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टांगीनाथ धाम: खुले आसमान के नीचे ज़मीन में गड़े फरसे में ज़ंग क्यों नहीं लगता?

झारखंड के गुमला जिले में स्थित टांगीनाथ धाम के नाम से प्रसिद्ध भगवान परशुराम की तपोस्थली में एक फरसा रहस्य का विषय है.सदियों पुराने इस फरसे में कभी ज़ंग नहीं लगता, जबकि यह खुले आसमान के नीचे ज़मीन में गड़ा है.मान्यता के अनुसार, त्रेता युग का यह फरसा भगवान परशुराम का है, जिसे उन्होंने स्वयं यहां गाड़ा था.


टांगीनाथ धाम,परशुराम का फरसा,शिव की महिमा
खुले आसमान के नीचे ज़मीन में गड़ा फरसा
झारखंड की राजधानी रांची से 165 किलोमीटर दूर गुमला जिले के डुमरी प्रखंड स्थित टांगीनाथ धाम एक प्रसिद्ध स्थल है.इसकी ख़ास वज़ह है यहां ज़मीन में गड़ा हुआ एक फरसा.इस पर धूप, बारिश और हवा का कोई असर नहीं होता.लोगों का विश्वास है कि यह फरसा भगवान परशुराम का है.इसलिए परशुराम जयंती के दिन स्थानीय लोगों के अलावा दूर-दराज़ से भी श्रद्धालु इसके दर्शन के लिए आते हैं.कई पीढ़ियों से यहां रहते आए लोग बताते हैं कि यह परंपरा सदियों पुरानी है.


फरसे का वैज्ञानिक विश्लेषण

परशु या फरसा लोहे का बना एक पारंपरिक भारतीय हथियार है, जिसका प्रयोग युद्ध लड़ने के लिए होता रहा है.यहां की स्थानीय भाषा में इसे टांगी (कुल्हाड़ी) कहते हैं और टांगी के नाम पर ही इस स्थान का नाम भी टांगीनाथ धाम पड़ा.

जानकारों के मुताबिक़, यह फरसा भी लोहे का बना प्रतीत होता है अथवा इसमें ऐसी मिश्रित धातु (मिश्र धातु, मिश्रातु) का प्रयोग हुआ है, जिसमें लोहे (लोहे की मात्रा) की अधिकता जान पड़ती है.इसलिए इसमें ज़ंग लगना सामान्य बात है.

हम सभी जानते हैं कि ज़ंग एक रासायनिक प्रतिक्रिया है.कोई भी धातु जिसमें लोहे का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, जिसे ‘लौह धातु’ भी कहा जाता है, ऑक्सीजन और पानी के अणुओं के संपर्क में आने पर उसमें ज़ंग लग जाता है.

जानकारों की मानें तो फरसे की धातु ज़ंगरोधक नहीं है.ऐसे में, इसमें ज़ंग क्यों नहीं लगता, यह जांच और परीक्षण का विषय है.

ज्ञात हो कि वे धातुएं जैसे अल्युमिनियम, स्टेनलेस स्टील, पीतल, तांबा आदि जिनमें ज़ंग नहीं लगता, वे भी ऑक्सीकरण से प्रभावित ज़रूर होती हैं.दूसरे शब्दों में, ऑक्सीकरण के कारण ज़ंग-रोधक वस्तुओं/धातुओं की उपरी परत का रंग बदल जाता है.

मिसाल के तौर पर स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी को ही देख लीजिये.इसकी तांबे की परत पहले भूरी दिखती थी.लेकिन फिर, तांबे के ऑक्सीकरण के कारण यह हरी हो गई.यह हरी परत तांबे की मूल परत जितनी मोटी है और वास्तव में लेडी लिबर्टी को ज़ंग से बचाने में मदद करती है.

पुराने सिक्कों पर भी यही प्रभाव देखा जा सकता है.वे भी लंबे समय बाद हरे दिखने लगते हैं.मगर, हैरानी की बात ये है कि फरसे का रंग बरसों से ज्यों का त्यों है, यानि इसका रंग नहीं बदला है.


