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समसामयिक

राज्यों में क्यों नहीं चल रहा मोदी का जादू ?

केंद्र में मोदी सरकार की ये दूसरी पारी है और वो भी प्रचंड बहुमत से.इसे पहली पारी का विस्तार कह सकते हैं.देश की जनता जहाँ एक ओर सरकार द्वारा किये गए कार्यों से संतुष्ट दिखाई देती है वहीँ मोदी के हाथों भविष्य के प्रति आश्वस्त नज़र आती है.उसने राष्ट्रीय मुद्दों और विकासवादी नीतियों पर भरोसा कर दिल खोलकर समर्थन किया है जो अब भी जारी है.केंद्र में मोदी का जलवा बरक़रार है मगर पिछले कुछ वक़्त से राज्यों में मिज़ाज़ कुछ बदला-बदला सा नज़र आ रहा है.वहां जनता में मोदी का असर घटता प्रतीत हो रहा है और लगता है मोदी का ज़ादू चल नहीं रहा है.वहां मोदी को अनदेखा-अनसुना किया जा रहा है मानो दबी ज़ुबान में अवाम कह रही हो कि ‘तुम दिल्ली देखो,राज्यों का फैसला हम पर छोड़ दो’.अब देखिये,मोदी के प्रथम प्रधानमंत्रित्व काल और शुरूआती दौर में जो भारत भगवामय दिखाई दे रहा था वो दूसरे दौर में नज़र नहीं आ रहा है.भगवा सिमट रहा है.अब सवाल उठता है कि एक जगह मोदी की हरेक आवाज़ ज़ोरदार है तो दूसरी जगह कमज़ोर क्यों है? दूसरे शब्दों में,लोकसभा चुनाओं में मोदी की अपील फलदायी है तो विधानसभा चुनाओं में निष्फल क्यों?


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
राज्यों में उतरता भगवा रंग:पहुंचा 71 फ़ीसदी से 35 फ़ीसदी 

राजनीतिक पंडितों की बात करें तो उनका विश्लेषण ये बताता है कि मोदी का जादू अब भी बरक़रार है और दिखता भी है.वो वोट पर्सेंट की बात करते हैं और दायरे में बढ़ोतरी की दलील पेश करते हैं.इस तर्क में दम है मगर ये सच्चाई भी है कि बीजेपी पांच-छह राज्यों में लगातार घटी है और हारी भी है.और क्योंकि विजय को विजय कहते हैं और पराजय को पराजय इसलिए मंथन जरुरी है.जरुरी है निष्पक्ष एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण की जो तथ्यों पर आधारित हो और दलीलें हों कसौटी पर खरी.क्या है वास्तविक स्थिति और उसके कारण क्या हैं ये चर्चा का विषय है.मेरी राय में राज्यों में मोदी के जादू या जलवे में कमी आने के निम्नलिखित काऱण  हैं-

1. अमित शाह का अध्यक्ष पद छोड़ना: 

राज्यों में मोदी रथ की रफ़्तार धीमी होने अथवा थमने का सबसे बड़ा कारण है अध्यक्ष पद पर अमित शाह जैसे करिश्माई व्यक्तित्व का ना होना.चुनावी रण में बीजेपी के सेनानायक और वर्तमान राजनीति के चाणक्य कहे जानेवाले अमित शाह की कमी संगठन को खल रही है.कार्यकर्ताओं में जोश व उनका आम जनता से संवाद कम होता नज़र आ रहा है.और यही कारण है कि समावेशी विचारों द्वारा विभिन्न सामाजिक-धार्मिक व राजनैतिक घटकों से जुड़ाव व सहयोग की प्रक्रिया धीमी पड़ गई है तथा सांगठनिक विस्तार लगभग थम सा गया है.रिकॉर्ड पर नज़र डालें तो पता चलता है कि 2015 में जहाँ बीजेपी सदस्यों की संख्या 11 करोड़ थी 2018  के अंत तक 18 करोड़ के पार हो गई.जुलाई 2019  के सदस्य्ता अभियान में क़रीब 7 करोड़ नए सदस्य जुड़े.टाइम्स ऑफ़ इंडिया(अंक-29 अगस्त,2019) के अनुसार,शाह के नेतृत्व में 2015 में सदस्यता अभियान के तहत केवल 2. 2 करोड़ का लक्ष्य रखा गया था जबकि क़रीब 6 करोड़ नए सदस्य जुड़े.बीजेपी की ये सदस्य संख्या दुनिया के अधिकाँश देशों की कुल आबादी से ज़्यादा और केवल सात देशों की कुल आबादी से कम के आंकड़ों को दर्शाती है.नतीजा अप्रत्याशित रहा क्योंकि इसमें शाह का दिमाग और उनकी लगन व मेहनत शामिल थी.

मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
 अध्यक्ष पद पर रहते अमित शाह ने बीजेपी को देशभर में फैलाया 

बूथ लेवल पर जुड़ाव,छोटे व मंझोले क़द के नेताओं से लेकर उच्चस्तर के क्षेत्रीय नेताओं को साधने और उनके बीच समन्वय स्थापित करने की वो कला जेपी नड्डा में नहीं दिखती.और तो और अपने नेता व घटक दल ही संभाले नहीं जा रहे.इसका परिणाम महाराष्ट्र,दिल्ली और झारखंड चुनाव में दिख चुका है.आगे बिहार और बंगाल में कड़ी परीक्षा है अगर यही फैंसी स्टाइल और फाइव स्टार रणनीति रही तो समझ लीजिये डगर कठिन है.मगर बीजेपी के लिए भी शायद उपयुक्त विकल्प एक मसला है.एक तरफ़ जहां राजनीतिक मज़बूरी बन चुके राजनाथ कहीं फ़िट नहीं बैठ रहे तो दूसरी तरफ़ जेटली और सुषमा के वारिस की तलाश है.
  

2. राज्यों में कर्मठ व लोकप्रिय नेताओं का अभाव:


हालांकि ये कमियां लगभग सभी दलों में हैं लेकिन मोदी वाली बीजेपी जैसे सबसे बड़े और विस्तारवादी दल के लिए बहुत घातक है.आज लोगों की अपेक्षा होती है कि उन्हें एक कर्मठ व सशक्त नेतृत्व मिले जो प्रदेश के मसलों पर कड़े फैसले लेनेवाला हो.जनता को शिक्षा,रोज़गार व सुरक्षा उपलब्ध कराने वाला हो.साथ वो त्यागी भी हो क्योंकि कोई और तो सिर्फ अपने परिवार व दल का ही हित साधेगा और प्रदेश आगे बढ़ नहीं पायेगा.मतलब,कुल मिलाकर जनता को नेतृत्व के रूप में एक आदर्श पुरुष/स्त्री की तलाश है जो उसे हासिल नहीं हो पाता है और परिणामस्वरूप वो सत्ता-परिवर्तन या फिर नोटा का विकल्प चुनती है.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
ये हैं बीजेपी के वो अकुशल नेता और असफल मुख्यमंत्री जिन्होंने पार्टी की साख को बट्टा लगाया 

कुशल नेताओं का अभाव ही वो कारण है जो बीजेपी चुनाओं के पहले मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित नहीं करती और जीत के बाद पैराशूट लीडर थमा देती है.ये प्रयोग महाराष्ट्र,झारखंड और हरियाणा में फेल हो चुका है क्योंकि लोगों की अपेक्षा होती है कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार उनके प्रदेश का ही हो तथा उनकी बोली और रहन-सहन में घुलने-मिलने वाला हो.ये अलग बात है कि कोई बाहरी भी अपनी क़ाबिलियत और अच्छे कर्मों से जनता से जुड़कर दिलों में जगह बना सकता है.मोदी-योगी इसके ताज़ा उदाहरण हैं जो गुजरात और उत्तराखंड की सीमा लांघकर करोड़ों दिलों पर राज कर  रहे हैं.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
जनता दरबार में आये लोगों से एक एक कर मिलते मुख़्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

दरअसल,जनता को आज अपने प्रदेशों में भी मोदी-योगी जैसा ही व्यक्तित्व चाहिए जो हासिल नहीं होने पर असंतोष देखने को मिलता है.ऐसे में मोदी चाहे जितनी भी रैलियां कर लें,समझाने की कोशिश कर लें लोगों को समझ आनेवाला नहीं है.

3.उधोग-धंधे व रोजगार का अभाव:


राज्यों में बीजेपी ने परंपरागत सोच से आगे बढ़ नए उधोग-धंधों की स्थापना और रोजगार-सृजन पर बल नहीं दिया।फलतः बेरोजगारी बढ़ती गई और लोग विकास को तरसते रहे.हैरानी की बात है कि भाजपा के ही मुख्यमंत्री मोदी की आर्थिक नीतियों को अपने प्रदेशों में धरातल पर उतार नहीं पाए.जनता को महसूस हुआ कि कांग्रेस राज में जिन नीतियों की वो शिकार हुई वही नीतियां भाजपा राज में भी जारी हैं यानि नया कुछ नहीं है जैसे नई बोतल में पुरानी शराब.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
रोज़गार कार्यालय के सामने उमड़ा ये बेरोज़गारों का सैलाब देखकर भी राजनेताओं का दिल नहीं पसीजता 


4.गरीब व किसानों में असंतोष:


गरीबी दूर करने के मसले पर कांग्रेस को पीछे धकेल सत्ता पर क़ाबिज़ हुए भाजपाई कुछ नया नहीं कर सके और उनके सारे वादे कागज़ों पर धरे रह गए.ग़रीब विकास की बाट जोहते-जोहते ऊब गए और अपना रोष ज़ाहिर कर दिया.

मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
भारत के गांवों में बसता ग़रीब परिवार और उसका घर संसार 

जहाँ तक किसानों की बात है तो एक बात बिल्कुल साफ़ है कि राज्यों ने केंद्र की विकासपरक कृषि-नीति को सही और पूरी तरह ना तो लागू किया और नहीं उसपर ईमानदारी से काम किया.नतीज़ा ये हुआ कि किसान मिलने वाले सम्पूर्ण लाभ से वंचित रहे और जो मिले भी उसका वो सदुपयोग नहीं कर सके.जीतोड़ मेहनत कर भरपूर उत्पादन किया मगर उपज की सही कीमत नहीं मिली.लागत क़ीमत से ज़्यादा हुई तो बजट गड़बड़ाया और फिर उनके आर्थिक हालात बिगड़ गए.गरीब किसानों के सामने अब प्रश्न था कि वो घर चलाएं या फिर लोन चुकाएँ ? इस मुश्किल घड़ी में ब्याज़ बढ़ता गया और वो क़र्ज़ में डूबते गए.जहाँ-तहाँ आत्महत्या की कुछेक घटनाएं भी देखने की मिलीं.फिर अवसरवाद का जन्म हुआ और ग़रीब किसानों के साथ-साथ छोटे-मध्यम और बड़े किसानों पर भी डोरे डाले जाने लगे.उन्हें एकजुट कर राजनीति का एक नया अध्याय लिखने की क़वायद शुरू हुई जिससे उथल-पुथल और परिवर्तन का आगाज़ मुमकिन था.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
क़र्ज़ के बोझ तले दबे वो असली ग़रीब किसान जिनकी चिंता नहीं राजनीति होती है 


नए राजनीतिक परिदृश्य में किसानों से जुडी वाज़िब समस्याओं के साथ-साथ लम्बे समय से विवादों में रही लोन माफ़ी की समस्या को भी हवा मिली.भारतीय किसानों के सन्दर्भ में लोन माफ़ी की समस्या विवादस्पद इसलिए है कि इसमें ये तय नहीं है कि कौन सा किसान लोन माफ़ी का असली हक़दार है और कौन नहीं.इसमें ग़रीब और छोटे-बड़े सभी किसान शामिल कर लिए जाते हैं और उनके साथ इंसाफ़ के नाम पर राजनीती होती है.यहाँ लोन माफ़ी का मतलब है बैंकों से लिया गया लोन वापिस नहीं करना और उसे माफ़ करने के लिए प्रायोजित आंदोलनों (धरने-प्रदर्शनों) द्वारा सरकार पर अनावश्यक दबाव बनाना.प्रायोजित आंदोलन का सन्दर्भ यहाँ उस आंदोलन से है जिसे विपक्ष फाइनेंस करता है और पेड मिडिया उसका न्यूज़ कवरेज़ देती है.ये ब्लैकमेलिंग का एक तरीक़ा है जो सरकार को झुकाने या फिर सत्ता-परिवर्तन का एक हथियार बन गया है.

दुर्भाग्यपूर्ण,मगर ये सच है कि आज ज़्यादातर किसान लोन लेते ही है हज़म करने के लिए.हालांकि जायज़-नाज़ायज़ मांगों के साथ लोन माफ़ी के लिए ये संघर्ष की प्रवृति उनमें सत्ता वापसी के लिए लालायित कांग्रेस व उसके समविचारी दलों ने डाली है लेकिन ये रोग उन्हें लग चुका है जो देश की दशा-दिशा पर ग़लत असर डालने वाला है.दरअसल,लोन माफ़ी फौरी राहत है कोई समाधान नहीं.किसानों को समझना होगा कि ये किसी खास संकट में हो तो उचित है वर्ना विकास करना तो दूर किसी सरकार का चलना भी मुश्किल होगा.और जो दल ऐसे दावे करता है समझ लीजिये वो ठग रहा है.इसकी मिसाल राजस्थान,मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तित करने वाले किसान देख चुके हैं.गौरतलब है कि जो किसान लोन माफ़ी की मांग करता है वो अपने बच्चों की शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार व अन्य नागरिक सुविधाओं की मांग रखने का हक़ खो देता है.ये अज्ञानता के साथ-साथ एक चारित्रिक दोष भी है.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
विपक्ष के प्रायोजित आंदोलन के प्रसारण के लिए फिल्मांकन करती पेड मीडिया



