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इस्लाम

अज़ान क्या है? अज़ान के लिए मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल ज़ायज़ है?

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अज़ान या अदान मुस्लिम समुदाय में रोज़ाना पांच वक़्त की नमाज़ों के लिए मुअज़्ज़िन द्वारा पुकार या बुलावा है.इसके लिए पैग़म्बर मुहम्मद ने किसी यंत्र को ज़ायज़ नहीं माना था और इंसानी आवाज़ को ही तरज़ीह दी थी.मगर, बदलते दौर में इंसान के साथ-साथ कुछ क़ायदे, उसूलों आदि की परिभाषा भी बदल गई.1970 के दशक तक ‘शैतान’ समझा जाने वाला लाउडस्पीकर यहां नापाक़ नहीं रहा, और अपनी शैतानी फ़ितरत के साथ मस्जिदों की मीनारों पर सजकर अज़ान का ज़रूरी माध्यम बन गया.आज हालत ये है कि इसकी कर्कश ध्वनि के कारण ध्यान भंग तो होता ही है, वातावरण भी अशांत हो जाता है, और लोग चैन से सो भी नहीं पाते हैं.
 
 
मस्जिद से अज़ान,नमाज़ की पुकार,लाउडस्पीकर का इस्तेमाल
अज़ान (प्रतीकात्मक)
इस्लाम में इबादत यानि रोज़ाना पांचों वक़्त की नमाज़ों के लिए लोगों को बुलाने के लिए बुलंद आवाज़ (ऊंचे स्वर) में जो शब्द बोले जाते हैं, उसे अज़ान या अदान कहते हैं.अज़ान कहने या बोलने की क्रिया को ‘अज़ान देना’ कहते हैं.इसके लिए बाक़ायदा एक व्यक्ति नियुक्त होता है, जो मुअज़्ज़िन कहलाता है.
 
अज़ान के बाद जब नमाज़ी (नमाज़ पढ़ने वाले) मस्जिद में इकट्ठे हो जाते हैं तब, यानि नमाज़ से ठीक पहले इक़ामत या इक़ामाह (नमाज़ के लिए तकबीर) भी कही/बोली जाती है.तकबीर दरअसल, एक इस्लामी अरबी अभिव्यक्ति है, जिसे आस्था की एक अनौपचारिक अभिव्यक्ति या औपचारिक घोषणा या फिर दोनों में समान रूप में प्रयोग किया जाता है.मज़हबी नज़रिए से यह (अल्लाहू अक़बर) एक नारा भी है, जिसका मतलब होता है सबसे बड़ा या सबसे महान.इसे ‘नारा-ए-तकबीर’ भी कहा जाता है.
 
तकबीर के अलावा शहादा या शहादाह यानि गवाही (दो गवाहियां) भी अज़ान के साथ जुड़ी है (इनको मिलाकर अज़ान का एक समग्र अर्थ यानि इसका पूरा मतलब बनता है).ये दो गवाहियां ऐलान के रूप में हैं.पहली, अल्लाह एक है.दूसरी, हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के रसूल हैं.
 
उपरोक्त अभिव्यक्ति अथवा गवाहियों को आजकल इस तरह पेश किया जाता है- ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’, जबकि कुरान में यह दोनों एक साथ कहीं भी वर्णित नहीं हैं.दोनों का ज़िक्र अलग-अलग है.पहली, ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ यानि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा इबादत के क़ाबिल नहीं है.दूसरी, ‘मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ यानि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के रसूल हैं.
 
बहरहाल, यह स्पष्ट हो जाता है कि अज़ान सिर्फ़ एक बुलावा नहीं है.नमाज़ के लिए पुकार या बुलावे के साथ-साथ इसमें एक विशेष संदेश भी है, जो काफ़ी भेदभावपूर्ण और आपत्तिजनक है.आलोचकों के अनुसार, इससे समाज में नफ़रत फैलती है, और यह विविधता में एकता और भाईचारे के बिल्कुल खिलाफ़ है.
अज़ान का पूरा मतलब जानिए…
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अज़ान का मतलब

क्या है अज़ान का इतिहास?

