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इतिहास

क्या पारसी धर्म और इस्लाम की कुछ अवधारणाएं समान हैं? इस्लाम ने ये अवधारणाएं क्या पारसी धर्म से ली है?

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ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पारसी धर्म और इस्लाम में पाई जाने वाली कई मूलभूत अवधारणाएं एक दूसरे से मिलती-जुलती हैं.कुछ विद्वानों का मत है कि ये अवधारणाएं इस्लाम ने पारसी धर्म से ली है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
पारसी धर्म, इस्लाम और उनके अनुयायी (प्रतीकात्मक)

अध्ययन से पता चलता है कि कई मूलभूत अवधारणाएं पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों में ही समान रूप में पाई जाती हैं.हालांकि, इनमें से कुछ में थोडा फ़र्क भी दिखाई देता है लेकिन, वो फ़र्क बहुत मामूली हैं, जबकि इनकी प्रकृति और उद्देश्य में स्पष्ट रूप में समानता देखने को मिलती है.

 

 

एकेश्वरवाद

फ़ारसी अथवा पारसी धर्म में एक ईश्वर (ख़ुदा या खोड़ा) के अस्तित्व की बात कही गई है.इसे अहुरा मज़्दा या होरमज़्द (महान जीवन दाता) कहा गया है, जो अजन्मा और अविनाशी होते हुए एकमात्र देवता और सृष्टि का रचयिता है.इस्लाम में भी अल्लाह को इसी तरह माना गया है.
 
इस्लाम के मुताबिक़, अल्लाह ने ही हर चीज़ रची है.वह एक, सर्वोच्च, अतुलनीय और हमेशा जीने वाला है.न उसे किसी ने जना और न ही वो किसी का जनक है, और उस जैसा कोई और नहीं है.(कुरान, सुराह 112, आयत 1-4)
 

 

एक मुख्य नबी/पैग़म्बर

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों में ही हालांकि, दूसरे नबियों की चर्चा है और उनका महत्त्व भी है लेकिन, एक मुख्य नबी/पैग़म्बर (ख़ुदा का पैग़ाम इंसानों तक पहुंचाने वाला, ईशदूत) के रूप में संत ज़रथुष्ट्र और मुहम्मद साहब को प्रधानता दी गई है.इनकी शिक्षाएं ही मज़हब का मूल हैं.
 
संत ज़रथुष्ट्र अथवा ज़ोरास्टर ने धर्म का प्रचार-प्रसार किया और इसे एक व्यवस्था दी, इसलिए इसका नाम उनके नाम पर ही ज़रथुस्त्र धर्म या ज़ोराष्ट्रियन धर्म (Zoroasrianism) पड़ गया.ज़र्थुस्त्रनो (Zartosht No-Diso) पारसी धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है, जो पैग़म्बर ज़रथुस्त्र की पुण्यतिथि के रूप में हर साल 26 दिसंबर (पारसी कैलेंडर के अनुसार 10 वें महीने के 11 वें दिन) को मनाया जाता है.इस दिन अग्नि मंदिर में विशेष पूजा-पाठ के साथ व्याख्यान आयोजित होते हैं.
 
मुहम्मद साहब इस्लाम के संस्थापक थे.इस्लामिक मान्यता के अनुसार, वह एक भविष्यवक्ता और ईश्वर के संदेशवाहक थे.अहमदिया समुदाय को छोड़कर, बाक़ी सभी पैग़म्बर मोहम्मद को अपना आख़िरी नबी मानते हैं.कहा जाता है कि इस्लाम की पांथिक/मज़हबी किताब कुरान अल्लाह की तरफ़ से इन पर ही नाज़िल (ऊपर से उतरी) हुई थी/इन्हें प्रदान की गई थी.इनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में त्यौहार मीलाद-उन-नबी, रबी-उल-अव्वल महीने की 12 तारीख़ (इस्लामी कैलेंडर हिजरी के मुताबिक़) को कई फ़िरक़ों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है.
 

