जब भी इस्लाम की चर्चा होती है, तो हिजाब का ज़िक्र भी आता है.हिजाब का ज़िक्र हर जुबान पर होता है मगर, बहुत कम ही लोग ऐसे हैं, जो ये जानते हैं कि हिजाब आख़िर होता क्या है.अधिकांश लोगों को मालूम ही नहीं है कि पारंपरिक इस्लाम में महिलाओं के लिए पर्दे को लेकर पहना या ओढ़ा जाने वाला इस नाम का कोई कपड़ा अथवा वस्त्र नहीं है.यानि इस्लामी पहनावे (Dress) में हिजाब (Hijab) नामक ऐसा कोई कपड़ा अथवा वस्त्र ही नहीं है, जिसे पहनकर कोई महिला (या लड़की) एक मोमिना यानि मुस्लिम महिला के रूप में पहचानी (जानी) जाए.तो फिर, हिजाब आख़िर है क्या? इस्लाम में हिजाब क्या है?
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हिजाब (प्रतीकात्मक) |
हिजाब क्या है?
हिजाब (Veil) का मतलब होता है आड़ या पर्दा.इसे मुस्लिम औरतों से जोड़कर देखा जाता है.लेकिन, मुस्लिम महिलाओं से संबंधित वह कपड़ा, जिसे हिजाब समझा जाता है वह हिजाब नहीं दरअसल, ख़िमार है, जिसका ज़िक्र कुरान की आयतों में भी मिलता है.
दरअसल, ख़िमार ही वह वस्त्र है जिसका, ग़ैर-महरम (वह मर्द, जिससे मुस्लिम महिला की शादी हो सकती है) की ओर से ग़ैर-ज़रूरी आकर्षण से बचने के लिए, करने का कुरान में निर्देश है.मगर, जाहिलों की कौन कहे, पढ़े-लिखे लोग और कई उलेमा भी ख़िमार के बदले हिजाब शब्द का ही प्रयोग करते हैं, अर्थ का अनर्थ कर देते हैं, और लोगों को गुमराह करते हैं.
पूरे कुरान में सात जगहों पर जहां, ग़ैर-मर्दों अथवा ग़ैर-महरम की बुरी निगाह से बचाव के उद्देश्य से आवरण के रूप में एक मोमिना (मुस्लिम लड़की या औरत) के कपड़े पहनने और उसके सार्वजनिक रूप से चलने के तरीक़े का उल्लेख है, वहां ख़िमार शब्द का ही प्रयोग हुआ है.यानि औरतों के कपड़ों के संदर्भ में कहीं भी हिजाब का ज़िक्र नहीं मिलता.केवल और केवल एक स्थान पर सांकेतिक रूप में हिजाब का ज़िक्र एक दीवार या ओट के रूप में मिलता है.वैसे भी हिजाब एक अरबी शब्द है, जिसका मत्लब (शाब्दिक अर्थ) होता है आड़, ओट या पर्दा.यानि वह कपड़ा, जो आड़ करने के लिए (बाहर के लोगों अथवा अवांछितों की नज़रों से बचाने के लिए) लटकाया जाता है, वह पर्दा, जो दरवाज़े (किवाड़) पर लटकाया या टांगा जाता है.
कुरान के विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है कि इसमें (कुरान में) महिलाओं के लिए पोशाक के रूप में हिजाब का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं हैं.इसमें दुपट्टे जैसे कपड़े यानि ख़िमार (ओढ़नी, चुन्नी) को अपने जिलबाब (क़मीज़) के ऊपर फ़ैलाकर अपनी छाती अथवा वक्षस्थल को ढंकने की हिदायत है.
दरअसल, महिलाओं की छाती या वक्षस्थल (Breast) को सेक्सुअलिटी (सेक्स संबंधी भाव, कामुकता) से जोड़कर देखा जाता है.मुसलमानों में इसे औरतों की शर्मगाह (गुप्तांग) कहा जाता है.यानि यह उनके बदन का ऐसा हिस्सा है, जिसके विषय में वे केवल अपने शौहर या फिर किसी बहुत क़रीबी रिश्ते की औरत से बात कर सकती हैं.ऐसे में, इस्लाम में महिलाओं के पर्दे करने का आशय अपनी शर्मगाह को ढंकने से ही है.