परंपरागत रूप में नमाज़ के पहले अज़ान दी जाती है, ताकि आसपास के मुसलमानों को नमाज़ की सुचना मिल जाए और वे अपने सांसारिक कार्यों को छोड़कर कुछ मिनटों के लिए मस्जिद में अल्लाह की इबादत करने के लिए पहुंच जाएं.मगर अज़ान का तरीक़ा क्या है इसका ज़िक्र, इस्लाम के कुछ जानकारों के मुताबिक़, नमाज़ के तरीक़ों की तरह कुरान में नहीं मिलता.अज़ान क बारे में जानकारी हदीसों, अलग-अलग तफ़सीरों और सीरत (पैग़म्बर की जीवनी) में मिलती है.
 
ऐतिहासिक नज़रिए से देखें तो इब्न इशाक की लिखी पैग़म्बर मुहम्मद की जीवनी ‘सीरत रसूल अल्लाह’ (पेज नंबर 235 और 236) और विलियम मुइर द्वारा पैग़म्बर मुहम्मद की जीवनी पर लिखी गई किताब ‘द लाइफ ऑफ़ मुहम्मद’ (पेज नंबर 189) में अज़ान के इतिहास ज़िक्र मिलता है.
 
 
मस्जिद से अज़ान,नमाज़ की पुकार,लाउडस्पीकर का इस्तेमाल
इब्न इशाक और विलियम मुइर द्वारा लिखित पुस्तकें
 
दोनों ही पुस्तकों में वर्णन काफ़ी मिलते-जुलते हैं.इनके अध्ययन से पता चलता है कि पैग़म्बर मुहम्मद ने यह प्रथा मदीने में बसने (पैग़म्बर मुहम्मद मक्का से हिजरत कर अपने साथियों के साथ मदीना में रहने लगे थे) के बाद और वहां मस्जिद बनवाने के बाद शुरू की थी.पांच वक़्त की नमाज़ के लिए लोगों को मस्जिद में बुलाने के तरीक़े के बारे में उन्होंने अपने सहाबा इकराम (साथियों) से परामर्श किया तो इस बारे में चार सुझाव आए.किसी ने इसके लिए घंटी बजाने, किसी ने भोंपू/बिगुल बजाने, किसी ने आग जलाने तो किसी ने झंडा बुलंद करने की बात कही.लेकिन, मुहम्मद साहब को इनमें से कोई भी तरीक़ा पसंद नहीं आया.
 
रवायत (पारंपरिक कथा) के अनुसार, पैग़म्बर और उनके सहाबा अज़ान का सही तरीक़ा ढूंढने को लेकर चिंतित थे कि उसी रात एक अंसारी सहाबी हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद ने सपने में देखा कि किसी फ़रिश्ते ने उन्हें अज़ान और इक़ामत के शब्द सिखाए हैं.इसमें अज़ान के तरीक़े के रूप में ऊंचे स्थान पर खड़े होकर किसी आदमी द्वारा ऊंचे स्वर में कुछ शब्द बोलने की बात बताई गई थी.फिर, उन्होंने अहले सुबह पैग़म्बर के सामने उपस्थित होकर उन्हें अपने सपने की बात बताई, तो उन्होंने इसे पसंद किया और उस सपने को अल्लाह की ओर से सच्चा सपना बताया.
 
पैग़म्बर मुहम्मद ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ैद से कहा- ‘तुम हज़रत बिलाल (एक अश्वेत ग़ुलाम, जिसे आज़ाद कर दिया गया था) को इन्हीं शब्दों में अज़ान देने की हिदायत कर दो, उनकी आवाज़ बुलंद है इसलिए वह हर नमाज़ के लिए इसी तरह अज़ान दिया करेंगें.’ इस तरह, उसी दिन से इस्लाम में अज़ान की परंपरा की शुरुआत हुई और हज़रत बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने पहली अज़ान दी.

अज़ान के लिए मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल ज़ायज़ है?

अज़ान के लिए मस्जिदों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किसी भी लिहाज़ से सही नहीं है.यह वातावरण और स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक तो है ही, इस्लामी परंपरा के भी खिलाफ़ है.यहीं नहीं, यह आपसी प्रेम और भाईचारे का भी दुश्मन है.यानि यह दुनियावी नज़रिए से तो ग़लत है ही, मज़हबी नज़रिए से भी ज़ायज़ नहीं है.

