समसामयिक
महामारी में निज़ी अस्पतालों की लूटपाट और गुंडागर्दी
– पैनल में शामिल निज़ी अस्पतालों द्वारा नियमों के उल्लंघन और गुंडागर्दी पर कार्रवाई नहीं.
– पैसों की लूट के साथ-साथ आबरू भी ख़तरे में
– मरीजों को जनरल वार्ड में रखकर आईसीयू के चार्ज़ वसूले
– मौत के बाद भी अस्पताल करता रहा मरीज़ का इलाज़
– इस देश में मुर्गी चुराने की सज़ा 6 महीने की है पर मरीज़ को मौत के मुंह में धकेलने वाले डॉक्टर क़सूरवार नहीं.
निज़ी अस्पतालों में पहले इलाज़ के नाम पर मरीज़ों से ठगी व लूटपाट की ख़बरें आती थीं.मगर कोरोना महामारी के चलते हालात और भी संगीन हो चले हैं और मरीज़ों की ज़ेबों पर डाका डालने वाले डॉक्टर अब उनकी ज़ान भी लेने लगे हैं.प्राण दाता प्राण हर्ता बन गए हैं.ये महामारी में महापाप तो है ही शासकीय निष्ठुरता भी है.लगता है मेडिकल माफ़िया और सरकारों के बीच आपदा में अवसर को लेकर यह एक अघोषित क़रार का परिणाम है.
देश का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जहां बीमार और उनके परिजन हैवान बन चुके इन निज़ी अस्पतालों और उनके डॉक्टरों के चंगुल में न फंसे हों.अपने जीवनभर की कमाई लुटा देने के बाद भी ऐसे कम ही तीमारदार ख़ुशनसीब हैं जो इलाज़ के बाद अपनों को सही सलामत और जिंदा वापस घरों को ले जाने में क़ामयाब हुए हैं /हो रहे हैं.लाशों के ढ़ेर पर कमाई करने वालों ने अधिकांश मरीजों के लिए यमलोक का द्वार खोल दिया.मगर वहां भी पहुंचना अब आसान नहीं रहा.दुर्गति अलग से हो रही है.
अस्पताल से लेकर श्मशान तक लाशें ही लाशें |
देश की राजधानी से लेकर राज्यों के छोटे-बड़े शहरों से एक के बाद एक हृदयविदारक घटनाएं सामने आ रही हैं.मगर सभी का वर्णन संभव नहीं है.इसलिए राज्यवार कुछ चुनिंदा घटनाओं का वर्णन करना ज़्यादा उचित प्रतीत होता है.
हरियाणा: पैनल के तहत इलाज़ से इनक़ार
हरियाणा सरकार की रिपोर्ट में लूट-खसोट में टॉप पर पाए जाने वाले उसके तीन ज़िलों-गुरुग्राम,पलवल और सिरसा में से गुरुग्राम सबसे ऊपर बताया जा रहा है.अन्य अस्पतालों के साथ ही यहां का सबसे बड़ा अस्पताल मेदांता अस्पताल (मेडिसिटी) जो राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्यातिप्राप्त है,उसके ख़िलाफ़ भी शिक़ायतों की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी है.
बताया जा रहा है कि यहां कोरोना संक्रमितों से तो मनमानी फ़ीस वसूली ही जा रही है है साथ ही,कोरोना प्रोटोकॉल के नाम पर दूसरी बीमारियों से ग्रसित लोगों के साथ भी अन्याय हो रहा है.इस पर गुंडागर्दी के भी आरोप लग रहे हैं.
इसी कड़ी में,मेदांता द्वारा नियमों का उल्लंघन कर एक मरीज़ के साथ नाइंसाफ़ी करने का मामला प्रकाश में आया है.प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार,एक मरीज़ के पैनल की बजाय प्राइवेट इलाज़ के लिए राज़ी नहीं होने पर न सिर्फ़ उसकी सर्ज़री करने से मना कर दिया गया बल्कि उसके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ.
मरीज़ की फ़ाइल से जुड़े कागज़ात |
यह वाक़या गत मई महीने का है.गुडगांव के मेदांता अस्पताल (मेडिसिटी) द्वारा अर्जेंट (तत्काल) लेप्रोस्कोपिक सर्ज़री का वादा किए जाने पर दिल्ली का एक मरीज़ एपॉइंटमेंट लेकर वहां पहुंचा.
