भारत के आदिवासी: प्रकृति-पूजक कहिए या हिन्दू, मतलब एक ही है
सभ्यता के आरंभ में और उसके बाद भी लंबे वक़्त तक सभी लोग वनों में ही रहा करते थे.इसलिए भारत में रहने वाला हर व्यक्ति वनवासी या आदिवासी है यह समझना कठिन नहीं है.
जब ब्रिटिश हुकूमत को विभिन्न मत और आस्था रखने वालों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए जनगणना की ज़रूरत पड़ी तो जाने-अनजाने में भारतीय धर्म के मानने वालों के लिए सनातनी की जगह हिन्दू लिख दिया.यही आज़ादी के बाद भी हुआ.भारतीय संविधान में सनातनी समाज के ग्रामीण और शहरी लोगों के साथ-साथ वनवासी या आदिवासियों को भी हिन्दू कहा गया.
हालांकि कुछ ऐसे कानून हैं, जो हिन्दुओं के लिए तो हैं पर, वे आदिवासियों पर लागू नहीं होते, जैसे हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और हिन्दू दत्तकता और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 2 (2) और हिन्दू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम 1956 की धारा 3 (2) आदि.यानि, विवाह, तलाक, दत्तकता, भरण-पोषण और उत्तराधिकार जैसे प्रावधानों के अंतर्गत ये नहीं आते, या उससे बाहर हैं.मगर, सच्चाई यह भी है कि समग्र आदिवासियों का एक बड़ा तबक़ा आज इन्हीं के हिसाब से चलता है.बिल्कुल सनातनी मिजाज़ की तरह.सनातनी गुणों और परंपरा के कारण.
आमतौर पर, सनातनी भारतीय समाज को मुख्य तीन भागों में बांटा जाता है- आदिवासी समाज, ग्रामीण समाज और नागरी या नगरीय समाज.इस विभाजन का आधार केवल और केवल भौगोलिक पर्यावरण है.लेकिन, चूंकि आदिवासी अब गांवों के साथ-साथ अब शहरों में भी रहते हैं इसलिए सनातन हिन्दू समाज आज लगभग मिश्रित समाज है, और इसके अंदर इनकी पहचान करना आसान काम नहीं है.
यानि, प्रकृति-पूजक आदिवासियों को एक जाति के रूप में देखें (जो कि एक सच्चाई है), तो यह समग्र सनातन हिन्दू समाज के एक घटक के रूप में ही दिखाई देते हैं.जो कभी वनों में एकसाथ-एक जैसा थे वे अब गांवों और शहरों में भी एक जैसा-एकसाथ हैं.
प्रकृति-पूजक कौन है? समस्त सनातनी या हिन्दू समाज.हिन्दू प्रकृति की ही तो पूजा करते हैं.पेड़-पौधे, पहाड़ों, नदियों, पृथ्वी, आकाश, जल और वायु सभी के प्रतीक या स्वामी के रूप में कोई न कोई देवी-देवता है, जिनको वे भजते हैं, उनकी आराधना करते हैं.
अहिंसक और कोमल हों या हिंसक और ख़तरनाक़, अधिकांश जीव-जंतु किसी न किसी देवी-देवता के वाहन या सवारी हैं.
ज़हरीले नाग भी देवता हैं, और उनको दूध पिलाया जाता है.
ये पूर्वजों को पूजते हैं, पितृपक्ष में उन्हें जल देते हैं.उनकी समाधि या स्मारक बनाए जाते हैं.
जो हिन्दू करते हैं वही सब कुछ कथित आदिवासी या जनजाति समुदाय के लोग करते हैं.
फिर भी, भारत के आदिवासियों के धर्म पर प्रश्न खड़ा किया जाता है और उन्हें बांटने की कोशिश की जाती है क्योंकि इसके निहितार्थ हैं.विभिन्न पहलू हैं, जो मज़हबी आधार के साथ-साथ राजनीतिक और व्यावसायिक-व्यापारिक भी हैं.
