समसामयिक
मैरिटल रेप संबंधी कानून के बहाने भारत में विदेशी संस्कृति थोपने की साज़िश
भारत में मैरिटल रेप संबंधी क़ानून के बहाने विदेशी संस्कृति थोपने की साज़िश चल रही है.इस साज़िश में जहां कथित बुद्धिजीवि-पत्रकार शामिल हैं वहीं, अलगाववादी ताक़तें अंतर्राष्ट्रीय लॉबी के इशारे पर काम कर रही हैं.लेकिन, विडंबना ये है कि देश की मौजूदा सरकार हमारे सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने में लगातार नाक़ाम साबित हो रही है.
भारत में समलैंगिकता और व्यभिचार को वैधता दिलाने के बाद अब मैरिटल रेप यानि वैवाहिक बलात्कार संबंधी कानून के ज़रिए विवाह जैसी पवित्र व्यवस्था को भी तबाह करने का अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र चल रहा है.पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है और देशभर में सेमिनार-वेबिनार हो रहे हैं.सीएए के विरोध प्रदर्शनों और फ़र्ज़ी किसान आन्दोलन में अग्रणी भूमिका में रही विदेशी फंड पर थिरकने वाली तमाम एनजीओ ने एक बार फिर मोर्चा संभाल लिया है.हमारी बिकाऊ न्यूज़ मीडिया जहां पीआर एजेंसियों की तरह काम कर रही है वहीं, सोशल मीडिया के ज़रिए भी जमकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है.ऐसा दिखाया-बताया जा रहा है मानो, पति के रूप में सभी भारतीय पुरुष बलात्कारी और शैतान हैं और उनके चंगुल से औरतों को निकालकर उन्हें आज़ादी दिलानी है.सब कुछ पूर्वनियोजित है.अदालती सुर बदल गए हैं और केंद्र की मोदी सरकार भी एक बार फिर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से समझौता करने को तैयार दिखाई दे रही है.
उल्लेखनीय है कि सैकड़ों साल की ग़ुलामी में भी भारत और भारतीयता में बहुत कुछ बचा रहा परंतु, पिछले सात दशकों की आज़ादी के दौरान जो सांस्कृतिक मूल्यों का सत्यानाश हो रहा है वह, दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता.लिव-इन रिलेशनशिप अथवा रखैल परंपरा के लादने के बाद बाक़ायदा अप्राकृतिक यौन संबंधों (समलैंगिकता) और व्यभिचार अथवा विवाहेत्तर यौन संबंध (Extramarital Sex) को क़ानूनी दर्ज़ा भी, बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में मिला था.इसके पीछे एक अंतर्राष्ट्रीय लॉबी काम कर रही थी.इस बार भी वही हो रहा है.
ऐसा नहीं है कि मैरिटल रेप संबंधी क़ानून की वक़ालत पहली बार हो रही है.इससे पहले भी पति द्वारा पत्नी के साथ कथित ज़बरदस्ती बनाए गए शारीरिक संबंध के मामले में एफ़आईआर दर्ज़ करने (मैरिटल रेप का अपराधीकरण) और इसे वैवाहिक संबंध विच्छेद या विवाह-विच्छेद (तलाक़) का आधार बनाने की मांग उठ चुकी है.इसके लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (जिसमें बलात्कार संबंधी प्रावधानों का ज़िक्र है) के भाग 2 (एक अपवाद, जिसमें ये कहा गया है कि बालिग़ पत्नी के साथ ज़बरदस्ती शारीरिक संबंध अपराध नहीं है) को ख़त्म करने अथवा संशोधन को लेकर जनहित याचिकाएं दिल्ली हाईकोर्ट में खारिज़ हो चुकी हैं.यह बता दिया गया था कि यह मामला विधायिका के जनादेश के दायरे में है और इस संबंध में कोई भी न्यायिक आदेश पारित नहीं किया जा सकता है.सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करने से इनकार कर चुका है.भारत सरकार ने भी स्पष्ट मना कर दिया था.
दिल्ली हाईकोर्ट ने 10 जुलाई, 2019 को मैरिटल रेप संबंधी याचिका खारिज़ करते हुए कहा था-
” किसी निश्चित मामले पर क़ानून या उपनियम बनाने के लिए न्यायपालिका विधायिका को निर्देश नहीं दे सकती.वैवाहिक बलात्कार के उपाय को विधायिका द्वारा संशोधित किया जाना है और न्यायलय इसके लिए कोई निर्देश जारी नहीं कर सकता है. ”
मोदी सरकार ने तब हाईकोर्ट में दाख़िल अपने ज़वाब में कहा था-
” मैरिटल रेप को अपराध क़रार नहीं दिया जा सकता है, और अगर ऐसा होता है, तो इससे विवाह जैसी पवित्र संस्था अस्थिर हो जाएगी. ”
मोदी सरकार ने तर्क दिया था कि मैरिटल रेप जैसा कोई क़ानून पतियों को सताने के लिए एक आसान हथियार साबित हो सकता है और इसके बारे में हमें पूरी गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है.