चूंकि वह एक सरकारी विभाग से ताल्लुक़ रखता था इसलिए उसने पैनल के तहत बाक़ायदा फ़ीस भरकर डॉक्टर आदर्श चौधरी को दिखाया.उल्लेखनीय है कि डॉक्टर चौधरी देश के जाने-माने लेप्रोस्कोपिक सर्जन होने के साथ-साथ यहां के चेयरमैन भी हैं.उन्होंने पीड़ित का चेकअप किया.
उसके बाद क्या हुआ सुनिए पीड़ित की ही ज़ुबानी…
” डॉक्टर चौधरी ने कहा- यह अर्जेंट केस है.तुरंत आपरेशन करना होगा.मगर दिक्कत ये है कि आप पैनल में हैं…मुश्किल है…. हमारे ऊपर लोड (भार) बहुत ज़्यादा है.बाहर स्टाफ से बात कर लीजिए…ये कहते हुए डॉक्टर आदर्श चौधरी ने आधे-अधूरे प्रिस्क्रिपशन (मर्ज़ की डिटेल एवं सलाह लिखे बिना) मेरे हाथ में पकड़ाते हुए केबिन से बाहर जाने को बोला.इस पर मैंने उनसे सवाल किया- सर,कुछ समझ नहीं आया.इसका क्या मत्लब है?क्या आजकल आप पैनल के तहत इलाज़ नहीं कर रहे हैं?ऐसी तो कोई गाइडलाइन/आदेश की जानकारी नहीं मिली?सर,ये तो ग़लत है.आप ख़ुद चेयरमैन भी हैं.ज़रा सोचिए,ऐसे में मैं कहां जाऊंगा? मुझसे दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा है.प्लीज़ मेरा ज़ल्दी आपरेशन कर दीजिये..मेरी समस्या समझिए.यह सुनकर भी उन्हें अपने पवित्र पेशे के पवित्र सिद्ध्यांतों की याद नहीं आई.कहां वे मेरी असहनीय पीड़ा का ख़याल करते,उल्टे मुझपर आग बबूला हो गए.कुछ वैसा जो बिल्कुल अप्रत्याशित थी.उन्होंने आवाज़ लगाकर अपने सहायकों को बुला लिया और कहा-इसको बाहर ले जाओ और समझा दो… सेंसलेस (बिना दिमाग़ का) है ये…समझने को तैयार ही नहीं है.मैंने देखा- डॉक्टर चौधरी के सहायक (नीले कपड़ों में दो व्यक्ति) ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो वे स्वास्थ्यकर्मी नहीं बल्कि किसी होटल/बीयर बार के बाउंसर हों.उनकी आंखों में ये साफ़ झलक रहा था कि मुझ जैसे बीमार और दर्द से कराह रहे व्यक्ति के साथ भी वे हाथापाई कर सकते थे.सचमुच बहुत ही दुखदायी तस्वीर थी वो.वे लोग मुझे बाहर ले गए तथा समझाने लगे-आपको समझदारी से काम लेना चाहिए था….एक आम पेशेंट (मरीज़) के रूप में आपरेशन के लिए राज़ी हो जाते… तो आपका काम बन सकता था….महंगा होता पर समस्या तो दूर हो जाती.पर,अब मुश्किल है,कहीं और चले जाओ.मैं ज़ख्म की पीड़ा से परेशान था तथा शारीरिक रूप से अब और भागदौड़ करने की स्थिति में नहीं था.इसलिए उनके कहे अनुसार एक प्राइवेट मरीज़ के रूप में आपरेशन कराने के लिए तैयार हो गया.इसी बीच एक अन्य व्यक्ति भी वहां आ पहुंचा जो शायद कोई सीनियर अधिकारी था.मैंने उनसे भी विनती भरे स्वर में कहा-सर,हमें कहीं और नहीं जाना…क्योंकि दर्द असहनीय होता जा रहा है और हिम्मत भी नहीं बची है.इसलिए मैं प्राइवेट तौर पर पे (ख़र्च करने) करने को तैयार हूं.प्लीज़ सर्ज़री कर मुझ पर कृपा कीजिये.ये सुनकर उन्होंने हमें बाहर इंतज़ार करने को कहा.कुछ ही पलों बाद वे फ़िर दिखाई दिए.वे शायद डॉक्टर चौधरी से बात करके वापस लौटे थे.वे एक अन्य व्यक्ति (अस्पताल कर्मी,अधिकारी) से निर्देश जैसे स्वर में बोल रहे थे-ये सरकारी आदमी है.