ऐसे में, आदिवासियों से जुड़ी हरेक बात महत्वपूर्ण है, और उन पर चर्चा आवश्यक है.मगर, भारत के आदिवासियों की बात बाक़ी दनिया के आदिवासियों की चर्चा के बिना अधूरी होगी.मसलन इनके बीच संबंध क्या है, कैसा और कितना है.इनमें अंतर है, तो क्या है और क्यों है आदि.इसलिए, समग्र रूप में ‘आदिवासी’ का अर्थ, इसके इतिहास और वर्तमान पर रौशनी डालना ज़रूरी हो जाता है.
आदिवासी का अर्थ?
आदिवासी आधुनिक शब्द है.यह आदि और वासी, दो शब्दों से मिलकर बना है.इसमें आदि का अर्थ होता है आरंभ, शुरुआत और वासी यानि, वास या निवास करने वाला, बसने वाला.यानि, जो सभ्यता के आरंभ से रहता आया हो, उसे आदिवासी या मूल निवासी बताया जाता है.
परंतु, सभ्यता के आरंभ में में और आगे सैकड़ों पीढ़ियों तक लोग रहते कहां थे? जंगलों में, गुफाओं में.इसलिए आदिवासी की जगह वनवासी शब्द का ही प्रयोग उचित होगा.
दरअसल, भारत में पहले वनवासी ही थे, आदिवासी नहीं.हिन्दू धर्मग्रंथों में भी वनवासी शब्द का ही ज़िक्र मिलता है.आचार्य विनोबा भावे ऋग्वेद को वनवासियों का ग्रंथ मानते थे.
बाबा साहेब अम्बेडकर के मुताबिक़, ‘वनवासी शब्द का कोई अर्थ नहीं.वनों में रहने वाले वनवासी होते हैं, आदिवासी नहीं.’
मगर, अंग्रेजों के ज़माने में जहां वनवासियों को अबोरिजनल, अबोर्जाईन, ट्राइब्स कहा-लिखा जाता था वहीं, आज़ाद भारत ९मे ईसाई लॉबी और वामपंथी बुद्धिजीवियों आदिवासी और जनजाति जैसे शब्द गढ़े और फिर कांग्रेस की सनातन हिन्दू धर्म-संस्कृति विरोधी सरकार वनवासियों के साथ यही शब्द चस्पां कर दिए.
हमारे संविधान में जनजाति शब्द का ही प्रयोग हुआ है जो कि अजीब है.
वास्तव में, आदिवासी और जनजाति विरोधाभाषी और अलगाववादी शब्द हैं, जो समाज में फूट डालने और वैमनस्व बढ़ाने वाले ही नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक दलों के वोटबैंक के हथियार और दुकानदारी के समान भी हैं.
आदिवासी कहीं के भी हों, वे जंगलों, गुफाओं के वासी यानि, वनवासी हैं जिनके जीवन में आज भी कमोबेश प्राचीनता की झलक और लक्षण मौजूद हैं.
आदिवासियों को सभ्यता का मूल निवासी बताया जाता है मगर, पहले तो सभी वनों में ही रहा करते थे, पशुओं जैसा जीवन जीते थे.मगर, सैकड़ों (क़रीब दो सौ से अधिक) पीढ़ियों के बाद जब विकास आरंभ किया, तो पहले गांव बने, फिर क़स्बे और आख़िर में शहर.
यानि, जिन्होंने बदलाव और विकास किया वे नागरी या शहरी हो गए, और प्रकृति प्रेम में जो वनों में और उसके आसपास ही सीमित-संकुचित रह गए, वे वनवासी कहे जा सकते हैं.
आदिवासियों का इतिहास
अगर हम धरती के मूलनिवासियों की बात करें तो ये वे लोग हैं, जो पहले दक्षिण भारत के गोंडवाना में जन्मे थे.गोंडवाना में ही शुरुआती ज़िन्दगी के सुबूत मिले हैं.यही डायनासोरों के प्राचीन अंडे और जीवाश्म प्राप्त हुए हैं जहां से जीवजगत का विस्तार हुआ और आगे चलकर क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप मानव जीवन की उत्पत्ति और विकास हुआ.