 

प्रार्थना-संबंधी नियम एवं महत्त्व 

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों में ही एकेश्वरवाद की एक साहित्यिक मानवरूपी अवधारणा है, जिसमें पारसी और पारंपरिक मुस्लिम ईश्वर को एक शाब्दिक मानवरूपी दृष्टिकोण के माध्यम से पूजा के लिए एक देवता के रूप में देखते हैं.इसी प्रकार, पारसियों के ख़ुदा अहुरा मज़्दा के 101 दिव्य नामों की तरह इस्लाम में अल्लाह के भी 99 अलौकिक नाम हैं.साथ ही, दोनों की पूजा-पद्धति में भी काफ़ी समानता है.

 

सूर्य के मार्ग/गति का अनुसरण   

मुस्लिम मुसल्ली और पारसी, दोनों उपासक अपनी प्रार्थना के समय को निर्धारित करने के लिए सूर्य के मार्ग का सही तरीक़े से पालन करते हैं.
 

 

दिशा-नियम का पालन

पारसी केंद्रीय धधकती आग (आग की मुख्य लपटों, अग्निशिखा) की दिशा में खड़े होकर (दैवीय अनुग्रह के प्रतीक के रूप में) अहुरा मज़्दा की प्रार्थना करते हैं.इसी प्रकार, मुसलमान मक्का स्थित काबा की ओर मुंह करके नमाज़ अदा करते हैं.इसे क़िबला कहा जाता है.यह दिशा अक्सर मस्जिद की दीवार के आला (ताखा, मेहराब यानि वह जगह जहां नमाज़ के समय इमाम खड़ा होता है) द्वारा इंगित की जाती है.(कुरान 27:8, 37:1-4)
 

 

प्रार्थना एक दैनिक क्रिया 

इस्लामिक अनुष्ठान सलात/नमाज़ पारसी नमाज़ या गेह की तरह ही समान अर्थों एवं रूप में निर्धारित समय पर की जाने वाली/समयबद्ध एक दैनिक क्रिया है.
 

 

प्रार्थना की संख्या

पांच वक़्त की रोज़ाना इबादत यानि दैनिक प्रार्थना की सटीक संख्या और उनके समय के संदर्भ में देखें तो पारंपरिक इस्लाम और पारसी धर्म, दोनों एक दूसरे के बहुत क़रीब नज़र आते हैं.उल्लेखनीय है कि इस प्रार्थना का आदेश अल्लाह की तरफ़ से हज़रत मुहम्मद को और अहुरा मज़्दा द्वारा अरदा विराज़ को मिला था.
  

 

प्रार्थना का स्थान

मुसलमान नमाज़/सलात के लिये मस्जिदों में जाते हैं.इसी तरह, ज़ोरास्ट्रियन यानि पारसी धर्म के अनुयायी/भक्त अग्नि प्रज्वलित करने और प्रार्थना के लिए अग्नि मंदिर, आतिश बेहराम और अताश अदारान जाते हैं.
    

 

प्रार्थना की पुकार

मुसलमानों को पांचों वक़्त की नमाज़ के लिए बुलावे के रूप में मस्जिदों से मुअज्जिन द्वारा अज़ान (पुकार) दी जाती है.इसी तरह पारसी धर्म के अनुयायियों को रोज़ाना पांचों बार की प्रार्थना के लिए संदेश देने के लिए मंदिरों में घंटी बजाई जाती है.
 

 

प्रार्थना से पहले अनुष्ठान शुद्धि

पारसी लोग प्रार्थनाओं से पहले चेहरे और विभिन्न अंगों की साफ़-सफ़ाई करते हैं.इसके अलावा कुछ मौकों पर उन्हें बाक़ायदा स्नान (नहान) करके अनुष्ठान शुद्धि (पद्धब) करने की आवश्यकता होती है.इसी प्रकार, मुसलमान भी नमाज़ से पहले अपना चेहरा और विभिन्न अंगों की साफ़-सफ़ाई (वज़ू- हाथ-पैर, मुंह-नाक धोना और भीगे हाथों को सिर के बालों पर फिराना) करते हैं.इन्हें भी कुछ मौकों पर नमाज़ से पहले नहाना (ग़ुस्ल) ज़रूरी होता है.
     