सर्ज़री के बाद अगर इसने क्लेम कर दिया या फ़िर कुछ और करता है… तो प्रॉब्लम हो सकती है और बदनामी भी.इसलिए इसे भगा दो…यही ठीक रहेगा.वही हुआ.उन्होंने अब हमें साफ़ मना कर दिया.इसके बाद तो हमारे पास कहीं और इलाज़ की खोज़ में धक्के खाने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था.इसका हमें दुख था तो मन में रोष भी बहुत था.ऐसे में,अब हमने उनसे सर्ज़री से मना करने का कारण लिखकर देने की मांग कर दी.यह एक ज़ायज़ मांग थी.हमारा हक़ था.इस पर पहले तो वे नहीं माने.पर हमने जब ज़िद की तो उन्होंने प्रिस्क्रिप्शन पर महज़ दिखावे के लिए सिर्फ़ एक लाइन लिख दी.एक ऐसा तर्क जिसको लेकर सवालों का उनके पास ज़वाब नहीं था.उन्होंने जो लिखा उस पर न तो साइन किया और न ही मुहर लगाई.इसको लेकर ज़िद करने पर उन्होंने कहा-जो करना होगा कर लेना.अब ज़ल्दी यहां से निकल लो वर्ना… “
अब यहां इस पूरी घटना पर ग़ौर करें तीन बातें मुख्य उभरकर सामने आती हैं-
1. पैनल के तहत इलाज़- पैनल (सीजीएचएस,ईसीएचएस और डीजीएचएस) में शामिल निज़ी अस्पतालों को सरकारी कर्मचारियों का इलाज़ सरकार के द्वारा तय रेट पर करना होता है.इसका रिकॉर्ड संबंधित विभाग को भेजा जाता है और यह पारदर्शी होता है.इसमें गड़बड़ी की गुंज़ाइश नहीं होती.
पैनल व उससे संबंधित विभाग |
2. प्राइवेट इलाज़- प्राइवेट इलाज़ यानि ग़ैर-सरकारी लोगों का इलाज़ पैनल के तहत इलाज़ के मुक़ाबले काफ़ी महंगा होता है.मिसाल के तौर पर डॉक्टर की कंसलटेंसी फ़ीस पैनल के तहत यदि 150/- रुपए है तो वह प्राइवेट इलाज़ के तहत 2200/- रूपये या इससे ज़्यादा भी हो सकती है.
इसी से इलाज़ की बाक़ी प्रक्रिया पर ख़र्च का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
दूसरा,इसमें लूटपाट एवं बिल में गड़बड़ी की घटनाएं आम हैं जिन्हें हमारी लचर/भ्रष्ट व्यवस्था रोकने में नाक़ाम है.
3. आपरेशन के लिए मना करने का कारण (प्रिस्क्रिप्शन वाले पेज़ पर) लिखा है-
In view of Covid, Elective Surgery not being conducted..
इसका मत्लब है- कोविड के चलते वैकल्पिक सर्ज़री नहीं की जा रही है…
उल्लेखनीय है कि इलेक्टिव सर्ज़री यानि वैकल्पिक सर्ज़री वो सर्ज़री होती है जो पहले से तय होती है और वह आपातकालीन चिकित्सा के तहत नहीं आती/शामिल नहीं होती.
यह मेडिकल साइंस की अवधारणा है.इस पर विवाद नहीं है.मगर इसको लेकर फ़िर तीन सवाल खड़े हो जाते हैं जिसका ज़वाब पीड़ित को अस्पताल न उस वक़्त दे पाया था और न ही आज देने की स्थिति में है-
1. अगर अस्पताल में पहले ही ऐसी पॉलिसी (नीति) लागू थी तो पीड़ित से फ़ोन पर उसकी पूरी समस्या सुनने के बाद तुरंत सर्ज़री करने का वादा कर उसे दिल्ली से गुडगांव क्यों बुलाया गया?
फ़िर तत्काल अपॉइंटमेंट देकर डॉक्टर चौधरी से क्यों मिलवाया गया?
2. डॉक्टर चौधरी ने क्यों कहा-यह अर्जेंट केस है…तुरंत आपरेशन करना होगा? उन्होंने पैनल के तहत इलाज़ से मना क्यों किया? प्रिस्क्रिप्शन पर मर्ज़ की डिटेल और सलाह क्यों नहीं लिखी?