5. जातीय समीकरण व तुष्टिकरण:


जैसे-जैसे शिक्षा व रोज़गार में बदलाव आ रहे हैं लोग जातिगत व नस्लीय दायरे से बाहर निकलकर खुले वातावरण और बेहतर अवसर की तलाश में हैं.लोग अपने परंपरागत पेशे से इतर वो कोई भी काम करने को तैयार हैं जो कम वक़्त में ज़्यादा फायदेमंद हो.इसके लिए वो खुद को ढ़ाल भी रहे हैं.आधुनिकीकरण के इस दौर में जहां जातिगत-व्यवस्था सिंकुडती जा रही है और नस्लीय भेदभाव कम हो रहे हैं वहीँ भारत के राजनितिक दल लक़ीर के फ़क़ीर बने हुए हैं.वो आज भी विभिन्न जातियों-नस्लों की आबादी और उनके वोटों के प्रतिशत के हिसाब से समीकरण बनाते और उम्मीदवार खड़े करते हैं.अलग़-अलग़ वर्गों-समुदायों के लिए अलग-अलग़ वादे किये जाते हैं तथा नारे गढ़े जाते हैं.और अगर इससे भी बात बनती नज़र नहीं आती तो ध्रुवीकरण के लिए ज़ायज़-नाज़ायज़ तरीक़े अपनाते हैं.इसे घटिया राजनीति कहते हैं लेकिन सच्चाई ये कि इससे कोई भी दल अछूता नहीं है.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
बीजेपी का तुष्टिकरण:मुसलमानों की इज़्ज़त-अफ़ज़ाई 

भाजपा शासित राज्यों में भी कांग्रेस वाली वही पुरानी संस्कृति देखने को मिली.संख्याबल के हिसाब से लोगों को तरज़ीह दी और उन्हें मनाते-भुनाते रहे.सेकुलरिज्म के नाम पर तुष्टिकरण करते रहे और अलगाववाद के ख़िलाफ़ क़दम उठाना तो दूर कोई कोशिश भी नहीं की और उसे पनपने दिया.ये मोदी के नए भारत वाले लोगों को नाग़वार गुज़रा जिसका नतीज़ा चुनाओं में देखने को मिला.

6. संघ के कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता:


संघ के कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता भी विगत चुनावों में बीजेपी की विभिन्न राज्यों में हार का महत्वपूर्ण कारक रही.इसे समझने के लिए संघ को समझना होगा.दरअसल,बीजेपी की मातृ-संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस ) व उसके विभिन्न आनुसंगिक संगठनों से जुड़े लोगों की चुनावों में बड़ी भूमिका होती है.चूँकि उनका दायरा विस्तृत और सामाजिक-सांस्कृतिक होता है इसलिए वो वहां भी पहुंच जाते और असर  डालते हैं जहाँ बीजेपी के लोग नहीं पहुंच पाते.अपने संपर्क-सूत्रों से वो पार्टी और विभिन्न वर्गों के बीच संवाद स्थपित कर एक पुल का काम करते हैं.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
राष्ट्र-निर्माण और रक्षा में अग्रणी भूमिका निभाने वाले संघ के स्वयंसेवकों की परेड 

लेकिन संघ परिवार में अब बदलाव देखने को मिल रहा है जिसे हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं-सैद्दांतिक और व्यावहारिक.सैद्दांतिक वर्ग के लोग आज भी अपने मूल उद्देश्य पर अडिग हैं जबकि व्यावहारिक वर्ग वाले समय के साथ विभिन्न मुद्दों पर समझौते के पक्षधर हैं.उनका मानना है कि समय के साथ चलते हुए अपनी उपस्थिति में विस्तार कर उचित अवसर का इंतज़ार करना चाहिए.आज संघ में ऐसे लोगों वर्चस्व है.इसलिए आज जो संघ हम देख रहे हैं वो बाहर से कुछ और है और अंदर से कुछ और.यानि आज का संघ ढांचे से तो वही है लेकिन बाकी सबकुछ बीजेपी का हो चुका है.संक्षेप में हम आज इसे बीजेपी की सांस्कृतिक ईकाई कह सकते हैं.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
बदलता संघ और उसके स्वयंसेवक:मूल उद्देश्य से भटके भाजपा की गोद में जा बैठे 

