फिलिस्तीन-इज़रायल विवाद को लेकर लोगों की राय पढ़-सुनकर हैरत होती है.हो भी क्यों न, क्योंकि जड़ छोड़कर डालियों की व्याख्या करना दुनिया की पुरानी आदत है.यह यह कब्ज़ के कारण पैदा हुई गैस को शांत करने के चक्कर में कब्ज़ को भुलाकर उसे लाइलाज़ बना देने जैसी प्रवृत्ति है.ऐसा भूलवश हो या जानबूझकर, मगर, यह बहुत ख़तरनाक मानसिकता है, जिसका खामियाजा दुनिया पहले भी भुगतती रही है और आज भी भुगत रही है.दरअसल, फिलिस्तीनी (जो अर्थहीन, 12 वीं सदी के ग्रीक लेखकों के दिमाग की उपज है) कहे जाने वाले अरब के मुसलमानों और यहूदियों के बीच जारी संघर्ष महज़ 100 सालों का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह सदियों पुराना मज़हबी टकराव है, जिसमें एक तरफ़ जिहाद है, तो दूसरी तरफ़ सांस्क्रतिक विरासत फिर से हासिल करने के लिए ज़ंग.
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इज़रायली-फ़िलिस्तीनी संघर्ष (प्रतीकात्मक) |
मगर फ़लस्तीन-इज़रायल विवाद के नाम पर वैश्विक नेताओं और अंतर्राष्ट्रीय पंचायत समझे जाने वाले यूएनओ द्वारा येरुसलम के इतिहास और उसके असली महत्त्व पर अब तक पर्दा डाला जाता रहा है.
येरुसलम/इज़रायल का इतिहास
इज़रायल का शहर येरुसलम काशी,मथुरा और अयोध्या की तरह ही एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है.येरुशलम और उससे जुड़ी तमाम ऐतिहासिक घटनाएं यहां लंबे वक़्त से ज़ारी संघर्ष के असली कारणों को बयान करती हैं.
अब्राहम का येरुसलम-इज़रायल कनेक्शन
हिब्रू बाइबल का पहला हिस्सा जो बुक ऑफ़ जेनेसेस के नाम से जाना जाता है,उसके एक हिस्से का नाम है कवेनंट बिटवीन गॉड एंड अब्राहम (ईश्वर और अब्राहम के बीच क़रार).उसके मुताबिक़,मेसोपोटामिया में रह रहे अब्राहम ईश्वर के आदेश पर अपना घर-बार छोड़कर पश्चिमी एशिया स्थित लैंड ऑफ़ कैनन ( भूमध्यसागर और जॉर्डन नदी के बीच स्थित क्षेत्र ) पहुंचे और वहीं परिवार सहित बस गए.
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अब्राहम का मिस्र से पलायन और इज़रायल में निवास (प्रतीकात्मक) |
मान्यता के अनुसार,इस जगह के लिए स्वयं ईश्वर ने अब्राहम से वादा कर कहा था कि यह भूमि उसने उनकी संतानों के लिए दी है और वे यहां एक नए देश (समाज) का निर्माण करेंगीं.यहां उनके दो बेटे इस्माइल और इसाक़ पैदा हुए.
एक बार ईश्वर ने अब्राहम से उनके बेटे इसाक़ की बलि मांगी.बलि देने के लिए अब्राहम ईश्वर की बताई जगह पर पहुंचे.यहां अब्राहम इसाक़ की बलि चढ़ाने ही वाले थे कि ईश्वर ने एक फ़रिश्ता भेज दिया.
अब्राहम ने देखा कि फ़रिश्ते के पास एक मेंढा (नर भेड़) खड़ा है.ईश्वर ने अब्राहम की भक्ति से ख़ुश होकर इसाक़ को बख्श दिया था और उनकी जगह बलि चढ़ाने के लिए भेड़ को भेज दिया.यह घटना येरुसलम में हुई थी.
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इसाक़ की बलि के वक़्त फ़रिश्ते का प्रकट होना (प्रतीकात्मक) |
उन्हीं इसाक़ के बेटे (अब्राहम के पोते) इज़रायल के 12 बेटे हुए जो ट्वेल्व ट्राइब्स ऑफ़ इज़रायल कहलाए.इन्हीं क़बीलों की पीढ़ियों ने आगे चलकर एक यहूदी देश का निर्माण किया.एक प्रौमिस्ड लैंड (अब्राहम और ईश्वर के बीच क़रार वाली भूमि) जो कालांतर में लैंड ऑफ़ इज़रायल कहलाया.
इज़रायल के एक बेटे का नाम ज़ूदा या यहूदा था, जिनके कारण इस मज़हब को जू (Jew) या यहूदी नाम मिला.
फ़िर मिस्र के फिरोन (फ़राओ) के ज़माने में हज़रत मूसा का आगमन हुआ.उन्होंने पहले से चली आ रही परंपराओं को एक व्यवस्थित रूप दिया जिसके चलते उन्हें यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है.यहूदियों को विश्वास है कि क़यामत के वक़्त उनका अगला पैग़म्बर आएगा.
यहूदियों की धर्मभाषा इब्रानी (हिब्रू) और यहूदी धर्मग्रंथ का नाम तनख़ है जो, इब्रानी भाषा में लिखा गया है.
इतिहास के मुताबिक़,क़रीब 1000 ईसा पूर्व राजा दाउद (किंग डेविड) के बेटे सोलोमन ने यहां एक भव्य मंदिर (सिनेगॉग) बनवाया.यहूदी इसे फर्स्ट टेम्पल कहते हैं.यहां भगवान यहोवा की पूजा होती थी.
बेबीलोन साम्राज्य का आक्रमण
क़रीब 587 ईसा पूर्व बेबीलोन साम्राज्य का यहां हमला हुआ.इराक़ के राजा नेबुचंदेज़र की सेना ने भयंकर उत्पात मचाया.बड़े पैमाने पर यहूदियों का क़त्लेआम और निर्वासन हुआ.उनका मंदिर भी ध्वस्त कर दिया गया.
क़रीब पांच सदी बाद, 516 ईसा पूर्व यहूदियों ने इसी जगह पर दोबारा एक और मंदिर बनवाया.इसे नाम मिला सेकंड टेंपल.कहा जाता है कि यह मंदिर इतना बड़ा था कि इसे देखने में पूरा एक दिन लगता था.इसके भीतरी हिस्से को यहूदी होली ऑफ़ द होलिज़ (पवित्रतम) कहते थे जहां सिर्फ़ श्रेष्ठ पुजारियों को ही जाने की इज़ाज़त थी.
