मेले में दूर तक देखने वाला बच्चा यह भूल जाता है कि वह बाप के कंधे पर बैठा है.ऐसे ही रिषी राजपोपट ने परंपराओं को तो नकार दिया, पाश्चात्य जगत में संस्कृत पर हुए कार्य को नीचे धकेलते हुए ‘यूरेका-यूरेका चिल्ला पड़े.नतीजतन, जो प्रतिक्रियाएं आईं, वह सामने है.यह ‘जोश में होश खो बैठने’ जैसी स्थिति बताई गई.मगर, उनसे ज़्यादा भद्द तो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की पिटी है.दुनियाभर में आलोचनाओं के साथ ही जब ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी के विद्वानों ने भी कथित उपलब्धि की ख़बर को ‘फ़ेक न्यूज़’ बताया, तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे नहीं छापने का निर्णय लिया.
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कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी, रिषी राजपोपट और पाणिनि की अष्टाध्यायी पर शोध |
बीबीसी को कौन नहीं जनता.यह भारतीय ‘लल्लूटॉप’ मीडिया से ज़्यादा कुछ नहीं है.मगर, इंडिपेंडेंट भी सनसनी फ़ैलाने में पीछे नहीं है.इन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक छात्र द्वारा महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी पर उस एक शोध की ख़बर को प्रकाशित-प्रसारित किया, जिसका पीयर रिव्यू (सहकर्मी समीक्षा) तक नहीं हुआ था.यही नहीं, दूसरे विद्वानों का मत जाने बिना सोशल मीडिया पर इसे वायरल भी कर दिया गया.इसे क्रांतिकारी बताते हुए ढाई हज़ार साल पुरानी संस्कृत व्याकरण की परंपरा को ग़लत बताते हुए छात्र रिषी राजपोपट के विचारों को पाणिनीय दशन या पाणिनि की कथित व्याकरणिक गुत्थी या पहेली का हल बता दिया गया.
बड़ा अजीब नज़ारा था.एक तरफ़ कैम्ब्रिज के सेंट जॉन्स कॉलेज में एशियन एंड मिडल इस्टर्न विभाग में पीएचडी के छात्र रिषी राजपोपट के अपने दावे प्रसारित हो रहे थे, तो दूसरी तरफ़ उनके प्रोफ़ेसर वसेंजो वर्जियानी की अज़ीबोगरीब रिकॉर्डिंग बज रही थी.दोनों मिलकर संस्कृत की प्राचीन परंपरा, आधुनिक परंपरा के साथ-साथ उन महत्वपूर्ण कार्यों को भी झूठला रहे थे, जो पश्चिमी जगत में इस क्षेत्र में हुए हैं.
मगर, जैसा कि सबको मालूम है कि झूठ के पैर नहीं होते.उसका अस्तित्व क्षणिक ही होता है.और तत्काल प्रथमः ग्रासे मक्षिका पातः (यानि खाने बैठे और पहले ही कौर में मक्खी गिर गई) के रूप में सर्वप्रथम पश्चिम से ही तीव्र प्रतिक्रिया सामने आई.
ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर जॉन लव ने इसे फ़ेक न्यूज़ बताकर खारिज़ कर दिया.कई अन्य विद्वानों ने इसे प्रोपेगेंडा बताकर इसकी भर्त्सना की, और फिर प्रतिक्रियाओं-आलोचनाओं जो दौर शुरू हुआ, वह अब भी जारी है.कई समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं.
पीटर सार्थ और निलेश बोडस ने पूरे शोध पत्र का बिन्दुवार विश्लेषण किया है, और रिषी राजपोपट तथा उनके प्रोफ़ेसर वसेंजो वर्जियानी के ‘यूरेका मोमेंट’ (यूरेका पल- बहुत बड़ी खोज या उपलब्धि हासिल करने का क्षण) की बखिया उधेड़ दी है.
विद्वान माधव देशपांडे ने जमकर लताड़ा है.
कई अन्य विद्वानों के भी मत आ चुके हैं, जिनसे कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी और फ़र्ज़ी मीडिया के गठजोड़ का पर्दाफाश हुआ है.यह स्पष्ट हो चुका है कि किस तरह इन्होने दुनिया में भाषाओं की जननी संस्कृत के मुख्य व्याकरणाचार्य महर्षि पाणिनि की सुत्रविधि के प्रति दो सहस्त्र पांच सौ वर्ष पुरानी विद्वानों की राय और एक पुरानी परंपरा को बदनाम करने और नीचे धकेलने की नाक़ाम कोशिश की है.