तो फिर, दो साल के भीतर ही ऐसा क्या हुआ कि अब सब कुछ बदला बदला-सा नज़र आ रहा है? अदालती सुर ही नहीं बदल गए हैं, रूख़ भी सख्त हो गया है और यहां तक कि केंद्र की मोदी सरकार भी इस मामले में पुनर्विचार कर रही है? ये कोई रॉकेट साइंस नहीं है, हालात पर नज़र डालें, तो पूरा मामला समझ आ जाता है.
आंकड़ों का भ्रमजाल
भारत में वैवाहिक बलात्कार (Marital Rape) को लेकर ऐसे तथ्य व आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है.मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ने यानि अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह की बातें कर रहे है.उनके अध्ययन से साफ़ पता चलता है कि केवल और केवल भ्रमजाल फैलाया जा रहा है और पूरे ज़ोर-शोर से ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है कि मामले पर अंतर्राष्ट्रीय जगत का ध्यान आकर्षित हो.
पिछली जनहित याचिकाओं (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन- PIL) में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- NFHS) का हवाला देते हुए कहा गया था कि भारत में 15 से 49 वर्ष की आयु की 5% विवाहित महिलाओं के साथ उनके पति ज़बरन सेक्स करते हैं.राज्य स्तर पर बिहार में 11.4%, त्रिपुरा में 9%, पश्चिम बंगाल में 7.4%, हरियाणा में 7.3% और अरुणांचल प्रदेश में 7.1% महिलाओं की ऐसी शिक़ायतें हैं.
याचिका में यह भी कहा गया था कि भारत में 2.5% महिलाओं की शिकायत है कि उनके पति उन्हें शारीरिक रूप से किसी भी अन्य यौन कार्य को करने के लिए मज़बूर करते हैं, जो वे करना नहीं चाहतीं.
अबकी बार प्रचारित-प्रसारित हो रहे आंकड़े उपरोक्त आंकड़ों से काफ़ी अलग हैं.बताया जा रहा है कि पतियों की ओर से पत्नियों पर होने वाली ज़्यादतियां काफ़ी बढ़ गई हैं.29 फ़ीसदी से ज़्यादा ऐसी महिलाएं हैं, जो पतियों की शारीरिक या यौन हिंसा (NFHS-5 के अनुसार) का सामना कर रही हैं.ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में फ़र्क और भी ज़्यादा है.शहरों में 24%, जबकि गांवों में 32% ऐसी महिलाएं हैं.
इसके अलावा, विभिन्न न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं आदि में छपे लेखों के आंकड़े देखें तो सिर चकरा जाएगा.इनमें भारतीय पुरुषों को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है.
मीडिया के ज़रिए प्रचार-प्रसार
बीते साल फ़र्ज़ी किसान आंदोलन में जिस तरह हमारी न्यूज़ मीडिया ने पीआर एजंसियों की तरह काम किया और आढ़तियों, मंडियों के दूसरे दलालों और अलगाववादी ताक़तों के साथ मिलकर दलाली की, चंद पैसों के लालच में देश का सिर शर्म से झुका दिया, वह, फिर उसी भूमिका में नज़र आ रही है.
हाल ये है कि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में जहां भ्रामक लेख छप रहे हैं, ग़लत रिपोर्ट और तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं वहीं, विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर वामपंथी-नक्सली और अलगाववादी-जिहादी मानसिकता वाले व दाग़दार चेहरों के ख़ास इंटरव्यू हो रहे हैं.डिबेट कुछ इस तरह हो रहे हैं मानो, मैरिटल रेप देश का सबसे ज्वलंत मुद्दा हो, और इसका हल निकाले बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते.
क्या हमारे पत्रकारिता जगत को इतना भी नहीं पता कि हमारे देश में वैवाहिक बलात्कार को घरेलू हिंसा और यौन शोषण का ही एक रूप माना जाता है? क्या इन्हें ये भी मालूम नहीं है कि वैवाहिक बलात्कार को यहां पहले से ही आईपीसी की धारा 498 ए के तहत ‘क्रूरता’ के रूप में अपराध बनाया गया है? तो फिर ये इन मूलभूत बातों को चर्चा में क्यों नहीं रखते और यह भी क्यों नहीं बताते कि मैरिटल रेप को साबित करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि लगभग नामुमकिन है? ये यह सवाल क्यों नहीं उठाते कि इस पर (मैरिटल रेप संबंधी) यदि कोई क़ानून पारित हुआ, तो उसके कितने भयंकर परिणाम निकलेंगें? ज़वाब स्पष्ट है.ऐसा ये जानबूझकर कर रहे हैं यानि ये कोई मानसिक दिवालिया नहीं हैं, बल्कि एक ख़ास एजेंडे पर काम कर रहे हैं.