इस्लाम में ख़िमार शालीनता और गोपनीयता की अवधारणा है, जो महिलाओं को अपने कपड़ों द्वारा अपनी शर्मगाह को ढंकने से संबंधित है.ख़िमार से अपने चेहरे ढंकने का कोई औचित्य नहीं है और न ही इसका ताल्लुक किसी बुशिया, बटुला, बुर्क़ा या चादरी, चादोरो, किमशेक, मुकेन, अलग-अलग तरह के नक़ाब, परांज आदि से है, जो इस्लाम में बहुत बाद में प्रचलन में आए हैं.ये मर्दों की पितृसत्तात्मक और दकियानूसी सोच का परिणाम है, जो औरतों की आज़ादी को छीनती है.
इस्लाम में औरतों के चेहरे ढंकने जैसी कोई चर्चा नहीं मिलती.मर्द की तरह औरत का चेहरा उसकी पहचान है.इतिहास में कई ऐसी मुस्लिम महिलाओं का ज़िक्र आता है, जो सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में सक्रिय थीं.आज के दौर में वे मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं.किसी भी क्षेत्र में वे मर्दों से कम नहीं हैं.ऐसे में, अपना चेहरा ढंककर, अपनी पहचान छुपाकर वे शेष समाज-दुनिया से अलग-थलग हो जाएंगीं और आगे नहीं बढ़ पाएंगीं.
हक़ीक़त ये है कि कुरान में महिलाओं और पुरुषों के लिए किसी ख़ास तरह के मज़हबी लिबास का ज़िक्र ही नहीं है.कुरान में कपड़ों के संदर्भ में केवल शालीनता (Modesty) बरतने का ज़िक्र है, यानि पुरुषों और महिलाओं, दोनों को अपनी गरिमा और लाज बचाए रखने को लेकर विनम्र तरीक़े से कपड़े पहनने का निर्देश दिया गया है.
संक्षेप में कहें, तो इस्लाम में पश्चिमी कपड़ों यानि नंगेपन से बचने की हिदायत दी गई है.मगर, कुछ हदीसों के आधार पर इस्लाम के ठेकेदारों और मुस्लिम नेताओं की अपनी अलग ही व्याख्या है, जबकि ऐसी हदीसों का उदाहरण भी सामने है जिसमें इस्लाम की धरती अरब में ही उन्हें झूठी बताकर खारिज़ कर दिया गया है.दरअसल, ये स्वार्थी लोग नहीं चाहते कि उनका समाज आगे बढ़े.वे ये चाहते हैं कि समाज भ्रमित रहे और आज भी सातवीं सदी में ही भटकता रहे, ताकि उनकी दुकानदारी चलती रहे, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी होती रहें.
ज्ञात हो कि 100 साल पहले तक मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में मुस्लिम महिलाएं स्थानीय पहनावे को ही प्राथमिकता देती थीं.मगर फिर, फ़र्ज़ी सांस्कृतिक पुनर्जागरण एवं सुधारों के नाम पर लोगों में फिर से कट्टरता उभारने की क़वायद में मुस्लिम महिलाओं को बुर्क़े पहनने और मुस्लिम पुरुषों को लंबी दाढ़ी रखने पर ज़ोर दिया गया.इसके लिए बाक़ायदा अभियान चलाए गए.ज़्यादा बच्चे पैदा कर अपनी आबादी बढ़ाने के लिए प्रचार-प्रसार किया गया.भारत में भी 1920 में कट्टर इस्लामिक संस्था, तब्लीगी जमात ने यही सब शुरू किया और नतीज़तन, कट्टरता की जड़ें गहरी होती चली गईं.