3. मेदांता अस्पताल क्या उस दिन अथवा उन दिनों के अपने अस्पताल के रिकॉर्ड से ये साबित कर सकता है कि उसने सिर्फ़ जीवन रक्षक सर्ज़री/आपरेशन ही की थी?
4. पीड़ित यदि इमरजेंसी की हालत में नहीं था तो एक दूसरे अस्पताल ने उसी दिन उसका केस अर्जेंट केस क्यों करार देकर उसे भर्ती कर लिया और फ़िर उसकी सर्ज़री की? वहां के सर्जन के फ़ैसले को क्या कहेंगें?
यानि जितनी बड़ी दुकान उतना बड़ा झूठ.यही निज़ी अस्पतालों की असलियत है जो छुपाए नहीं छुपती.
सच ये है कि डॉक्टर चौधरी ने पीड़ित को पैनल के तहत इलाज़ के बदले प्राइवेट इलाज़ की सलाह दी और जब वह उसके लिए राज़ी नहीं हुआ तो उन्होंने सर्ज़री करने से मना कर दिया.बाद में,इलेक्टिव सर्ज़री का झूठा बहाना बनाकर उन्होंने उस नियम की धज्जियां उड़ा दी जिसमें सरकार का ये स्पष्ट निर्देश है कि ऐसे इलाज़ से मना करने पर कार्रवाई के साथ अस्पताल का लाइसेंस भी रद्द हो सकता है.साथ ही,पवित्र पेशे को भी कलंकित किया.
मगर डॉक्टर आदर्श चौधरी ही यहां अकेले कठघरे में खड़े नहीं हैं.यह पूरा मेदांता अस्पताल या फ़िर यूं कहिए कि साढ़े तीन हज़ार करोड़ रूपये की बाज़ार क़ीमत वाली हेल्थ केयर कंपनी मेदांता भ्रष्टाचार की ज़मीन पर खड़ी बताई जाती है.इसको लेकर इसके मालिक़ और देश के टॉप के कार्डियोलौजिस्ट डॉक्टर नरेश त्रेहान समेत 15 लोगों पर कोर्ट के आदेश पर मनी लौन्ड्रिंग,पीसी एक्ट और आईपीसी की विभिन्न संगीन धाराओं के तहत पहले ही मामले दर्ज़ हैं.
डॉक्टर नरेश त्रेहान,मेदांता अस्पताल के मालिक |
बिहार: पैसों की लूट के साथ आबरू भी ख़तरे में
कोरोना की दूसरी लहर में बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह चरमरा गई है.यहां के कुछ ज़िलों से ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जो अत्यंत दुखद हैं.इनको लेकर पूरे देश में चर्चा है.
यहां दिल दहला देने वाली एक घटना में बताया जाता है कि अपने कोरोना संक्रमित पति को बचाने के लिए संघर्ष कर रही एक पत्नी डॉक्टरों और उनके सहायकों द्वारा यौन शोषण का शिक़ार होती रही.पैसे फूंके,दिन-रात एक कर दिया मगर वह जीत न सकी और आख़िरकार कोरोना काल के यमराजों ने उसका सिंदूर मिटा दिया.
ये काले कारनामे सूबे के दो सबसे महंगे और नामी अस्पतालों से जुड़े हैं जहां महिला ने कालाबाज़ारी,बदइंतज़ामी और अमानवीयता के बीच अपने सुहाग के लिए ज़ंग लड़ी.जो कुछ उसने झेला,जब पता चला तो समूचा देश स्तब्ध रह गया.मगर सोने की लूट,कोयले पर छापा वाली कहावत यहां भी चरितार्थ हो गई और सुशासन बाबू की सरकार उर्फ़ भाइयों-बहनों की डबल इंजन वाली सरकार ने अस्पतालों और उनके डॉक्टरों को छोड़ एक कंपाउंडर को दबोचकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली.इंसाफ़ सिसकता रह गया.
इस प्रकरण की शुरुआत तब हुई जब नोएडा में स्थापित एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोशन चन्द्र दास होली मनाने भागलपुर अपने एक रिश्तेदार के यहां गया था.वहां वह कोरोना से संक्रमित हुआ तो उसकी पत्नी अचला (बदला हुआ नाम) ने उसे स्थानीय ग्लोकल अस्पताल में भर्ती कराया.मगर वहां बदइंतज़ामी के चलते उसकी तबियत सुधरने की बजाय बिगड़ने लगी.मगर अचला उसकी तीमारदारी में पूरी ताक़त से जुटी रही.