हमारा पत्रकारिता जगत दरअसल, एक ऐसे टूलकिट का हिस्सा है, जिसका कार्यक्षेत्र तो हमारा देश भारत है, लेकिन इसकी चाबी अथवा रिमोट अंतर्राष्ट्रीय लॉबी के हाथ में है.हमारी न्यूज़ मीडिया तो बस एक प्यादा है.
न्यूज़ मीडिया की तरह ही सोशल मीडिया पर भी चर्चा का बाज़ार काफ़ी गरम है, और ऐसे ज्ञानी-ध्यानी और बुद्धिजीवि भी महिलाओं की पीड़ा को लेकर रोते-बिलखते नज़र आते हैं, जो एक महिला और उसके हक़-हुक़ूक़ तो क्या एक पुरुष के तौर पर ख़ुद को भी नहीं पहचानते.शायद इसी को लोकतंत्र कहते हैं.
सोशल मीडिया में मैरिटल रेप का मुद्दा ट्रेंड कर रहा है.महिलाओं के समर्थन के नाम पर जमकर सेक्स संबंधी बातें हो रही हैं.उटपटांग विचारों वाले पोस्ट लोग चटखारे लेकर पढ़ रहे हैं और लाइक, कमेंट तथा शेयर कर रहे हैं.
विवाह को मैरिज या शादी का रूप देने की क़वायद
यह एक साज़िश है विवाह नामक एक विशिष्ट एवं पवित्र भारतीय संस्कार को मैरिज या शादी के समानांतर खड़ा करने अथवा उसका रूप देने की, जिसमें न तो तलाक़ की कोई अवधारणा है और न बलात्कार जैसे विचार का ही समावेश है.विवाह और मैरिज या शादी में बहुत फ़र्क है.
उल्लेखनीय है कि सनातन हिन्दू समाज में संभ्रांत व श्रेष्ठजनों के समक्ष और देवी-देवताओं की उपस्थिति में होने वाला विवाह अथवा पाणिग्रहण संस्कार दरअसल, सात जन्मों का बंधन है, जो अंतिम सांस तक पूरी मर्यादा और जिम्मेदारी के एहसास साथ निभाया जाता है.दूसरी ओर, ईसाइयों में मैरिज की जहां कोई आयु नहीं होती, यह महज़ एक सामाजिक रस्म है वहीं, इस्लाम में शादी तो महज़ एक क़रार होती है, जिसे कभी भी तोड़ा या फिर जोड़ा जा सकता है.इसमें मेहर की रक़म अदायगी से परिस्थितियां बदल सकती हैं.
शादी या निक़ाह की अवधारणा के अनुसार, शौहर मेहर की रक़म अदा कर अपनी बीवी को छोड़ सकता है या उस पर दबाव बनाने को लेकर शर्त रख सकता है कि वह मेहर की रक़म का भुगतान तभी करेगा जब वह जिस्मानी ताल्लुक़ात बनाएगी.इसी तरह, बीवी भी शौहर पर दबाव बनाने को लेकर शर्त रख सकती है कि वह तब तक उसे अपने पास फटकने नहीं देगी, जब तब कि वह मेहर की रक़म नहीं चुका देता.यानि मेहर की रक़म अदा करने के बाद शौहर बीवी के साथ वह सब कुछ कर सकता है, जो वह चाहता है.लेकिन, सनातन हिन्दू विवाह में पति-पत्नी दो ज़िस्म एक जान होते हैं.इसीलिए पत्नी अर्द्धांग्नी कहलाती है.दोनों को एक दूसरे पर समान अधिकार है, तो दोनों के लिए एक दूसरे के प्रति कर्तव्य भी हैं.ऐसे में, इसमें ज़बरदस्ती की कोई गुंजाइश ही नहीं है और जब ज़बरदस्ती नहीं होगी, तो बलात्कार का सवाल ही खड़ा नहीं होता.
