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हिन्दू देवी-देवताओं के हाथों में क्यों हैं अस्त्र-शस्त्र?

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हिन्दू देव-देवताओं के चित्रों-मूर्तियों में कई हाथ दिखाई देते हैं.इनमें अधिकांश में शास्त्र के साथ कमल, शंख, माला आदि होते हैं, जो शांति के प्रतीक हैं मगर, कुछ में शस्त्र यानि, हथियार भी होते हैं, जो शक्ति को दर्शाते हैं.

हिन्दू देवी-देवताओं के हाथों में अस्त्र-शस्त्र (प्रतीकात्मक)

हिन्दू जिनकी पूजा करते हैं और पूरी ज़िन्दगी जिनके सानिध्य में गुज़ारते हुए जिनमें समाहित होने की कामना के साथ ही अपने प्राण भी त्यागते हैं, उनके हाथों में क्या है, और उसके असल मायने क्या हैं यह नहीं समझते.हालांकि मध्यकाल से पहले ऐसा नहीं था, और कई चीज़ें तो कुछ दशकों पहले ही बदली हैं मगर सैकड़ों सालों से कुछ ऐसा हो रहा है, जो शनि और राहू-केतु के रूप में हिन्दुओं के सिर पर सवार होकर उन्हें गुमराह कर रहा है.उन्हें उनकी ही संस्कृति से काट रहा है.

जो इतिहास भूल जाते हैं वो इतिहास बन जाते हैं.इसी प्रकार, अपनी संस्कृति से कटकर कोई व्यक्ति या राष्ट्र नष्ट हो जाता है.यही संसार का शास्वत नियम है, जिसे सबको सदैव स्मरण रखना चाहिए.

यह हिन्दुओं का दुर्भाग्य ही तो है कि एक गौरवशाली सभ्यता-संस्कृति के लोग जो आधी दुनिया पर राज करते थे, विश्वगुरु थे, उनका अखंड भारत तो खंड-खंड हुआ ही, शेष भारत भी अपना देश नहीं है.

आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में अब कुल क़रीब एक अरब ही हिन्दू बचे हैं, जबकि अकेले भारत की कुल आबादी 1.40 अरब के क़रीब पहुंच गई है.सात अरब से ज़्यादा आबादी वाली दुनिया में हिन्दुओं का यह हिस्सा महज़ 13.95 फ़ीसदी है, जबकि मुसलमान क़रीब 1.6 अरब आबादी के साथ 23.2 फ़ीसदी और ईसाई क़रीब 2.2 अरब के साथ 31.4 फ़ीसदी तक पहुंच गए हैं.

दुनिया की छोड़िए, हिन्दू अपने मूल स्थान भारत के ही 8 राज्यों में अल्पसंख्यक हो चुके हैं.आज़ादी के बाद 1947 में हिन्दू जो क़रीब 85 फ़ीसदी थे वे बढ़ने के बजाय नीचे गिरकर 79 फ़ीसदी पर पहुंच चुके हैं.

पहले कश्मीर से निकाले गए और अब देश के अनेक हिस्सों में अपने ही घरों-गांवों और शहरों से निकाले-भगाए जा रहे हैं.घट-सिमट रहे हैं.

ख़तरे में है हिन्दू जातियों का भविष्य.मगर, क्यों?

हिन्दू भूल गए हैं अपने देवी-देवताओं के हाथों में अस्त्र-शस्त्र के मायने

हिन्दू अपने देवी-देवताओं के हाथों में अस्त्र-शस्त्र के मायने भूल गए हैं.यही उनके पतनोन्मुख होने का मुख्य कारण है.

हिन्दू देव-देवताओं के चित्रों-मूर्तियों में कई हाथ दिखाई देते हैं.इनमें अधिकांश में शास्त्र क साथ कमल, शंख, माला आदि होते हैं, जो शांति के प्रतीक हैं.मगर, कुछ में शस्त्र यानि, हथियार भी होते हैं, जो यह बताते हैं कि ज्ञान और सद्भाव के साथ शक्ति भी ज़रूरी है.दुष्टों का दलन या उनसे रक्षा इसी से की जा सकती है.