उसके मुताबिक़,अस्पताल प्रशासन की ओर से जानबूझकर ऑक्सीजन बंद कर दिया जाता था और बताया जाता था कि ऑक्सीजन ख़त्म हो गया है.फ़िर अस्पताल से या उसके ज़रिए बाहर से महंगे ऑक्सीजन खरीदने पड़ते थे.
अचला ने भी वही किया और पति के लिए ऑक्सीजन की कमी नहीं होने दी.
डॉक्टरों के कहने पर उसने रेमडेसिविर इंजेक्शन ख़रीदी.मगर इंजेक्शन लगाने से पहले उसका आधा वायल गिरा कर नष्ट कर दिया गया.इस पर जब उसने आपत्ति दर्ज़ कराई तो डॉक्टर ने उसे डांटा और कहा कि अगर वह पूरी इंजेक्शन बर्बाद कर देते तो भी उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता.
अचला एक वीडियो में अपनी आपबीती बताती हैं-
” यहां डॉक्टर सिर्फ़ 10 मिनट के लिए आते थे.मगर वे मरीज़ की हालत के बारे में कुछ भी बताते नहीं थे.पता नहीं चलता था कि आगे क्या होने वाला है.एक डॉक्टर की मुझपर बुरी नीयत थी.वह मुझसे सटकर खड़ा होता था और गंदे इशारे करता था.एक दिन तो हद हो गई.मैं अपने हसबैंड के पास बैठी थी.तभी पीछे से किसी ने मेरा दुपट्टा खींचा.मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि एक स्टाफ खड़ा था.उसने मेरी क़मर में हाथ डाल दिया.मैं डर के मारे कुछ बोल नहीं सकी और बाहर आ गई.वो स्टाफ वहां आ धमका और कहा- मैं ध्यान रखूंगा.
अचला आगे कहती हैं-
” मेरे हसबैंड बोल नहीं पाते थे इसलिए वे ज़्यादा परेशानी होने पर मोबाइल से मिस्ड कॉल करते थे.एक बार जब मैं उनके पास पहुंची तो देखा कि बेड पर चारों ओर पॉटी (मल,पाखाना) फ़ैला हुआ था और वे उसी पर लेटे हुए थे.उन्हें देखने वाला कोई नहीं था.वे प्यास के मारे बेचैन थे.मैंने उन्हें पानी पिलाया और हॉस्पिटल वार्ड के स्टाफ को बुलाने गई तो देखा कि वे सभी एक कमरे में लाइट बुझाकर टीवी पर फ़िल्म देख रहे थे.मैंने उन्हें अपने हसबैंड का हाल बताया और सफ़ाई करने को कहा तो तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया.एक स्टाफ ने कहा- हमें नहीं मरना है कोरोना से.ये हम नहीं कर सकते. “
अचला अब समझ चुकी थी कि ग्लोकल अस्पताल मेरे पति का इलाज़ नहीं कर रहा था,वह सिर्फ़ उनके मरने का इंतज़ार कर रहा था.रोशन की हालत भी अब ज़्यादा ख़राब हो चली थी.इसलिए उसने तत्काल रोशन की वहां से छुट्टी कराकर पटना के राजेश्वर हॉस्पिटल के लिए निकल पड़ी.