इस्लाम में पर्दा प्रथा की शुरुआत
हालांकि पर्दा आमतौर पर इस्लाम से जुड़ा बताया जाता है मगर, कई विद्वानों की दलील है कि महिलाओं का पर्दा करना और एकांत में रहना इस्लाम से पहले का है.यह प्रथा मध्य पूर्व में विभिन्न समूहों जैसे ड्रूज, यहूदी और ईसाई समुदायों में पाई जाती थी.इतिहासकारों के अनुसार, इस्लाम से पहले अरब, ईरान और रोम के राजघरानों और उच्च वर्ग की महिलाओं द्वारा कुलीनता और श्रेष्टता को दर्शाने के ख़याल से अपने चेहरे और सिर को ढंककर रखने की परंपरा थी.समाज के दूसरे तबक़े इससे अछूते थे.
विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि इस्लाम के शुरुआती कई सालों तक अरब में महिलाएं अपने पहनावे में दुपट्टे या चुन्नी आदि का इस्तेमाल नहीं करती थीं.लेकिन फिर, पर्दे (ख़िमार और महरम की अवधारणा) को मज़हबी मान्यता मिलने के बाद इसका प्रसार हुआ और यह ख़ास लोगों से आम लोगों में भी पहुंच गया.
इस्लाम में पर्दा या पर्दा प्रथा की शुरुआत कब, कहां, क्यों अथवा कैसे हुई, इसको लेकर सामान्य और ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो कई लेखकों-विचारकों और इतिहासकारों की राय सामने आती है.इनके विचारों अथवा वर्णन में हालांकि भिन्नता है लेकिन, निष्कर्ष के रूप में एक आम राय बनती दिखाई देती है.इसी प्रकार, तमाम इस्लामी स्रोतों में भी पर्दे की अवधारणा को एकमत से वक़्त की ज़रूरत बताया गया है लेकिन, इसके शुरुआती कारण और समय अथवा अवसर को लेकर अलग-अलग तरह के विचार हैं.
इतिहासकारों की राय
लेखकों-विचारकों, शोध के परिणामों और इतिहास के जानकारों से पता चलता है कि इस्लाम के विस्तार के साथ ग़ुलाम प्रथा अथवा दास प्रथा तेज़ी से बढ़ी.अरब व आसपास के क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि दुनिया के बाक़ी कई हिस्सों में भी में बड़ी संख्या में लोग ग़ुलाम बनाए और मंडियों में बेचे जाते थे.
अरब में ग़ुलाम महिलाओं के साथ बहुत ज़ुल्म होता था.उनसे देह व्यापार भी कराया जाता था.यह सब सरेआम और बेरोकटोक होता था, जिससे समाज में चारों तरफ़ अश्लीलता और अराजकता का माहौल बन गया था.मुस्लिम औरतें भी सुरक्षित नहीं थीं क्योंकि घर के बाहर ग़ुलाम औरत और एक मोमिना (मुस्लिम औरत, जो आज़ाद थी) के बीच फ़र्क करना मुश्किल था.इसके चलते ग़ुलाम औरत के भ्रम में या उसके बहाने मोमिन (मुस्लिम पुरुष) किसी मोमिना को भी छेड़ देते, उसे घसीटकर ले जाते और मनमानी करते थे.नतीज़तन, अक्सर बवाल खड़ा हो जाता, हिंसा की स्थिति पैदा हो जाती थी.ऐसे में, समस्या का हल ढूंढा गया और फ़र्क के तौर पर ईमान वाली औरतों यानि मुस्लिम औरतों को ख़िमार का प्रयोग करने की हिदायत दी गई, ताकि वे ग़ुलाम औरतों से अलग दिखें, पहचानी जा सकें और सतायी (परेशान) न जाएं.
कालांतर में ख़िमार को अलग-अलग नामों से जाना जाने लगा और अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप में पहनावे के साथ जुड़ता चला गया.
इस्लामी स्रोतों में पर्दे से जुड़े विचार
हदीसों (अहादीस) के अध्ययन से पता चलता है कि पर्दे की शुरुआत यानि पर्दे को लेकर कुरान की आयतें नाज़िल (इस्लामी अक़ीदे/विश्वास के मुताबिक़ आयतें अल्लाह की ओर से आसमान से पैग़म्बर मुहम्मद पर उतरी थीं/भेजी गई थीं) होने के कारण और समय अथवा मौक़े के बारे में चार तरह के विचार हैं.