ये अस्त्र-शस्त्र शक्ति के प्रतीक हैं, जिनका संदेश यह है कि किसी को भी बुराई या दुष्टों से लड़ने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए.

वेदों-पुराणों में दिव्यास्त्रों और वैदिककालीन सभी शस्त्रों के विवरण के साथ इनके प्रयोग के विधान की भी चर्चा है.

कई जगहों पर यह उल्लेख मिलता है कि देवियों और देवताओं ने समय-समय पर अपने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग कर बुराई का संहार किया है.

भगवान कृष्ण बांसुरी के साथ सबसे धारदार और प्रभावकारी अस्त्र सुदर्शन चक्र भी धारण करते हैं.

भगवान शिव डमरू वादन के साथ नाचते हुए संगीत की महिमा दर्शाते हैं तो रौद्र रूप में त्रिशूल के साथ बुराई का नाश करने को तैयार मुद्रा में भी दिखाई देते हैं.

भगवान विष्णु के एक हाथ में कमल का फूल जहां शांति का द्योतक है वहीं दूसरे हाथ में कौमोदीकी गदा भी है.

इसी प्रकार, भगवान गणेश के एक हाथ में लड्डू एक प्रिय भोजन की ओर संकेत करता है, तो दूसरे हाथ में कुल्हाड़ी भी प्रहार के लिए तैयार नज़र आती है.

नव दुर्गा को पापों की विनाशिनी कहा गया है.इनके भिन्न-भिन्न स्वरूपों में भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र हैं.दुर्गा सप्तशती में कहा गया है कि मां दुर्गा को देवताओं ने अपने अस्त्र-शस्त्र सौंपे थे, ताकि असुरों के साथ होने वाले युद्ध में विजय प्राप्त हो.

यह युद्ध अधर्म के नाश, धर्म की स्थापना और सन्मार्ग की गति बनाए रखने के लिए हुआ था न कि शत्रुतापूर्ण या अहंकारवश या फिर अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए था.

हिन्दू देवी-देवता अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं क्योंकि वे इनके रणनीतिक महत्त्व को जानते हैं.

देवी-देवता ही नहीं कई सदाचारी और महान लोगों या नायकों ने युद्ध किए दुष्टों का नाश और धर्म की रक्षा के लिए.

कहीं भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है जहां हथियारों का ग़लत इस्तेमाल कर समाज में अशांति और भय का माहौल पैदा किया गया हो.शस्त्र के प्रयोग का उद्देश्य सदा शांति स्थापित करना रहा है.

शांति की स्थापना शस्त्र से ही संभव

संसार में आसुरी शक्तियां अनादिकाल से हैं.यह आज भी हैं और कल भी रहेंगीं.इनकी अराजकता को शस्त्र से ही ख़त्म कर शांति स्थापित हो सकती है.

हम सभी जानते हैं कि दुनिया में उम्दा चीज़ों पर हमेशा दुष्टों की नज़र रहती है.वे इसे हथियाने की फ़िराक में रहते हैं या फिर नष्ट कर देना चाहते हैं.इन दुराचारियों को नियंत्रित या नष्ट कैसे किया जा सकता है? बल प्रयोग यानि, शस्त्रों के इस्तेमाल के द्वारा .

यही तो सरकारें करती हैं.पुलिस या सेनाएं होती हैं, जो कानून के पालन और देश-समाज में शांति की स्थापना या उसे बनाए रखने के लिए असामाजिक तत्वों, उपद्रवियों और आतंकियों से लडती हैं.

देश की सीमाओं पर दुश्मन देश की सेनाओं से युद्ध होते हैं.