रोमन साम्राज्य का आक्रमण
इसके बाद यहूदियों की धरती पर सिकंदर ने क़दम रखे और लंबे वक़्त तक उसका शासन रहा.उसकी मौत के बाद ईसा पूर्व 63 में रोमन ने यहूदियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया.इसी काल में ईसा मसीह का आगमन हुआ.उन्होंने ईसाईयत का प्रचार-प्रसार किया और उनके सूली पर लटकाए जाने की घटना भी हुई.
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ईसा मसीह को सूली पर लटकाए जाने का दृश्य (प्रतीकात्मक) |
ईसा मसीह की मौत के क़रीब चार दशक बाद यहूदियों ने रोमन साम्राज्य के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया.बदले में रोमन साम्राज्य की सेनाओं ने यरुसलम को तबाह कर दिया.इस दौरान एक ही दिन में क़रीब एक लाख से ज़्यादा यहूदियों को क़त्ल कर दिया गया.सेकंड टेंपल भी नेस्तनाबूद कर दिया गया.उसकी सिर्फ़ एक दीवार ही बच गई जो आज भी अस्तित्व में है तथा अल-अक्सा मस्ज़िद के साथ लगी हुई खड़ी है.इसे वेस्टर्न वॉल (पश्चिमी दीवार) या वेलिंग वॉल कहते हैं जहां यहूदी मतावलंबी अपनी धार्मिक/सांस्कृतिक विरासत खो जाने के ग़म में रोते हैं तथा प्रार्थना करते हैं.
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वेस्टर्न वॉल और यहूदियों की प्रार्थना |
यरुशलम के तबाह होने के बाद इज़रायल से भागकर यहूदियों ने यूरोप,अफ्रीका और भारत में शरण ली.मगर भारत को छोड़कर वे कहीं भी सुरक्षित नहीं रहे.अगले 500 सालों तक वे ईसाईयों का दमन झेलते रहे.रूस में मारे-काटे गए.अमरीका ने उन्हें शरण तो दी लेकिन तमाम अधिकारों से वंचित वे वहां ग़ुलामों जैसी ज़िन्दगी जीने को मज़बूर थे.इसके उलट भारतीयों ने उन्हें गले लगाया.हिन्दुओं के बीच वे सम्मानित व सुरक्षित रहे.
इस्लाम की सेना का हमला
उधर इज़रायल की धरती की बदनसीबी अब भी ज़ारी थी.यहां बेजेंटाइन साम्राज्य का शासन था.पैग़म्बर मोहम्मद की मौत के चार साल बाद ही उमर (हज़रत मुहम्मद की बीवी हफ़सा के पिता) के नेतृत्व में इस्लाम की ज़िहादी सेना ने यहां हमला कर दिया.लूटपाट के साथ भयंकर मार-काट हुई और एक बार फ़िर से ज़ेरुसलम की धरती लाल हो गई. ज़ेरुसलम सहित बाक़ी इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया.आगे चलकर उम्मयद खलीफाओं ने अब्राहम की निशानी और यहूदियों के पवित्र मंदिर की जगह पर अल-अक्सा मस्ज़िद और डोम ऑफ़ रॉक का निर्माण कराया.
ऐसा कर मुस्लिम आक्रांताओं ने सिर्फ़ यहूदियों की सांस्कृतिक विरासत ही नहीं क़ब्जाई बल्कि ईसाईयों के धर्मस्थल (ईसा मसीह की जन्मस्थली और क़ब्र) भी अपने आधिपत्य में ले लिए थे.यहीं से क्रूसेड की शुरुआत हुई.
क्रूसेड
क्रूसेड यानि क्रूस युद्ध.क्रूस युद्ध यानि ईसाई धर्म/ख्रिस्त धर्म की रक्षा के लिए युद्ध.इस सन्दर्भ में विद्वानों की अलग-अलग राय है.परंतु निष्कर्ष में कहें तो अपनी धार्मिक विरासत को मुक्त कराने और राजनीतिक सीमाओं के विस्तार के लिए एक ऐसे युद्ध की शुरुआत हुई जिसमें अगले 200 सालों तक इज़रायल की धरती रक्तरंजित होती रही.रिचर्ड और सलाउद्दीन ने यरुशलम पर क़ब्ज़े के लिए बहुत सारी लड़ाईयां लड़ीं.
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क्रुसेड (धर्मयुद्ध) का दृश्य (प्रतीकात्मक) |
बाइबल के अनुसार,बेतलेहम (वेस्ट बैंक क्षेत्र) में जन्मे ईसा मसीह ने येरुशलम में धर्मप्रचार किया था.यहीं उन्हें सूली पर लटकाया गया और यहीं वह स्थान भी है जहां वह फ़िर से जीवित हुए थे.पास ही उनकी समाधि है.
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ईसा मसीह का जन्मस्थान, मंदिर व समाधि |
1095 और 1291 ईस्वी के बीच ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए ईसाईयों ने इस्लाम की सेना से सात बार युद्ध किए थे इसलिए इतिहास में इसे सात क्रूस युद्ध या सलीबी युद्ध भी कहा जाता है.ईसाई तीर्थयात्रियों की रक्षा के लिए इसी दौरान उन्होंने नाइट टेम्पलर्स का भी गठन किया था.
पहला क्रुसेड वॉर 1096-99 के बीच हुआ.इसमें ईसाई फौज़ ने ज़ेरुसलम को तबाह कर दिया.अब सबकुछ ईसाईयों के क़ब्ज़े में था तथा वहां ईसाई साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी.
1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ़्रांस के राजा लुई और जैंगी के ग़ुलाम नुरुद्दीन के बीच हुआ.इसमें ईसाईयों को पराजय का सामना करना पड़ा.1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की क़मान उस वक़्त के पोप ने इंग्लैंड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने क़ब्ज़ा कर रखा था.इस युद्ध में भी ईसाईयों को बुरे दिन देखने पड़े.इस युद्धों ने जहां यहूदियों को दर-बदर कर दिया वहीं ईसाईयों के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी.
लेकिन इस युद्ध में एक बात समान ये रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दरबदर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने वाला दूसरा कोई नहीं था.
17 वीं सदी की शुरुआत में दुनिया के उन बड़े मुल्क़ों से इस्लामिक शासन का अंत शुरू हुआ जहां इस्लाम थोपा जा रहा था.यह था अंग्रेज़ों का वह काल जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी.ऐसा कई जगहों पर हुआ.