पहला (पहले प्रकार का) विचार पैग़म्बर मुहम्मद के घर आने-जाने वाले उनके अनुयायियों (ईमान वाले लोगों, मोमिनीन) के तौर-तरीक़ों और पैग़म्बर व उनके परिवार (ख़ासतौर से पैग़म्बर की बीवियों) के प्रति इनके (मोमिनीन के) आचरण से संबंधित है.
दूसरा, पैग़म्बर की बीवियों के घर से बाहर (ख़ासतौर से शौच आदि के लिए) जाने-आने के दौरान उन्हें, औरों से अलग दिखने के उद्देश्य से पर्दा करने का संदर्भ मिलता है, जबकि तीसरा विचार, पैग़म्बर मुहम्मद की हज़रत ज़ैनब बिन्त-जहश के साथ शादी से जुड़े प्रकरण से संबंधित है.
चौथा विचार मिराज (इसरा और मिराज) की घटना से जुदा बताया जाता है.
पैग़म्बर व उनके परिवार के प्रति मुसलमानों के आचरण के संदर्भ में
इस्लाम में पर्दे की शुरुआत यानि पर्दे को लेकर आयतें नाज़िल होने के कारण के रूप में पैग़म्बर मुहम्मद और उनके घर-परिवार से जुड़े नज़रिए का ज़िक्र अनस बिन मलिक के कथनों वाली एक हदीस में मिलता है.
विदित हो कि अनस बिन मलिक पैग़म्बर मुहम्मद (मुहम्मद तआला सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ख़ास सेवक था.उसने कुरान में पर्दे या हिजाब वाली आयतें, जिसे इस्लाम के जानकार अल-हिजाब की आयतें कहते हैं, उसके नाज़िल होने के समय और परिस्थितियों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है.यह सहीह बुख़ारी में संकलित है, जो सबसे प्रमाणिक समझा जाता है.
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अनस बिन मलिक की बयान की गई हदीस |
यहां अनस बिन मलिक कहता है-
” जब रसूल अल्लाह मदीना आए, तब मैं दस वर्ष का था.मेरी मां और चाचियां मुझे पैग़म्बर की सेवा करने के लिए बार-बार कहती थीं, तो मैंने दस साल तक उनकी सेवा की.जब पैग़म्बर की मौत हुई, तब मैं बीस बरस का था.जब अल्लाह का हिजाब वाला हुक्म आया, तो उसके बारे में मैं सबसे ज़्यादा जानता था.यह पहली बार तब आया था, जब अल्लाह के पैग़म्बर ने ज़ैनब बिन्त-जहश से निक़ाह किया था.उस दिन पैग़म्बर दूल्हा बने थे और उन्होंने लोगों को अपने यहां दावत पर बुलाया था.कई लोग आए और उन्होंने भोजन किया.कुछ तो चले गए लेकिन, कुछ पैग़म्बर के पास वहीं बहुत देर तक रुके रहे.फिर, पैग़म्बर ये सोचकर उठे और वहां से चले गए कि वे लोग भी चले जाएंगें, मैं भी पैग़म्बर के साथ चल दिया.पैग़म्बर और मैं आयशा के कमरे की ओर चले आए.कुछ देर बाद, ये सोचकर कि वे लोग चले गए होंगें, पैग़म्बर और मैं दोनों, फिर से ज़ैनब के कमरे में पहुंचे, तो देखा कि वे लोग अब भी वहीं थे.ये देखकर पैग़म्बर फिर से आयशा के कमरे की ओर चल पड़े.मैं भी उनके साथ था.उसकी दहलीज़ पर पहुंचकर पैग़म्बर ने सोचा कि वे लोग चले गए होंगें और पलटकर फिर से ज़ैनब के कमरे में पहुंच गए.वे लोग अब जा चुके थे.इस पर पैग़म्बर ने अपने और मेरे बीच पर्दा कर लिया, और फिर हिजाब वाली आयतें नाज़िल हुईं. ”
हिजाब वाली आयतें नाज़िल हुईं.लेकिन, इसी कड़ी में पैग़म्बर के घर आने वाले उनके अनुयायियों के लिए पैग़म्बर और उनके परिवार के प्रति आचरण-व्यवहार को लेकर भी आयत नाज़िल हुई.कुरान के सूरा (अध्याय) 33 में यह 53 वीं आयत है.
