सभ्यता एवं संस्कृति
पैग़म्बर मोहम्मद के वंशजों को शरण देकर राजा दाहिर ने सनातन परंपरा निभाई?

आज भी बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद के ख़ानदान के लोगों को संकट के समय भारत ने शरण दी थी. हर तरह से उनका ख़याल रखा और उनकी रक्षा करते हुए हज़ारों हिन्दुओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. ख़ुद राजा दाहिर अरबों की सेना से लड़ते हुए मारे गए थे, और सिन्धु साम्राज्य तबाह हो गया था.
![]() |
| राजा दाहिर सिंह और मोहम्मद बिन क़ासिम के बीच अरोर की जंग (फ़ोटो-सोशल मीडिया) |
हिन्दुओं की क्या कहें, अधिकांश मुसलमानों को भी यह मालूम नहीं है कि इमाम हुसैन की रक्षा करने भारत से ब्राह्मणों का एक फौजी दस्ता अरब गया था, और वहां क़र्बला के मैदान में मुआविया के बेटे यज़ीद की सेना से जंग लड़ी थी.
यह तारीख़ थी 10 अक्तूबर, 680 (61 हिजरी) इसवी की जब इमाम हुसैन का कटा सिर क़ातिलों से छीनने (वापस लेने) के लिए कूफ़ा में इब्ने जियाद के महल के सामने कंधे पर जनेऊ डाले, माथे पर तिलक लगाए कई सैनिकों यानि, ब्राह्मण (जिन्हें हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता है) योद्धाओं ने अपने सिर कटा दिए थे.
ज्ञात हो कि इससे पहले हुसैन इब्न अली ने सिन्धु नरेश दाहिर सिंह से पनाह की पेशकश की थी, और दाहिर सिंह ने इसका स्वागत करते हुए पूरी मदद का भरोसा दिया था.
दरअसल, मामला यूं था कि यज़ीद की बैयत (अधीनता, भक्ति) से इनकार करने के कारण हुसैन इब्न अली उसके दुश्मन बन गए थे.
यज़ीद के सैनिक उनके पीछे पड़े थे इसलिए, वे मदीना (अपना घर-बार) छोड़कर मक्का चले गए. मगर वहां भी सुरक्षित न पाकर फिर कूफ़ा की ओर रवाना हुए.
उन्हें सिंध पहुंचना था.
मगर, रास्ते में यज़ीद के सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया और कर्बला (इराक़) ले गए.
यह पता चलते ही भारत से एक फौजी दस्ता क़र्बला के लिए निकल पड़ा.
मगर, तब तक देर हो चुकी थी.इमाम साहब शहीद कर दिए गए थे.
इसका बदला लेने के लिए फिर भारतीय फ़ौज ने युद्ध किया और कईयों ने अपना बलिदान किया.
इसके बाद, बचे-खुचे लोग सिंध क्षेत्र में आकर बस गए. राजा दाहिर न उन्हें शरण दी. उन्हें सारी सुख-सुविधाएं मुहैय्या करवाई. उनकी मज़हबी मान्यताओं का ख़याल रखते हुए उनकी इबादत के लिए मस्जिदों का निर्माण भी करवाया.
चचनामा, जीएम सैय्यद की लिखी ‘सिंध के सूरमा’ नामक पुस्तक, सिंधियाना इंसाइक्लोपीडिया और ख़ुद सिंधियों द्वारा लिखा इतिहास इस बात का गवाह है कि सन 638 से 711 के बीच 74 सालों में नौ उमय्यद खलीफाओं ने सिंध पर पंद्रह बार हमले किए. पंद्रहवां हमला मोहम्मद बिन क़ासिम के नेतृत्व में हुआ था.
दरअसल, उमय्यद खलीफ़ा पैग़म्बर मोहम्मद के ख़ानदान के लोगों का सफ़ाया कर देना चाहते थे, ताकि भविष्य में उनका (मुहम्मद साहब का) कोई वारिस और तख़्त का दावेदार शेष न रहे, और वे एकक्षत्र इस्लामी हुकूमत चलाते रहें.
चचनामा (जिसे ‘फ़तहनामा’ तथा ‘तारीख़ अल-हिन्द वस-सिंद’ भी कहते हैं) के अनुसार, अलाफ़ी बंधुओं (माविया बिन हारिस अलाफ़ी और उसके भाई मोहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी) ने अपने साथियों के साथ सिंध में शरण ली थी जहां राजा दाहिर का शासन था.