यहूदियों की इज़रायल वापसी
द्वितीय विश्वयुद्ध में यहूदियों को अपनी खोई हुई ज़मीन (इज़रायल) वापस मिली.
सदियों भटकने के बाद थके-हारे,टूटे-झुके,मरे-कटे,अपमानित-अवमानित यहूदी अपना-अपना पीला सितारा और किप्पा टोपी पहनकर, अपनी यिद्दिश और हिब्रू बोलते हुए उस प्रौमिस्ड लैंड की तरफ़ चल पड़े, जिसको वो अपने पुरखों की धरती समझते थे.वे लौटकर चले आए लेकिन, तब तक उनके घरों पर कोई और बस चुका था.
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यहूदियों की घर वापसी |
उनके घरों,खेत-खलिहानों और धार्मिक स्थलों पर मुसलमान क़ब्ज़ा जमाए बैठे थे.उन्हें ख़ाली कराए जाने को लेकर यहूदियों और अरब के मुसलमानों के बीच अब एक नए तरह का संघर्ष शुरू हुआ,जो अब तक ज़ारी है.
इज़रायल-फ़िलिस्तीन संघर्ष की पृष्ठभूमि
दरअसल दुनिया में हुए दो महायुद्धों,यानि प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध,ने दुनिया की रूपरेखा ही बदल दी.इन युद्धों से पहले और बाद बने राजनीतिक समीकरणों के कारण कुछ विवाद सुलझे तो बहुत सारे नए विवाद पैदा हो गए.इज़रायल और येरुसलम से जुड़े विवाद भी उन्हीं में से एक है.संयुक्त राष्ट्र की इसमें बड़ी भूमिका है.
बेल्फ़ोर घोषणा
1917 में,प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ़ ब्रिटेन ने यहूदियों से सहयोग की अपील की.बदले में उसने यहूदियों को उनकी पवित्र भूमि पर एक राष्ट्रीय घर (नेशनल होम) के निर्माण के लिए अधिकारिक समर्थन देने का वादा किया.अर्थात,ब्रिटेन ने यहूदियों से वादा किया कि यदि वह ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ़ युद्ध जीत जाता है तो फ़िलिस्तीन (इज़रायल) यहूदियों को सौंप देगा और वहां उनका पुनर्वास करवाएगा.फ़िर,यहूदी उनके साथ लड़े.
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प्रथम विश्वयुद्ध (प्रतीकात्मक) |
इस सम्बन्ध में ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव आर्थर जेम्स बेल्फ़ोर ने बाक़ायदा घोषणा की थी,जिसे बेल्फ़ोर घोषणा (बेल्फ़ोर डेक्लेरेशन) के नाम से जाना जाता है.
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आर्थर जेम्स बेल्फ़ोर |
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद स्थिति
प्रथम विश्युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ़ ब्रिटेन की जीत हुई और फ़िलिस्तीन में ब्रिटिश शासनादेश लागू हो गया.बेल्फ़ोर घोषणा के तहत भारी संख्या में यहूदियों का पलायन फ़िलिस्तीन में होने लगा.इसके चलते यहूदियों की तादाद यहां तेज़ी से बढ़ने लगी.मगर रहने के लिए जगह की कमी थी.ऐसे में यहां आने वाले यहूदियों ने ज़मीनें खरीदनी शुरू कर दी.धीरे-धीरे यहूदियों का यहां विस्तार होने लगा.
अब यहूदियों ने मुसलमानों (फ़िलिस्तीनी लोगों) से ज़मीनें खरीदने की दर पहले के मुक़ाबले ज़्यादा बढ़ा दी.
इससे यहूदियों का यहां व्यापक विस्तार हो रहा था.
मगर उन्हें इस बात का मलाल था कि वे अपने ही पुरखों की ज़मीनें अतिक्रमणकारियों (मुसलमानों) से ख़रीद रहे थे.इसलिए अपनी स्थिति मज़बूत होते ही वे वहां से मुसलमानों को खदेड़ने लगे.इसके कारण 1936 में मुसलमानों ने विद्रोह कर दिया जिसे दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने यहूदी सेना की मदद ली.
लेकिन,बाद में मुसलमानों को शांत करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने यहूदी पलायन पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी.इससे यहूदी नाराज़ हो गए.उन्होंने इसे वादाखिलाफ़ी करार देते हुए पाबंदियां हटाने के लिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की मगर उससे कोई लाभ नहीं हुआ तो उन्होंने सरकार के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया.
इज़रायल-फ़िलिस्तीन मसला यूएन के हवाले
दुनियाभर में अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर मनोनुकूल फ़ायदा उठाया.यहूदियों को उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ़ खड़ा कर इज़रायल में भी वही काम किया.मगर दूसरे महायुद्ध के बाद जहां ब्रिटेन कमज़ोर हो गया था/वह अपने उपनिवेश ख़ाली कर रहा था वहीं यहूदी-मुस्लिम संघर्ष रोक पाने में विफल था.इसलिए ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फ़िलिस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और यहूदियों तथा मुसलमानों के दावों का समाधान करने के लिए इस मुद्दे को नव निर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के हवाले का दिया.
विभाजन योजना
संयुक्र राष्ट्र ने फ़िलिस्तीन में स्वतंत्र यहूदी और अरब राज्यों की स्थापना करने के लिए एक विभाजन योजना प्रस्तुत की जिसे फ़िलिस्तीन में रह रहे अधिकांश यहूदियों ने स्वीकार कर लिया पर अरब मुसलमान इस पर राज़ी नहीं हुए.
स्वतंत्र इज़रायल राष्ट्र की घोषणा
यहूदियों के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था.उन्होंने एक बड़ा साहसिक क़दम उठाया.वर्ष 1948 उन्होंने स्वतंत्र इज़रायल राष्ट्र की घोषणा कर दी और इज़रायल एक देश बन गया.
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स्वतंत्र इज़रायल राष्ट्र की घोषणा के वक़्त की तस्वीर |
इसके बाद वही हुआ जिसकी पूरी संभावना थी.अरब देश बौखला उठे.मिस्र,जॉर्डन,इराक़ और सीरिया ने मिलकर सामूहिक रूप से इज़रायल पर धावा बोल दिया.इसे 1948 का युद्ध कहते हैं.
इस युद्ध में इज़रायल ने चारों दुश्मन देशों की सेनाओं को अकेले धूल चटा दी.अंत में,इज़रायल संयुक्त राष्ट्र की योजनानुसार प्राप्त ज़मीन से भी ज़्यादा ज़मीन पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में क़ामयाब रहा.