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सूरा 33 की 53 वीं आयत (स्क्रीनशॉट) |
इस आयत में ये कहा गया है कि पैग़म्बर के अनुयायी पैग़म्बर के घर में बिन बुलाए या बिना इज़ाज़त के ना आएं.मगर, यदि उन्हें दावत पर बुलाया जाए, तो वे बिल्कुल सही वक़्त पर आएं, खाना खाएं और बिना देरी किए अपने स्थान के लिए चल दें.
लोग जो पैग़म्बर के घर पर बैठकर बातों में लगे रहते हैं, उससे पैग़म्बर को तक़लीफ़ होती है.मगर, वह कुछ कहते नहीं हैं क्योंकि वह लोगों का लिहाज़ करते हैं.लेकिन, अल्लाह इसमें बिल्कुल भी संकोच नहीं करता.
अगर पैग़म्बर की बीवियों कुछ मांगना हो, तो पर्दे के बाहर से मांगा करें.यह दोनों (पैग़म्बर की बीवियों और ईमान वाले लोगों) के लिए उचित और मर्यादित है.
आयत में यह भी कहा गया है कि रसूल अल्लाह को किसी तरह का कष्ट देना अनुचित है, और यह भी उचित नहीं है कि उनकी मौत के बाद उनकी बीवियों से निक़ाह (शादी) करें.अल्लाह की नज़र में यह गुनाह है.
इसी प्रकार, एक अन्य आयत (कुरान 66:5) से संबंधित अनस (अनस बिन मलिक नहीं) के बयानों वाली सहीह बुख़ारी में संग्रहित एक हदीस में पैग़म्बर के परिवार (उनकी बीवियों) के लिए मानदंडों की चर्चा है.उनके लिए पर्दे की बात हुई है.
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अनस की बयान की गई हदीस (स्क्रीनशॉट) |
इसमें हज़रत उमर रसूल अल्लाह से कहते हैं कि उनके घर अच्छे लोगों के साथ-साथ बुरे लोग भी आते हैं, इसलिए वे अपनी बीवियों को पर्दा करने का हुक्म दें.इसके बाद हिजाब की आयत उतरती है.फिर, पैग़म्बर की बीवियों के चारित्रिक मानदंडों की चर्चा है.
पैग़म्बर की बीवियों के घर से बाहर पर्दा करने के संदर्भ में
पैग़म्बर मुहम्मद की बीवियों के शौच आदि को लेकर घर से बाहर जाने के दौरान उन्हें परदा करने की आवश्यकता के संदर्भ में हदीसें मिलती हैं.उनमें हज़रत आयशा (पैग़म्बर मुहम्मद की दूसरी बीवी) की बयान की गई हदीसों में विस्तृत वर्णन है.
पहली हदीस
हज़रत आयशा के बयानों वाली सहीह मुस्लिम की इस हदीस में उस वक़्त की चर्चा है, जब रसूल अल्लाह मक्का से हिजरत कर मदीना चले गए थे.स्रोतों के अनुसार, वहां रहते हुए उन्हें क़रीब सात या आठ साल हो गए थे.
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हज़रत आयशा की बयान की गई हदीस (स्क्रीनशॉट) |
यह हदीस यह बताती है कि रात के समय पैग़म्बर की बीवियां नित्य-क्रिया (शौच) के लिए मदीने के खुले मैदान में जाती थीं.इसको लेकर हज़रत उमर बिन ख़त्ताब (पैग़म्बर मुहम्मद के एक सहाबा यानि साथी) पैग़म्बर से ये बार-बार अनुरोध करते थे कि वे अपनी बीवियों को पर्दा करने का हुक्म दें.मगर पैग़म्बर ने ऐसा नहीं किया.
