सभ्यता एवं संस्कृति
यज़ीदी: पश्चिम एशिया में हिन्दुओं का एक 'खोया हुआ पंथ'

यज़ीदी न तो मुसलमान हैं, न ईसाई हैं और न ही वे पारसी हैं.यज़ीदी केवल और केवल सनातन हिन्दू हैं, जो हज़ारों साल पहले पश्चिम एशिया में जाकर बस गए थे.और दूसरे मतों का उन पर जो थोड़ा बहुत प्रभाव दिखाई देता है वह, लंबे समय और बदलती परिस्थितियों का परिणाम है.इसे दूसरे पंथ के लोगों से निकटता और उनके प्रति सम्मान के रूप में समझा जा सकता है.
हम सभी जानते हैं कि कुछेक बातें किसी वस्तु या व्यक्ति के सम्पूर्ण चरित्र को परिभाषित नहीं करतीं.समग्र में जिस चीज़ की अधिकता होती है, या मूल रूप में जो ज़्यादा प्रभावकारी होती है, उसे ही निर्णायक या नियामक समझा जाता है.
भारत में हिन्दुओं के पीर-मज़ारों के दर्शन और क्रिसमस की पार्टियों में उनकी हिस्सेदारी या उमड़ने वाली भीड़ को देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि हिन्दू असली हिन्दू नहीं हैं.इसी प्रकार यज़ीदियों को लेकर भी दुनियाभर में संशय बरक़रार है.अलग-अलग विचार हैं.
कुछ लोग इन्हें पारसी बताते हैं.कुछ लोग आरंभिक ईसाई मानते हैं तो कुछ इन्हें 12 वीं सदी का सूफ़ी मुसलमान भी कह देते हैं.
ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या ईद मिलन समारोह या इफ़्तार की दावत में जालीदार टोपी पहन लेने से क्या कोई मुसलमान बन जाता है? या दिवाली या होली में शरीक़ होने वाले मुसलमान और ईसाई भी क्या हिन्दू हो जाते हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं.हमारे लोकतांत्रिक देश में इसे आपसी भाईचारे या गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतीक के रूप में समझा जाता है.
सच्चाई तो यह है कि जैसे भगवा वस्त्र पहन लेने से कोई व्यक्ति हिन्दू नहीं बन जाता, वैसे ही दाढ़ी और टोपी में भी कुरान, अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए बग़ैर कोई मोमिन नहीं बन सकता.वह क़ाफ़िर ही रहता है.
मगर यज़ीदी पक्के उसूलों वाले हैं.उनका ईमान पक्का है.यही कारण है कि तमाम झंझावातों के गुज़र जाने के बावजूद वे बदले नहीं हैं, उन्होंने अपनी जड़ को कसकर पकड़ रखा है भारतीय देवदार या कैलिफोर्नियाई हाइपर्शन की जितनी गहराई तक.
अपने आसपास के माहौल से बिल्कुल अलग और निराले एवं अपने आप में रहने वाले लोग हैं.’उधो का लेना न माधो को देना’.आख़िर कौन हैं ये? ये वास्तव में क्या हैं- पारसी, ईसाई, मुस्लिम या फिर सनातनी हिन्दू हैं, इस पर तुलनात्मक चर्चा आवश्यक है.
यज़ीदी क्या पारसियों से जुड़े हैं?
यज़ीदी पुरातन पारसी हैं, यह कहना सरासर ग़लत होगा क्योंकि दोनों धर्मों में कोई मूलभूत समानता नहीं है.इनकी मान्यताओं में इतना फ़र्क है कि कहीं भी ये एक दूसरे से मिलते नहीं हैं.
पारसी धर्म एकेश्वरवादी है, जबकि यज़ीदी बहुदेववादी हैं.इनके एक मुख्य ईश्वर के अलावा उसके सात अलग-अलग अवतार भी हैं.
पारसियों में ईश्वर ‘अहुर मज़्दा’ सृष्टि का रचयिता और पालनकर्ता भी है, जबकि यज़ीदी मानते हैं कि उनके ईश्वर ‘यजदान’ ने केवल सृष्टि को रचा है.सृष्टि का पालन सात अवतरित देवता या भगवान करते हैं, जिनमें मयूर देवता प्रमुख है.इसे ये ‘मेलेक ताउस’ कहते हैं.