इलाक़ों के हिसाब से देखें तो इस युद्ध के परिणामस्वरूप जॉर्डन के पास पूरे वेस्ट बैंक का नियंत्रण आ गया था.वहीं गाजापट्टी पर इजिप्ट का.वहीं थोड़ी-बहुत जगह फ़िलिस्तीन की बची थी,उस पर इज़रायल ने क़ब्ज़ा कर लिया.इस युद्ध के कारण फ़िलिस्तीन का वज़ूद ना के बराबर हो गया.
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1948 के युद्ध के बाद क्षेत्रों की स्थिति |
युद्ध में इज़रायल ने फ़िलिस्तीन के पचास फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया था.इस युद्ध के कारण क़रीब सात लाख मुसलमानों को सीरिया आदि देशों में पलायन करना पड़ा.
सिक्स डे वॉर
इसके बाद क़रीब 19 सालों तक यथास्थिति बहाल रही.इस बीच इज़रायल लगातार अपनी ताक़त बढ़ाता रहा क्योंकि उसे आगे आने वाले ख़तरे का पूर्वाभास था.उसके हाथों पहले पिट चुके देश ज़्यादा वक़्त तक चुप बैठने वाले नहीं थे.इजिप्ट,सीरिया और जॉर्डन ने उस पर हमले की योजना के तहत घेरना शुरू किया.मगर वो हमला करते उससे पहले ही इज़रायल ने इन तीनों देशों पर हमला बोल दिया.उन्हें क़रारी शिकस्त दी.यह सन 1967 की घटना है.
हमले में तीनों देशों को काफ़ी नुकसान पहुंचा और क़ब्ज़े वाले इलाक़ों से उनके पांव उखड़ गए.नतीज़तन,इस युद्ध में इज़रायल ने सीरिया से गोलन हाइट्स,इजिप्ट से गाज़ापट्टी एवं सिनाई पेनीसुला और जॉर्डन से वेस्ट बैंक छीन लिया.मगर बाद में,एक समझौते के तहत इज़रायल ने सिनाई पेनीसुला इजिप्ट को वापस कर दिया.
अब पूरा फ़िलिस्तीन इज़रायल के क़ब्ज़े में आ गया.इसमें सबसे महत्वपूर्ण व विवादित क्षेत्र येरुशलम भी था.
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1967 के युद्ध के बाद विभिन्न क्षेत्रों की स्थिति |
ये युद्ध छह दिनों तक चला इसलिए 1967 का यह छह दिन का युद्ध या सिक्स डे वॉर के नाम से जाना जाता है.
पीएलओ और हमास का जन्म
बुरी तरह पिट चुके अरब देशों के पास न तो अब इतना मनोबल था कि तीसरी बार वो इज़रायल से भिड़ सकें और न ही कोई नैतिक अधिकार था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ ही उठा सकें.
यह ज़िल्लत का रास्ता उन्होंने ख़ुद चुना था.दूसरी तरफ़ हालात अब पूरी तरह इज़रायल के पक्ष में थे.इसलिए अब उनकी एकता में भी फूट पड़ती दिखाई दे रही थी.इराक़ पहले ही इस युद्ध से बाहर रहा था और अब इजिप्ट ने भी सिनाई पेनीसुला पर समझौते को लेकर इज़रायल को एक स्वतंत्र देश मान लिया था.
लेकिन,सूरत बदलती है सीरत नहीं,यह भी एक कड़वा सच है.ख़ासतौर से,जब मज़हबी रंग चढ़ा हो तो मुंह में लगा ख़ून नाक़ को हमेशा संवेदनशील बनाये रखता है,इसमें कोई दो राय नहीं.
इसलिए अरब भले ही मैदान से बाहर थे लेकिन इज़रायल में बचे-खुचे उनकी अपनी क़ौम के लोग ज़िहाद का खेल ज़ारी रख सकते थे.इसी मक़सद से दुनियाभर से बड़े-बड़े नफ़रत के आलिम भेजकर वहां यासिर अराफ़ात और उनके पीएलओ के पीछे चलने वाले लोग तैयार किए गए,पैसा और हथियार पहुंचाए जाने लगे.
फ़िलिस्तीन में खड़ा किया गया यासिर अराफ़ात के नेतृत्व में पीएलओ (फ़िलिस्तीन लिबरेशन आर्गेनाईजेशन) नामक आतंकवादी संगठन अपने मिशन पर था.उसने कई जगहों पर बमबारी की,विदेशों में स्थापित इज़रायली दूतावासों पर हमले हुए.इज़रायल के कई विमान हाईजैक किए गए.
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यासिर अराफ़ात और पीएलओ |
इसके बाद वर्ष 1987 में मुस्लिम भाईचारे की मांग पूरज़ोर ढ़ंग से उठाने के मक़सद से हमास नामक एक दूसरे ज़्यादा ख़तरनाक़ आतंकी संगठन का गठन किया गया.इसका गठन ज़िहाद के ज़रिए फ़िलिस्तीन के पूरे हिस्से पर इस्लाम का परचम लहराने के मक़सद से किया गया था.इसकी सक्रियता से वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा पट्टी के क्षेत्रों में तनाव पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप साल 1987 में ही पहला इंतिफादा यानि फ़िलिस्तीन विद्रोह हुआ,जो फ़िलिस्तीनी ज़िहादियों और इज़रायली सेना के बीच एक छोटे युद्ध के रूप में सामने आया.
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हमास और उसकी गतिविधियों के चित्र |
आज ज़िहाद के नशे में हमास ग़ाज़ा पट्टी से इज़रायल पर ख़तरनाक़ रॉकेटों से हमले करता रहता है.इन हमलों में अबतक इज़रायल के सैकड़ों नागरिकों की ज़ानें जा चुकी हैं.
बताया जाता है कि ईरान जैसे देश ग़ाज़ा में इजिप्ट के रास्ते हथियारों की सप्लाई करते हैं,ताकि इज़रायल की अखंडता को तोडा जा सके,वहां इस्लामिक राज्य बनाया जा सके.
ओस्लो एकॉर्ड
ओस्लो एकॉर्ड (Oslo Accords) 1990 के दशक में इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच अंतर्राष्ट्रीय दबाव में हुए समझौतों की एक श्रृंखला है.पहला ओस्लो समझौता साल 1993 में हुआ, जिसके तहत इज़रायल और पीएलओ एक-दूसरे को आधिकारिक मान्यता देने तथा ख़ून-ख़राबे को रोकने पर राज़ी हुए थे.इसके तहत फ़िलिस्तीन के लिए एक प्राधिकरण (अथॉरिटी) की स्थापना की गई थी.हालांकि इस प्राधिकरण को ग़ाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक (पश्चिमी तट) के इलाक़ों में सीमित स्वायत्तता ही हासिल हुई थी.