अचला राजेश्वर हॉस्पिटल का हाल बताती हैं-
” एम्बुलेंस में सफ़र के दौरान रोशन को तीन-चार बार पॉटी हुई थी जिससे उनका शरीर काफ़ी गंदा हो गया था.राजेश्वर हॉस्पिटल के स्टाफ उन्हें अंदर ले गए.पांच घंटे बाद,जब मैं अंदर पहुंची तो देखा कि बेड पर रौशन वैसी ही गंदी हालत में पड़े थे जैसे उन्हें लाया गया था.मैंने सफ़ाई के लिए बहुत कहा पर कोई सुनवाई नहीं हुई.उनका ऑक्सीजन लेवल 37 हो गया था.मगर जब उन्होंने मुझे देखा तो उनकी ज़ान में ज़ान आ गई और 15 मिनट के भीतर ही उनका ऑक्सीजन लेवल 74 हो गया.ये देखकर डॉक्टरों ने हैरानी जताई.मैंने देखा कि यहां भी ऑक्सीजन बंद कर दिया जाता था जिसके चलते परिजन मज़बूरन ब्लैक (अवैध) में अस्पताल से ही महंगे दाम पर खरीदते थे.मैंने भी ख़रीदी.मगर ऑक्सीजन ख़त्म होने के बाद जुगाड़ कर मरीज़ तक दुबारा पहुंचाए जाने में डेढ़-दो घंटे का समय निकल जाता था.मरीज़ के लिए यह वक़्त बहुत नाज़ुक होता था.मेरे पति के साथ यही हुआ.अचानक बताया गया कि ऑक्सीजन ख़त्म हो गया है.हम दूसरा सिलिंडर मांगते रहे और वह नहीं मिला.मेरे पति ख़त्म हो गए.उन्हें मार डाला गया. “
मौत के बाद भी अस्पताल करता रहा इलाज़
दरभंगा का पारस ग्लोबल नामक प्रसिद्द निज़ी अस्पताल अपने कारनामे को लेकर सुर्ख़ियों में रहा.यहां भर्ती एक मरीज़ की इलाज़ के दौरान सांसें थम गईं लेकिन बिल का मीटर चलता रहा.मामले का जब खुलासा हुआ तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए और इस महाविपत्ति काल में स्वास्थ्य क्षेत्र के अलंबरदारों की आपदा में अवसर तलाशने वाली एक बेहद मार्मिक और शर्मनाक तस्वीर सामने आई.
मामला तब जांच के दायरे में आया जब मृतक दिलीप सिंह के पिता के पास शव के अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं बचे और उन्होंने स्थानीय कबीर सेवा संस्था से इसके लिए संपर्क किया.मगर इसी बीच अस्पताल ने अतिरिक्त बिल को लेकर बेटे का शव उन्हें सौंपने से इनक़ार कर दिया.
अस्पताल 2 लाख 27 हज़ार का बिल दिखा रहा था जबकि पीड़ित 2 लाख 20 हज़ार की रक़म जमा करा चुके थे.
अब कबीर सेवा संस्था के दख़ल के बाद प्रशासन ने जांच की तो पता चला कि सरकारी गाइडलाइन के तहत अस्पताल का बिल मात्र एक लाख 18 हज़ार का होता है और इसे बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया था.
जांच में ये भी पता चला कि अस्पताल ने कोरोना का इलाज़ किया जबकि इसके लिए मरीज़ का कोई कोरोना टेस्ट नहीं कराया.न रैपिड एंटीजन टेस्ट कराया और न आरटीपीसीआर.
21 मई को भर्ती मरीज़ की 29 मई की देर रात मृत्यु हो गई थी जबकि 30 मई को भी दवा का ख़र्च दिखाया गया था.जांच में ये भी पता चला कि ज़रूरत से ज़्यादा दवा दी गई थी.मरीज़ सिर्फ़ तीन दिन वेंटिलेटर पर रहा लेकिन अस्पताल ने नौ दिनों तक वेंटिलेटर पर मरीज़ को दिखा बिल बना दिया.
उत्तरप्रदेश: फटे पेट के साथ अस्पताल से बाहर निकाला
उत्तरप्रदेश अपने आप में जैसे राज्य के रूप में एक देश है वैसे ही यहां के अस्पतालों की अनियमितताओं,भ्रष्टाचार और अमानवीयता की घटनाएं भी अनंत हैं.मगर कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो दिलोदिमाग़ में घर कर जाती हैं.ऐसी ही एक घटना की ख़बर जब सूबे के प्रयागराज से निकलकर आई तो यक़ीन नहीं हुआ.लोग स्तब्ध रह गए.
मामला दरअसल यूं है कि प्रयागराज के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले एक मज़दूर की 3 साल की लाड़ली बेटी थी ख़ुशी.उसके पेट में दर्द उठा तो किसी के कहने पर उसके पिता ने उसे शहर के ही एक निज़ी अस्पताल में भर्ती करा दिया.डॉक्टरों ने बच्ची की आंत में इंफेक्शन बताया और आपरेशन कर दिया.मगर बच्ची को एक नई समस्या पैदा हो गई.उसके टांके वाली जगह पर मवाद भर गया और उसका दूसरी बार आपरेशन हुआ.
बच्ची के पिता के मुताबिक़,इस आपरेशन के लिए उसने डेढ़ लाख रूपये अपने दो बिस्वा खेत बेचकर और रिश्तेदारों से क़र्ज़ा लेकर अस्पताल में जमा कराए थे.लेकिन अस्पताल ने उसे पांच लाख रूपये का बिल थमा दिया.