दुनियाभर में लगी हथियारों की होड़ क्या है? शांति की स्थापना के लिए युद्ध की तैयारी.यह तैयारी अपनी ताक़त बढ़ाने-दिखाने के साथ-साथ शत्रुओं से अपनी रक्षा के लिए भी है.

कुछ ऐसी ही परिस्थितियां हिन्दू समाज के साथ भारत में है.पिछले 1000 सालों से इसके विरुद्ध घोषित-अघोषित युद्ध जारी हैं.इसमें ईसाई मिशनरियां जहां धर्मान्तरण का चक्र चला रही हैं वहीं, इस्लामिक संस्थाओं द्वारा गजवा-ए-हिन्द चल रहा है.

दोतरफा हमले लगातार जारी हैं.मगर, अपने मूल सिद्धांतों से कटे हुए हिन्दुओं को समझ ही नहीं आ रहा है या उन्हें पहले से ही लगी नासमझी और भूलने की बीमारी अब तक दूर नहीं हो पाई है.

नागा संप्रदाय को समझें, शस्त्रों के मायने समझ आएंगें

नागा संप्रदाय एक सैन्य रेजीमेंट की तरह है, जो हमेशा त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से लैस रहता है.इसमें वीइधिवत शस्त्र-विद्या का अध्ययन और प्रशिक्षण होता है.

इनके यहां सैनिक पद होते हैं जैसे सेनापति, कोतवाल आदि.

विभिन्न अखाड़ों में रहते हुए इसके साधु या सन्यासी शास्त्र के साथ शस्त्र के उपयोग को भी अपना धर्म मानते हैं.यानि, ये अपनी साधना-आराधना तो करते ही हैं, बुराइयों और बुरी ताक़तों से लड़ने को भी हमेशा तैयार रहते हैं.

नागा संप्रदाय की स्थापना आदिगुरू शंकराचार्य ने 5 वीं सदी ईसा पूर्व में विदेशी आक्रमणकारियों से मठ-मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए की थी.मगर, कई गौरवपूर्ण युद्धों में भी इन्होंने अपना जौहर दिखाया था.

असंख्य नागा योद्धा भारत के विभिन्न भागों में राजाओं की सेना के साथ मिलकर विदेशी शत्रु सेनाओं से लड़े, उनका वध किया और स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए.

इतिहास गवाह है कि अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुक़ाबला करके गोकुल की रक्षा की थी.

ये अंग्रेजों से लड़े थे और अयोध्या में रामजन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी किया था.

गुरुकुल और अखाड़े

भारत में पहले गुरुकुल-व्यवस्था थी.इसमें अखाड़े भी हुआ करते थे.इससे यहां शास्त्र की शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र और युद्ध-कला संबंधी शिक्षण-प्रशिक्षण भी होता था.यानि, इस व्यवस्था में छात्र या शिष्य ज्ञानी-ध्यानी तो बनते ही थे, एक कुशल योद्धा के रूप में भी तैयार होकर समाज और राष्ट्र के काम आते थे.

गुरुकुल यानि, ऐसे विद्यालय जहां छात्र अपने परिवार से दूर गुर के परिवार के साथ रहकर शिक्षा ग्रहण करता था.शास्त्रों के अनुसार, शिरम ने ऋषि वशिष्ठ और पांडवों ने ऋषि द्रोण क यहां रहकर शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी.

यह व्यवस्था 20 वीं सदी के शुरुआती दशकों तक कुछ स्थानों देखने को मिलती थी.मगर, अंग्रेजों द्वारा दमन और फिर उनके बनाए कानून आज़ाद भारत में लागू किए जाने के कारण यह तहस-नहस हो गई.

अखाड़े तो दो दशक पहले तक देखे जाते थे जहां लोग व्यायाम के साथ-साथ कुश्ती और युद्ध लड़ने की विद्या भी सीखते व अभ्यास करते थे.मगर, ये भी अब लगभग लुप्त हो चुके हैं.