वर्ष 1995 में दूसरा ओस्लो समझौता हुआ जिसमें वेस्ट बैंक के 6 शहरों और क़रीब 450 क़स्बों से इज़रायली सैनिकों की सम्पूर्ण वापसी के प्रावधान किए गए थे.
दरअसल,इज़रायल की ये एक बहुत बड़ी भूल थी.एक ऐसी भूल जो चेचन्या में हुई थी और कश्मीर में होने वाली थी.एक ऐतिहासिक भूल, मानो इज़रायल ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली.
इसके तहत इज़रायल के यित्ज़ स्टॉक राबेन ने एक स्वायत्त निकाय (ऑटोनोमस बॉडी/सरकार) की स्थापना कर उसे एक आतंकी संगठन के हाथों सौंप दिया था,जिसके मुखिया यासिर अराफ़ात थे.इसके तहत ग़ाज़ा पट्टी,वेस्ट बैंक और पूर्वी येरुसलम के क्षेत्रों में एक ऐसी सरकार चलाने की अनुमति मिल गई जिसके पास अपनी विधान परिषद के साथ अपनी पुलिस और अन्य स्थानीय निकायों की व्यवस्था थी.यानि विदेश मामले और बाहरी सुरक्षा के लिए सेना को छोड़कर बाक़ी सभी अधिकार इस स्वायत्त निकाय के ज़रिए आतंकवादी संगठन को तोहफ़े में दे दिए गए.इससे एक देश में दो विधान अथवा दो सरकारों वाली व्यवस्था बहाल हो गई.
ईसा मसीह ने ख़ुद को परमेश्वर का पुत्र कहा जो रोमन और यहूदियों को पसंद नहीं आया और उन्हें सूली पर लटकाकर मार दिया गया.वहां पर यहूदियों से वो एक ग़लती हुई थी जिसकी भरपाई अगले 2 हज़ार साल तक करनी पड़ी.दूसरी ग़लती ओस्लो समझौते के रूप में हो गई जिसका दंश इज़रायली पिछले तीन दशकों से झेल रहे हैं.
विवाद की असली वज़ह
इज़रायल से जब भी खून-ख़राबे की ख़बरें निकलती हैं तब दुनियाभर में मशहूर इसकी कुछ जगहों के नाम जैसे ग़ाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और ज़ेरुसलम आदि वायरल होने लगते हैं.हमास को लेकर चर्चाएं होती हैं और इज़रायली सेना द्वारा कार्रवाई का विश्लेषण किया जाता तो अरब देशों के फ़तवे जैसे बयान भी ख़ूब उछाले जाते हैं.मगर इन सब के बीच कहीं दबकर रह जाता है 35 एकड़ ज़मीन का वो टुकड़ा जो सारे फ़साद की इकलौती वज़ह है.जी हां,इस विशाल दुनिया का दशमलव से भी कम हिस्सा जो दुनिया की सबसे विवादित जगह है.इसे हासिल करने के लिए सदियों से ख़ून की होली खेली जाती रही है और लाशों के अंबार लगते रहे हैं.
पूर्वी येरुशलम यानि प्राचीन यरुशलम शहर की एक पहाड़ी पर स्थित है ये 35 एकड़ क्षेत्रफल वाला आयताकार भूखंड.इस पर कभी यहूदियों का फर्स्ट टेंपल हुआ करता था.बेबीलोनियन द्वारा उसके तोड़े जाने के बाद सेकंड टेंपल बनाया गया.मगर रोमनों ने उसे भी ध्वस्त कर दिया.अब उसकी केवल एक दीवार ही बची है.
उस दीवार समेत पूरे परिसर को यहूदी पुकारते हैं हर हबायित.यह हिब्रू भाषा का शब्द है जिसे अंग्रेज़ी में टेंपल माउंट कहते हैं.यहूदियों का यही एकमात्र और पवित्रतम स्थल है.
यहूदियों की मान्यता (धार्मिक पुस्तकों) के अनुसार, हर हबायित यानि टेंपल माउंट वही स्थान है जहां ईश्वर ने वो मिट्टी संजोई थी,जिससे एडम का सृजन हुआ.एडम यानि दुनिया के पहले पुरुष जिससे इंसानों की भावी पीढ़ियां आस्तित्व में आईं.यहीं से फ़िर मानव सभ्यता का विकास हुआ.
यहूदियों की एक और मान्यता जुड़ी है टेंपल माउंट से.यहीं अब्राहम द्वारा अपने बेटे इसाक़ की क़ुर्बानी की घटना हुई थी जिसमें ईश्वर द्वारा भेजा गया एक फ़रिश्ता भेड़ के साथ प्रकट हुआ था.
मगर यहूदियों की इसी पवित्र ज़मीन यानि टेंपल माउंट पर आज मुसलमानों का क़ब्ज़ा है और उसके अवशेषों पर दो आलीशान इमारतें खड़ी हैं-एक है गुंबदाकार जबकि दूसरा चौकोर बना हुआ है.इन्हें डोम ऑफ़ द रॉक और अल-अक्सा मस्ज़िद कहा जाता है.यहां ग़ैर-मुस्लिमों का जाना मना है.
डोम ऑफ़ रॉक
गुंबदाकार इमारत जिसका उपरी हिस्सा सुनहरा है (इस पर तथाकथित सोने की पॉलिस हुई है) डोम ऑफ़ द रॉक के नाम से जाना जाता है.अरबी में इसे क़ुव्वत अस-सख़राह और हरम-अल-शरीफ़ कहा जाता है.
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डोम ऑफ़ रॉक |
इसका इतिहास सातवीं सदी से जुड़ा हुआ है.मुहम्मद साहब के साथी (सहाबा) उमर ने 636 ईस्वी में हमला कर इस पूरे इलाक़े को जीत लिया था.बाद में 685 और 691 खलीफ़ा अब्द अल-मलिक इब्न मारवान ने सार्वजनिक पूजा के लिए मस्ज़िद के रूप में नहीं बल्कि तीर्ययात्रियों के लिए एक मशहद (मक़बरा) के रूप में करवाया था.यह वस्तुतः इस्लामी इतिहास में पहली स्मारकीय इमारत है और काफ़ी सौन्दर्य और स्थापत्य महत्त्व की है;यह मोज़ेक,फ़ाईनेस और संगमरमर से समृद्ध है,जिनमें से अधिकांश को इसके पूरा होने के कई शताब्दियों के बाद जोड़ा गया था.मूल रूप से अष्टकोणीय,डोम ऑफ़ द रॉक इस्लामिक की तुलना में आमतौर पर रोमन या बेज़ेंटाइन है.