विगत दो दशकों के अध्ययन और अनुभव बताते हैं कि संघ परिवार के लोग व्यावहारिक रूप में हमेशा सक्रिय नहीं रहते.ये कितनी अज़ीब बात है कि व्यावहारिकता की बात करने वाले लोग स्वयं ही अपनी व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने का अवसर पैदा करते हैं.बीजेपी के सत्ता में आने के बाद ये लोग अपना असली मक़सद छोड़ व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि में लग जाते हैं और अपने प्रभाव के अनुरूप लाभ उठाते हैं.ये वक़्त इनके लिए जैसे लगाए गए पेड़ के फल खाने का होता है सांगठनिक कार्यक्रमों के विस्तार के लिए नहीं.इस तरह ये अपने ही विचारों-दलीलों को ग़लत सिद्ध करते हैं जिसमें ये उचित अवसर पर उचित कार्यवाई की बात करते हैं.उल्लेखनीय है कि पूरे शासन काल के दौरान ये जैसे अपना तेज खो देते हैं,प्रखरता भूल जाते हैं और सुसुप्तावस्था में चले जाते हैं.

लोकतंत्र में किसी भी शासन की एक अवधि होती है जिसके पूरे हो जाने पर फिर से जनता के बीच जाकर अपने कार्यों का हिसाब-क़िताब देना होता है.और ये जनता पर निर्भर करता है कि अपने मूल्यांकन के बाद किस निष्कर्ष पर पहुँचती है.जनता वर्तमान सरकार को दुबारा लाना चाहती है या उसे हटाकर किसी अन्य दल को मौका देना चाहती है.दरअसल ये एक कठिन वक़्त होता है जिसे परीक्षा की घड़ी भी कहते हैं जिसमें वर्तमान दल जनता को फिर से मनाने और उसे समर्थन के लिए तैयार कर पाता है या नहीं या फिर कोई और दल बाज़ी मार जाता है.ऐसे में वर्तमान दल अपने सारे तंत्र झोंक देता है.यहाँ अगर वर्तमान दल के पास संघ जैसा संगठन है तो वो उसे भी लगाता है.लेकिन यहाँ ये सवाल उठता है कि संघ के जिन लोगों की सक्रियता के दम पर पिछली बार बात बनी थी वो दुबारा तभी जायेंगे जब सरकार ने वादे के मुताबिक काम किये होंगे वर्ना घर बैठ जायेंगे.बीजेपी द्वारा हारे गए राज्यों में भी ऐसा ही हुआ.सरकार के साथ रेवड़ियां बांटकर खाने वाले व्यावहारिक वर्ग के लोग घरों में दुबके रहे और पहले से क्षुब्ध सैद्दांतिक लोगों ने मोर्चा सँभालने से मना कर दिया और बीजेपी का बंटाधार हो गया.  
                    

7. छलिया टाइप उम्मीदवार की कमी:


मुफ़्तखोर हो चुकी जनता को विकास नहीं रेवड़ियां चाहिए.ये बात सुनने में अटपटी ज़रूर लगती है लेकिन सौ फ़ीसदी सही है क्योंकि रोज़गार,शिक्षा और स्वास्थय के लिए एक ज़मीन तैयार करनी होती है.उधोग-धंधों के लिए नए निर्माण करने होते हैं और व्यापार के लिए सड़कें तथा हाईवे बनाने होते हैं.और जब ये सारी ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं तो विकास होता है जो दीखता भी है.मगर इसके लिए वक़्त चाहिए और जनता में संयम भी जिसका आज घोर अभाव है.तभी तो दिल्ली का कायाकल्प कर उसे राजधानी का स्वरुप देनेवाली शीला दीक्षित की वापसी नहीं हो पायी और जिसने कुछ नहीं किया तथा छलता रहा लेकिन मुफ़्त में बिजली-पानी दे दिया,जनता उसके साथ हो गयी.इसलिए ये कहने में गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि कल यदि इमरान खान भी भारत के किसी राज्य में चुनाव लड़ना चाहें और वो बिजली-पानी के साथ घरों की इएमआई की किश्तें भी चुकाने का वादा कर दें तो उनकी प्रचंड बहुमत की सरकार बन सकती है.ज़रा सोचिये बीजेपी के पास भी ऐसे करामाती उम्मीदवार होते तो क्या कोई क़िला छीन पाता ? मेरी राय में बिलकुल भी नहीं.ये रोग हमें कैसे लगा और इसका निदान क्या है,मंथन का विषय है.


मोदी का जादू, राज्यों में बेअसर, उतरता भगवा रंग
केजरीवाल की करामात:मुफ़्त बिजली-पानी के मास्टरस्ट्रोक से प्रचंड बहुमत   

                          

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