 

प्रार्थना के समय सिर ढंकना

नमाज़ के दौरान पारंपरिक रूप से जिस तरह मुस्लिम पुरुष सिर ढंकने के लिए टोपी/चादर ओढ़ते हैं और स्त्रियाँ हिजाब धारण करती हैं ठीक उसी तरह, पारसी मर्द और औरतों को भी प्रार्थना के समय अपने सिर को (टोपी, चुन्नी/दुपट्टे आदि द्वारा) ढंकना होता है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
नमाज़/गेह के दौरान सिर ढंके हुए पारसी और मुसलमान

 

   

प्रार्थना का समय

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों ही मज़हबों में भोर के समय यानि अहले सुबह हवन की गेह प्रार्थना और फ़ज़र की नमाज़, दोपहर को रैपिथवन-जुहर, दोपहर बाद (जब सूरज ढ़लने की दिशा में अग्रसर होता है) और सूर्यास्त से पहले उजायरिन-असर, शाम (सूर्यास्त के बाद) की एविश्रुथ्रिम-मग़रिब और रात की उशाहेन-ईशा आदि की प्रार्थनाओं के समय में काफ़ी समानता है, भले ही इनके नाम अलग-अलग हैं.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
मुसलमानों और पारसियों की नमाज़/गेह की समय सारिणी
 
दोनों में ही प्रार्थनाओं को अनुयायियों के लिए नियमित रूप से पालन करने की एक ज़रूरी विधि-क्रिया एवं आध्यात्मिक और भौतिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण व उपयोगी बताया गया है.
 

 

मूल भाषा में शास्त्र का पाठ

नमाज़ के दौरान, जिस तरह मुसलमान अरबी में कुरान के अंशों को पढ़ते हैं, उसी तरह, पारसी धर्म में भी अपनी मूल भाषा अवेस्ताई/अवेस्ता में ही अवेस्ता गाथा का पाठ करना होता है.
 

 

मृतकों की हिमायत में प्रार्थना 

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों में हालांकि हर व्यक्ति को उसके गुण-दोषों के आधार पर ही न्याय मिलना है फिर भी, मरणोपरांत उसके सगे-संबंधियों, मित्रों और उससे जुड़े लोगों द्वारा उसके लिए ईश्वर से उसकी हिमायत में मिन्नतें/प्रार्थना की जाती हैं.
  

 

दैनिक दुआ या प्रार्थना                 

पारसी और इस्लाम, दोनों ही मज़हबों में विशेष कार्यों एवं अवसरों से संबंधित कुछ संरचित/रचित दुआएं अथवा प्रार्थनाओं को दैनिक या नियमित आधार पर याद करने और सुनाने की आवश्यकता होती है.
 

 

पूछताछ करने वाले देवदूत और क़ब्र की यातना

पूछताछ करने वाले दो स्वर्गदूतों, मुनकर और नकीर द्वारा मृतक से कड़ी पूछताछ के बाद क़ब्र की यातना के बारे में इस्लामी अवधारणा, दो महादूतों वोहुमन और मिथरा द्वारा मृतक की आत्मा के चारों ओर पूछताछ के बाद मृत्यु के बाद की सज़ा के बारे में पारसी अवधारणा के समान है.
         

 

जन्नत और जहन्नम

ज़रथोस्ती या पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों ये कहते हैं कि मौत के बाद इंसान को या तो जन्नत का सुख हासिल होगा या फिर जहन्नम अथवा दोज़ख़ की पीड़ा.इनकी परिभाषाओं का आधार एक ही है, जिसका मत्लब है कि जन्नत अच्छी आत्माओं की जगह है, जबकि जहन्नम पापी यानि बुरी आत्माओं का ठिकाना है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
स्वर्ग और नरक (ऊपर और नीचे-पारसी धर्म वाले बाएं, इस्लाम वाले दाएं) (प्रतीकात्मक)

 

 
उल्लेखनीय है कि दोनों ही मज़हबों में जन्नत यानि स्वर्ग को लेकर विचार/मान्यताएं समान हैं मगर, जहन्नम अथवा दोज़ख़ यानि नरक के अस्तित्व के बारे में थोड़ा फ़र्क नज़र आता है.
 