पारसियों के ईश्वर का एक दूत (संत ज़रथुष्ट्र) या पैग़म्बर भी है. जो उन तक संदेश पहुंचाता और राह दिखाता है.दूसरी तरफ़, यज़ीदियों के ईश्वर का कोई संदेशवाहक (या भविष्यवक्ता) नहीं है.
पारसियों में ईश्वर की पूजा का अलग ही विधान है.वे अग्नि को ईश्वरपुत्र (अहुर मज़्दा का बेटा) मानते हैं और उसी के माध्यम से या उसके सामने खड़े होकर ईश्वर की आराधना करते हैं.
यज़ीदियों में न तो कोई ईश्वर का बेटा है और न ही कोई माध्यम.
ये यजदान को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन, पूजते हैं मयूर देवता (मलक ताउस) को.
दरअसल, इनका मानना है कि यजदान इतना ऊपर और पवित्र है कि इसकी सीधी पूजा नहीं की जा सकती.इसके बदले इसके अवतरित रूप मयूर देवता की पूजा हो सकती है.यानि, मयूर देवता की पूजा ही यजदान की पूजा है.
ये मोर देवता के साथ-साथ उसके मोरपंख को भी पूजते हैं.
कुछ लोगों की दलील है कि पारसियों में जैसे स्पेन्ता अमेशा (अमृतमयी उर्जा का नाम) नामक सात (या छह) फ़रिश्ते (देवदूत या ईशदूत) हैं वैसे ही यज़ीदियों के भी सात देवता हैं.परंतु, यहां ध्यान रखने की बात यह है कि यज़ीदियों के सात फ़रिश्ते या देवदूत पारसियों के देवदूतों से अलग हैं.
यज़ीदियों के सात फ़रिश्ते या देवता ईश्वर यजदान के अवतरित रूप हैं, और इनकी (ख़ासतौर से प्रमुख देवता मलक ताउस की) पूजा होती है, जबकि स्पेन्ता अमेशा के साथ ऐसी बात नहीं है.
एक शोध में यह साबित हो चुका है कि यज़ीदियों का फारस या ईरान के यज्द शहर से कोई लेना-देना नहीं है.
उनका संबंध (ऐसा कहा गया है) फ़ारसी भाषा के इजीद शब्द से है, जिसका मतलब फ़रिश्ता होता है.और इजीदिस का मतलब होता है ‘देवता का उपासक’.
यज़ीदी भी ख़ुद को देवता का उपासक ही मानते हैं.तो क्या केवल इस फ़ारसी शब्द (इजीद और इजीदिस) के आधार पर यज़ीदी धर्म का मूल पारसी धर्म को मान लिया जाए? इस तरह तो पारसियों का धर्मग्रंथ ‘जेंद अवेस्ता’ ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है.ईरान को ऋग्वैदिक काल में पारस या पारस्य कहा जाता था.
कई विद्वानों के मुताबिक़, पारसी भारतीय और सनातन मूल के हैं.
ऐसे में तो यज़ीदी भी सनातन हिन्दू ही हुए, जैसा कि अधिकांश लेखक-विचारक मानते हैं.
यज़ीदी परंपरा क्या ईसाइयत पर आधारित है?
कई पश्चिमी और वामपंथी मिजाज़ लेखक-विचारक कहते हैं कि यज़ीदियों की कई मान्यताएं ईसाईयों से मिलती हैं.उनके अनुसार, यज़ीदी जिस मोर पक्षी की पूजा करते हैं वह ईसाइयत के शुरुआती दिनों में अमरत्व का प्रतीक माना जाता था.
ऐसे में तो यहां ईसाइयत नहीं, बल्कि इसका श्रेय यहूदियों को देना चाहिए क्योंकि इनसे पहले वे ही आए थे, और इनके पास जो कुछ भी है वह यहूदियों का ही दिया हुआ है.
मगर, यहूदी भी तब कहां थे.यानि, यज़ीदियों की मानें, तो अरब में इनकी परंपरा 6,763 वर्ष पुरानी है.इस हिसाब से अगर वे ईसा से 4,748 साल पहले से थे, तो यहूदियों से 2,548 साल साल पुराने हुए.
फिर, इस्लाम (इन दोनों- यहूदियों और ईसाईयों के बाद) वज़ूद में आया.
बहरहाल, यज़ीदी ईसाइयत और चर्च का सम्मान करते हैं.वे बाइबल को भी पवित्र ग्रंथ मानते हैं.यज़ीदी लड़कियां अपने मंदिर में शादी के बाद चर्च भी जाती हैं.