ज्ञात हो कि दुनिया में जितनी भी युद्ध कलाएं मार्शल आर्ट, तलवारबाज़ी, तीरंदाजी आदि हैं, ये सभी सनातन धर्म की ही प्राचीन विद्याएं हैं.यहीं से दुनियाभर में फैली थीं.

विदेशी इन्हें अपनी भाषाओँ में अलग-अलग नाम देकर लाभ उठा रहे हैं, जबकि भारतीय इन्हें भूल चुके हैं.

सनातन हिन्दू व्यवस्था में शस्त्र पूजा की प्राचीन परंपरा

सनातन हिन्दू व्यवस्था में विजयादशमी पर आयुध या शस्त्र की पूजा की प्राचीन परंपरा रही है.शास्त्रों में इसका विशेष महत्व है.इस दिन सनातनी हिन्दू अपने शस्त्रों की पूजा करते रहे हैं.मगर, अब यह लगभग लुप्त हो चुकी है और कहीं-कहीं औपचारिक रूप में ही दिखाई देती है.

शास्त्रों के अनुसार, प्राचीन काल में महिषासुर नामक एक राक्षस या दैत्य बहुत उत्पात मचा रहा था.उसका आतंक ज़्यादा बढ़ा, तो देवताओं के आवाहन पर देवी दुर्गा प्रकट हुईं.इन्हें नवदुर्गा भी कहते हैं.

सभी देवताओं ने इन्हें अपने अस्त्र-शस्त्र दिए, जिनकी सहायता से देवी द्वारा महिषासुर का वध हुआ और अधर्म पर धर्म की विजय संभव हो सकी.

उस दिन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी.इसलिए, इसे विजयादशमी नाम तो मिला ही, शस्त्रों के महत्त्व को समझते हुए इसी दिन शस्त्र पूजा की परंपरा भी शुरू हुई.

यानि, शस्त्र सहायक ही नहीं, कुछ परिस्थितियों में अनिवार्य भी हैं.इसका महत्त्व उस ज़माने में ही साबित हो चुका था.तभी सनातनी हिन्दू सुरक्षित और समर्थ बने रहने के लिए शस्त्र-परंपरा का विधिवत पालन करते थे.

कई स्रोतों से पता चलता है कि प्राचीन काल में ही सनातनी हिन्दू आणविक हथियारों या परमाणु हथियारों जैसे परमाणु बम और हाइड्रोजन बम के निर्माण से परिचित थे.प्रज्ञाचक्षु श्रीधनराज के अनुसार, धनुर्वेद, धनुष-चंद्रोदय और धनुष-प्रदीप नामक ग्रंथों में परमाणु (एटम) से शस्त्रादि निर्माण का भी वर्णन है.

1995 में प्रकाशित स्वर्गीय प्रोफ़ेसर श्रीरामदासजी गौड़ के हिंदुत्व नामक ग्रन्थ में भी इस विषय पर चर्चा है.

मगर, अब सब कुछ बदल सा गया है.पूजा-पाठ, श्रद्धा और भक्ति भाव भी.

हिन्दुओं के देवी-देवताओं के हाथों में तो अस्त्र-शस्त्र हैं पर, हिन्दू निहत्थे हैं.यह कितनी अज़ीब बात है कि जिनके पूर्वज हथियार चलाने में पारंगत ही नहीं होते थे वे हमेशा हथियारों से लैस भी होते थे, उनके वंशज हथियारों से दूर हो गए हैं.हालत यह है कि आज सांप या कुत्ता भगाने के लिए भी किसी हिन्दू के घर में ढूंढने से एक लाठी नहीं मिलती.यही कारण है कि विगत कुछ दशकों और सालों में कई अप्रत्याशित घटनाएं-परिघटनाएं देखने को मिली हैं और उन पर यक़ीन करना मुश्किल है.पर, सच तो सच है.