बहरहाल, यह मसला वास्तव में है क्या, इसे क्यों तूल दिया गया, क्यों इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण किया गया, इसे समझने के लिए कुछ बातों को समझना ज़रूरी है.क्योंकि रिषी राजपोपट का शोध और उसका निष्कर्ष पाणिनि की अष्टाध्यायी को लेकर है इसलिए, उस अष्टाध्यायी को और उससे संबंधित विभिन्न विद्वानों की परंपरागत राय सबसे पहले जानना आवश्यक हो जाता है.
पाणिनि की अष्टाध्यायी आख़िर चीज़ क्या है?
अष्टाध्यायी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है.पांचवी शताब्दी ई. पूर्व लिखी गई इस किताब में आठ अध्याय हैं इसलिए इसे अष्टाध्यायी कहा जाता है.इसके प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं और प्रत्येक पद में 38 से 220 तक सूत्र हैं.इस प्रकार, अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पद और सब मिलाकर लगभग 4,000 (कुल 3995) सूत्र हैं.
अष्टाध्यायी वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत, दोनों भाषाओँ का व्याकरण है.यानि, पाणिनि के बहुत से सूत्र-नियम ऐसे हैं, जो केवल वैदिक संस्कृत पर लागू होते हैं, जबकि अन्य सूत्र केवल लौकिक संस्कृत के लिए हैं.
हालांकि पाणिनि पहले व्याकरणाचार्य नहीं है.उनसे पहले कई विद्वान हुए, जिन्होंने संस्कृत व्याकरण की रचना की थी.
बाल्मीकि रामायण में हनुमान जी को नौ व्याकरण का ज्ञाता कहा गया है.
काश्यप, शाकटायन, शौनक, स्फोटायन, आपिशलि आदि के बाद पाणिनि का व्याकरण नौवां व्याकरण है.
इसके पश्चात् भी व्याकरण लिखे गए.हेमचन्द्र ने व्याकरण लिखा.राजा भोज (भोपाल के राजा) ने भी संस्कृत कंठाभरण लिखा.उन्होंने पाणिनि के व्याकरण से और भी व्यापक बनाया, और भी अधिक शब्द दिए, और अधिक सूत्रों को समझाया पर, पाणिनि के व्याकरण के स्तर को छू नहीं पाए.
पाणिनि का व्याकरण (अष्टाध्यायी) एक बहुत बेहतर तकनीक आधारित व्याकरण है.बीजगणित (एल्जेब्रा) में जैसे हम कोई बीजगणितीय पहचान सिद्ध करते हैं वैसे ही पाणिनीय अष्टाध्यायी में शब्दों की सिद्धि का विधान है.
बीजगणित में जैसे हम एक-एक क्रम पर सूत्र लगाकर फार्मूला सिद्ध करते हैं वैसा ही तरीक़ा अष्टाध्यायी में है.
मान लीजिए कि रामः शब्द को सिद्ध करना है कि यह कैसे बना.इसके लिए राम प्रतिपद आया.फिर, इसमें कौन-सी विभक्ति लगी और फिर विसर्ग कैसे बना, यह देखना होता है.अब रामः रामौ रामाः में रामौ क्यों बना द्विवचन, इसमें कौन-सा प्रत्यय लगा, कौन-सी संधि हुई कि परिणाम आया यानि, रामौ बन गया, यही सारे बीजगणितीय सूत्र अष्टाध्यायी में हैं.
अष्टाध्यायी में सूत्र भी हैं, और सूत्र लगाने का तरीक़ा (सूत्र कैसे लगाएं) भी है.
बीजगणितीय सूत्रों की तरह पाणिनि ने भी संज्ञा सूत्र लिखे हैं जैसे क्या प्रत्यय है, क्या उपसर्ग है, क्या धातु है, किस प्रकार की पद प्रक्रियाओं को कृत कहेंगें, किस प्रकार की पद प्रक्रियाओं को तद्धित कहेंगें, पद (जिसे हम सामान्य भाषा में शब्द कहते हैं) क्या है आदि.