कई लोग इसको भी उनके ईसाइयत में विश्वास और संबंध के रूप में देखते हैं, जो कि समझ से परे है.यह आस्था है, या सर्वधर्म समभाव है या फिर कुछ और है इस सन्दर्भ में कुछ विचारकों का कहना है कि अकेली जिह्वा जैसे बत्तीस दांतों के बीच रहती है, वैसे ही शांत और एकांतप्रिय यज़ीदी आक्रामक और विस्तारवादी इब्राहिमी पंथों के बीच बहुत मुश्किल माहौल में सदियों से रहते आ रहे हैं.
वे जाएं भी तो कहां?
उपेक्षा, अपमान और प्रताड़ना ही उनकी नियति है.
एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि ख़ुद ईसाई यज़ीदियों को पसंद नहीं करते.उन्हें शैतान का पुजारी मानकर उनसे नफ़रत करते हैं.
दरअसल, यज़ीदियों के भगवान मलक ताउस का एक नाम शायतन भी है, जिसे ग़लती से (अरबी में ग़लत उच्चारण के कारण) शैतान समझ लिया गया है.
अब शैतान चूंकि ‘अल्लाह’ और ‘परमेश्वर’ दोनों का दुश्मन है इसलिए मुसलमानों क साथ-साथ ईसाई भी उन्हें घृणा का पात्र समझते हैं, उनसे वैर-भाव रखते हैं.
यज़ीदी क्या एक इस्लामी फ़िरका हैं?
यज़ीदियों को एक इस्लामी फ़िरका कहना तो दूर, इस्लाम से उन्हें किसी प्रकार भी जोड़ना बिल्कुल जायज़ नहीं है.दरअसल, इस्लाम एक इकलौता ऐसा मज़हब है, जो पैदाइशी मुसलमानों को भी केवल इस आधार पर कौम से खारिज़ कर देता है कि उन्होंने कुरान की किसी आयत का कोई और ही अर्थ लगा लिया है, या उनके हिसाब से कोई हदीस कुछ और बात कहती हो.
यहां यज़ीदियों की तो कौम ही अलग है.वे अल्लाह के बजाय यजदान के उपासक हैं, चित्र-मूर्तिपूजक हैं.यानि ये मोमिन नहीं, बल्कि मुशरिक और क़ाफ़िर हैं.
यज़ीदी एक अलग ही धर्म को मानने वाले लोग हैं, यह बात 12 वीं सदी (सदी के आख़िर में) में ही एक मुस्लिम इतिहासकार अब्द अल-क़रीम अल-समानी ने बाक़ायदा लिखकर स्पष्ट कर दी थी.इसका हश्र क्या हुआ था, यह यज़ीदी ही जानते हैं.
बहरहाल, यज़ीदियों के इतिहास के बारे में आज भी ज़्यादा कुछ पता नही है.फिर भी, कुछ इतिहासकारों-लेखकों ने तीन-चार सदियों (ख़ासतौर से 12 वीं सदी से 16 वीं सदी के बीच) की जो कुछ भी जानकारियां इकट्ठी की हैं, उनसे पता चलता है कि 12 वीं सदी की शुरुआत में उमय्यद खानदान से ताल्लुक रखने वाले शेख़ आदि इब्न मुसाफ़िर एक सूफ़ी मुस्लिम नेता या संत के संपर्क में आए थे, जिन्होंने मोसुल (उत्तरी इराक़ का एक शहर, जो नीनवा प्रान्त की राजधानी भी है) के उत्तरी हिस्से लालिश (सिजार की पहाड़ियों) में अपना ठिकाना बनाकर इस्लाम की शिक्षा दी थी.उनकी दी गई शिक्षा को ‘अदविया’ कहा जाता है.
ऐसा प्रतीत होता है कि शेख़ आदि ने यहां झाड़-फूंक और जादू-टोने के ज़रिए असीरियाई, कुर्दों और यज़ीदियों को इस्लाम से जोड़ने के लिए बाक़ायदा अभियान चलाया था.यही कारण है कि बिल्कुल अलग ही प्रवृत्ति के यज़ीदी लोग भी इनके प्रभाव में आकर कुछ इस्लामी तौर-तरीक़े अपनाने लगे, जो अब तक चला आ रहा है.
कुछ लोग तो ख़तना भी कराने लगे थे.