यानि, जीवजगत का प्रथम उद्गम स्थल या जीवनदायिनी भूमि गोंडवाना गोंडवाना है, जिसे वैज्ञानिकों ने गोंडवाना लैंड (जिसमें मध्य भारत के ऐतिहासिक क्षेत्र मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र शामिल थे) नाम दिया.इसे दक्षिणी प्रायद्वीप में दुनिया की सबसे प्राचीन (पहली) नदी नर्मदा के तट पर स्थित बताया गया है जहां आर्य धर्म की सबसे प्राचीन जातियों में से एक गोंड जाति (जो द्रविड़ समूह का हिस्सा थी) का क्षेत्र हुआ करता था.यहां ध्यान रहे, आर्य नामक कोई जाति नहीं थी, बल्कि आर्यधर्म का पालन करने वाली जातियां आर्य कहलाती थीं.
बहरहाल, प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्फ्रेड वैगनर, एडवर्ड सुएस और हेनरी बेनिडिक्ट मेडलीकॉट के शोध से ज्ञात होता है कि पेंजिया नामक महाद्वीप था, जो गोंडवाना और लौरेशिया से मिलकर बना था.मगर, आगे चलकर दक्षिणी गोलार्ध में स्थित गोंडवाना के खंडित होकर अलग हो जाने से अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमरीका और अफ्रीका प्रायद्वीप बने.साथ ही, गोंडवाना के कुछ हिस्से लौरेशिया के कुछ हिस्सों से मिल गए, जिससे अरब प्रायद्वीप और भारतीय उपमहाद्वीप बने.
वैज्ञानिकों के अनुसार, यह क़रीब 35 हज़ार वर्ष पहले की बात है.तब आदिमानव की ज़िन्दगी आसान नहीं थी.उन्हें भूख मिटाने के संघर्ष करना पड़ता था.ठिकाने की तलाश रहती थी जहां वे सुरक्षित रह सकें.साथ ही, उनके सामने ख़तरे भी बहुत थे इसलिए वे समूह में रहते थे.
लेकिन, बढ़ती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने और ज़िन्दगी को आसान बनाने के लिए उन्होंने बाहर का रुख किया.कुछ समूह या प्रजातियां दक्षिण भारत से निकलकर मध्य एशिया, अफ्रीका और यूरोप जाकर बस गए तो कुछ यूरोप से होते हुए चीन पहुंचे और वहां से फिर भारत के पूर्वोत्तर हिस्से में दाख़िल होते हुए दक्षिण भारत पहुंच गए.यह अवागमन आगे भी जारी रहा.इसीलिए भारत में रहने वाली प्रजातियों में क़रीब 0.13 फ़ीसदी मंगोल और नीग्रो भी हैं.
कुछ वैज्ञानिकों की राय में ये लोग अफ्रीका से निकले थे और फिर अफ्रीका वापस पहुंच गए.मगर, इसमें सच्चाई नहीं है, और अधिकांश लोग इससे असहमत हैं.
अध्ययन से यह भी पता चलता है कि पहले लोग एक ही स्थान पर रहते थे.लेकिन, समय, काल और परिस्थिति के अनुसार उन्होंने निष्क्रमण या पलायन भी किया और दुनिया के विभिन्न भागों में बसते गए.इस दौरान जिन्होंने जातिगत शुद्धता बनाए रखी, उनमें समानता (एक जैसे नाक-नक्श का होना) पाई जाती है, जबकि जिन्होंने शुद्धता त्याग दी और दूसरों से संबंध बनाए, उनमें परिवर्तन हुआ.हालांकि यह बदलाव क़ुदरती और इंसानी माहौल और ज़िन्दगी की जद्दोजहद की वज़ह से भी हुआ, ऐसा बताया जाता है.
भारत के 98.7 फ़ीसदी आदिवासियों की शारीरिक संरचना, रंग-रूप समान हैं, और इनका डीएनए भी एक ही है.