फिर, एक रात पैग़म्बर की एक बीवी हज़रत सौदा बिन्त-ज़मा (ज़मा की बेटी) शौच के लिए गईं.वह लंबी-चौड़ी और मोटी महिला थीं.हज़रत उमर ने उन्हें देखा, तो पहचान लिया.हज़रत उमर ने आवाज़ लगाई और कहा कि उन्होंने उन्हें (हज़रत सौदा को) को पहचान लिया है.
हज़रत आयशा के मुताबिक़, हज़रत उमर को उम्मीद थी कि ऐसा करने से आयत नाज़िल हो जाएगी.ऐसा हुआ भी, अल्लाह ने सुन ली और हिजाब की आयत उतर गई.
दूसरी हदीस
हज़रत आयशा की बयान की गई हदीसें सहीह बुख़ारी में भी मिलती हैं.उनमें से एक में उपरोक्त हदीस से मिलता-जुलता वर्णन है.लेकिन, इसमें पर्दे या हिजाब को लेकर नाज़िल हुई आयत में पूरा शरीर ढंकने यानि बुर्क़े के आदेश की भी चर्चा है.
ग़ौरतलब है कि हिजाब को लेकर उतरी आयत के बारे में, यहां जो पूरा शरीर ढंकने के आदेश मिलने/होने की बात कही गई है वह (वैसी बात), न तो उपरोक्त हदीस में वर्णित है और ना ही अल-हिजाब की किसी आयत में कुरान में मिलती है.
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हज़रत आयशा की बयान की गई हदीस (स्क्रीनशॉट) |
उपरोक्त हदीस जैसा ही, यहां भी बताया जा रहा है कि पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बीवियां रात्रि में शौच करने मदीने के एक खुले मैदान अल-मनासी में जाया करती थीं.इसको लेकर पैग़म्बर के सहाबा हज़रत उमर बिन अल-ख़त्ताब ने पैग़म्बर से बार-बार अनुरोध किया कि वे अपनी बीवियों को हिजाब करने का हुक्म दें लेकिन, पैग़म्बर ने ऐसा नहीं किया.ऐसे में, हज़रत उमर ने शौच के लिए निकलीं पैग़म्बर की बीवी हज़रत सौदा को उनकी कद-काठी (लंबी-चौड़ी व मोटी होने के कारण) के आधार पर उनकी पहचान कर उन्हें आवाज़ लगाई उन्हें बोल दिया कि वे पहचान ली गई हैं.ऐसा, उन्होंने अल-हिजाब की आयत नाज़िल होने की उम्मीद में किया, जो पूरी हुई.
हज़रत आयशा के मुताबिक़, इस उपरोक्त घटना के बाद अल्लाह ने हिजाब वाली आयत (आंखों को छोड़कर पूरा बदन ढंकने यानि बुर्क़ा पहनने को लेकर आयत) नाज़िल कर दी.
तीसरी हदीस
सहीह बुख़ारी की ही हज़रत आयशा के बयानों वाली एक अन्य हदीस में उपरोक्त प्रकार की घटना का ही ज़िक्र है.इसमें, उससे कुछ भी भिन्न नहीं है.
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हज़रत आयशा की बयान की गई हदीस (स्क्रीनशॉट) |
सहीह बुख़ारी की इस हदीस में भी उपरोक्त सारी बातें ही कही गई हैं.यहां भी बुर्क़े के आदेश की चर्चा है, जो हज़रत आयशा के ही बयानों वाली सहीह मुस्लिम की हदीस और कुरान की आयतों में वर्णन या आदेश से भिन्न है.
चौथी हदीस
सहीह बुख़ारी में संग्रहित हज़रत आयशा की बयान की गई एक अन्य हदीस भी हमें मिलती है, जो पूर्ववर्ती (उपरोक्त) हदीसों से काफ़ी अलग है.इसमें घटना के वर्णन में अंतर तो है ही साथ ही, यह हिजाब वाली एक आयत (सूरह 33:59) नाज़िल होने के बाद की परिस्थितियों से संबंधित है, जिसमें फिर, सूरा अन-नूर (कुरान का 24 वां सूरा) की 31 वीं आयत (हिजाब संबंधी अन्य आयत- सूरह 24:31) उतरती है.मगर, हैरानी की बात ये है कि उतर चुकी आयत (जिसके आलोक में यहां चर्चा चल रही है) से संबंधित जानकारी में कथित पूरा बदन ढंकने के आदेश (सहीह बुख़ारी की उपरोक्त दोनों हदीसों जैसा) संबंधी कोई ज़िक्र इस हदीस में नहीं है.