ज्ञात हो कि भारत में भी ऐसा ही हुआ था.इतिहास गवाह है कि किन छद्म तरीक़ों, यानि सूफियाना भजन-कीर्तन और नाच-गाने के साथ-साथ जादू-टोने प्रदर्शनों के ज़रिए उन लोगों को भी इस्लाम की ओर मोड़ दिया गया था, जो इस्लामी शिक्षा के ज़रिए कभी भी संभव नहीं था.पसमांदा मुस्लिम के रूप में कई पिछड़ी या दलित जातियां और कश्मीरी बक्करवाल इसके उदाहरण हैं.
लेकिन, सन 1162 में आदि मुसाफ़िर की मौत के साथ ही उनका यह अभियान भी ख़त्म हो गया था.
हालांकि 13 वीं सदी में फिर शेख़ आदि इब्न मुसाफ़िर के भतीजे के पोते शेख़ हसन ने यज़ीदियों को इस्लामी जगत से जोड़ने के प्रयास किए.
उन्होंने बाक़ायदा एक किताब ‘अल-जीलवा ली-अरबाब अल-खालवा’ लिखी, जो यज़ीदियों के मौखिक धार्मिक पाठ का एक तरह का इस्लामी भाव में लिखित वर्णन था अथवा है.
बताया जाता है कुछ यज़ीदी क्रूसेड (ईसाइयत-इस्लामी युद्ध या धर्मयुद्ध) में सलाउद्दीन की इस्लामी सेना शामिल होकर लड़े थे.
कुछ यज़ीदी अय्युबिद सल्तनत में दूत या राजदूत भी रहे थे.
लेकिन, शेख़ हसन के बहकावे में आकर इन्होने जब जज़िया (इस्लामी शासन को ग़ैर-मुस्लिमों की ओर से दिया जाने वाला कर) देना बंद किया, तो मोसुल का गवर्नर बद्र अल-दीन लूलू बहुत नाराज़ हुआ.
उसके हुक्म पर यज़ीदियों और कुर्दों पर तो अत्याचार हुए ही, शेख़ हसन को पकड़कर उनका सिर काट दिया (सर तन से जुदा कर दिया) गया.यहां तक कि शेख़ आदि इब्न मुसाफ़िर की क़ब्र खोदकर उसमें से हड्डियों को निकालकर जला दिया गया.
इस प्रकार, इस्लाम और यज़ीदियों का कोई मूलभूत नाता नहीं है सिवाय इसके कि वे आदि मुसाफ़िर की इज्ज़त करते हैं.
दरअसल, लालिश में नदी की बगल में स्थित उनकी क़ब्र के साथ ही यज़ीदियों का प्रमुख मंदिर भी है जहां वे हर साल सितंबर महीने में जाते हैं.नदी में स्नान कर मंदिर में पूजा-पाठ करते हैं, और क़ब्र पर भी चले जाते हैं.
इस्लाम तो वह कौम है, जो यज़ीदियों को इमाम हुसैन के क़ातिल यज़ीद इब्न मुआविया से जोड़कर देखता है.उन्हें शैतान या इब्लीस का पुजारी मानकर उनसे नफ़रत करता है.
कई बार उन्हें मिटाने की कोशिश हो चुकी है.इस सिलसिले में इतिहास में दर्ज़ विभिन्न घटनाओं में सन 2014 तक के अबू बक्र अल-बगदादी के इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (आईएसआईएस) के कारनामों को भी जोड़ दें, तो उन पर अब तक कुल 73 बार अत्याचार हुए हैं, उनका नरसंहार और पलायन हुआ है.मगर, तमाम थपेड़ों के बाद भी इस्लाम की धरती पर इस धर्म ने ख़ुद को बचाया हुआ ही नहीं है, बल्कि फलफूल भी रहा है.
यज़ीदी क्या पुरातन हिन्दू हैं?
यज़ीदियों को देखें तो उनमें थोड़ी बहुत स्थानीय परंपरा की झलक ज़रूर दिखाई देती है लेकिन, बाक़ी सब कुछ उनका भारतीय ही है.इनके मंदिर, व्रत-उपवास, पूजा-विधि, मुंडन, विवाह संस्कार आदि तो हिन्दुओं से जोड़ते ही हैं, इनका ईश्वरीय स्वरुप, धार्मिक सिद्धांत या मान्यताएं भी पुरातन हिन्दू या सनातनी हैं.
कुछ विद्वान यज़ीदियों को मेसोपोटामिया सभ्यता का असली वंशज मानते हैं.उनके अनुसार, पुराने समय में मेसोपोटामिया और भारत के व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध थे.वहां के लोग यहां और यहां के लोग वहां आते-जाते रहते थे.ऐसे में, यज़ीदियों में भारतीय धार्मिक विश्वास का पाया जाना कोई हैरानी की बात नहीं है.