बग़दाद के गवर्नर हज्जाज बिन युसुफ (खलीफ़ा अल-वलीद प्रथम या अल-वलीद इब्न अब्द अल-मालिक का बहुत ही ख़ास, जिसने मक्का पर बमबारी करके क़ाबे को भी तोड़ दिया था) ने राजा दाहिर को कई पत्र लिखकर इन्हें सुपुर्द करने लिए कहा. लेकिन, दाहिर ने अपनी भूमि पर शरण लेने वालों को उसके हवाले करने से मना कर दिया.
इतिहासकारों के मुताबिक़, सिन्धु नरेश ‘शरणागत की रक्षा’ के सिद्धांत पर चलने वाले थे. उन्होंने तब अपने दरबार में इस मसले पर कहा था कि शरणागत की रक्षा करना हर सनातनी का धर्म है.
राजा दाहिर ने कुछ यूं कहा था-
” रामायण में ऐसा वर्णन है कि विभीषण को बचाने के लिए स्वयं आगे आकर श्रीराम रावण के बाण को अपनी छाती पर ले लिया था.और विभीषण के यह पूछने पर कि ‘एक तुच्छ राक्षस के लिए आपने अपने प्राण संकट में क्यों डाले’ तो श्रीराम जवाब दिया- ‘शरणागत की रक्षा के लिए हम अपने प्राण भी न्यौछावर कर सकते हैं.यही हमारा धर्म है. “
दाहिर ने आगे कहा-
” महाभारत (आदिपर्व महाभारत 216.6) में कहा गया है- ‘शरणं च प्रपत्रानां शिष्टाः कुर्वन्ति पालनाम.’ यानि, सज्जन शरणागतों की रक्षा करते हैं. “
हज्जाज इससे बहुत नाराज़ हुआ. उसने खलीफ़ा से इज़ाज़त लेकर अपने एक सेनापति अब्दुल्ला के नेतृत्व में सिंध पर आक्रमण करने के लिए सेना भेज दी.
यह सेना बुरी तरह पराजित हुई. यहां तक कि जंग में सेनापति अब्दुल्ला भी मारा गया.
फिर, हज्जाज ने एक और सेनापति बुखैल या बुठैल को पिछली बार के मुक़ाबले बड़ी सेना युद्ध के ढ़ेरों साज़ोसामान के साथ हमले के लिए भेजा. मगर यह सेना भी राजा दाहिर की सेना और उसके रणकौशल के सामने टिक नहीं सकी. उसे भी पराजय का सामना करना पड़ा.
आख़िरकार, हज्जाज ने रिश्ते में अपने 17 वर्षीय भतीजे और दामाद (हज्जाज ने अपनी बेटी ज़ूबैदाह से शादी कराई थी) मोहम्मद बिन क़ासिम को सिपहसालार बना एक और बड़ी सेना, जिसमें बाख्तरी (बख्तरबंद) ऊंट और घोड़े थे और साथ ही पत्थर फेंकने वाली तोपें (तोपनुमा छोटी गाडियां) थीं, हमले के लिए भेज दी.
इसमें 10 हज़ार से भी ज़्यादा सैनिक थे.
इसके अलावा, सीमावर्ती और अफ़ग़ानिस्तान से सटे क्षेत्रों जहां पहले ही अरबों का नियंत्रण था, वहां से भी उसे अतिरिक्त लड़ाके मिले थे.
इस प्रकार, क़ासिम की सेना किश्तियों से सिंध के आधुनिक कराची शहर के पास स्थित देवल या देबल बंदरगाह पर (710-711 ईस्वी में) पहुंची, जो उस ज़माने में सिंध और भारत का व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण स्थल था.
कई लेखक और इतिहासकार बताते हैं कि क़ासिम मजबूत स्थिति में होते हुए भी राजा दाहिर और उनकी सेना से सीधा मुक़ाबला करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. इसलिए, उसने दाहिर के कुछ बौद्ध सेनापतियों को लालच देकर उन्हें अपनी ओर मिला लिया. उन्होंने गद्दारी की, जिसके कारण अरोर या अलोर के युद्ध (712 ईस्वी) में सिन्धु सेना की हार हुई.