फरसे से संबंधित पौराणिक कथा

वाल्मीकि रामायण के अनुसार, महर्षि भृगु-पुत्र महर्षि जमदग्नि व रेणुका के पुत्र ‘राम’ (अयोध्या वाले भगवान श्रीराम नहीं) परशु धारण करने के कारण परशुराम कहलाए.यह परशु यानि फरसा भगवान शिव ने उन्हें प्रदान किया था.वह भगवान शिव के अनन्य भक्त थे.यही कारण था कि जब माता सीता के स्वयंवर में भगवान श्रीराम ने शिव-धनुष तोड़ा तो उसकी आवाज़ (भीषण ध्वनि) सुनकर वे अत्यंत क्रोधित हो उठे और आकाश मार्ग से तत्काल मिथिला पहुंचे.वहां उन्होंने बहुत भला-बुरा कहा.श्रीराम के भाई लक्ष्मण जी से उनका काफ़ी वाद-विवाद भी हुआ.इसी दौरान जब उन्हें पता चला कि एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में श्रीराम दरअसल, श्रीविष्णु के अवतार हैं, स्वयं नारायण हैं, तो उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई.उसी क्षण उन्होंने श्रीराम की परिक्रमा कर उन्हें प्रणाम किया और पश्चाताप करने जंगल की ओर निकल पड़े.

अशांत-चित्त परशुराम जी चलते-चलते पहाड़ों (पर्वत श्रृंखला जो आज के झारखंड क्षेत्र में है) में आ पहुंचे.वहीं अपना फरसा उन्होंने ज़मीन में गाड़ दिया, भगवान शिव की प्रतिमा बनाई और तपस्या में लीन हो गए.


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तपस्या में लीन भगवान परशुराम और उनके फरसे की पूजा करते भक्त (प्रतीकात्मक)  


मान्यता के अनुसार, परशुराम जी की यही तपोस्थली कालांतर में टांगीनाथ धाम के नाम से मशहूर हुई.यहां ज़मीन में गड़ा उनका फरसा आज भी जस का तस है.

     

फरसे को चुराने में नाक़ाम रहे चोर, बेमौत मरे

परशुराम जी के फरसे को लेकर एक लोक कथा भी बड़ी मशहूर है.इसके अनुसार, यहां फरसा चोरी करने आए शातिर चोरों को भी क़ामयाबी नहीं मिली और उन्हें ख़ाली हाथ लौटना पड़ा.साथ ही, उन्हें सज़ा भी मिली.सज़ा भी ऐसी कि जिसे सुनकर आज भी लोगों की रूह कांप जाती है.

दरअसल हुआ यूं कि एक रात चोरों के एक दल ने यहां धावा बोला.पहले तो उन्होंने ज़मीन के ऊपर से ही फरसे को उखाड़ने की कोशिश की.लेकिन, काफ़ी मशक्कत के बाद भी जब वे क़ामयाब नहीं हुए तो उन्होंने फरसे के नीचे की मिट्टी को खोदना शुरू किया.पूरी रात खुदाई करते रहे.काफ़ी गहरा गड्ढा खोद डाला मगर, वे फरसे के निचले हिस्से तक नहीं पहुंच सके.
भोर होने को आया.लोगों की नज़र में आने का डर था.ऐसे में, उन्होंने फरसे में रस्सी बांधकर उसे खींचकर निकालने का प्रयास किया.मगर, इससे भी बात नहीं बनी.आख़िरकार, आनन फानन में उन्होंने फरसे के ऊपर का कुछ हिस्सा काट दिया.दरअसल, उन्होंने उसी को अपनी क़ामयाबी या परिश्रम का फल समझा और एक दूसरे की पीठ थपथपाई.लेकिन, उसे ले जाने के लिए जब वे उठाने लगे, तो वह उठ भी नहीं पा रहा था.काफ़ी कोशिश के बाद भी जब फरसे का टुकड़ा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ, तो उसे वहीं छोड़कर चल दिए.
  
वे ख़ाली हाथ अपने-अपने घर को लौट आए.लेकिन, यहां जो कुछ हुआ उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी.अब, यहां मौत क़हर बरपाने लगी.दरअसल, अचानक ऐसी महामारी फैली कि चोर ही नहीं उनके परिवार के दूसरे सदस्य भी तड़प-तड़पकर मरने लगे.देखते ही देखते पूरा इलाक़ा इसकी चपेट में आ गया.

चारों तरफ़ लाशें ही लाशें दिखाई दे रही थीं.यह देख, कुछ लोग जो बच गए थे, वे वहां से भागकर दूर-दराज़ के इलाक़ों में चले गए और वहीं बस गए.आज भी उस प्रभावित इलाक़े में कोई परिवार आकर रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है.