बना बनाया शब्द, जिसका हम प्रयोग करते हैं वह क्या है, प्रतिपादिक क्या है, इन सबको संज्ञा सूत्र में बताया गया है.फ़िर, परिभाषाएं बताई गई हैं.परिभाषा सूत्र बताए गए हैं.कैसे हम सूत्र लगाएंगें, कौन-सा सूत्र लगाएंगें, एक बीजगणितीय ढांचा जैसा ही है अष्टाध्यायी.
एक शब्द से दूसरा शब्द कैसे बने, धातु से धातु रूप कैसे बने, दस लकारों में कैसे बने, दस लकारों में तीन पुरुषों में कैसे बने, उनके तीन वचनों में कैसे बने, समास कैसे बने, इस सबका महत्त्व अष्टाध्यायी में है.
जो गणित जानता है, वह इसे अच्छी तरह समझ सकता है.यहां गणित जानना आवश्यक है क्योंकि पाणिनि एक बहुत अच्छे गणितज्ञ भी थे.
दरअसल, संस्कृत में बहुत सारे एल्गोरिथम (गणितीय समस्याएं हल करने के लिए कुछ निर्धारित नियम) का एक फ्रेमवर्क यानि ढांचा दिया हुआ है.एल्गोरिथम के लिए संस्कृत में एक शब्द भी है, जिसे हम कहते हैं पाटी या ‘पाटी गणितम’.यानि, जो एक क्रम से सूत्र लगाते चलें और फिर कुछ परिणाम निकले, उसे पाटी कहा जाता है.अष्टाध्यायी में यही सिद्धि है.
इसका वैज्ञानिक विश्लेषण में बहुत योगदान है.भाषा तो वैज्ञानिक है ही, जिस प्रकार अलग-अलग भावों के लिए विभिन्न शब्द दिए गए हैं, उससे अभिव्यक्ति आसान हो जाती है.इसे माहेश्वर सूत्र (शिव सूत्र) के रूप में भी समझा जाता है, जिसकी वैज्ञानिकता को लेकर जर्मन महिला गणितज्ञ पीटरसन का शोध दुनिया के सामने है.
इस प्रकार, पाणिनि का व्याकरण बहुत अद्भूत है.इसमें इतने व्यापक स्तर पर और इतने गणितीय-वैज्ञानिक ढंग से संस्कृत भाषा की ध्वनियों का, इसके प्रकृति, प्रत्यय, उपसर्ग आदि विभागों का, शब्दों का जो विश्लेषण किया गया है, वह किसी अन्य व्याकरण में नहीं मिलता.यही कारण है कि यह व्याकरण अन्य व्याकरणों को पीछे छोड़कर मूर्धन्य बन गया, और दो सहस्त्र पांच सौ वर्ष बाद भी यह सर्वोपरि है.
संस्कृत के जैन ग्रंथों में भी पाणिनि का बड़ा सम्मान है.
पाणिनि के सूत्र किसी भी भाषा के वेदवाक्य हैं.
पाणिनि की अष्टाध्यायी में जीवन के विभिन्न पहलू नज़र आते हैं.इसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पारिवारिक जीवन के नियमों का विस्तृत वर्णन है.अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद जर्मन विद्वान मेक्स मूलर ने कहा था कि इस ग्रन्थ के सामने अंग्रेजी या ग्रीक या लैटिन की संकल्पनाएं नगण्य हैं.
अष्टाध्यायी में क्या कोई गुत्थी या पहेली है?
अष्टाध्यायी के जो सूत्र हैं उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो भाषा में लिखे हुए हैं.साथ ही, उनकी भाषा भी ऐसी है, जिसे समझने के लिए बहुत सारे शब्दों का विश्लेषण करना होता है.जैसा कि वायु पुराण में कहा गया है- अल्पाक्षरं असंदिग्धं सारवत विश्वतोमुखम (यानि कम अक्षरों वाला संदेहरहित, सारस्वरूप, निरंतरता लिए हुए तथा त्रुटिहीन (कथन) को सूत्रविद कहते हैं), पाणिनि अपने सूत्रों में बहुत थोड़े से शब्दों में ही विस्तृत बातें बता देते हैं.यह शॉर्टहैंड या आशुलिपि की तरह है, जिन्हें समझने के लिए बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता होती है.
