधी (एंटी-करप्शन) मामलों के लिए देश की सर्वश्रेष्ट जांच एजेंसी मानी जाने वाली सीबीआई अब ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) के मुकाबले कमज़ोर साबित हो रही है.इसके ज़्यादातर मामले ऊपरी अदालतों में खारिज़ हो रहे हैं या फिर आरोपी आसानी से छूट जा रहे हैं.क्या यह चिंता का विषय नहीं है?


दरअसल, हम समस्या की जड़ को नहीं देखते, और एलोपैथी दवाओं की तरह नुकसान की संभावनाओं को दरकिनार कर केवल तात्कालिक लाभ की ओर ध्यान लगाते हैं, जिसका नतीज़ा हमेशा बुरा ही होता है.वही हो रहा है.

यह कितना दुखद विषय है कि वर्षों पुरानी समस्या से ग्रसित लोगों की पीड़ा नहीं सुनी जा रही है.कई आशावादी लोग, जो नरेंद्र मोदी की कथित प्रगतिशील और न्यायशील उम्मीदें लगाए बैठे थे, उनका भी भ्रम टूट रहा है.दूर दूर तक अंधेरा ही अंधेरा है, और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है.

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रामाशंकर पांडेय

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