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चुनाव

चुनाव जीते लेकिन ज़मानत ज़ब्त हुई!

चुनावों में किसी उम्मीदवार के हारने के बाद उसकी ज़मानत ज़ब्त होने की चर्चा आम है,लेकिन चुनाव जीतने के बाद भी ज़मानत ज़ब्त हुई हो ये बात बहुत कम लोग जानते हैं.ये आश्चर्यजनक है,अविश्वसनीय-सा है लेकिन सच है.जी हाँ,ये बिलकुल सच है.ऐसा हुआ है.एक बार नहीं,दो बार.
विजयी उम्मीदवार,मत प्रतिशत,ज़मानत नहीं बची
भारत निर्वाचन आयोग 
उल्लेखनीय है कि भारत के चुनावी इतिहास में ऐसे दो उदाहरण मौज़ूद हैं जिनमें हमारे जनप्रतिनिधित्व क़ानून की मान्यताओं के विपरीत चुनाव जीत चुके उम्मीदवार की ज़मानत भी ज़ब्त हुई.ऐसा क्यों हुआ,एक बड़ा सवाल तो है ही  मगर इससे भी बड़ी विचित्र बात ये है कि इसका ज़वाब ना तो चुनाव आयोग के पास है और ना ही कोई संविधान विशेषज्ञ इससे वाकिफ़ नज़र आता है.साथ ही,चूँकि ये मामले अदालत नहीं पहुँच पाए इसलिए हमारे पास इन्हें अपवाद मानने के सिवाय कोई चारा नहीं है.

पहला अनोखा मामला 

पहला अनोखा एवं ऐतिहासिक मामला उत्तरप्रदेश का है.सन 1952 में आज़मगढ़ की सगड़ी पूर्व विधानसभा सीट पर कांग्रेस पार्टी के बलदेव उर्फ़ सत्यानन्द तथा निर्दलीय उम्मीदवार शम्भुनारायण चुनाव मैदान में थे.दोनों को क्रमशः 4969 तथा 4348 मत प्राप्त हुए थे.बलदेव शम्भुनारायण से ज़्यादा मत हासिल करने में क़ामयाब रहे इसलिए वे चुनाव  तो जीत गए लेकिन उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई.ज़मानत ज़ब्त होने का कारण था,उन्हें क़ानूनन डाले गए कुल वैध मतों के छठे हिस्से से ज़्यादा मत प्राप्त नहीं हो सके.
विजयी उम्मीदवार,मत प्रतिशत,ज़मानत नहीं बची
उत्तरप्रदेश विधानसभा का दृश्य 
दरअसल,उपरोक्त सीट पर कुल 32,378 वैध मत पड़े थे,जिनका छठा हिस्सा होता था,5,396.बलदेव को इस छठे हिस्से से भी कम मत यानि 4969 मत ही हासिल हो पाए जबकि ज़मानत राशि बचाने के लिए उन्हें 5,396 से ज़्यादा यानि कम से कम 5,396 +1 =5397 मतों की आवश्यकता थी जो वो हासिल नहीं कर पाए थे.
कैसे होती है उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त,ये जानने के लिए पढ़िए-

चुनाव आयोग के निर्णय पर सवाल 

उपरोक्त उदाहरण चुनाव आयोग के निर्णय तथा जनप्रतिनिधित्व क़ानून की मान्यताओं के बीच परस्पर विरोध का जीता जागता उदाहरण है.इसे समझने के लिए हमें जनप्रतिनिधित्व क़ानून के उस प्रावधान को देखना होगा जिसमें चुनाव में विजयी उम्मीदवार की ज़मानत राशि के बारे में बिलकुल स्पष्ट रूप से कहा गया है.
ज्ञात हो कि जनप्रतिनिधित्व कानून,1951 की धारा 158 (Section 158. Return or forfeiture of candidate’s deposit  )के अनुसार,”यदि कोई उम्मीदवार चुनाव जीत जाता है तो वह ज़मानत राशि वापस प्राप्त करने का हक़दार हो जाता है.”इसमें ये भी कहा गया है- ”उम्मीदवार ने भले ही डाले गए कुल वैध मतों के छठे हिस्से से ज़्यादा मत हासिल किए हों अथवा नहीं,उसकी ज़मानत राशि वापस हो जाएगी.”
उपरोक्त प्रावधान में वर्णित शब्दों का मत्लब साफ़ है कि किसी उम्मीदवार का जीतना ही काफ़ी है अपनी ज़मानत बचाने के लिए.वैसे भी वह अव्वल आया है.अन्य सभी उम्मीदवारों को पछाड़कर सबसे ज़्यादा मत पाए हैं उसने.संभवतः यही कारण है कि क़ानूनन ‘एक अवसर पर’ उसे ‘विशेष लाभ’ प्रदान किया गया है.

दूसरा अनोखा मामला 

60 साल बाद वैसा ही दूसरा अनोखा मामला दिल्ली में पेश आया.यहाँ साल 2012 के नगर निगम चुनाव में नंगली सकरावती वार्ड संख्या 134 से निर्दलीय उम्मीदवार सतेन्द्र सिंह राणा ने जीत तो हासिल कर ली लेकिन वे अपनी ज़मानत रक़म को नहीं बचा सके.
विजयी उम्मीदवार,मत प्रतिशत,ज़मानत नहीं बची
दिल्ली नगर निगम का दृश्य
दरअसल,इस वार्ड की सीट पर कुल 40,320 वैध वोट पड़े थे,जिनमें से राणा को केवल 6,681 मत मिले.अपनी ज़मानत बचाने के लिए उन्हें कुल वैध मत के छठे हिस्से यानि 6,720 से ज़्यादा मत प्राप्त करने थे,जिसमें वे नाक़ाम रहे और इस तरह उनकी ज़मानत भी ज़ब्त हो गई.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
सियासत की अपनी अलग इक ज़बां है,
लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढना |
 
और साथ ही…
 
रहे दो दो फ़रिश्ते साथ अब इंसाफ़ क्या होगा , 

किसी ने कुछ लिखा होगा किसी ने कुछ लिखा होगा |  

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रामाशंकर पांडेय

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