इतिहास के शोधार्थी श्रीकांत तलगेरी के सिद्धांत के अनुसार, ऋग्वेद पूर्व के कालखंड से ही अनेक हिन्दू समूह अफ़ग़ानिस्तान और यूरोप की ओर जाने लगे थे.इसी कारण अनेक यूरोपीय संस्कृतियों के मूल में हिन्दू संस्कृति के छोटे-बड़े कई पदचिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं.जैसे- पार्थियंस, पर्शियन, पख्तून, बलूची, किवास आदि.
यज़ीदी भी ऐसा ही एक समूह हैं, जो इराक़, सीरिया, तुर्की, जर्मनी, आर्मेनिया, रूस, अमरीका आदि में रहते हैं.
बेल्जियम के मशहूर लेखक कोनराड एल्स्ट (Koenraad Elst) तलगेरी की इस राय से सहमत हैं.
कई अन्य लेखकों-विचारकों कहना है कि यज़ीदी मुस्लिम, ईसाई या पारसी नहीं हैं, बल्कि उनका ख़ुद का अपना एक यज़ीदी पंथ है, जो हिन्दू धर्म के बहुत क़रीब है.इन्हें पश्चिम एशिया में हिन्दुओं का एक ‘खोया हुआ पंथ’ कह सकते हैं.
यज़ीदी और हिन्दू धर्म में समानताएं
1. यज़ीदी जिस मोर पक्षी को अपना भगवान मेलेक ताउस (पंख फैलाकर नाचता हुआ मोर जो कि इनकी मान्यताओं के अनुसार फ़रिश्तों का राजा और सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक है) बताते हैं, और पूजते हैं वह भारत में दो भगवानों से जोड़कर देखा जाता है- भगवान श्रीकृष्ण और दक्षिण भारत के प्रसिद्द देवता मुरुगन.
इस मुरुगन या शिवपुत्र कार्तिकेय के अन्य नाम सुब्रह्मण्यम, स्कंद और षन्मुख भी हैं.
मज़े के बात यह भी है कि यज़ीदी एशिया के उस क्षेत्र में जहां वे रहते हैं, मोर पाया ही नहीं जाता.यह भारत में पाया जाता है.
2. यज़ीदी हिन्दुओं की तरह ही सूर्य की उपासना करते हैं.अपने पूजाघरों में ये 21 किरणों वाला पीला (पीले रंग का) सूर्य बनाते हैं.
इनमें भी सूर्योदय और सूर्यास्त का समय पूजा या प्रार्थना के लिए महत्वपूर्ण होता है.सूर्य की दिशा (पूर्व दिशा) पवित्र दिशा है.
3. सनातन हिन्दू धर्म में जिस प्रकार सप्तऋषियों का महत्त्व है और उनके नाम पर एक तारामंडल का नाम है, उसी प्रकार यज़ीदियों में भी सात फ़रिश्तों या ईश्वरीय दूतों (ईश्वर के रूप में अवतरित और पूज्य) का ज़िक्र है.
यज़ीदी मान्यताओं के अनुसार, ये अवतरित ताक़तें ही संसार का पालन और रक्षा करती हैं.
4. जैसे भारतीय एक थाल में ज्योति जलाकर देवी-देवताओं की आरती व पूजा करते हैं वैसी ही आराधना का विधान यज़ीदियों में है.
पवित्र मौकों पर यज़ीदी औरत और मर्द, दोनों ज्योति जलाकर अपने देवता की आरती-पूजा करते हैं.
5. हिन्दुओं की तरह ही यज़ीदी भी बहुदेववादी हैं.वे भिन्न-भिन्न देवताओं की मूर्तियों की पूजा करते हैं.
6. यज़ीदियों में भी हिन्दुओं जैसी माथे पर तिलक लगाने की परंपरा है.दरअसल, हिन्दुओं की तरह ये भी भौंहों के बीच के स्थान को पवित्र मानकर वहां तिलक जैसा कोई द्रव्य लगाते हैं.
औरतों के माथे पर लगा द्रव्य बिंदी जैसा प्रतीत होता है.
7. भारतीयों की तरह यज़ीदी भी वास्तुशास्त्र को मानते हैं.इनके धार्मिक भवनों के ऊपर भारतीय मंदिरों के जैसे ही ऊंचे-ऊंचे गोपुरम या गोपुर (शिखर, विमानम) बनाए जाते हैं.
