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इस्लाम

हिजाब: कहीं नक़ाब और बुर्क़े की ज़िद, तो कहीं ख़िमार भी नज़र नहीं आता!

बदलते दौर में इस्लामी दुनिया के भीतर भी बाक़ी रंगबिरंगी दुनिया की तरह ही दो तरह की दुनिया पाई जाती है.कहीं आज भी हिजाब के नाम पर मर्द जबरन नक़ाब, अबाया, बुर्क़े आदि थोप कर औरतों को घर में ही क़ैद रखना चाहते हैं, बाहर की दुनिया में अपनी क़ाबिलियत साबित कर उन्हें अपनी पहचान बनाने का मौक़ा नहीं देना चाहते हैं, ताकि वे ग़ुलाम की ज़िंदगी बसर करती हुई सिर्फ़ मनोरंजन का सामान बनी रहें.मगर कहीं ऐसा भी है कि आज नक़ाब और बुर्क़ा तो क्या ख़िमार यानि दुपट्टा या ओढ़नी भी नज़र नहीं आती.यहां औरतों को मर्दों के बराबर के हक़-हकूक हासिल हैं और वे अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने व अपनी पसंद के मुताबिक़ जींस, शर्ट, कैप्री, माइक्रो मिनी आदि पहनने को आज़ाद है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
पर्दा और खुलापन (प्रतीकात्मक)

कट्टरता और उदारता मानव स्वभाव में ही निहित हैं.इसी तरह, रूढ़िवादिता और आधुनिकता भी एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह भिन्न-भिन्न स्थानों पर बसने वाले किसी एक ही समाज की विशेषताएं हो सकती हैं.जब हम इस्लामी समाज की ओर देखते हैं, तो पता चलता है कि यह समाज भी आज कुछ इसी तरह के अंतर्द्वंद से जूझ रहा है.

इस्लाम में हिजाब को लेकर जब चर्चा होती है तब कठमुल्ले ही नहीं कट्टरवादी मानसिकता के शिकार तथाकथित पढ़े-लिखे, उदारवादी और प्रगतिशील लोग भी किताबें पेश करते हैं.इनमें एक तफ़सीर इब्ने कथीर बड़ा चर्चित है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
तफ़सीर इब्ने कथीर

यहां यह बताया जा रहा है कि हिजाब यानि पर्दे का मतलब यह है कि औरत का सिर से लेकर पैर तक पूरा ढंका होना चाहिए.सिवाय एक आंख के बदन का कोई हिस्सा नहीं दिखना चाहिए.ऐसे में, यहां यह सवाल लाज़िमी हो जाता है कि एक आंख की जगह अगर दोनों आंखें दिखाई देती हैं, तो कौन-सा कुफ्र या गुनाह हो जाएगा.
 
हिजाब को लेकर ईरान के तेहरान में लगा एक बोर्ड (Veil Board) बहुत कुछ कहता है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
तेहरान में लगा हिजाब का बोर्ड 

यहां बताया जा रहा है कि हिजाब के बगैर एक महिला ‘बिना रेपर की टॉफ़ी’ की तरह है, जिस पर मक्खियां भिनक रही हैं या उस पर हमले कर रही हैं, जबकि रेपर में बंद टॉफ़ी सुरक्षित है.

ईरान, जिसे अरब इस्लामी इस्लामी देश ही नहीं मानते, वहां भी हालत ये है कि 12 साल से ज़्यादा उम्र की लड़कियां अपना चेहरा या बदन का कोई भी हिस्सा सगे पिता, पति या भाई के सिवा किसी को नहीं दिखा सकतीं.

यहां गोद ली हुई बेटी (हालांकि इस्लाम में गोद लेना मना है) के साथ तो स्थिति और भी अजीबोग़रीब है.उसे बाप (गोद लेने वाला, पिता) के सामने भी हिजाब करना ज़रूरी होता है.लेकिन, उसे हिजाब पहनने (बुर्क़ा आदि) से छूट या आज़ादी मिल जाती है, अगर वह बाप से शादी कर लेती है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
ईरान की मजलिस, बाप और बेटी का रिश्ता (प्रतीकात्मक)

ज्ञात हो कि ईरान की The Islamic Consultative Assembly जिसे मजलिस भी कहा जाता है, ने साल 2013 में ही एक कानून बनाया था, जिसके तहत एक पिता अपनी गोद ली हुई बेटी से शादी कर सकता है.