वातावरण और स्वास्थ्य के लिए ख़तरा

लाउडस्पीकर चाहे मंदिर में हो या मस्जिद में, चाहे वह सुबह-शाम बजे या दिन में पांच बार, वह प्रदूषणकारी ही है.इनकी तेज़ आवाज़ से ध्वनि प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद ख़तरनाक है.यह चिड़चिड़ापन एवं आक्रामकता के अलावा उच्च रक्तचाप, तनाव, कर्णक्ष्वेड, श्रवण-शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी और अन्य हानिकारक असर डालता है.इसके अतिरिक्त, तनाव और उच्च रक्तचाप प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं हैं, जबकि कर्णक्ष्वेड, स्मृति ह्रास (याददाश्त का कम होना, खोना), गंभीर अवसाद और कई बार असमंजस के दौरे भी पैदा कर सकता है.
 
 

इस्लामी परंपरा के खिलाफ़

इस्लामी लेखक नज़मुल होदा लिखते हैं कि पैग़म्बर ने किसी यंत्र की जगह आदमी की आवाज़ को तरज़ीह दी थी और 1970 के दशक तक मुस्लिम समुदाय ने यहां लाउडस्पीकर को शैतान के रूप में देखा था.
अज़ान दिन में पांच बार पढ़ने की ख़ातिर मुसलमानों को इकठ्ठा होने के लिए मस्जिद से दी जाती है.इसके लिए तरीक़ा क्या हो, यह तय करने के लिए पैग़म्बर ने अपने साथियों से सलाह-मशविरा कर मनुष्य के पक्ष में फ़ैसला लिया और इसके लिए एक अश्वेत ग़ुलाम, बिलाल को चुना, जिसे आज़ाद किया जा चुका था.
नज़मुल होदा आगे लिखते हैं-

” मनुष्य की आवाज़ बिलाल की आवाज़ की तरह मध्यम सुर वाली ही क्यों न हो, उतनी दूर नहीं जाएगी, जितनी दूर घंटी या भोंपू जैसे यंत्रों की आवाज जाएगी.लेकिन पैग़म्बर ने यंत्र की तेज़ आवाज़ की जगह मनुष्य की कम उंची आवाज़ को चुना.ज़ाहिर है, इसमें उनके अनुयायियों के लिए एक सबक छिपा है कि उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि पैग़म्बर ने जिसके हक़ में फ़ैसला दिया वह मनुष्य की आवाज़ लाउडस्पीकर की मदद से तेज़ हो जाने के बाद भी क्या क्या मनुष्य की आवाज़ रह जाती है? इसलिए मज़हब के नज़रिए से अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का कोई औचित्य नहीं है. ”

नज़मुल होदा यह भी कहते हैं कि इस बात पर विचार करना भी बेहतर होगा कि इस तरह के जुगाड़ (लाउडस्पीकर) का इस्तेमाल मज़हब को विकृत करने वाले निंदनीय आविष्कार ‘बीदत’ में तो नहीं गिना जाएगा.

आपसी प्रेम और भाईचारे का दुश्मन

अज़ान में यह कहा जाता है कि अल्लाह ‘सब से’ यानि दूसरे धर्म-मज़हब के ईश्वर-भगवान से बड़ा या महान है.सिर्फ़ अल्लाह ही की इबादत की जा सकती है और अल्लाह के सिवा कोई दूसरा माबूद नहीं है, पूजनीय नहीं है.यह बहुत ही विचित्र है और इसमें सनातन धर्म जैसे सर्वधर्म समभाव के ठीक उलट बातें हैं.बहरहाल, यह एक समुदाय विशेष की मान्यता है और इसे उसके ही ऊपर छोड़ देना चाहिए कि वह ऐसे भेदभावपूर्ण और एकाकीपन के रास्ते पर चलता रहे या फिर सुधार लाए.मगर, यह ज़रूरी है कि अपना यह अक़ीदा (विश्वास) और अपना नारा-ए-तकबीर वह अपनी मस्जिदों के भीतर तक ही सीमित रखे, रोज़ाना पांच बार लाउडस्पीकर पर चीख-चीखकर दूसरों के भगवानों को ज़लील करना और चिढ़ाना बंद करे.  हम देखते हैं कि रमज़ान का महीना दूसरे धर्म के लोगों के लिए कितना कष्टप्रद साबित साबित होता है.सेहरी के लिए रात ढाई बजे से ही मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर घोषणा शुरू हो जाती है कि उठकर सभी सेहरी कर लें.यह क़रीब एक घंटा तक लगातार चलता रहता है और इस कारण पूरे रमज़ान में लोग सो नहीं पाते हैं.
ग़ौरतलब है कि सब को सेहरी और इफ़्तार का वक़्त मालूम होता है, तो फिर हल्ला मचाने की क्या ज़रूरत है.हमरे यहां जब तीज, जितिया (जिउतिया) का पर्व होता है, तो औरतें ख़ुद उठ कर पानी पी लेती हैं, इसके लिए पूरे मोहल्ले को तो नहीं जगाते हैं.