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हज़रत आयशा की बयान की गई हदीस (स्क्रीनशॉट) |
इसमें यह बताया जा रहा है कि पर्दे की आयत (जिसमें सभी मुस्लिम महिलाओं के लिए पर्दा अनिवार्य किया गया था) नाज़िल होने के बाद, पैग़म्बर मुहम्मद की बीवी हज़रत सौदा शौच के लिए निकलीं.वह एक लंबी और भारी-भरकम शरीर वाली महिला थीं.हर कोई, जो उन्हें पहले से जानता था, वह उन्हें पहचान सकता था.
हज़रत सौदा ने हिजाब नहीं किया था.ऐसे में, जब हज़रत उमर बिन अल-ख़त्ताब ने उन्हें देखा, तो उन्हें कह दिया कि वे ख़ुद को उनसे छुपा नहीं सकतीं हैं, इसलिए कोई ऐसा/और तरीक़ा सोचें, जिससे घर से बाहर वे पहचानी न जा सकें.
हज़रत सौदा जब वापस लौटीं, तब रसूल अल्लाह हज़रत आयशा के घर पर खाना खा रहे थे.मांस सहित हड्डी उनके हाथ में थी, तभी हज़रत सौदा वहां पहुंचीं और हज़रत उमर के व्यवहार को लेकर शिक़ायत की.यह सुनकर, रसूल अल्लाह (उसी अवस्था में) अल्लाह से मुख़ातिब हुए और फिर आयत नाज़िल हो गई.
फिर, रसूल अल्लाह ने हज़रत सौदा से कहा कि उन्हें (महिलाओं को) अपनी ज़रूरतों के लिए बाहर जाने की अनुमति दे दी गई है.
पैग़म्बर के हज़रत ज़ैनब से निकाह के प्रकरण के संदर्भ में
पैग़म्बर मुहम्मद की जीवनी लिखने वाले विलियम मुइर इस्लाम में पर्दे की अवधारणा को पैग़म्बर के हज़रत ज़ैनब बिन्त-जहश के साथ निक़ाह के प्रकरण के साथ जोड़कर देखते हैं.उनके अनुसार, यह (पर्दा या हिजाब) व्यक्तिगत कारणों से एहतियातन शुरू हुआ.
विदित हो कि हज़रत ज़ैनब बिन्त-जहश मुहम्मद साहब की फुफ़ेरी बहन थीं, जिनका निक़ाह (शादी) उन्होंने अपने दत्तक पुत्र (गोद लिया हुआ बेटा) ज़ायद बिन हरिथा (जो ज़ायद बिन मुहम्मद यानि मुहम्मद का बेटा कहलाता था) से करवाया था.फिर, ज़ायद द्वारा हज़रत ज़ैनब को तलाक़ देकर आज़ाद किए जाने के बाद उनका निक़ाह मुहम्मद साहब के साथ हो गया था.तारीख़ अल-तबरी में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है.
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तारीख़ अल-तबरी |
इसमें कहा गया है कि एक दिन जब पैग़म्बर मुहम्मद ज़ाएद के घर उससे मिलने पहुंचे, तो वह घर पर नहीं था.उसकी बीवी (हज़रत ज़ैनब बिन्त-जहश) ने, स्वागत किया.वह कम कपड़ों थीं, यह देखकर रसूल अल्लाह ने अंदर जाने मना कर दिया और बुदबुदाते (धीमे स्वर बोलना) हुए वापस लौट गए.हज़रत ज़ैनब ने जो सुना, वो ये था- ‘सर्वशक्तिमान ईश्वर की जय हो, उसकी जय हो, जो मन को परिवर्तित कर देता है.’