कुरान में हिजाब

हिजाब के नाम पर महिलाओं पर तरह तरह के दमघोंटू कपड़े लादने वाले मुस्लिम समाज की सबसे पाक़ और आसमानी समझी जाने वाली किताब कुरान में हिजाब के रूप में सिर्फ़ और सिर्फ़ विनम्र या शालीन कपड़े (हालांकि यहां मुस्लिम महिला या पुरुष या फिर दोनों के लिए किसी विशेष या मज़हबी लिबास का ज़िक्र नहीं है) की बात कही गई है.यानि न तो नक़ाब, अबाया या बुर्क़े जैसी किसी पोशाक की कोई बात कही गई है और न ही सिर-बाल और चेहरे ढंकने का ज़िक्र है.

ज्ञात हो कि कुरान में हिजाब शब्द सात बार आया है.इनमें चार बार महिलाओं से संबंधित विभिन्न आयतों (आयात) में से केवल दो आयतों में ही हिजाब को लेकर स्पष्ट निर्देश (जो कि अस्थायी ही है) है.

महिलाओं के लिए हिजाब या पर्दे को लेकर विस्तृत एवं स्पष्ट चर्चा हमें सूरह अन-नूर की आयत संख्या 31 (सूरह 24:31) में मिलती है.इसमें ईमान वाली औरतों यानि मुस्लिम महिलाओं को अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की रक्षा करने और अपनी छाती (वक्षस्थल) पर अपना ख़िमार (दुपट्टा, ओढ़नी) खींचने को कहा गया है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
कुरान की हिजाब वाली आयत (24:31)

इसमें कहा गया है कि रसूल ईमान वाली औरतों से कह दें कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें.वे अपना बनाव-श्रृंगार दूसरों पर प्रकट न करें, सिवाय उसके, जो स्वयं प्रकट हो जाता है.

इसमें ये भी कहा गया है कि मोमिनात (मुस्लिम औरतें) अपने ख़िमार अपने सीनों पर डाली रहें और अपने शौहर, अपने बाप-दादाओं, अपने शौहर के बाप-दादाओं, भांजों, दूसरी औरतों, अपनी लौंडियों (ग़ुलाम औरतों), घर के वे मर्द नौकर-चाकर, जो बूढ़े होने के कारण औरतों में रूचि नहीं लेते या वे कमसिन लड़के, जिन्हें औरतों और उनके पर्दे (यानि सेक्स से संबंधित) ज्ञान नहीं नहीं है, उनके सिवा किसी पर अपना बनाव-श्रृंगार ज़ाहिर न होने दें.साथ ही, चलने में अपने पांव ज़मीन पर इस तरह ना रखें (पैर ज़मीन पर मारती हुई ना चलें) कि आवाज़ (पायल या पाज़ेब आदि की आवाज़) से उनकी साज-सज्जा (बनाव-श्रृंगार, गहने आदि) का पता चल जाए.

कुरान की हिजाब को लेकर एक और स्पष्ट आयत, सूरा अल-अहज़ाब की आयत (सूरह 33:59) में रसूल/पैग़म्बर के परिवार के सदस्यों को घर से बाहर जाते समय पर उन्हें पर्दा या हिजाब करने को कहा गया है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
कुरान की हिजाब वाली आयत (33:59)

यहां (इस आयत में) नबी को संबोधित करते हुए कहा गया है कि वे अपनी बीवियों, बेटियों और दूसरी मुस्लिम औरतों से कह दें कि वे (घर से बाहर निकलते वक़्त) अपने ऊपर अपनी चादर का कुछ हिस्सा लटका लिया करें.इससे इस बात की अधिक संभावना है कि वे पहचान ली जाएं और सतायी न जाएं यानि छेड़ी न जाएं.

इस प्रकार, हम देखते हैं कि कुरान की इन आयतों में वैसा कुछ भी नहीं दिखता या मिलता है, जैसा कि तफ़सीर इब्ने कथीर या तेहरान के हिजाब के बोर्ड या फिर विभिन्न इस्लामिक देशों में हिजाब संबंधी नियमों में दिखता है.ऐसे में, सवाल उठता है कि कौन ज़्यादा अहम या अपनाने योग्य है- कुरान पाक (जिसे इस्लाम का आधार माना जाता है, और इसमें लिखी हर बात मानना फ़र्ज़ है) में लिखी बातें या तफ़सीर इब्ने कथीर और विभिन्न हदीसों के वर्णन?

बहरहाल, इस्लाम का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर ग़ौर करना ज़रूरी है.दरअसल, हम यहां बात कर रहे हैं जॉर्डन के शाह अब्दुल्लाह (द्वितीय) की, जिनका नाम, ख़ासतौर से इस्लाम के संदर्भ में, दुनियाभर में चर्चा का विषय है.