सेना के रहते हुए कश्मीरी हिन्दू बेदखल हुए

साल 1990.तारीख़ थी 19 जनवरी.आज़ादी के 43 सालों बाद.कश्मीर घाटी में हमारी सेना मौजूद थी.पर्याप्त पत्रा में गोला-बारूद और हथियार भी थे.मगर, इस सब के रहते हुए एक शाम कश्मीर घाटी की मस्जिदों से ऐलान कर दिया जाता है कि ‘कश्मीरी हिन्दू (या पंडित) घाटी से चले जाएं और अपनी औरतों और बच्चों को यही छोड़ दें’.

इसके बाद गली-मोहल्लों से चीखें निकलने लगती हैं.हिन्दू स्त्रियों, बहनों और बेटियों के बलात्कार होता है.लड़कियों का मुस्लिम लड़कों से ज़बरन निक़ाह होने लगता है.

चारों तरफ़ अफरातफरी मच जाती है, और हिन्दू वहां से भागने लगते हैं.

सब कुछ वहीं छोड़कर लोग पलायन कर जाते हैं.घाटी हिन्दू-विहीन हो जाती है भारतीय सेना के रहते.शासन-प्रशासन के सामने.

पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाक़ों से निकाले जा चुके हैं हिन्दू

पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती इलाक़ों से काफ़ी संख्या में हिन्दू निकाले-भगाए जा चुके हैं, और जो बचे-खुचे हैं वे भी या तो अपना धर्म बदलने को मज़बूर हैं, या फिर पलायन करते जा रहे हैं.

आंकड़ों के अनुसार, बंगाल के सीमावर्ती उपजिलों के कुल 42 क्षेत्रों में से 3 में मुस्लिम 90 फ़ीसदी से ज़्यादा हो चुके हैं, जबकि 7 में 80-90 फ़ीसदी के बीच, 11 में 70-80 फ़ीसदी तक, 8 में 60-70 फ़ीसदी और 13 क्षेत्रों मुसलमानों की आबादी 50-60 फ़ीसद तक हो चुकी है.

जो कभी यहां बहुसंख्यक हुआ करते थे, आज अल्पसंख्यक हो गए हैं.

भारत की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल की 9.5 करोड़ की आबादी में आज 2.5 करोड़ से ज़्यादा मुसलमान हैं.

ज्ञात हो कि 1951 की जनगणना में पश्चिम बंगाल की कुल आबादी 2.63 करोड़ में मुसलमानों की जो आबादी 50 लाख थी, वह 2011 की जनगणना में बढ़कर 2.50 करोड़ यानि, क़रीब पांच गुना हो गई.

दिल्ली दंगों में काम न आई पुलिस

चाक-चौबंद दिल्ली जहां कुछ ही दुरी पर केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री का निवास है वहां की हाईटेक कही जाने वाली पुलिस दिल्ली पुलिस के रहते दंगे में हिन्दुओं के घर-बार और दुकानें निशाना बनाई गईं.स्कूल और अस्पताल भी नहीं बख्शे गए.

23 फ़रवरी, 2020 की रात को शुरू हुआ यह दंगा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में कहिए या अवैध और बांग्लादेशी घुसपैठिए मुसलमानों के समर्थन में हुआ था.दरअसल, यह रक्तपात, संपत्ति विनाश, दंगों और हिंसक घटनाओं की एक श्रृंखला थीं, जो दिल्ली के मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वज़ीराबाद, खजूरी ख़ास और शिव विहार में देखने को मिलीं.

इसमें 53 लोग मारे गए थे, सैकड़ों लोग घायल हुए थे और एक हफ़्ते बाद भी लाशें गलियों की नालियों और गंदे नालों से निकल रही थीं.बताया जाता है कि कुछेक लोग, जो ग़ायब बताये गए थे, वे अब तक नहीं मिले हैं.