पारसी धर्म (अवेस्ता/जेंद अवेस्ता के मुताबिक़) के अनुसार, आख़िर में (Resurrection of the Dead -पुनरुत्थान के दिन) सभी आत्माएं अहुरा मज़्दा से जा मिलेंगीं यानि जन्नत में ही चली जाएंगीं.लेकिन, उन्हें वहां पहुंचने में कितना वक़्त लगेगा, यह उनके पाप-पुण्यों पर निर्भर करता है.ऐसा कहने का आशय यहां ये है कि पापी आत्माएं पहले तो जहन्नम ही जाती हैं लेकिन, वहां अपने हिस्से की सज़ा-पीड़ा भुगतने के बाद (जब वे पूरी तरह शुद्ध हो जाती हैं) तो अंततः उन्हें भी जन्नत में जगह मिल जाती है.यानि आसान शब्दों में कहें तो पारसी धर्म के अनुसार, जहन्नम यानि नरक एक अस्थायी जगह है.
 
दूसरी तरफ़ इस्लाम के अनुसार, जहन्नम वह जगह है जहां पापी आग में जलते रहेंगें.यानि क़यामत के दिन (Day of Judgement -पुनरुत्थान अथवा न्याय के दिन) फ़ैसले के बाद अच्छी आत्माएं जन्नत चली जाएंगीं, जबकि बुरी आत्माओं को जहन्नम जाना होगा, जहां वे हमेशा आग में जलती रहेंगीं और दंडित होती होंगीं.यहां स्वर्ग की तरह नरक भी शाश्वत है.
 

 

निर्णय का पुल

निर्णय के पुल अथवा न्याय के पुल के रूप में जिस तरह पारसी धर्म में चिनवत पुल की चर्चा है, ठीक उसी तरह के पुल अल-सीरत या अस-सीरात नामक पुल का उल्लेख इस्लाम (हदीस) में मिलता है.
  
दरअसल, निर्णय का पुल (The Bridge over Hell) एक वह संकरा पुल है, जो इंसानी दुनिया से अलग करता है, और जिसे न्याय दिवस पर सभी आत्माओं को पार करना होगा.अच्छी आत्माएं इसे पार कर लेंगीं और स्वर्ग प्राप्त करेंगीं, जबकि बुरी आत्माएं असफल होकर यानि नीचे गिरकर नरक पहुंच जाएंगीं.
 
पारसी धर्म (अवेस्ता में) में चिनवत पुल बीम के आकार का पुल बताया गया है, जिसकी, चार आंखों वाले दो कुत्ते रखवाली करते हैं.वेंदिदाद में इनकी चर्चा ‘स्पाना पू पाना’ के रूप में की गई है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
चिनवत पुल (प्रतीकात्मक)

 

अवेस्ता के अनुसार, पापियों को यह पुल बहुत संकीर्ण (पतला) दिखाई देगा तथा वे इसे पार नहीं कर पाएंगें और नरक-कुंड में गिर कर यातनाएं भोगेंगें, जबकि पुण्यात्माओं को यह चौड़ा नज़र आएगा अथवा उनके लिए यह चौड़ा होता जाएगा और वे इसे पार कर स्वर्ग पहुंचेंगें, जहां उन्हें सभी प्रकार के सुख प्राप्त होंगें.
 
हदीस के अनुसार, अस-सीरात वह पुल है, जिसे क़यामत के दिन जन्नत में दाख़िल होने के लिए हर इंसान को पार करना होगा.यह पुल बालों के एक क़तरे से भी पतला और सबसे तेज़ चाकू या तलवार की तरह नुकीला होता है और इसके नीचे नरक की आग जलती रहती है.इसे वही पार कर सकेगा, जिसके पुन्य पापों पर भारी पड़ जाएंगें यानि जब अच्छाई का वज़न बुराई से ज्यादा हो जाएगा.
 
इस्लाम में भी पारसी धर्म की तरह जन्नत में सारी सुख-सुविधाएं मिलेंगीं.यहां वह सब कुछ मिलेगा, जिसके बारे में इंसान सोच भी नहीं सकता.इसके विपरीत, जहन्नम में आग में जलने के साथ-साथ दूसरी सजाएं भी मिलेंगीं.
 