        

त्रिशूल के रूप में भी पूजा जाता है फरसा

फरसा यहां त्रिशूल के रूप में भी पूजा जाता है और इसका संबंध भगवान शिव और शनिदेव से जुड़ा बताया जाता है.

दरअसल, देखा जाए तो फरसे का अगला हिस्सा त्रिशूल-सा प्रतीत होता है इसलिए कुछ लोग इसे शिव जी का त्रिशूल ही मानते हैं और इसकी पूजा करते हैं.इसके बारे में मान्यता है कि शनिदेव के किसी अपराध से क्रोधित होकर, उन्हें दंडित करने के लिए शिव जी उन पर अपने त्रिशूल से प्रहार किया था.इसमें शनिदेव तो बच गए लेकिन, त्रिशूल इस पहाड़ी की चोटी पर आ धंसा.इसका अगला हिस्सा ज़मीन के ऊपर रह गया, जबकि इसका निचला हिस्सा ज़मीन के कितने नीचे तक (धंसा हुआ) है, यह किसी को भी नहीं पता.

कालांतर में, यहां शिव मंदिर अस्तित्व में आया.मान्यता है कि यह मंदिर शाश्वत है और इसका निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा के हाथों हुआ था.
   
वैसे भी भगवान शिव यहां की पुरातन जातियों/आदिवासियों के इष्टदेव (वह देवता जिसकी पूजा किसी कुल में परंपरा से होती आई हो) समझे जाते हैं.कुछ लोग तो भगवान शिव को इन्हीं जातियों से जोड़कर देखते हैं.इसलिए इनके मंदिर के पुजारी भी आदिवासी ही हुआ करते हैं.
 
बहरहाल, टांगीनाथ धाम यानि परशुराम जी की इस तपोभूमि में स्थापित शिव मंदिर में लोगों की अपार श्रद्धा है.झारखंड ही नहीं, पड़ोसी राज्यों से भी हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु सावन और महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां जलाभिषेक करने आते है.वे यहां दर्शन-पूजा करते हैं और मन्नतें मांगते हैं.


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टांगीनाथ धाम में श्रद्धालुओं की भीड़, भगवान शिव का जलाभिषेक 


यहां हर मुराद पूरी होती है, ऐसा हरेक का दावा है.जो एक बार यहां आ जाता है वह, इस मंदिर से सदा सदा के लिए जुड़ जाता है.यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है.


पुरातात्विक महत्त्व का स्थान है टांगीनाथ धाम

टांगीनाथ धाम स्थित मंदिर में पाई जाने वाली कलाकृतियां और नक्काशी भारत के गौरवशाली इतिहास और इसकी अति उन्नत संस्कृति की प्रत्यक्ष गवाह है.इस प्राचीन मंदिर को संरक्षण की ज़रूरत है.मगर स्थिति यह है कि इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया और आज यह खंडहर में तब्दील होता जा रहा है.


टांगीनाथ धाम,परशुराम का फरसा,शिव की महिमा
टांगीनाथ धाम के प्राचीन मंदिर के अवशेष, मूर्तियां व पुरातात्विक महत्त्व की अन्य चीजें


टांगीनाथ धाम की महत्ता के कारण ही कई विद्वान इस पर शोध कर रहे हैं.कुछ वर्ष पूर्व इस मंदिर के जीर्णोद्धार के दौरान जब खुदाई की गई तो ज़मीन के अंदर से हीरा, सोना और चांदी के कई तरह के आभूषण मिले.साथ ही, चांदी और तांबे के कई सिक्के भी मिले हैं.बताया जा रहा है कि एक आभूषण में तो 21 हीरे जड़े हुए हैं.ये सारे आभूषण आज भी यहां के डुमरी थाने के मालखाने में जमा हैं.मंदिर की खुदाई के दौरान कई विशेष प्रकार इंटें भी मिली हैं.

पुरातत्वविद डॉ. हरेन्द्र सिन्हा व रांची विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ. आई. के चौधरी का कहना है कि टांगीनाथ धाम ऐतिहासिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है.उनके मुताबिक़, इस स्थल की खुदाई हो यहां ज़मीन में गड़े फरसे की कार्बन डेटिंग (Carbon Dating) की जाए, तो इसके रहस्यों का पता चल सकेगा.

अगर देश की धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाएं आगे आएं तथा सरकारें इस पर ध्यान दे, तो इसे एक महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है.   
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