दरअसल, यह गुत्थी नहीं है पर, एक रहस्य जैसा है, जिसको परंपरा से अथवा आधुनिक विश्लेषण के द्वारा समझ सकते हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार, परंपरा ने इसे समझा तभी आधुनिक विद्वानों का भी मत बना हुआ है कि ‘विप्रतिषेधे परम कार्यम’ जो है वह एक संज्ञाधिकार सूत्र है, जो अधिकार है उसी में लगता है.
संस्कृत के विद्वान नित्यानंद मिश्र कहते हैं कि इसे व्याकरण जगत की सबसे बड़ी गुत्थी कहना अतिशयोक्ति अथवा भूल है, जो रिषी राजपोपट और उनके प्रोफ़ेसर वसेंजो वर्जियानी ने की है.
नित्यानंद मिश्र कहते हैं-
” मैं उन्हें (रिषी राजपोपट और उनके प्रोफ़ेसर वसेंजो वर्जियानी को) यह ज़रूर बताना चाहता हूं कि हमारी संस्कृत व्याकरण परंपरा में पाणिनि के बाद बहुत सारे मनीषी हुए हैं, जिन्होंने संस्कृत व्याकरण पर महान ग्रन्थ लिखे.नागेश भट्ट एवं पतंजलि जैसे बहुत सारे विद्वान ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इस विषय पर संकेत कई स्थानों पर किए हैं परंतु, उन्हें इस प्रकार की कोई बहुत बड़ी गुत्थी नहीं दिखी और उन्होंने इस छोटे से विषय को संघर्ष अनुसंधान (Conflict Research) के रूप में नहीं लिया. ”
कई अन्य विद्वान भी यह मानते हैं कि अष्टाध्यायी में अनेक बातें है, जिन्हें हम पहेली या रहस्य कह सकते हैं मगर, इनका यथेष्ट समाधान भी है, जो कई विद्वानों ने दिया है.
विद्वानों का कहना है कि पाणिनि आज जीवित तो नहीं हैं कि बता दें कि रिषी राजपोपट जी ने उनका ह्रदय समझ लिया है.दरअसल, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वे प्रमाणित कर सकें.जिस प्रकार ‘सबसे बड़ी गुत्थी’ बताकर प्रचारित किया जा रहा है, वह ग़लत और भ्रम फ़ैलाने के सिवा कुछ भी नहीं है.
रिषी राजपोपट का शोध और दावे का सच?
कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के छात्र रिषी राजपोपट ने अपने शोध (वी ट्रस्ट डिस्कवरिंग द एल्गोरिदम फॉर रूल कनफ्लिक्ट रिजोल्यूशन इन द अष्टाध्यायी) में कहा है कि पिछले ढाई हज़ार साल से चली आ रही संस्कृत व्याकरण की परंपरा अथवा विद्वानों ने पाणिनि (अष्टाध्यायी) को ठीक नहीं समझा.उन्होंने पाणिनि के मेटारुल (Metarule) की हमेशा से ग़लत व्याख्या की है.
उन्होंने इस कथित ग़लत पारंपरिक व्याख्या को सही रूप में प्रकाशित करने का दावा किया है.
दरअसल, पाणिनि के व्याकरण के जो सूत्र (जिन्हें अंग्रेजी में मेटारुल यानि, एक नियम, जो अन्य नियमों के इस्तेमाल को नियंत्रित करता है, कहा जा सकता है) हैं, उन्हें कैसे लगाया जाए, इसके लिए परंपरा से प्राप्त कुछ परिभाषाएं हैं.रिषी राजपोपट का कहना है कि ये परिभाषाएं अनावश्यक हैं.जो पाणिनि ने लिखा, वही पर्याप्त है सब कुछ सिद्ध करने के लिए अथवा सभी शब्दों की प्रक्रिया साधने के लिए.साथ ही, परंपरा ने इन परिभाषाओं को गढ़कर बहुत भ्रान्ति उत्पन्न कर दी, और मूल मंत्र को नहीं समझा.
उनके अनुसार, मूल सूत्र का अर्थ यह है कि जब एक ही समय दो अलग-अलग कार्य करने वाले दो सूत्र प्रवृत्त हो रहे हों तब जो सूत्र शब्द के उत्तरवर्ती घटक पर कार्य करता है, उसको प्रवृत्त करना चाहिए.यानि, जो सूत्र अष्टाध्यायी में पीछे अथवा बाद में आता है वह नहीं, बल्कि जो सूत्र उस शब्द के उत्तरवर्ती भाग या दायीं तरफ़ है, उस पर लगता हो, उसे प्रयोग करना चाहिए.