अब डेढ़ लाख रुपए काटकर बाक़ी साढ़े तीन लाख रुपए चुकाने के लिए जब अस्पताल प्रशासन ने दबाव बनाया तो असमर्थता जताते हुए उसने अपनी पूरी हालत बयान कर दी.हाथ-पैर जोड़े पर धरती के भगवान कहां मानने वाले थे. अस्पताल प्रशासन ने उसकी 3 साल की बच्ची को फटे पेट के साथ अस्पताल के बाहर निकाल दिया.यानि बच्ची का जहां आपरेशन हुआ था उस जगह पर टांका नहीं लगाया गया और चिरे हुए पेट के साथ ही उसे अस्पताल से बाहर कर दिया गया.मज़बूरन वह एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक बच्ची को लेकर चक्कर काटता रहा.मगर किसी को भी उस पर तरस नहीं आया और इलाज़ के अभाव में बच्ची ज़िन्दगी की ज़ंग हार गई,उसने दम तोड़ दिया.
मध्यप्रदेश: इलाज़ में घर बिक गया,हालत नहीं सुधरी
मध्य प्रदेश के बैतूल से आई एक ख़बर भी कम हैरान करने वाली नहीं है.यहां निज़ी अस्पताल में कोविड संक्रमित पत्नी के इलाज़ के लिए पति ने घर तक बेच दिया,लेकिन हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई.हार कर पति उसे आयुर्वेदिक अस्पताल ले गया जहां वह मुफ़्त के इलाज़ से ठीक हो गई.
55 वर्षीय सुमित्रा चिकाने कोरोना संक्रमित होकर गंभीर रूप से बीमार हो गईं.पति विनोद ने उन्हें घोड़ाडोंगरी के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन वहां कोई फ़ायदा नहीं हुआ.फ़िर विनोद ने उन्हें बैतूल के मशहूर लश्करे हॉस्पिटल में भर्ती करा दिया.इस प्राइवेट अस्पताल ने सुमित्रा का नए सिरे से इलाज़ शुरू किया.
किसी शायर ने कहा है-मर्ज़ बढ़ता गया ज्यूं ज्यूं दवा की.उसी तरह,लश्करे हॉस्पिटल में 13 दिनों के इलाज़ के बाद भी सुमित्रा चिकाने की हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई.
अब मज़दूरी करके गुज़ारा करने वाले विनोद के सामने दोहरी चिंता थी.एक तरफ़ पत्नी की बिगड़ती हालत थी तो दूसरी तरफ़ अस्पताल का बढ़ता बिल गले की फांस बनता जा रहा था.कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था.तभी अस्पताल ने उन्हें 3 लाख रुपए का बिल थमाते हुए उसे ज़न्द चुकाने का फ़रमान सुना दिया.
ऐसे में,परेशान विनोद के सामने अब अपना घर बेचने के सिवाय कोई चारा नहीं था.उन्होंने अपने तीन कमरों का मकान ढ़ाई लाख में बेचा और रिश्तेदारों से 50 हज़ार क़र्ज़ा लेकर अस्पताल को तीन लाख की रक़म चुका कर बीमार पत्नी की छुट्टी करवा ली.वहां से बाहर निकले तो लगा मानो वे आज़ाद हो गए हों.15 अगस्त 1947 की देर रात वाला एहसास था.मगर दूसरे ही पल पत्नी के कराहने की आवाज़ ने ध्यान भंग कर दिया और एक बार फ़िर से उसकी ज़ान बचाने की फ़िक्र सवार हो गई.मगर कैसे,ये सोच रहे थे तभी पास ही खड़े एक देवदूत जैसे व्यक्ति के मुंह से किसी ओम आयुर्वेदिक अस्पताल के बारे में सुना.वह वहां मुफ़्त इलाज़ की बात कर रहा था.विनोद ने उस व्यक्ति से पता पूछा और पत्नी को लेकर उस देवालय रूपी ओम अस्पताल की ओर निकल पड़े.
ओम आयुर्वेदिक अस्पताल ने सुमित्रा को सहारा दिया.वहां उन्हें भर्ती कर उनका मुफ़्त इलाज़ किया गया.कल तक सुमित्रा जो निज़ी अस्पताल में ठीक से सांस नहीं ले पा रही थीं वह यहां एक दिन में ही राहत महसूस कर रही थीं.