 

स्वर्ग की यात्रा

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों में नबियों की स्वर्ग की यात्रा के रूप में ‘अरदा विराफ़ की यात्रा’ तथा ‘इसरा और मिराज’ की अवधारणाएं समान हैं.दोनों ही यात्रावृतांतों में, दोनों मज़हबों के नबी आकाश के शिखर पर पहुंचकर सर्वशक्तिमान से मिलते हैं, स्वर्ग तथा नरक का भ्रमण करते हैं और पांच वक़्त इबादत की सीख लेकर लौटते हैं.इस दौरान, दोनों के साहित्यिक स्रोतों में घटनाओं के वर्णन में जो मामूली फ़र्क नज़र आता है वह, धर्मक्षेत्र, भाषा-शब्दों, लेखन-काल आदि में अंतर के साथ-साथ संभवतः एक दूसरे से ख़ुद को अलग दिखाने का असफल प्रयास है.
 

 

अरदा विराफ़ की स्वर्ग यात्रा 

पारसी साहित्य में अरदा विराफ़ की किताब (Book of Arda Viraf) से पता चलता है कि अरदा विराफ़ अथवा अरदा विराज़ धर्म की सच्चाई स्थापित करने के उद्देश्य से दूसरी दुनिया की यात्रा के लिए चुना जाता है.वह शराब, मंग और हाओमा का मिश्रण (भंग) आदि पीता है और महादूत बहमन के साथ बरग (मानव सिर और पंखों वाला बैल, जिसे कुछ लोग ज़ोरास्ट्रियन बुर्राक़ भी कहते हैं) पर सवार होकर यात्रा करता है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
बरग या ज़ोरास्ट्रियन बुर्राक़ (प्रतीकात्मक)

 

अरदा विराज़ दूसरी दुनिया में पहुंचता है जहां, एक ख़ूबसूरत महिला डेन उसका स्वागत करती है और आगे का रास्ता दिखाती है.चिनवत पुल पार करते हुए विराज़ देवदूत सरोश या सरोशा के मार्गदर्शन में स्टार ट्रैक (सितारों के रास्ते), मून ट्रैक (चंद्रमा-पथ) और सन ट्रैक (सूर्य-पथ) से होते हुए स्वर्ग के बाहरी इलाक़े में दाख़िल हो जाता है.फिर, वह स्वर्ग और नरक, दोनों का भ्रमण कर वहां पुण्यात्माओं और पापियों का हाल देखता है.
 
अंत में, विराज़ सातवें आसमान पर पहुंचता है जहां, उसे ख़ुदा यानि अहुर मज़्दा सिंहासन पर बैठा मिलता है.बातचीत के दौरान, अहुर मज़्दा विराज़ विराज़ को बताता है कि फ़ारसी या पारसी विश्वास और अनुष्ठान ही जीवन का एकमात्र सच्चा तरीक़ा है, जिसे दुख और सुख, दोनों में ही संरक्षित किया जाना चाहिए.साथ ही, लोगों को अनिवार्य रूप से दिन में पांच बार नमाज़/गेह प्रार्थना करनी चाहिए.
 

 

इसरा और मिराज   

इस्लाम में इसरा और मिराज रात के सफ़र के दो हिस्सों को कहा जाता है.इस रात नबी/पैगंबर मुहम्मद पहले बैत अल-मुक़द्दस गए और फिर वहां से वे सात आसमानों की सैर करते हुए जाकर अल्लाह से मिले.इस्लामी मान्यताओं के अनुसार, यह घटना 621 ईसवी में रजब (इस्लामिक कैलेंडर का सातवां महिना) के महीने की 27 वीं रात की है.कुछ रिवायतों के अनुसार, यह पाक रात का सफ़र (Night Journey) भौतिक, जबकि कुछ दूसरी रिवायतों के मुताबिक़, आध्यात्मिक था.इसरा और मिराज के इस मौके को लेकर मुसलमान शब-ए-मेराज नामक एक त्यौहार भी मनाते हैं.  
 
इसरा और मिराज में इसरा का मतलब होता है रात का सफ़र, जबकि मिराज या मेराज का मतलब होता है ऊपर उठने अथवा चढ़ने का साधन, सीढ़ी .इस पूरी यात्रा का वर्णन दो बहुत लंबी हदीसों (मलिक बिन सासा द्वारा वर्णित सहीह अल-बुख़ारी के खंड 4, किताब 54, हदीस संख्या 429 और मलिक बिन अनस द्वारा वर्णित सहीह मुस्लिम के किताब 1, संख्या 309) में विस्तार से किया गया है.
 