मस्जिदों में लाउडस्पीकर का प्रयोग कब और क्यों शुरू हुआ?

लाउडस्पीकर का आविष्कार 20 वीं सदी के आरंभ में हुआ था और फिर इसे मस्जिदों में पहुंचने में अधिक समय नहीं लगा.ब्रायन विंटर्स की पुस्तक ‘ द बिशप, द मुल्ला एंड द स्मार्टफोन: द जर्नी ऑफ़ टू रिलीजन्स इनटू द डिजिटल एज’ के अनुसार, दुनिया में पहली बार अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल सिंगापुर के रोशोर जिले में स्थित सुल्तान मस्जिद या मस्जिद-ए-सुल्तान में किया गया था.यह लगभग 1936 की बात है.तब वहां के अख़बारों में ख़बर छपी थी कि लाउडस्पीकर से अज़ान की आवाज़ एक मील तक पहुंच सकेगी.इसने दुनिया के बाक़ी हिस्सों में स्थित मस्जिदों को आकर्षित किया और फिर मुस्लिम मुल्कों के साथ-साथ ग़ैर-मुस्लिम मुल्कों में भी लाउडस्पीकर पसंदीदा बन गया.
मस्जिद से अज़ान,नमाज़ की पुकार,लाउडस्पीकर का इस्तेमाल
मस्जिद-ए-सुल्तान, सिंगापुर
भारत में 1970 के दशक के आख़िर में लाउडस्पीकर मस्जिदों में पहुंचना शुरू हुआ.पहले तो इसे सतही आधुनिकता के दिखावे के लिए लगाया जाने लगा, ताकि इससे स्थानीय समुदाय की शान बढ़े, और वह अपनी बढ़ती खुशहाली के मामले में पड़ोसी मुस्लिम समुदाय या दूसरे फ़िरकों से पीछे न दिखे, जिसने पहले ही अपनी मस्जिद में लाउडस्पीकर टांग रखा है.
परंतु, ऐसा नहीं है कि लाउडस्पीकर को तुरंत सब ने क़बूल लिया, मुस्लिम समुदाय के भीतर से इसको लेकर विरोध हुआ था.इसे मज़हबी अक़ीदे पर ‘आधुनिकता का हस्तक्षेप’ और लाउडस्पीकर की तीखी आवाज़ को ‘शैतानी आवाज़’ तक कहा गया.लेकिन, अंधी दौड़ और जुनून के आगे विचार पीछे धरे रह गए.लाउडस्पीकर की जकड़ मज़बूत होती चली गई.

लाउडस्पीकर द्वारा अज़ान का विरोध, अदालतें और सरकार

मस्जिदों में लाउडस्पीकर द्वारा अज़ान का विरोध पहले भी होता रहा है और आज भी हो रहा है.पिछले साल इलाहबाद की कुलपति संगीता श्रीवास्तव ने जिला मजिस्ट्रेट के यहां शिकायत दर्ज़ कराई कि अज़ान की वज़ह से भोर के समय ही उनकी नींद में खलल पड़ता है और इससे उनका कामकाज प्रभावित होता है.इससे पहले 2017 में, मशहूर गायक सोनू निगम ने अपने ट्वीट के ज़रिए अज़ान के शोर का विरोध किया था.उन्होंने लिखा था- मैं एक मुसलमान नहीं हूं पर, मुझे सुबह में अज़ान की वज़ह से जाग जाना पड़ता है.भारत में धार्मिकता को इस तरह थोपना कब बंद होगा?
 
2020 में इलाहबाद हाईकोर्ट कह चुका है कि इस्लाम में मज़हबी कामकाज के लिए अज़ान हालांकि अनिवार्य है लेकिन, लाउडस्पीकर का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं है.इस अदालत ने सन 2000 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया है कि ‘कोई भी धर्म या धार्मिक सम्प्रदाय दावा कर सकता है कि लाउडस्पीकर या ऐसे यंत्र का प्रार्थना या पूजा में अथवा धार्मिक पर्वों में इस्तेमाल उसका अनिवार्य हिस्सा है, जिससे अनुच्छेद 25 के तहत सुरक्षा हासिल है.’ आख़िर, लाउडस्पीकर महज़ एक सदी पुराना है लेकिन, मज़हब-धर्मों का इतिहास तो सहस्राब्दियों पुराना है.
 