यहां तेज़ी से सुधार हुआ और एक हफ़्ते बाद ही वह स्वस्थ होकर वहां से निकल गईं.
क्यों इतने बिगड़ गए हालात?
हम सभी जानते हैं कि जर्जर इमारतें अतिरिक्त वज़न झेल नहीं पातीं और जब वो ढ़हती हैं तो ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती हैं.कुछ ऐसा ही हाल हमारी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का है.हमारी लचर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना महामारी की दूसरी लहर को झेल नहीं पाई और औंधे मुंह जा गिरी.इसका नतीज़ा ये हुआ कि तक़रीबन 80-90 फीसदी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों और मरीजों का भार निज़ी अस्पतालों की ओर सरक गया.यह आपदा में अवसर था जिसका उन्होंने ग़लत फ़ायदा उठाया.न मानवता का ख़याल आया और न राष्ट्रधर्म का ही कोई मायना रहा.निज़ी अस्पतालों और फार्मा कंपनियों का गठजोड़ हद पार कर गया.
निज़ी अस्पतालों और फ़ार्मा कंपनियों का गठजोड़ (प्रतीकात्मक) |
इसके लिए केंद्र और राज्य की सरकारें सीधे तौर पर दोषी हैं.गुनाहगार हैं,इसमें कोई दो राय नहीं.उन्होंने इस बार भी वही किया है जो कोरोना की पहली लहर में किया था.
उल्लेखनीय है कि नवंबर 2020 में स्वास्थ्य संबंधी स्थायी समिति ने राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी,जिसमें ये कहा गया था –
” कोरोना से निपटने के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है.साथ ही,निज़ी अस्पतालों के लिए सरकार की ओर से कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं है जिसके चलते कोरोना से ग्रसित मरीज़ को महामारी के दौर में इलाज़ पर ज़्यादा पैसे ख़र्च करने पड़े.निज़ी अस्पतालों ने मरीजों के इलाज़ के लिए ज़्यादा पैसे चार्ज़ किए.कोविड-19 के बढ़ते मामलों के बीच सरकारी अस्पतालों में बेड की कमी थी.इलाज़ के लिए विशिष्ट दिशानिर्देशों के अभाव में निज़ी अल्पतालों ने काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर पैसे लिए.निज़ी अस्पतालों के लिए कोई निश्चित दर तय की गई होती तो कई मौतों को टाला जा सकता था. “
समिति ने एक और बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी –
” 1.3 अरब आबादी वाले देश में स्वास्थ्य पर ख़र्च बेहद कम है और भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था की नाज़ुकता के कारण महामारी से प्रभावी तरीक़े से निपटने में एक बड़ी बाधा आई. “
तो फ़िर इस पर अमल क्यों नहीं हुआ? क्या यह माथापच्ची महज़ एक नाटक नहीं थी?
इसका परिणाम ये है कि आज भी निज़ी अस्पतालों पर लगाम नहीं लगा है.
मरीजों को जनरल वार्ड में रखकर आईसीयू का चार्ज़ वसूलने वालों के बिल का मीटर इतनी तेज़ी से भागता है कि धन्नासेठों के भी पसीने छूट जाते हैं.विरोध करो तो ये हाथापाई पर उतर आते हैं.मरीज़ को बंधक बना लेते हैं. मगर विडंबना ये हैं कि तमाम शिक़ायतों पर कार्रवाई के नाम पर महज़ ख़ानापूरी हो रही है.इनके प्रति नरमी बरती जा रही है क्योंकि संतरी से लेकर मंत्री तक जो कार्रवाई कर सकते हैं,सभी यहीं मेहमान बनते रहते हैं.
हमारे पास महामारी से निपटने के लिए न कोई विशेष विधान है और न समाधान.हमारे पास ब्रिटिश दौर का एक क़ानून है जिसे एपिडेमिक एक्ट 1897 कहा जाता है,उसे ही हम ढोए चले जा रहे हैं.
इस देश में मुर्गी चुराने की सज़ा 6 महीने की है लेकिन एक मरीज़ को मौत के मुंह में धकेलने वाले डॉक्टर कसूरवार नहीं.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
फूल ज़ख़्मी हैं ख़ार ज़ख़्मी है,
अब के सारी बहार ज़ख़्मी है.
और साथ ही…
सियाही बन के छाया शहर पर शैतान का फ़ित्ना,
गुनाहों से लिपट कर सो गया इंसान का फ़ित्ना.
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