अल-अक्सा मस्ज़िद
अल-अक्सा मस्ज़िद डोम ऑफ़ रॉक के सामने टेंपल माउंट की दीवार के साथ लगी हुई इमारत है.इसका निर्माण भी उम्मयद खलीफा अब्द अल-मलिक इब्न मारवान ने शुरू करवाया गया जिसे उनके बेटे अल-वालिद द्वारा 705 ईस्वी में पूरा हुआ था.मगर भूकंप के कारण यह कई बार तबाह हुई और फ़िर बनवाई गई.
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अल-अक्सा मस्ज़िद |
अल-अक्सा की डिज़ाइन डोम ऑफ़ रॉक से अलग है.दरअसल डोम ऑफ़ रॉक की बेज़ेंटाइन शैली के विपरीत,अल-अक्सा मस्ज़िद प्रारंभिक इस्लामिक वास्तुकला की विशेषता है.
यह आकार में 35 हज़ार वर्ग मीटर में फ़ैला हुआ है वहीं इसके बड़े परिसर में क़रीब 4 लाख नमाज़ी एक साथ समा सकते हैं.इसमें 4 मीनारें और 14 मेहराब के साथ एक सुंदर टाइल से ढ़ंका हुआ मुखौटा है.
अल-अक्सा मस्ज़िद का मुख्य स्नान फ़व्वारा,जिसे अल-क़ास (कप) कहा जाता है,जिसका उपयोग नमाज़ी अपने हाथ-पैर धोने के लिए करते हैं,अल-अक्सा और डोम ऑफ़ रॉक के बीच स्थित है.यह 709 ईस्वी में बनाया गया था.
यहूदियों की दावेदारी का आधार
ज़ेरुसलम की 35 एकड़ ज़मीन पर हर हबायित अथवा टेंपल माउंट और उसके अंदर होली ऑफ़ होलीज़ को लेकर पुराने बाइबल (हिब्रू बाइबल) के बुक ऑफ़ ज़ेनेसेज़ का हवाला दिया जाता है जिसमें ईश्वर और अब्राहम के बीच क़रार की चर्चा है.इसमें लैंड ऑफ़ कैनन की भी चर्चा है जहां अब्राहम मेसोपोटामिया छोड़कर आए और अपने परिवार सहित बस गए.यहीं चट्टान पर उनके बेटे इसाक़ की क़ुर्बानी की घटना का वर्णन मिलता है.
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लैंड ऑफ़ कैनन |
यहूदियों के मुताबिक़,टेंपल माउंट (पहाड़ी वाला मंदिर) के अवशेषों पर मुसलमानों ने बेज़ेंटाइन साम्राज्य के शासन काल में क़ब्ज़े के बाद डोम ऑफ़ रॉक और अल-अक्सा मस्ज़िद बना दी.
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पहाड़ी पर अब्राहम की विरासत वाली जगह पर पहले और बाद की स्थिति (प्रतीकात्मक) |
यह भी कहा जाता है कि अब्राहम के पोते यानि इसाक़ के बेटे ज़ेक़ब उर्फ़ इज़रायल के नाम पर ही यहां के सम्मिलित क्षेत्र (प्राचीन और नया इज़रायल शहर) का नाम इज़रायल पड़ा.
मुसलमानों की दावेदारी का आधार
मुसलमानों के दावे का आधार है उनकी धार्मिक पुस्तक क़ुरान.उसमें इस बात का ज़िक्र है कि सन 621 की एक रात पैग़म्बर मुहम्मद बुर्राक़ (कद-काठी में खच्चर से थोड़ा छोटा और गधे से थोड़ा बड़ा) नामक उड़ने वाले ज़ानवर पर बैठकर मक्का से ज़ेरुसलम आए.यहीं से वो ऊपर ज़न्नत में चढ़े. वहां उन्हें अल्लाह के दिए कुछ आदेश मिले.
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बुर्राक़ और मुहम्मद का स्वर्गारोहण |
यह भी बताया जाता है कि उस रात को बुर्राक़ पर सवार पैग़म्बर मुहम्मद ने ज़ेरुसलम में पहली बार जहां पांव रखा,उसी जगह पर है अल-अक्सा मस्ज़िद.साथ ही,जिस जगह से उड़कर वो उस रात ज़न्नत पहुंचे,वहीं पर डोम ऑफ़ रॉक स्थित है.इस तरह दोनों ही इमारतों पर मुसलमानों की दावेदारी है.
दोनों की दावेदारी के आधार का विश्लेषण
एक तरफ़ हिब्रू बाइबल है तो दूसरी तरफ़ क़ुरान है.दोनों ही अपने-अपने संप्रदायों के लिए बहुत अहम हैं.मगर यदि इमानदारी से विश्लेषण किया जाए तो कुछ सवाल उठने लाज़िमी हैं.मसलन, अब्राहम/इब्राहीम कौन हैं?
पहले कौन आया- यहूदी या इस्लाम?
निश्चय ही, अब्राहम यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही मज़हबों के जनक/पिता हैं.
सबसे पहले यहूदी अस्तित्व में आए.उसके बाद ईसाई हुए और फ़िर आख़िर में इस्लाम का उदय हुआ.
दरअसल, इस्लाम और ईसाईयत वास्तव में यहूदियों की दो संतानें हैं.अब्राहम तीनों के आदि पुरुष हैं.ये तीनों एकेश्वरवादी हैं.ये तीनों किसी एक मसीहा में यक़ीन रखते हैं.इन तीनों का विकास भले अलग-अलग तरह से हुआ हो, लेकिन इनका मूल समान है, और वह एक यहूदी मूल है.तो फिर, अब्राहम और ईश्वर के बीच हुए लैंड ऑफ़ कैनन अथवा इज़रायल को लेकर ख़ुदा से क़रार को मुसलमान सम्मान क्यों नहीं देते?
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यहूदी, ईसाई और इस्लाम के जनक अब्राहम (प्रतीकात्मक) |
मुसलमान उस चट्टान/पहाड़ी को महत्त्व क्यों नहीं देते, जहां अब्राहम ईश्वर से (मान्यता के मुताबिक़) बातें करते थे?
हज़रत मूसा की चर्चा इस्लाम में भी होती है.मुसलमान उनकी इज्ज़त करते हैं.तो फिर, उनकी निशानी और यहूदियों की इक़लौती इबादतगाह टेंपल माउंट की ज़मीन यहूदियों को वापस क्यों नहीं कर देते?