दरअसल, मैरिटल रेप की अवधारणा एक साज़िश है पवित्र भारतीय वैवाहिक परंपरा को मैरिज या शादी के समानांतर खड़ा करने अथवा उसका रूप देकर इसे यूरोपीय व अमरीकी या फिर अरबी स्तर पर ले जाने की, जहां इसके सारे मायने बदल जाते हैं.यही कारण है कि ज़बरन शारीरिक संबंध को वैवाहिक बलात्कार कहने से लोग बच रहे हैं, और इसे मैरिटल रेप कहा जा रहा है.इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है.
सरकार पर दबाव
वैसे तो देशविरोधी ताक़तों को केंद्र की दब्बू मोदी सरकार को झुकाने में बहुत ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी, यह पिछला अनुभव तो बताता ही है, कोर्ट के हालिया रूख़ को भी देखकर लगता है.सरकार यू टर्न ले सकती है.इस सिलसिले में उसने कोर्ट को बता दिया है कि वह अपने पहले के रूख़ पर दोबारा विचार कर रही है और जल्द ही इससे अवगत कराएगी.
मगर नौटंकी भी ज़रूरी है वर्ना लोग समझेंगें कि बड़ी आसानी से समाज का बेड़ा गर्क हो गया.शायद, इसमें सरकार की मिलीभगत रही होगी.
चार साल पहले की बात है.इसी तरह का तमाशा देश में चल रहा था.समलैंगिक और व्यभिचारी दिल्ली की सड़कों पर रोमांस कर रहे थे, फाइव स्टार होटलों में पत्रकार, लेखक और बुद्धिजीवि वाकयुद्ध कर रहे थे और अदालत में काली कोट वाले भारतीय संविधान के कमज़ोर बिन्दुओं पर माथापच्ची कर रहे थे.इंसानों को पशु-पक्षियों जैसा ही बताकर उनके ह्रदय की पीड़ा को समझा जा रहा था.यह सब कुछ न्यूज़ मीडिया और सोशल मीडिया में वायरल होते देख हमारी ‘फुलकुमारी टाइप’ सरकार घबरा गई.उसने भी पाला बदल लिया.इसका नतीज़ा ये हुआ कि समलैंगिकों और व्यभिचारियों को मनमानी का लाइसेंस मिल गया.
हैरानी की बात ये है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति विरोधी कांग्रेस सरकार के रहते जो भारत विरोधी अपने मंसूबों में नाक़ाम रहे थे वे, भगवा सरकार में क़ामयाब हो गए.
जो खेल चार साल पहले हुआ था वही खेल फिर खेला जा रहा है.एक मृत समाज से अपेक्षा भी क्या होगी?
विदेशी विचारधारा थोपने का तरीक़ा
ऐसा देखा गया है कि देश की सांस्कृतिक अवधारणाओं, मूल्यों और विरासतों के खिलाफ़ किसी तरह की मुहिम की तैयारी दिल्ली में होती है.दिल्ली के लुटियन जोन में इसका ख़ाका तैयार होता है.किराये के थिंक टैंक होमवर्क करते हैं.फ़र्ज़ी आंकड़े गढ़े जाते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट में बाक़ायदा इसका रिहर्सल होता है और फिर, यहां से यह मुद्धा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा दिया जाता है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी मामले का सुना जाना ही अपने आप में बड़ी बात होती है. थोड़े ना-नुकुर और मार्गदर्शक टिप्पणियों के साथ यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्धा बन जाता है.फिर राजनितिक बयानबाजियां, टीवी डिबेट, अख़बारों के कॉलमों (स्तंभ) के ज़रिए हमारे मुर्दा समाज के शवों का जैसे परीक्षण होता रहता है.धीरे-धीरे मामला ठंडा पड़ता जाता है और लोग अपने काम-धंधों में व्यस्त होकर इसे भूलने लगते हैं.फिर, अचानक किसी दिन सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ जाता है और हमारी हज़ारों साल पुरानी सनातन संस्कृति को छिन्न-भिन्न करती हुई एक विदेशी अवधारणा अथवा क़ानून ज़बरन हमारे समाज पर लाद दिया जाता है.
अलगाववादी सोच ही नहीं, एक अवसर भी है ये षड्यंत्र
इसमें बहुतों का फायदा है.विदेशी धन पर जीने वालों से लेकर वामपंथियों-जिहादियों, टुकड़े टुकड़े गैंग, तख्ती गैंग और डिजाइनर पत्रकारों के भी मज़े हैं.इससे देश के आंतरिक और बाहरी दुश्मनों का मतलब तो पूरा होता ही है साथ ही, राष्ट्र के विखंडन के महत्वपूर्ण कारक समझे जाने वाले ध्रुवीकरण का सियासी लाभ विभिन्न राजनीतिक दलों और सरकारों को भी मिलता है.यानि हमाम में सभी नंगे हैं, नाम-उपनाम और रंग-रूप अलग हैं.
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