दूसरे शब्दों कहें तो रिषी राजपोपट के अनुसार, पाणिनि की अष्टाध्यायी में समान शक्ति के दो नियमों के बीच संघर्ष की स्थिति में व्याकरण के क्रम में बाद में आने वाले नियम की नहीं, बल्कि एक शब्द के बाएं एवं दाएं पक्षों पर लागू होने वाले नियम की बात की जा रही है.इसमें दाएं पक्ष की प्रमुखता होनी चाहिए.
रिषी राजपोपट ने इसे अपनी उपलब्धि बताते हुए कहा है कि उन्होंने संस्कृत व्याकरण की ढाई हज़ार साल पुरानी और सबसे बड़ी गुत्थी सुलझा ली है.
मगर, अनेक विद्वानों ने इसे उनका भ्रम और दावे को ग़लत बताते हुए कड़ी आलोचना की है.
ज्ञात हो कि संस्कृत व्याकरण में एक ही समय दो अलग-अलग कार्य करने के लिए यदि दो सूत्र लग रहे हों, तो किस सूत्र को लगायेंगें, इसके लिए पाणिनि ने एक परिभाषा सूत्र लिखा है- विप्रतिषेधे परम कार्यम.इसको परंपरा में ऐसा समझा गया है कि जो सूत्र अष्टाध्यायी में पीछे है यानि पर सूत्र है, उसको लगायेंगें.यानि, यहां जो पहले आता है, जो कि पूर्व सूत्र है, उसको नहीं लगायेंगें.
यही तरीक़ा कात्यायन के समय से चला आ रहा है.पतंजलि और उनके बाद के विद्वानों की भी यही राय रही है और आज भी यही सर्वमान्य है.
इसके 15-20 अपवाद बताए गए हैं.
पाणिनि के व्याकरण में एक विशेषता है उपसर्ग और अपवाद- जनरल रुल और स्पेशल रुल.पहले एक स्थिति में यह कार्य होगा परंतु, यदि धातु कोई दूसरा है, तो अमुक कार्य होगा.यानि, पहले सामान्य नियम और फिर अपवाद नियम.पहले उपसर्ग सूत्र फिर, अपवाद सूत्र, ऐसा क्रम अष्टाध्यायी में है.इसके साथ बहुत सी परिभाषाएं भी परंपरा से मिलती हैं.
पहले हमें कौन-सा कार्य करना है यानि, वर्ण का कार्य करना है अथवा अंग का कार्य करना है, इसकी परिभाषाएं अष्टाध्यायी में मिलती हैं.विद्वानों के अनुसार, रिषी राजपोपट ने इनका ठीक ढंग से अध्ययन ही नहीं किया है.
इनका कहना है कि रिषी राजपोपट का ज्ञान अधूरा है, और वे परंपरा को ठीक से समझ नहीं पाए हैं.उनके तरीक़े से कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति ज़रूर ठीक होती है, कुछ हद तक अपवादों से भी छुटकारा मिलता है मगर, अनेक ऐसे शब्द हैं, जिनके साथ उनका तरीक़ा नाक़ाम हो जाता है.उदाहरण के लिए, निर्जरसा, पदा, दता, नसा, हृदा आदि असंख्य शब्दों में रिषी राजपोपट के मतानुसार सिद्धि असंभव है.
ऐसे में, ‘उनकी प्रक्रिया से संस्कृत व्याकरण का एल्गोरिथम सुधर जाएगा’ अथवा ‘कंप्यूटर के लिए और आसान हो जाएगा’ यह कहना निरर्थक और भ्रामक ही है.प्रक्रिया में ग़लती (Error) हो, तो कंप्यूटर भी ग़लती ही करेगा क्योंकि कंप्यूटर मनुष्य की भाषा नहीं समझता, वह मनुष्य द्वारा दी हुई कोडिंग (कूटलेखन, संकेतन) को समझता है.