ख़ुद को पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज मानने वाले जॉर्डन के शाह के नज़रिए से देखें तो कई तरह से इस्लाम के मायने ही बदल जाते हैं.दरअसल, इन्हें तथा इनके परिवार को देखकर महसूस होता है कि आम मुसलमानों के इस्लाम और इनके इस्लाम में कहीं न कहीं ज़मीन आसमान का फ़र्क है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
जॉर्डन के शाह अब्दुल्लाह व उनका परिवार

यह बात अज़ीबोगरीब लगती है और कई लोग इसे आसानी से हज़म नहीं कर पाएंगें लेकिन, यह सौ फ़ीसदी सही है.दरअसल, यह एक ऐसा सच है, जिसे नकारा नहीं जा सकता.जॉर्डन के शाह अब्दुल्ला (द्वितीय) ख़ुद को पैग़म्बर मुहम्मद का वंशज मानते हैं और बहुत ही आधुनिक है.ये इतने आधुनिक हैं कि इन्हें आधुनिकता का पर्याय कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

आज जब कट्टरता-आतंकवाद दुनियाभर में फ़ैल रहा है, फिर से सातवीं सदी वाली अरबी-इस्लामी मान्यताओं पर ज़ोर दिया जाने लगा है, महिलाओं को घर में क़ैद कर रखने और उसे हिजाब से ढंकने को लेकर चर्चा गरम है, ऐसे में पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज शाह अब्दुल्ला के परिवार की औरतों का हिजाब, नक़ाब या बुर्क़े का इस्तेमाल न करना और जींस, शर्ट, टीशर्ट, कैप्री, माइक्रो मिनी आदि का इस्तेमाल करना और ये कहना कि इस्लाम बराबरी की बात करता है, अपने आप में बिल्कुल स्पष्ट है कि शाह अब्दुल्ला और उनका परिवार एक ऐसे इस्लाम को मान रहे हैं, जो कठमुल्लों और जिहादियों की जमातों से बहुत अलग है.दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है.

इसी प्रकार, दुबई के ताक़तवर शासक शेख़ बिन राशिद अल-मख्तूम और उनकी बेग़म शहजादी हया की तस्वीर भी बहुत कुछ कहती है.


हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
दुबई के किंग शेख़ बिन राशिद अल-मख्तूम व उनकी पूर्व बेग़म हया 

हालांकि यह तस्वीर पुरानी (3-4 साल पहले की) है फिर भी, अंदाज़ तो परंपरागत इस्लाम और शरिया के मुताबिक़ नहीं है.दरअसल, सोच का फ़र्क है, जो अपनी ताक़त के दम पर कठमुल्लापन को उसकी औक़ात दिखाता है.
 
ज्ञात हो कि शहज़ादी हया का ताल्लुक भी जॉर्डन से है.वे जॉर्डन के पूर्व शाह हुसैन की बेटी और वर्तमान शाह अब्दुल्ला (द्वितीय) की सौतेली बहन हैं, जो 2019 में बॉडीगार्ड के साथ दुबई से भागकर ब्रिटेन चली गईं थीं और उनके शौहर, दुबई के शासक शेख़ बिन राशिद अल-मख्तूम ने उन्हें तलाक़ दे दिया था.बताया जाता है कि बकिंघम पैलेस गार्डन्स में उनका अपना मकान है, और वे वही रहती हैं.

         

हिजाब की ज़िद,नक़ाब और बुर्क़ा,बदलाव की ओर
जॉर्डन के शाह अब्दुल्लाह संग बेग़म रानिया और दुबई के किंग संग बेग़म हया 

            

कुल मिलाकर आज का इस्लाम भी परिवर्तन की राह पर अग्रसर प्रतीत होता है.शायद यह आने वाले वक़्त के लिए शुभकर भी है.दरअसल, इस अनंत ब्रह्मांड में विविधता प्रकृति का बुनियादी तत्व है और जब हम इसे समझने लगते हैं, तो हमारे अंदर स्वाभाविक रूप से विद्यमान लोकतंत्र, मानवता, उदारता, प्रगतिशीलता को प्रबलता मिलती है.जिस समाज में जितनी विविधता होती है उस समाज में उतनी ही उदारता देखने को मिलती है और वह लोकतंत्र को अपनाने के लिए उतना ही तैयार होता है.खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, आस्था व पूजा पद्धति, रस्मो-रिवाज़ आदि दूसरों के प्रति सहिष्णुता की प्रेरणा देती हैं और बताती हैं कि न कोई मसीहा आख़िरी है, न कोई विचारधारा आख़िरी है.

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