यह भी बताया जाता है कि अलाफ़ी बंधुओं (माविया बिन हारिस अलाफ़ी और उसके भाई मोहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी) ने भी क़ासिम की सेना के लिए मुखबिरी की थी. यानी उन्होंने हर तरह की गोपनीय जानकारी, जैसे सिंध की सेना की कमज़ोरियों और मोर्चों की स्थिति, आदि की सूचना पहुंचा रहे थे. यही कारण था कि सिंध पर क़ब्ज़े के बाद उनकी जान बख्श दी गई थी.
बहरहाल राजा दाहिर सिंह कभी हारे नहीं थे. पहली बार यहां उनकी सेना पराजित होती हुई दिखाई दे रही थी. फिर भी, वे लड़ते रहे, और विदेशियों के सामने घुटने टेकने के बजाय उन्होंने युद्ध में बलिदान देना सर्वोपरि समझा.
वे वीरगति को प्राप्त हो गए.
उनके बेटे जय सिंह दाहिर ने भी अपने प्राणों का बलिदान कर दिया.
उधर, जब महल में यह ख़बर पहुंची, तो स्त्रियों ने भी वहां मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने महल में घुस रही क़ासिम की हमलावर सेना से डटकर मुक़ाबला किया. कईयों ने तो अपने न्यौछावर कर दिए, और जो जीवित बचीं, उन्होंने रानी लाडी बाई के साथ जौहर (धधकते अग्निकुंड में जीवित समा जाना) कर लिया.
चचनामा और अन्य स्रोतों से यह भी पता चलता है कि क़ासिम ने राजकुमारियों (राजा दाहिर की बेटियों) सूर्या और प्रमिला को क़ैद कर खलीफ़ा के पास तोहफ़े के तौर पर उन्हें दमिश्क (सीरिया की राजधानी) भेजा था. मगर यहां भी उन्होंने बड़े साहस का परिचय दिया. अपनी चतुराई से बर्बर क़ासिम से सिंध में क़त्लेआम और अपमान का बदला ले लिया.
बताते हैं कि जब खलीफ़ा उनके पास गया, तो सूर्या ने उससे कहा कि मुहम्मद बिन क़ासिम पहले ही उनका कौमार्य भंग कर चुका है, और अब उसके (ख़लीफा के) पास उसने उन्हें जूठन के रूप में भेजा है.
इस पर खलीफ़ा सुलेमान इब्न अब्द अल-मालिक (खलीफ़ा अल-वलीद का छोटा भाई जो उसकी मौत के बाद अब खलीफ़ा बना था) गुस्से से भर उठा और उसने क़ासिम को हिंदुस्तान से जानवर (बैल या किसी अन्य पशु) की कच्ची ख़ाल में लपेटकर या सीलकर दमिश्क में अपने सामने पेश करने का हुक्म दिया.
उसके हुक्म की तामील हुई. मगर रास्ते में ही क़ासिम की दम घुटने से मौत हो गई.
जब राजकुमारियों ने उसकी लाश देखी, तो वे ख़ुशी से उछल पड़ीं. उन्होंने खलीफ़ा को सच (यह कि क़ासिम ने उन्हें छुआ भी नहीं था) बता दिया, और इससे पहले कि उन्हें सज़ा दी जाती, उन्होंने अपने खंज़र से ख़ुद ही अपनी जान ले ली.
इस प्रकार, राजा दाहिर का राजपाट तो ख़त्म हुआ ही, उन की जान भी नहीं बची. राजकुमार भी नहीं बचे. यहां तक कि रानी और राजकुमारियों को भी अपनी आबरू बचाने के लिए आत्महत्या करनी पड़ी.
यह सब इतिहास में है या इतिहास है जिसे यथावत यहां रख दिया गया है. लेकिन अगर समीक्षा करनी हो, तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा भारत की दशा-दिशा बदल देने वाली इस ऐतिहासिक घटना को लेकर क्या कहा जा सकता है? यह घटना कैसी थी?
शरणागत की रक्षा का धर्म या कर्तव्यों के पालन की परिभाषा क्या है? यह कब और किन परिस्थितियों में पालन के योग्य है?
क्या राजा दाहिर को इस्लामी विचारधारा (मोमिन-काफ़िर, फ़साद और जिहाद वाली अवधारणाएं या कट्टरता) का ज्ञान नहीं था? उन का ख़ुफ़िया-तंत्र तो कमज़ोर था ही, क्या वे सिंध से पूर्व हुए पारस (या फारस और आज के ईरान) देश पर जिहादी हमलों, बर्बरता और क़ब्ज़े की भी जानकारी नहीं थी? मैं इन सब के उत्तर पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं.