सुप्रीम कोर्ट ने लाउडस्पीकर के इस्तेमाल के लिए एक गाइडलाइन तय कर रखी है.इसके अंतर्गत लाउडस्पीकर की आवाज़ की एक सीमा तय है और इसका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ़ कार्रवाई की बात कही गई है.इसके अलावा, रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर पाबन्दी लगी हुई है क्योंकि संविधान की धारा 21 के अंतर्गत चैन की नींद सोना नागरिकों के अधिकार के दायरे में आता है.

इस्लामी देशों में भी मस्जिदों में लाउडस्पीकर की आवाज़ पर अंकुश

भारत जैसे सेक्यूलर देश ही नहीं, शरिया का पालन करने वाले देश यानि इस्लामी देश भी मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकरों द्वारा शोर से परेशान हैं और वहां इसके खिलाफ़ क़दम उठाये जा रहे हैं.
2017 में मिस्र की सरकार ने तरावीह की नमाज़ (रमज़ान महीने में रात की अतिरिक्त नमाज़) के दौरान लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था.
पिछले साल इस्लाम की धरती अरब, जहां इस्लाम का जन्म हुआ था और जहां से इस्लामी अवधारणाओं को खाद-पानी और बल मिलता है, वहां पर भी एक सख्त़ आदेश जारी हुआ.अरब की सरकार ने वहां मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों की आवाज़ को सीमित करने का आदेश दे दिया.आदेश के मुताबिक़, लाउडस्पीकर की आवाज़ को उसकी क्षमता का एक तिहाई रखा जाए.साथ ही, नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ़ कार्रवाई की बात भी कही गई.मस्जिदों के बाहरी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल सिर्फ़ अज़ान और इक़ामत के लिए करना होगा.साथ ही, आवाज़ भी कम रखनी होगी.
 
 

भारतीय मुसलमान समझने को तैयार नहीं

भारतीय मुसलमान अरबों के हर संस्कार और तौर-तरीक़ों की नक़ल तो करता है लेकिन, वहां जो सुधार (क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की उदारवादी नीति के तहत बदलाव) हुआ है अथवा हो रहा है, उससे अपनी आंखें फ़ेर लेता है.अरब और दूसरे इस्लामी मुल्क के लोग ख़ुद को 21 वीं के हिसाब से ढाल रहे हैं, जबकि भारतीय मुसलमान सातवीं सदी को ओर बढ़ रहा है.यह विकास के ख़िलाफ़ और कट्टरता के साथ है.
 
अज़ान में मस्जिदों के लाउडस्पीकर की आवाज़ कम करने के आदेश को लेकर अरब की कुछ कट्टरपंथी ताक़तें विरोध में खड़ी हुईं, तो वहां की सरकार ने उन्हें मुल्क़ का दुश्मन बता दिया और उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई की बात कही.सरकार का रुख़ देखकर वे तो शांत हो गए मगर, भारत के विभिन्न हाईकोर्ट और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को भी भारतीय मुसलमान मानने को तैयार नहीं है.इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हैं.जिहाद भी.यानि चाय से ज़्यादा केतली गरम है.
 
लाउडस्पीकर पर अज़ान दिए जाने को लेकर कई देशों में भारत जैसी ज़िद और कट्टरता देखने को नहीं मिलती.देखें तो तुर्की और मोरक्को जैसे देशों में शायद ही कोई मस्जिद हो जहां लाउडस्पीकर पर अज़ान दी जाती हो.नीदरलैंड की महज़ 7-8 फ़ीसदी मस्जिदों में अज़ान लाउडस्पीकर पर दी जाती है.
 
पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक, प्रसारक एवं सेक्यूलर उदारवादी कार्यकर्त्ता तारिक़ फ़तह के मुताबिक़, मस्जिदों में लाउडस्पीकर का कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह इस्लामी परंपरा और पैग़म्बर की सुन्नत के ख़िलाफ़ है.वे तो स्पष्ट लिखते हैं कि भारत में इसका उपयोग राजनीतिक तौर पर ग़ैर-मुस्लिमों को चिढ़ाने और यह जताने के लिए किया जाता है कि यह उनका ‘जीता हुआ इलाक़ा’ है.भारतीय मुसलमान संविधान से नहीं अपनी मर्ज़ी की शरीयत के हिसाब से चलते हैं.     
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