8. भारत में नाग देवता माने जाते हैं.नागपंचमी के दिन इनकी पूजा होती है.कई स्थानों पर यहां नाग मंदिर भी मिलते हैं.
यज़ीदियों में भी नाग का बड़ा महत्त्व है.इनके मंदिरों के प्रवेशद्वार पर नाग की आकृति बनी होती है.
9. भारत में प्रचलित मयूर दीपों या समाई (स्टैंडयुक्त पंचमुखी या चौमुखी दीया) के जैसे दीपकों का महत्त्व यज़ीदियों में भी देखने को मिलता है.इनके धार्मिक भवनों में यही दीपक या दीया जलता है.
10. हिन्दुओं में जो जाति प्रथा या वर्ण-व्यवस्था है कमोबेश उसी तरह की जाति प्रणाली और गोत्र परंपरा यज़ीदियों में भी देखने को मिलती है.
11. यज़ीदी हिन्दुओं की तरह ही अपना धर्म बदलने या दूसरों को धर्मांतरित करने की धारणा नहीं रखते.वे कठोरता से यह मानते हैं कि यज़ीदी जन्मजात (पैदाइशी) ही होता है, और किसी दूसरे धर्म का व्यक्ति यज़ीदी नहीं नहीं बन सकता.
हिन्दुओं की तरह ये भी धर्मविमुख व्यक्ति को ‘धर्म निकाला’ (धर्म से बाहर) कर देते हैं.मान्यता के अनुसार, ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता.
12. हिन्दुओं में मरने के बाद शरीर को जलाने या उसकी समाधि बनाने की परंपरा है.लगता है कि यज़ीदियों ने समाधि बनाना बेहतर समझा है और कर्मकांड में वे इसी प्रक्रिया को अपनाते हैं.
13. यज़ीदी हिन्दुओं की तरह भगवान को नमस्कार (दोनों हाथ जोड़ने), यज्ञ, पूजा-पाठ आदि करते हैं.साथ ही, पृथ्वी या भूमि, जल और अग्नि में थूकने को पाप समझते हैं.
14. हिन्दुओं में जैसे गंगाजल या अन्य नदियों के जल से शुद्धि का विधान है, वैसे ही यज़ीदियों में भी जल द्वारा शुद्धिकरण की परंपरा है.
कई लोग इसे बपतिस्मा समझते हैं, जो कि सही नहीं है.हालांकि बपतिस्मा भी परंपरागत ‘जल से शुद्धिकरण’ की प्रक्रिया का ही दूसरा नाम है, जिसको इब्राहिमी मज़हबों में सबसे पहले यहूदियों ने हिन्दुओं से प्रभावित मांडेवादियों से (एक रस्म के रूप में) प्राप्त किया था.
15. हिन्दू धर्म की तरह यज़ीदी भी कर्मों के आधार पर स्वर्ग और नरक जाने की मान्यता में विश्वास रखते हैं.
16. हिन्दुओं की तरह यज़ीदियों में भी धार्मिक संस्कार जैसे मुंडन (बच्चों के पैदा होने के कुछ सालों बाद और वयस्कों के विभिन्न अवसरों पर सिर के बाल हटाने या साफ़ करने की रस्म), निराहार व्रत, मंदिर में विवाह जैसी परंपरा है.
17. यज़ीदियों में हिन्दुओं की तरह धार्मिक मेले व उत्सव मनाने की परंपरा है.ये भी होली, दिवाली आदि त्यौहार मनाते हैं.
हिन्दुओं की तरह ही यज़ीदी भी विस्तारवाद और हिंसा से दूर शांत-एकांत स्वभाव के लोग हैं.ये सभी धर्मों-पंथों का आदर करते हैं और उनसे मिलजुलकर रहने का प्रयत्न करते हैं.फिर भी, ये अपमान, भेदभाव और अत्याचारों के शिकार होते रहते हैं.नरसंहार और पलायन के कारण इनकी आबादी में भारी गिरावट दर्ज़ की गई है.कुछ दशक पहले दुनियाभर में फैले यज़ीदी जो क़रीब 15 लाख की तादाद में पाए जाते थे, अब वे घटकर आधे यानि, 7-8 लाख ही रह गए हैं.मानव और मानवता की बात करने वाले संयुक्त राष्ट्रसंघ को इनके बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए.
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