रिषी राजपोपट के शोध पर समीक्षकों की राय
रिषी राजपोपट के शोध पर कई समीक्षाएं आ चुकी हैं.कई विद्वानों ने उनके कार्य को सराहा है, उन्हें प्रोत्साहित किया है मगर, उनके दावे को खोखला और आतुरता में अतिशयोक्ति की संज्ञा दी है.ख़ासतौर से, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी तीव्र भर्त्सना करते हुए कहा गया है कि उसने विद्वानों का बगैर मत जाने, बिना पीयर रिव्यू के एक छोटी-सी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया.राई का पहाड़ बना दिया.ऐसा कार्य एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान को शोभा नहीं देता.यह बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना था.
समीक्षक निलेश बोडस ने कहा है-
” इनके (रिषी राजपोपट के) के प्रस्ताव में बहुत विसंगतियां हैं.हालांकि इनका कार्य अच्छा है पर, पूरा-पूरा ठीक नहीं है. ”
निलेश बोडस ने कई शब्द दिखाए हैं जहां रिषी राजपोपट की प्रक्रिया विफल हो जती है.इस बाबत वे कहते हैं-
” रिषी राजपोपट का जो फ्रेमवर्क है वह अनेक शब्दों में काम नहीं करता.मगर, इसे उनकी विफलता कहने के बजाय एक अच्छा प्रयास कहना चाहिए.उनके फ्रेमवर्क में जो कमियां हैं, उनमें वे सुधार कर सकते हैं. ”
निलेश बोडस यह भी कहते हैं-
” रिषी राजपोपट विशेषज्ञों से सलाह लें, और उन्होंने जो परिभाषाएं बताई हैं, जो प्रक्रिया बताई है, उनमें परिष्कार करें.उन्होंने परंपराओं-टीकाओं से जो पढ़ा-सिखा है उनमें और सुधार और परिष्कार कर कुछ नया बनाएं, तो अच्छी बात है.मगर, इसके स्थान पर उस परंपरा को अच्छी तरह पढ़े-समझे बिना ही निंदा करें, तो उचित नहीं है. ”
दरअसल, रिषी राजपोपट ने 30-40 शब्दों के उदाहरण बताए हैं और उन्हीं को लेकर वे कह रहे हैं कि उनकी प्रक्रिया से शब्दों की प्रक्रिया सरल या छोटी हो जाती है. लेकिन संस्कृत में तो लाखों करोड़ों शब्द हैं, उनके बारे में वे क्या कहेंगें? और कितने शब्दों पर उनकी प्रक्रिया काम करेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता.
ख़ुद रिषी राजपोपट ने अपनी थीसिस में दो-तीन शब्द ऐसे बताए हैं, जिनमें उनकी प्रक्रिया काम नहीं करती है.इसको लेकर निलेश बोडस उन्हें अपनी प्रक्रिया की विस्तृत जांच (एक लाख शब्दों पर) करने की सलाह देते हैं.वे कहते हैं-
” रिषी राजपोपट ने अपनी सुविधा के अनुसार सूत्रों का नया अर्थ कर दिया है और कह दिया है यह सूत्र प्रक्षिप्त है, इस सूत्र में ऐसा अधिकार होना चाहिए, इस सूत्र में अंग की संज्ञा तब होनी चाहिए.यह केवल अपने क्रम को ठीक जताने के लिए उन्होंने ऐसा कर दिया है. ”
निलेश बोडस फिर आख़िर में कहते हैं-
” उनका इतना योगदान हम मानते हैं कि उन्होंने लोगों में रूचि जगाई.अपना जो सिद्धांत दिया, उससे बहुत से लोगों को बहुत सी बातें अष्टाध्यायी के बारे में समझ आईं.इसको विकसित किया जा सकता है.इसको एक नया फ्रेमवर्क कहा जा सकता है लेकिन, ऐसा नहीं है कि पहले की समझ ठीक नहीं थी, और यह पाणिनि का हृदय है, ऐसा नहीं है. “
माधव देशपांडे ने कहा है-
” यूरेका-यूरेका चिल्लाने के बजाय अपनी कमियों में सुधार कर इसे आगे बढ़ाएं.इसमें परिष्कार करें और यह कहें कि यह मेरा नया कार्य है.यह न कहें कि यह कोई यूरेका है, और मैंने पाणिनि के ह्रदय को समझ लिया है.मैंने बहुत बड़ी गुत्थी सुलझा ली है’ यह फ़ेक न्यूज़ की तरह है. “
ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जॉन लव ने भी इसी प्रकार के शब्द कहे हैं.उन्होंने कम्ब्रिज युनिवर्सिटी द्वारा जारी किए गए ‘वर्ल्डस ग्रेटेस्ट ग्रामर्स पजल साल्व्ड’ नामक एक वीडियो को फ़ेक न्यूज़ बताते हुए कहा है-
” यह एक फ़र्ज़ी ख़बर है.जिसने मुझे सबसे ज़्यादा आश्चर्यचकित और चिंतित किया है वह सब इस तरह से है कि एक निराधार दावे को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, बीबीसी, इंडिपेंडेंट और अन्य समाचार माध्यमों के द्वारा बगैर पुष्टि के असत्य को को सत्य के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया गया है. “
जॉन लव ने यह भी कहा है कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक अपवाद के रूप में उनसे बात की और पूछा कि जो यह कहा जा रहा है कि ‘ढाई हज़ार साल पुरानी गुत्थी’ सुलझा ली गई है, और यह व्याकरण की ‘सबसे बड़ी गुत्थी’ थी, क्या यह सत्य है, तो उन्होंने अपना स्वतंत्र आकलन दिया.इसके बाद न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस ख़बर को नहीं छपने का निर्णय लिया.
उनके अनुसार, समाचार का शीर्षक यदि ‘नए शोधकर्ता के अनुसार पाणिनि की पारंपरिक समझ ठीक नहीं है, उनकी प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली है’ होता, तो शायद ग़लत नहीं होता.
पीटर सार्थ जो कि पश्चिमी जगत के जाने माने प्राध्यापक हैं, उनका भी 10 पृष्ठ का रिव्यू (समीक्षा) छपा है.इसमें उन्होंने जहां रिषी राजपोपट की प्रशंसा की है वहीं, उनके दावों की बड़े कठोर शब्दों में भर्त्सना भी की है.वह लिखते हैं-
” रिषी राजपोपट का प्रयास अच्छा है परंतु, उन्होंने पारंपरिक ग्रंथों और आधुनिक ग्रंथों का जितना अध्ययन आवश्यक था, उतना नहीं किया, और अपना सिद्धांत गढ़ दिया.आतुरता में जो परम्पराएं हैं, उनको तो उन्होंने नीचे धकेल दिया ही है, पाश्चात्य जगत में जो कार्य हुआ है, उसको भी नकार दिया है.
इनका जो समाधान अथवा मिनी फ्रेमवर्क है, जिसमें यह कह रहे हैं कि ‘पहले कार्य दाएं शब्द पर होना चाहिए’ इसमें भी इन्हें अनेक परिभाषाएं नई जोड़नी पड़ेंगीं, जिनकी वे निंदा कर रहे हैं. “
पीटर सार्थ के अनुसार, रिषी राजपोपट का बड़ा योगदान तब होता जब पारंपरिक टीकाओं और आधुनिक जगत में जो कार्य हुआ है, उनका वे और अध्ययन कर कार्य को और विस्तृत रूप देते.वे आगे कहते हैं-
” यह एक क्रम है, जिसे रिषी राजपोपट आगे बढ़ा सकते हैं.इसमें सुधार ला सकते हैं.इसमें सबसे बड़ी गुत्थी सुलझाई है, ऐसा न कहकर यह मेरा नया कार्य है, समझने का नया ढंग है, मैं शब्दों की प्रक्रिया का एक नया क्रम दे रहा हूं, इससे आप बहुत से शब्द समझ सकते हैं और शब्द बना सकते हैं, उन्हें ऐसा कहना चाहिए. “
इस प्रकार, स्पष्ट है कि आतुरता और बदनीयती कुछ ऐसा करा देती है, जिसकी कभी अपेक्षा नहीं होती.एक ज़िम्मेदार व्यक्ति या संस्थान के लिए यह ज़रूरी है कि पूरे आकलन के बाद ही सार्वजनिक रूप में अपना मंतव्य ज़ाहिर करे.क्योंकि आज इंटरनेट का युग है, बात फैलते देर नहीं लगती.दुर्घटना से देर भली.
रिषी राजपोपट को अपना प्रयास जारी रखना चाहिए.विफलता सफलता के क्रम की एक सीढ़ी है.
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