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तारीख़ अल-तबरी |
उपरोक्त संदर्भ में युनुस कहता है कि रसूल अल्लाह हज़रत ज़ैनब को देखकर आकर्षित हो गए और परिणामस्वरूप हज़रत ज़ैनब दूसरों के लिए (दूसरों की निगाह में) आकर्षक नहीं रहीं.फिर, ज़ाएद ने जाकर पैग़म्बर से बात की और अपनी बीवी को तलाक़ दे दिया.आख़िरकार, पैग़म्बर और हज़रत ज़ैनब का निक़ाह हो गया था.
इस प्रकार, विद्वानों की राय में, यह पूरी घटना पर्दे से जुड़ी हुई है, यानि घटना का कारण हज़रत ज़ैनब का पर्दे में न होने को बताया जाता है.ऐसे में, पर्दे या हिजाब की प्रथा शुरू हुई, ताकि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो अथवा किसी और के साथ घटित न हो.
मिराज से संबंधित प्रकरण के संदर्भ में
इस्लाम के कुछ जानकार (शिया मुसलमान) पर्दे की शुरुआत को मिराज या इसरा और मिराज के प्रकरण से जोड़कर देखते हैं.उनके अनुसार, मिराज के वक़्त यानि सात आसमानों के सफ़र (स्वर्ग की चढ़ाई) के दौरान जहन्नम में औरतों की दुर्दशा देखकर पैग़म्बर मुहम्मद दुखी हुए और नतीज़तन इस्लाम में हिजाब की शुरुआत हुई.
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जहन्नम से संबंधित हदीस (स्क्रीनशॉट) |
उपरोक्त हदीस में औरतों को उनके पापों को लेकर विभिन्न प्रकार की सज़ा का वर्णन है.इसमें पर्दे न करने की सज़ा भी शामिल है.मगर, इस लिहाज से देखा जाए तो हिजाब की शुरुआत मक्का में हुई.पर, क्या यह सही है?
ग़ौरतलब है कि मिराज की घटना पैग़म्बर के मक्का में रहते हुए घटी थी.मान्यताओं के अनुसार, यह यात्रा उन्होंने मक्का (मस्जिद अल-हरम) से शुरू की थी और वापस (एक ही रात में) फिर, वे मक्का लौटे थे.मगर, मक्का में तो हिजाब की शुरुआत नहीं हुई, क्यों? मक्का में पर्दे को लेकर कोई चर्चा नहीं मिलती.
पर्दे या हिजाब को लेकर आयतें इसरा और मिराज की घटना के बहुत बाद उतरी थीं.
हिजाब की आयतें मदीना में नाज़िल हुईं, वो भी हिजरत (पैग़म्बर मोहम्मद का मक्का से मदीना पलायन) के सात-आठ साल बाद, यही इस्लामी स्रोत कहते हैं और इस्लाम के जानकार भी मानते हैं.ऐसे में, हिजाब का मिराज से ताल्लुक़ है, यह सवाल है.
इसरा और मिराज को लेकर पूरे कुरान में सिर्फ़ और सिर्फ एक आयत मिलती है.इस इकलौती आयत में भी किसी स्वर्ग या नरक की चर्चा नहीं मिलती.
इस आयत में केवल मस्जिदुल हराम यानि मक्का स्थित मस्जिद ख़ान-ए-क़ाबा से मस्जिदुल अक्सा (इज़रायल स्थित अल-अक्सा मस्जिद जिसे आसमानी मस्जिद बताया गया है) तक के सफ़र की बात कही जा रही है.
बहरहाल, सऊदी अरब ने मिराज (मिराज के सफ़र) की घटना से संबंधित नरक में औरतों की हालत बयान करती हदीस को मनगढ़ंत व झूठी हदीस बताया है.
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जहन्नम से संबंधित हदीस (स्क्रीनशॉट) |
सऊदी अरब की सरकार की आधिकारिक वेबसाइट अल-इफ़्ता पर इसे देखा जा सकता है.यहां इस हदीस को ज़ईफ़ या दईफ़ बताते हुए मुनकर या खारिज़ कर दिया गया है.
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