सफ़र के पहले हिस्से (इसरा) में, हदीसों के मुताबिक़, पैगंबर मुहमद जब मस्जिद अल-हरम में थे, देवदूत जिब्राइल वहां नबियों की पारंपरिक सवारी बुर्राक़ (औरत की शक्ल और मोर की पूंछ के साथ एक पौराणिक जानवर) लेकर आए.पैगंबर मुहम्मद बुर्राक़ पर सवार होकर उनके साथ हो लिए और ‘सबसे दूर की मस्जिद’ मस्जिद अल-अक्सा पहुंचे.वे वहां उतरे, बुर्राक़ को टेम्पल माउंट पर बांधा और दूसरे सभी नबियों के साथ प्रार्थना की.यहीं, जिब्राइल ने अल्लाह के आदेश पर उन्हें परखा भी/जांच की, जिसमें उन्होंने शराब के बजाय दूध चुना.उल्लेखनीय है कि इसी तरह के मौके पर पारसी धर्म के नबी विराज़ ने शराब-भंग पी थी और फिर स्वर्गारोहण शुरू किया था.बहरहाल, इसके बाद हज़रत मुहम्मद का आगे का सफ़र शुरू होता है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
इस्लामी बुर्राक़ (प्रतीकात्मक)

 

सफ़र के दूसरे हिस्से मिराज में बुर्राक़ हज़रत मोहम्मद को जन्नत ले जाता है जहां वे जिब्राइल के साथ घूमते है.जन्नत के सातों स्तरों/सातों आसमानों में हरेक पर वे जाते हैं और वहां मौजूद  आदम, इब्राहिम, मूसा, जॉन द बैप्टिस्ट , ईसा मसीह आदि जैसे पहले के नबियों से मिलते हैं और बातें करते हैं.फिर, जैसे ही हज़रत मोहम्मद जन्नत और जहन्नम का दौरा पूरा करते हैं, उन्हें अल्लाह के घर बैत-अल-मामूर और फिर सिद्रत अल-मुंतहा (जन्नत के सातवें स्तर/हिस्से में स्थित एक पवित्र वृक्ष जहां जिब्राइल को भी जाने की इज़ाज़त नहीं है) ले जाया जाता है.
 
पैग़म्बर मुहम्मद इसके बाद भी अपना सफ़र जारी रखते हैं और अल्लाह से मिलने अकेले जाते हैं.वहां वे देखते हैं कि अल्लाह एक सिंहासन पर विराजमान हैं.फिर, अल्लाह उनसे बातें करते हैं और कहते हैं कि मुसलमानों को दिन में 50 बार सलात/नमाज़ अदा करनी चाहिए.हालांकि, पैग़म्बर मोहम्मद की पृथ्वी (इंसानी दुनिया में) पर वापसी के दौरान, मूसा ने इसे लोगों के लिए बहुत ज़्यादा बोझ के रूप में देखते हुए अल्लाह से इसमें रियायत/छूट के लिए पूछने की सिफ़ारिश की, तो वे नौ बार मूसा और अल्लाह के बीच गए, जब तक कि इसे घटाकर आख़िरकार दिन में पांच बार नहीं कर दिया गया.
 

 

प्रलयकाल संबंधी अवधारणाएं

पारंपरिक इस्लाम और पारसी धर्म के बीच समानता कई युगांतकारी अवधारणाओं में स्पष्ट देखी जा सकती है.इनमें उद्धारकर्ताओं (साश्यंत, महदीस) में विश्वास, अंतिम निर्णय के उदघोषक (सर्वनाशक साश्यंत, दब्बत अल-अर्द), मृत्यु और उत्थान के बीच का चरण (बर्ज़ाक्सी, बर्ज़ाक़), स्वर्गीय युवतियां (दाएना, होरिस), स्वर्ग में कमल का पेड़ (हुमाया, सिदरा), स्वर्ग और नरक के बीच की सीमा (मध्य निवास, आराफ़) आदि शामिल हैं.
 