दुनिया के दूसरे आदिवासियों से बहुत अलग हैं भारत के आदिवासी
वेद-पुराणों और जनश्रुतियों में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है जो यह बतलाता हो कि भारत के वनवासियों या आदिवासियों और नागरी लोगों के बीच कभी जातिगत कटुता व शत्रुता रही हो.दूसरी तरफ़, संकट के समय एकजुटता व राष्ट्रहित के मुद्दे पर आपसी संवाद की चर्चा ज़रूर मिलती है.
एकाकी, संकोची, पिछड़े और कमज़ोर बताये-समझे जाने वाले आदिवासी वास्तव में बहुत कर्मठ और सशक्त रहे हैं.इनका बड़ा गौरवशाली इतिहास रहा है.प्रकृतिपूजक और शिव के उपासक वनवासियों में कई बड़े शूरवीर और पराक्रमी राजा (राजागोंड, महाराजा धवलदेव, कोल राजा आदि) हुए हैं, जिन्होंने लंबे काल तक राज किए हैं.लेकिन, कभी भी इनका नागरी लोगों और राजाओं से मतभेद या संघर्ष नहीं हुआ, जबकि उत्तर और दक्षिण अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में भीषण रक्तपात के प्रमाण मिलते हैं.
रामायण और महाभारत के मुताबिक़, वनवासी और नागरी में हमेशा सौहार्द और सामंजस्य का भाव रहा.श्रीराम ने वनवासियों (सुग्रीव) की सेना के सहयोग से ही लंका पर चढ़ाई कर रावण के खिलाफ़ जीत हासिल की थी वहीं, महाभारत के युद्ध में आदिवासियों ने धर्म का साथ दिया था.
पांडूपुत्र भीम का विवाह आदिवासी हिडिम्बा से हुआ था.देवी हिडिम्बा के मंदिर हैं, और कई जगहों पर इनकी पूजा होती है.
हिडिम्बा के पोते यानि, बेटे घटोत्कच (जिनका वध कर्ण के हाथों हुआ था) के बेटे बर्बरीक आज भी खाटूश्यामजी के रूप में सर्वसमाज में पूजित हैं.
रामायण में कई बार प्रसंग आता है कि वनवासी राजा राम के दरबार में अन्य राजाओं के साथ बराबर का सम्मान पाते थे.वनवासी राजा द्वारा अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का स्वागत किए जाने की चर्चा है.
मुस्लिम आक्रांताओं से युद्ध हो या देश की आज़ादी के लिए अंग्रेजों से संघर्ष, वीर वनवासियों ने अपना जौहर दिखाया, और धर्म और राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने में भी कभी पीछे नहीं रहे.
भारतीय आदिवासियों के क़बीले नहीं, समुदाय होते हैं, जिनमें संकुचित दृष्टिकोण के बजाय व्यापक सोच और भावनात्मक लगाव पाया जाता है.पर्यावरण-प्रेम और अपने कल्याण के साथ-साथ विश्व-बंधुता की भावना भी पाई जाती है.
भारत में लगभग 461 जनजातियां हैं.इन सभी का मूल धर्म शैव हिन्दू है और ये देश के विभिन्न हिस्सों में फैली हुई हैं.उत्तरी क्षेत्र में गोंड, धुरिया, ओझा, पठारी, राजगोड़, खरवार, बैगा, पनिका, पहड़िया, पंखा, अगरिया, पतरी, चेरो, भुइया, उरांव, असुर, बनजारा, बैठुड़ी, बेदिया, भूमिज, संथाल आदि मुख्य रूप से हैं.
पूर्वोत्तर में नागा, मिजो, गारो, खासी, जयंतिया, आदि, न्याशी, अंगामी, भूटिया, कुकी, रेंगमा, बोडो और देवरी आदि हैं.
पूर्वी क्षेत्र में मुंडा, संथाल, हो, जुआंग, खोड़, भूमिज, खरिया, उरांव, बिरहोर, कोड़ा आदि प्रमुख जनजातियां हैं.