पालघर में पुलिस की सुरक्षा में साधु मारे गए

महाराष्ट्र के पालघर जिले के गड़चिंचले गांव में 16 अप्रैल, 2020 की रात को हुई वारदात का वीडियो को पूरा देश और दुनिया ने देखा था.इसमें भीड़ ने जूना अखाड़े के दो साधुओं- 35 वर्षीय महंत सुशील गिरी महाराज और 65 वर्षीय महंत महाराज कल्पवृक्ष गिरी के साथ उनके 30 वर्षीय ड्राईवर निलेश तेलगड़े की बड़ी बेरहमी से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी.

ये साधु पुलिस की सुरक्षा में थे.लेकिन, यह (वीडियो में) देखा गया कि भीड़ देखकर घबराये पुलिसकर्मियों ने साधुओं को अराजक तत्वों या कथित नक्सलियों के हवाले कर दिया था.

पर्व-त्यौहारों में ख़लल, शोभायात्राओं पर हमले

पर्व-त्यौहार या हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक-सामाजिक उत्सव हो, उसमें विघ्न खड़े होते हैं.पवित्र शोभायात्राओं पर हमले होते हैं.ऐसा लगता है कि इस देश में हिन्दुओं के धार्मिक-सामाजिक अधिकार या तो सीमित कर दिए गए हैं, या फिर कुछ हद तक अघोषित रूप से छीन लिए गए हों.एक चेतावनी सी अस्पष्ट सुनाई पड़ती है कि ‘जो करना है अपने घर में करो’.बाहर निकले तो सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है.

पहले पश्चिम बंगाल से ही ख़बरें आई थीं कि मंदिर के घंटे की आवाज़, आरती या भजन से मुसलमानों के ईमान को ठेस पहुंचती है.मगर अब तो, देशभर में जैसे हिन्दुओं से घृणा अनुभव की जा रही हो.किसी हिन्दू का अपने घर से बाहर धार्मिक उत्सव मनाना तो दूर वह ‘जय श्रीराम’ का जयकारा भी लगाता है, तो बवाल खड़ा हो जाता है.

क्रिसमस पर हर तरफ़ प्यार ही प्यार झलकता-टपकता है, और मुहर्रम के मौक़े पर ताजिये, ईद मिलादुन्नबी आदि के जुलूसों पर शांति बनी रहती है.लोग पार्कों, सड़कों-हाइवे को घेरकर नमाज़ पढ़ते हैं पर, कहीं कोई विरोध का स्वर सुनाई नहीं देता लेकिन, रामनवमी और हनुमान जयंती की शोभायात्राओं पर पथराव हो जाता है.आगजनी और हिंसा होती है मगर, जल्द इसे लोग भुला देते हैं जैसे यह आम घटना हो.मामूली बात हो.

यह सोच आत्मघाती है.अस्तित्व मिटा देने वाली है.अधिकांश लोगों को तो पता ही नहीं है कि एक बड़ी साज़िश के तहत बड़े स्तर पर सनातन हिन्दू धर्म विरोधी कार्य दिन रात जारी हैं.आज जो दिखाई देता है वह तो निकट भविष्य के लिए तैयार फिल्म का ट्रेलर भर है.

अब भी जागे नहीं, तो बहुत देर हो जाएगी.

ख़ुद को पहचानने की ज़रूरत है.अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़ने और अपने देवी-देवताओं के हाथों में दिखाई देने वाले अस्त्र-शस्त्रों के संदेश को समझने और उस पर अमल करने की ज़रूरत है.

ख़ुद को ख़ुद ही सुरक्षित रख सकते हैं.कोई सरकार और पुलिस नहीं बचा पायेगी.यहां तक कि सेना भी मदद नहीं कर पायेगी क्योंकि वह तो सीमा पर बाहरी दुश्मनों से लड़ने के लिए है और अंदर नहीं आयेगी, यह बात दिमाग़ में बिठा लेनी चाहिए.

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