 

अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष

अध्ययन से पता चलता है कि पारंपरिक इस्लामी मान्यताएं अच्छे और बुरे के पारसी ब्रह्माण्ड विज्ञान के सामानांतर हैं.मिसाल के तौर पर, ईश्वर (अहुरा मज़्दा, अल्लाह) के खिलाफ़ बुरी शक्ति अथवा शैतान (आहरीमान, इब्लीस) के विद्रोह की अवधारणाएं, एक असमान ब्रह्मांडीय युद्ध लड़ने वाले स्वर्गदूत और राक्षस, गुण-दोषों को तौलने और पुण्यात्माओं को स्वर्ग तथा पापियों को नरक के ज़रिए अच्छाई की बुराई पर आख़िरी जीत जैसी अवधारणाओं में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.
 

 

पवित्र व्यक्तित्वों की अविनाशी प्रकृति

पारसी धर्मशास्त्र में उल्लिखित ख्वारनाह (Khvarenah) की अवधारणा शिया मुसलमानों के इस्माह (Ismah) की अवधारणा के समान है.अवेस्ता के अनुसार, देवदूत और भविष्यवक्ता दिव्य रहस्यमय और शाही शक्ति के साथ सदा पवित्र और अविनाशी प्रकृति के हैं.इसी तरह, शिया मुसलमानों का भी मत है कि अपनी दिव्य शक्तियों के साथ स्वर्गदूत, भविष्यवक्ता और इमाम कभी ग़लत और भ्रष्ट नहीं हो सकते.
 

 

धार्मिक साहित्य की रचनाओं में समरूपता

पारसी धर्म और इस्लाम, दोनों के साहित्यिक स्रोतों/रचनाओं मसलन अवेस्ता और हदीसों (अहादीस) में समरूपता दिखाई देती है.कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि हदीस में दर्ज़ बहुत से सिद्धांत और नियम ससैनियन काल के पारसी धर्म के नियमों और रीति-रिवाज़ों पर आधारित हैं, जिनमें कई, इस्लाम के शिया और सुन्नी, दोनों ही संप्रदायों के लिए आम हैं.
 
जानकारों के अनुसार, हदीसों के कई रचनाकार फ़ारसी अथवा पारसी थे.शिया मुसलमान भी स्वीकार करते हैं कि हदीस के छह रचयिता पारसी थे लेकिन, सुन्नी ऐसा नहीं मानते.
 

 

स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान परहेज़

पारसी धर्म और पारंपरिक इस्लाम (शिया और सुन्नी दोनों), दोनों में स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान उन्हें धार्मिक कार्यों में भाग लेने की अनुमति नहीं है.जिस प्रकार पारसी स्त्रियां पीरियड के दौरान पूजा-पाठ में भाग नहीं ले सकतीं, उसी प्रकार मुस्लिम महिलाओं को भी नमाज़ पढ़ने और रोज़ा रखने पर रोक के साथ-साथ उन्हें जानमाज़ (नमाज़ पढ़ने की कालीन या आसन) और कुरान छूने की भी मनाही है.
 
 
पारसी धर्म,इस्लाम,एकसमान अवधारणाएं
मासिक धर्मकाल में धार्मिक अनुष्ठान से दूर स्त्री (प्रतीकात्मक)
दरअसल, पारसी धर्म में सासैनियन काल से ही स्त्रियों की माहवारी के दौरान विभिन्न प्रकार के परहेज़ की चर्चा मिलती है.इस दौरान, स्त्रियों में रक्तस्राव को लेकर उन्हें शारीरिक रूप से अशुद्द समझा जाता है और इस कारण धार्मिक संस्कारों में उन्हें हिस्सा लेने की मनाही होती है.तीन-चार दिनों (पीरियड की समाप्ति तक) तक पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंध से परहेज़ के साथ-साथ स्त्रियों के रसोई घर में प्रवेश न करने और उन्हें अलग कमरे में ही अपने सभी ज़रूरी घरेलू कामकाज निपटाने की सलाह दी जाती है.हिन्दू धर्म में भी इसी प्रकार की मान्यता है, जिसे इतिहासकार भारत-ईरानी आम धार्मिक प्रथाओं की कड़ी मानते हैं.
 