मध्य क्षेत्र में गोंड, कोल, परधान, बैगा, मारिया, अबूझमाडिया, धनवार या धनुहार, धुलिया, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर, हल्बा, कंवर आदि हैं.
पश्चिम में भील, कोली, मीणा, टाकणकार, पारधी, कोरकू, पावरा, खासी, सहरिया, आंध, टोकरे कोली, महादेव कोली, मल्हार कोली आदि मुख्य रूप से हैं.
दक्षिण भारत में कोटा, बगादा, टोडा, कुरुंबा, कादर, चेंचू, पुलियान, नायक, चेट्टी आदि प्रमुख हैं.
द्वीपीय क्षेत्र (अंडमान-निकोबार आदि) में ओन्गे, ग्रेट अंडमानीज, सेंटेनेलीज, शोम्पेंस और बो, जाखा आदि प्रमुख जनजातियां हैं.
भगवान शिव को मानते हैं आदिवासी
भारत के आदिवासी प्रकृति यानि, जंगल, पहाड़, नदियों एवं सूर्य के आराधक-पूजक हैं परंतु, भगवान शिव को इनके यहां सबसे ख़ास दर्ज़ा प्राप्त है.आदिदेव शिव इनके प्रमुख देवता हैं.
दरअसल, इनका मूल धर्म शैव है.ये शिव की मूर्ति की पूजा नहीं करते और न ही मंदिर जाते हैं मगर, पेड़ों के नीचे शिवलिंग रखकर उसकी पूजा करते हैं.
सरहुल के दिन (जो कि हर साल चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को मनाया जाता है) ये प्रकृति की पूजा के साथ शिव-पार्वती की विशेष आराधना करते हैं.
बताते हैं कि शिव स्वयं ही आदिवासी थे.इसलिए, प्राचीन काल से ही आदिवासी उन्हें पूजते आ रहे हैं.
मुख्य देवता शिव के अलावा, भैरव, कालिका, दस महाविद्याएं और लोक देवता, कुलदेवी-कुलदेवता, ग्राम देवता आदि की भी इनके यहां मान्यता है.
खुदाई में प्राप्त पशुओं से घिरी शिव जैसी प्राचीन मूर्ति से पता चलता है कि आदिवासियों का संबंध सिन्धु घाटी सभ्यता से भी था.
आदिवासी भगवान राम को भी पूजते हैं
आदिवासी भगवान शिव के प्रति समर्पित तो हैं ही, ये भगवान राम और उनके भक्त हनुमान में भी पूरी श्रद्धा रखते हैं, और उन्हें पूजते हैं.
दरअसल, श्रीराम का आदिवासियों पर गहरा प्रभाव है.उन्होंने इन्हें बाणासुर के अत्याचार से मुक्त ही नहीं कराया, बल्कि संगठित कर शस्त्रास्त्रों, जैसे धनुष-बाण आदि से लैस करने के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, सामाजिक रीतिरिवाज से जोड़कर एक सभ्य समुदाय के रूप में ख़ुद को स्थापित करने और एक दूसरे के प्रति आदर भाव रखने की भावना भरी थी.
श्रीराम ही के कारण आदिवासियों के क़बीले नहीं, समुदाय होते हैं.उन्हीं के चलते इनके रीतिरिवाजों में समानता पाई जाती है.
रामायण में वर्णित केवट, जटायु, शबरी, हनुमान और सुग्रीव आदि सभी उस काल के दलित या आदिवासी लोग ही थे.हनुमानजी के गुरू मतंग ऋषि भी दलित ही समझे जाते हैं.
इस प्रकार, सनातन धर्म का पेड़-पौधे या वनस्पतिलोक और समस्त जीव-जंतु ही नहीं, कण-कण से संबंध है.इसका कोई ओर-छोर नहीं है.न इसका आदि है न अंत.यानि, यह शाश्वत है.इसे ही वैदिक धर्म कहा जाता है और हिन्दू धर्म भी.फिर भी कोई विवाद है, तो वह भ्रम है, और व्यर्थ है यह समझ लेना चाहिए.
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