दलबदल क़ानून पर क़ानूनी किचकिच
– विधानसभा के बाहर राजनीतिक गतिविधि पर विधानसभाध्यक्ष नहीं भेज सकता नोटिस
– अयोग्यता मामले में चुनाव आयोग की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को हो निर्णय का अधिकार
-सभी के लिए एकसमान क़ानून की ज़रूरत
-एक नैतिक राजनीति की एक लोकप्रिय अभिव्यक्ति की आवश्यकता
मतदाताओं में विश्वास के साथ छल ; दलबदल का चित्र |
विधानसभा में स्पीकर की भूमिका
विधानसभा के अंदर स्पीकर (विधानसभाध्यक्ष) की शक्तियां अपार हैं.दलबदल विरोधी क़ानून के तहत वह किसी सदस्य को अयोग्य क़रार देकर विधानसभा से उसकी सदस्यता ख़त्म कर सकता है यदि:
1. कोई निर्वाचित सदस्य अपनी मर्ज़ी से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है.
2. कोई निर्दलीय विधायक किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
3. कोई सदस्य सदन में पार्टी के ख़िलाफ़ वोट देता है.
4. कोई सदस्य मदतान में भाग नहीं लेता है.
5. कोई मनोनीत सदस्य छह महीने बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
विधानसभा के बाहर स्पीकर की भूमिका
विधानसभा के बाहर स्पीकर की भूमिका सीमित है या बल्कि यों कहें कि विधानसभा के बाहर स्पीकर शक्तिहीन है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.इसलिए यहाँ ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि विधानसभा के बाहर की गई किसी राजनीतिक गतिविधि के लिए स्पीकर किसी विधायक के ख़िलाफ़ अयोग्यता का नोटिस ज़ारी नहीं कर सकता.यही कारण है कि कूटनीति में माहिर कुछ सदस्य विधानसभा के अंदर तो दल के साथ होते हैं लेकिन विधानसभा के बाहर अपनी अलग ही खिचड़ी पकाते रहते हैं.वो जोड़-तोड़ की राजनीति कर सरकारों का राजनीतिक समीकरण बनाते-बिगाड़ते रहते हैं.
विधानसभा के बाहर अध्यक्ष की विवशता का सांकेतिक चित्र |
राजस्थान की हालिया मिसाल सामने है.राजस्थान में उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट अपने 18 समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा के एक होटल में नए राजनीतिक समीकरण तलाशते रहे.कांग्रेस विधायक दल की बैठकों में बार-बार निमंत्रण देने के बावज़ूद शामिल नहीं हुए.व्हिप ज़ारी हुआ फ़िर भी वो नहीं पहुंचे.लेकिन जब उनके ख़िलाफ़ अयोग्यता नोटिस ज़ारी हुआ तो वो हाईकोर्ट चले गए.हाईकोर्ट ने उन्हें सहानुभूति दिखाई तो कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट चली गई मग़र वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी.
पार्टी राज को बढ़ावा
जनता का,जनता के लिए और जनता द्वारा शासन को ही लोकतंत्र कहते हैं.लोकतंत्र में जनता ही वास्तविक शासक होती है,उसकी इज़ाज़त से ही शासन चलता है,सिर्फ़ उसकी बेहतरी और विकास ही मक़सद होता है.लेकिन,हक़ीक़त ये है कि दलबदल क़ानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था यानि ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है.दुर्भाग्यवश,इसे रोकने या बदलने के लिए कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता मग़र संस्थागत सुधारों से परे,स्वयं में एक नैतिक राजनीति की एक लोकप्रिय अभिव्यक्ति की अवधारणा का सृजन एवं संवर्धन कर संसदीय प्रणाली के क्षरण की चुनौती का सामना तो अवश्य ही किया जा सकता है.
लोकतंत्र की क़मज़ोर करते जनप्रतिनिधि |
चुनाव आयोग की अनदेखी
दलबदल विरोधी क़ानून के तहत जनप्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के निर्णय के मामले में चुनाव आयोग की अनदेखी की गई है.यह अधिकार चुनाव आयोग की बजाय स्पीकर को दिया गया है.स्पीकर चूँकि व्याहारिक तौर पर सत्तारूढ़ दल के एक एजेंट के रूप में काम करता है इसलिए उसके द्वारा लिए गए फ़ैसले अक़्सर अनीतिपूर्ण और भेदभावपूर्ण होते हैं.
भेदभावपूर्ण व्यवस्था
जैसा कि हम जानते हैं कि दलबदल विरोधी क़ानून के प्रयोग के मद्देनज़र मनोनीत सदस्यों को छह माह की छूट दी गई है.दूसरे शब्दों में,मनोनीत किसी सदस्य को यह अधिकार है कि मनोनयन के बाद वह छह महीने की अवधि के दौरान किसी दल में शामिल हो सकता है.उसपर दलबदल विरोधी क़ानून लागू नहीं होगा.यह व्यवस्था सर्वथा अनुचित एवं भेदभावपूर्ण है.इसे बदला जाना चाहिए और सभी के साथ एकसमान व्यवस्था लागू कर देनी चाहिए.यही इंसाफ़ का तक़ाज़ा है.
इधर निगाह उधर ज़िंदग़ी बदलती है।
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