यही कारण है कि क़ुरान/इस्लाम आलोचनाओं का शिक़ार होता है.इसमें दोहरे विचारों का समावेश है.
एक तरफ़ तो क़ुरान एक इंसान के क़त्ल को पूरी इंसानियत का क़त्ल बताता है, जबकि दूसरी तरफ़ वही (क़ुरान) काफ़िरों (ग़ैर-मुस्लिमों) के कत्लेआम के फ़रमान भी सुनाता है.इसे कोई झूठला सकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि मुहम्मद साहब की मौत के बाद मूल क़ुरान में क़ाफ़ी कुछ बदलाव किए गए.मुहम्मद साहब अनपढ़ थे, इसलिए उनकी बताई बातें दूसरे लोग लिखते थे.अलग-अलग लोगों के पास आयतें रखी गईं थीं, जिनमें से कुछ तो नष्ट भी हो गई थीं.ऐसा बताया जाता है कि अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए खलीफाओं अबू बक्र, उमर और उस्मान ने कई आयतें अपनी ओर से कुरान में जोड़ दी थी.ऐसी कुछ आयतों को इंसानियत के लिए ख़तरनाक बताते हुए उन्हें कुरान से हटाने को लेकर भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दाख़िल हुई है.
कुछ ऐसे ख़ास बिंदु हैं जिन पर ख़ासतौर से इज़रायल/फ़िलिस्तीन के पढ़े-लिखे मुसलमानों को सोचना होगा.
1.पैग़म्बर मुहम्मद की रात की यात्रा का संबंध उस स्थान से कैसे जोड़ा जा सकता है, जिसका क़ुरान में ज़िक्र नहीं है?
2. अरबी में अल-अक्सा का शाब्दिक अर्थ बहुत दूर है.पर,दुनिया में अनगिनत ऐसी जगहें हैं जो मक्का से बहुत दूरी पर स्थित हैं.ऐसे में,इज़रायल/फ़िलिस्तीन पर ही दावेदारी क्यों?
3. पैग़म्बर मुहम्मद के नेतृत्व में कई स्थानों पर आक्रमण हुए,सैकड़ों मंदिर तोड़े गए, क़ब्ज़े हुए.यह सब कुछ इस्लाम के विस्तार/ज़िहाद के लिए हुआ.ऐसे में,इज़रायल की उस पवित्र भूमि पर अपने जीवन-काल में उन्होंने इस्लाम का परचम लहराने की कभी कोशिश भी क्यों नहीं की जहां, सन 621 की रात वे अपने क़दमों के निशान छोड़ आए थे?
4. बुर्राक़ की सवारी तथा अल-अक्सा और टेंपल माउंट की भूमि होते हुए ज़न्नत के सफ़र की वो घटना अगले 12 सालों (621 से 632 ईस्वी के बीच) के दौरान उन्हें कभी याद नहीं रही?
मुहम्मद साहब के जाने के बाद अबू बक्र खलीफ़ा हुए.उन्होंने भी इस बाबत कोई क़दम नहीं उठाया.तो क्या वो घटना सिर्फ़ खलीफ़ा उमर को ही याद थी, जो वे यरुशलम जीतने निकल पड़े?
यरुशलम की दावेदारी को लेकर अब हम धार्मिक मान्यताओं को अलग रख देते हैं.चलिए, ऐतिहासिक तथ्यों की बात करते हैं.इतिहास कहता है कि बेबीलोन के आक्रमण से पहले और रोमनों के काल में भी इज़रायल की धरती पर यहूदी रहा करते थे.ईसा मसीह भी एक यहूदी परिवार में हीं जन्मे थे.तक़रीबन 6 सौ साल बाद, सातवीं सदी में इस्लाम की सेना यहां आई और उसने येरुशलम-इज़रायल पर क़ब्ज़ा किया.लेकिन, इतिहास गवाह है कि इसके बहुत बाद 35 एकड़ में फैले टेंपल माउंट के स्थान पर डोम ऑफ़ रॉक और अल-अक्सा मस्ज़िद का निर्माण कराया.
पुरातात्विक साक्ष्यों ने सिद्ध कर दिया है कि डोम ऑफ़ रॉक और अल-अक्सा टेंपल माउंट के मलबों पर खड़े हैं.
मिसाल के तौर पर, जॉन के घर पर जुनैद क़ब्ज़ा कर लेता है.आगे चलकर जुनैद की औलादें ख़ुद को असली बाशिंदा जबकि जॉन की औलादों को बाहरी बताने लगती हैं.ऐसे में एक जज क्या करेगा/किसके पक्ष में फ़ैसला देगा? ज़ाहिर सी बात है, जज तथ्यों की जांच करेगा और सबूतों को खंगालने के बाद उस घर का मालिक़ाना हक़ असली मालिक जॉन को सौंप देगा.यही तो अयोध्या में हुआ और कुछ लोग कहते हैं कि अब काशी और मथुरा में भी होने वाला है.
मगर, अयोध्या में ही 5 सौ बरस लग गए, तो बाक़ियों का क्या होगा? दरअसल, कट्टरतावादी वैसे ही हैं जैसे जोंक, जो अपनी फ़ितरत के मुताबिक़ कहीं भी और कभी भी खून से चिपक जाते हैं.जब तक इन पर नमक न डालो ये छोड़ते नहीं हैं.
दरअसल, इज़रायल में एक भीषण साभ्यतिक-संघर्ष की शुरुआत तब हुई जब यहूदी अपनी मातृभूमि को लौटे.इसमें दोनों तरफ़ बराबर की ताक़तें थीं-एक तादाद में बड़ी थी तो दूसरी जीवट में.
मगर इस संघर्ष के मूल में जो बात है वो है यहूदियों से इस्लाम का रिश्ता.ये रिश्ता जितना पुराना है उतना ही संघर्षपूर्ण भी है.खून से पूरी तरह लथपथ.कई घटनाएं इतिहास की किताबों में दर्ज़ हैं.
इतिहास के मुताबिक़, 5 वीं सदी में दहू निवास नामक अरब के सुल्तान ने यहूदी धर्म अपना लिया था.यहां तक कि पवित्र मदीना शहर भी यहूदियों ने ही बसाया था.इसे पहले यथरीब नाम से जाना जाता था.ख़ुद पैग़म्बर मुहम्मद ने यहूदियों को ख़ुश करने के लिए अपने लोगों को सूअर का मांस खाने मना किया था क्योंकि यहूदियों के लिए वह हराम था.यानि हराम-हलाल के विषय भी इस्लाम ने यहूदियों से उधार लिया.लेकिन, झगड़ा तब शुरू हुआ जब यहूदियों ने मुहम्मद को अपना पैग़म्बर क़बूल नहीं किया ठीक वैसे ही जैसे नाज़रत के यीशु को उन्होंने नक़ार दिया था.