पारसी मान्यता के अनुसार, बीमारी या घायल होने के कारण यदि अंगों से रक्तस्राव हो रहा हो, तो पुरुषों को भी मंदिरों और विभिन्न धार्मिक रस्मों में भाग लेने की अनुमति नहीं होती, भले ही, वह पुरुष मंदिर का पुजारी ही क्यों न हो.कुछ ऐसा ही विधान शिया मुसलमाओं में भी है और वे स्त्रियों के मासिक धर्मकाल के दौरान उन्हें कोई घरेलू कामकाज नहीं करने देते.लेकिन, सुन्नी मुसलमानों में ऐसा नहीं है.
 

 

इस्लाम ने विभिन्न अवधारणाएं क्या पारसी धर्म से ली है?

विश्वास का कोई भी रूप-क्षेत्र चाहे वह धर्म, पंथ या फिर मज़हब कहलाता हो, उसमें, धारण करने योग्य सबसे उचित धारणा की ही बातें होती हैं, दावे किए जाते हैं.मगर, उस कथित सर्वोच्च धारणा के मुख्य आधारभूत घटक यानि ज्ञान का स्रोत क्या है, यह बहुत मायने रखता है.600 ईसवी में वज़ूद में आई कोई विचारधारा यदि 600 ईसा पूर्व की विचारधारा से मिलती-जुलती है अथवा दोनों में अधिकांश अवधारणाएं समान हैं, तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि परवर्ती (बाद के समय की) विचारधारा पूर्ववर्ती (पूर्व समय की, पिछली) विचारधारा से प्रभावित हुई है अथवा उसने पूर्ववर्ती विचारधारा को ही आत्मसात (ग्रहण) कर लिया है.यही स्थिति इस्लाम और पारसी मज़हब के बीच है.
 
दरअसल, पहले से स्थापित और प्रचलित पारसी धर्म के एकेश्वरवाद के सिद्धांत ने बाद में वज़ूद में आए इब्राहिमी मज़हबों को प्रभावित किया और नतीज़तन, यहूदियों, ईसाइयों और फिर इस्लाम ने भी इसकी कई अवधारणाओं को अपनी विचारधारा/मान्यताओं में शामिल कर लिया, जो स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं.कई लेखक-विचारक भी इससे सहमत हैं और उनका मानना है कि ज़ोरास्ट्रियन युगांतशास्त्र और दानव विज्ञान की प्रमुख अवधारणाओं ने अब्राह्मिक धर्मों को प्रभावित किया.
 
कुछ लोग इस्लाम पर पारसी धर्म के प्रभाव का कारण सलमान फ़ारसी को मानते हैं.उनके अनुसार, पारसी विद्वान सलमान फ़ारसी ने ही कुरान अरबी और फ़ारसी, दोनों भाषाओं में लिखी थी.इसीलिए पारसी धर्म की कई मूल अवधारणाएं इस्लाम में भी चली आईं.पारसी धर्म की तरह इसमें भी जन्नत, दोज़ख़, शैतान और फ़रिश्तों का तसव्वुर है.
 
मगर, सलमान फ़ारसी ने ज़्यादातर पारसी अवधारणाओं को ही इस्लामिक पाठ में शामिल कर दिया, कई लोग इससे सहमत नहीं है.उनके अनुसार, इसकी पुष्टि करना बहुत मुश्किल है.
 
बहरहाल, अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि कुछ दूसरे पंथों की तरह इस्लाम ने भी अपने बहुत से सिद्धांत स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं से प्राप्त किए हैं.फिर भी, इस्लाम की हर परंपरा और सिद्धांत अरब परंपराओं का परिणाम नहीं था, बल्कि आसपास की विभिन्न संस्कृतियों से भी लिया गया था.कुछ अवधारणाएं दूरस्थ अफ़्रीकी जनजातियों से भी ली गई थीं, जो ग़ुलामी और व्यापार के ज़रिए अरबों से जुड़ी थीं.इसी प्रकार कई अवधारणाएं पारसी धर्म से भी ली गईं.स्पष्ट रूप में, इस्लाम पर पारसी प्रभाव और इसके विपरीत, पारसी धर्म और शिया इस्लाम के बीच काफ़ी समानताएं हैं.                    
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रामाशंकर पांडेय

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