यहीं से यहूदियों के क़त्लेआम की भी शुरुआत हुई.नाज़ियों से पहले अरबों ने भी यहूदियों का बड़े पैमाने पर क़त्लेआम किया था.मुहम्मद के समय यहूदियों के तीन क़ुनबे थे- क़ुरयाज़ा,नादिर और क़युन्का.इनमें क़ुरयाज़ा क़ुनबा पूरा का पूरा काट दिया गया,जबकि क़युन्का और नादिर को अरब से भगा दिया गया.नादिर खैबर तक सिमटकर रह गए.
ये सन 624 से 628 के बीच की घटना है.जब यहूदी मर्दों के सिर धड़ से अलग (सर तन से ज़ुदा) कर दिए जाते थे और उनकी औरतों और बच्चों को मंडियों में बेच दिया जाता था.इनमें,एक औरत थी रेहाना.रेहाना बिन्त ज़ायद.उसके साथ क्या हुआ,वो सच बताया जाता है तो मुसलमान नाराज़ हो जाते हैं.
बदलते वक़्त के साथ इंसानों में भी बदलाव आए हैं.पर,कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी सोच आज भी वहीं की वहीं है.मुसलमान पहले अल-अक्सा मस्ज़िद की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ा करते थे.अब वे क़ाबा की तरफ़ मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं.जब वे क़ाबा की तरफ़ मुंह करते हैं तो उनकी पीठ यरुशलम की तरफ़ होती है.झगड़ा तब शुरू होता है,जब वो कहते हैं- हमारा मुंह जिस तरफ़ है और हमारी पीठ जिस तरफ़ है,वो तमाम इलाक़े हमारे हैं.
अरब मुल्क़ों में इत्बा अल यहूद (यहूदियों का क़त्ल कर डालो) के नारे लगते हैं.इज़रायल में रहने वाले मुसलमान आज भी जोर्डन के ही निवासी हैं क्योंकि उन्हें इज़रायल की नागरिकता गवारा नहीं.यहां वे अपने बच्चों को भी अमन-चैन की भाषा नहीं सिखाते.उनके हाथ वे चाकू देकर यहूदियों को मारने की प्रेरणा देते हैं.
जब परिसर के पास वेस्टर्न वॉल के पास यहूदी प्रार्थना करते हैं तब मुसलमान उन पर पत्थर फ़ेंकते हैं.इस कारण भी अक्सर झगड़े शुरू होते हैं और ख़ूनी संघर्ष में बदल जाते हैं.
दरअसल,ये उम्मा बनाम यिद्दिश नेशनलिज्म का क्लासिकल टकराव है.मगर इज़रायल बहुत जीवट वाला देश है.चारों ओर से ख़ूनी दांतों वाले अरब देशों के बीच घिरे होने के बावज़ूद पूरी ताक़त से खड़ा है और तेज़ी से आर्थिक विकास के साथ-साथ रक्षा के क्षेत्र में भी नित नई उपलब्धियां हासिल कर रहा है.
इज़रायल यहूदियों का इक़लौता राष्ट्र है.उन्हें ये मालूम है कि इज़रायल अगर उनके हाथ से छीन गया तो कुर्दों और यज़ीदियों की तरह ही वे भी शरणार्थी बनकर दुनिया में भटकने को मज़बूर हो जाएंगें.
इसीलिए इज़रायल की भी एक राष्ट्र के रूप में अपने नागरिकों के प्रति वचनबद्द्ता है-
1. जो व्यक्ति जहां का मूल निवासी हो,उसे वहां रहने का अधिकार है.
2. अगर किसी को उसकी धरती से बाहर खदेड़ दिया गया हो लेकिन,बाद में लौटने पर वह पाए कि वहां पर दूसरे लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है,तब भी पहला हक़ उसी का है.
अमरीका में सत्ता-परिवर्तन का असर
बराक़ ओबामा के समय सीरिया,लीबिया और इजिप्ट में घोर राजनैतिक अस्थिरता बनी हुई थी,जबकि डोनल्ड ट्रंप के आने के बाद मध्य-पूर्व में अमन-चैन क़ायम हो गया था.लेकिन अमरीका में हुए हालिया राजनैतिक परिवर्तन और जो बाइडन के आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान और इज़रायल में ख़ून-ख़राबे में फ़िर बढ़ोतरी हो गई है.
यह कोई अप्रत्याशित स्थिति नहीं है,इसके क़यास अमरीका में चुनाव-प्रचार के दौरान ही लगाए जाने लगे थे,जब बाइडन ख़ुलेआम क़लमे पढ़ रहे थे,दहशतगर्दी का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे.
यही कारण है कि हमास की ओर से दहशतगर्दी के ज़वाब में इज़रायली सेना की कार्रवाई के खिलाफ़ वो लोग भी मुखर हो रहे हैं जो अफ़ग़ानिस्तान में स्कूली बच्चों के क़त्ल और शिंज़ियांग में उईगर मुसलमानों के दमन पर चुप्पी साधे रहते हैं.भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है.
ऐसे में भारत में रहने वाले फ़िलिस्तीन-समर्थकों को निम्नलिखित बातों पर भी ग़ौर करना चाहिए-
1. जो लोग आर्यों को विदेशी(जो ग़लत सिद्ध हो चुका है)और दलितों को यहां का मूल निवासी बताते नहीं थकते,इसी आधार पर उन्हें यहूदियों के इज़रायल पर हक़ के समर्थन में आगे आना चाहिए.
2. अगर भारत में बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं को तथा यूरोप में सीरियाई शरणार्थियों को जगह देने के लिए दलीलें दी जा सकती हैं तो इज़रायल में यहूदियों को भी अपना घर दिया जा सकता है.
3. अगर अनेकता में एकता इतनी ही ख़ूबसूरत दलील है तो फिलिस्तीनियों को भी अपने यहूदी भाइयों के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए और उनके साथ गंगा-जमुनी खेलना चाहिए.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
अज़ीब शहर है तेरा किसी की सुनता नहीं,
यहां पे झूठ का क़िस्सा सफ़र में रहता है |
और साथ ही…
झूठ है दिल-ब-दर किए गए हैं,
सच कहें हम वहां पे थे ही नहीं |
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