भारत की भू-राजनीतिक समस्याएं : नेहरू की ग़लती या साज़िश ?
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Web resultsBleed India with a Thousand Cutsवाली रणनीति की तरह;एक ज़बरदस्त प्रयोग हुइस तरह जब नेहरु की मंशा पर सवाल उठता है तो उनकी राष्ट्रीयता और धर्म भी स्वतः सवालों के घेरे में आ जाते हैं,जो हमेशा से ही विवादों का केंद्र रहे हैं.कांग्रेस के चाटुकारों और दरबारी लेखकों-इतिहासकारों का कहना है कि नेहरु कश्मीर के राजकौल परिवार के चश्मोचिराग़ थे.यदि ये सच है तो पिछले कुछ दशकों में कई सभ्यताएं ढूंढ़ ली गईं,कांग्रेस के मुताबिक़ ‘काल्पनिक रामसेतु’ का अस्तित्व भी ख़ोज निकाला गया लेकिन पैंसठ सालों के कांग्रेस राज में कश्मीर स्थित नेहरू का घर छोड़िये उनके पूर्वज या ख़ानदान के एक व्यक्ति तक की पहचान नहीं हो पाई! तो क्या गंगाधर नेहरू का इकलौता परिवार किसी दूसरे ग्रह से आया था जो कश्मीर में उतरा और वहां से सीधा इलाहाबाद के आनंद भवन में प्रवेश कर गया,क्योंकि बीच में दिल्ली वाली कहानी के भी तो सबूत नहीं मिलते ? साथ ही,आगरा के पास एक रियासत खेतड़ी में नेहरू के भाई नंदलाल की नौक़री की कहानी भी मनगढंत ही है क्योंकि उसके कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं.ग़ौरतलब है कि दरबारी बुद्धिजीवियों के मुताबिक़,बहादुर शाह ज़फर के वक़्त गंगाधर नेहरू दिल्ली के आखिरी कोतवाल थे.’दिल्ली पुलिस की वेबसाइट'(जिसका हवाला बड़े फख्र से दिया जाता है ) पर भी बतौर कोतवाल गंगाधर का नाम और फ़ोटो देखने को मिलता है;परन्तु वास्तव में उसका दिल्ली की आख़िरी मुग़लिया सल्तनत के रिकॉर्ड में कोई ज़िक्र नहीं मिलता.इतिहासकारों ने खोज़बीन में पाया है कि बहादुरशाह के वक़्त कोई भी हिन्दू किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं था.वहां सिर्फ़ दो हिन्दू नाम भाउ सिंह और काशीनाथ मिलते हैं जो बतौर नायब कोतवाल लाहौरी गेट(दिल्ली)में तैनात थे.लेकिन,शहर कोतवाल की सूची में ग़ाज़ी ख़ान का ही नाम मिलता है जिसे मेहंदी हुसैन की क़िताब ‘बहादुरशाह ज़फ़र और 1857 का ग़दर’ में ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी बताया गया है.उससे पता चलता है कि गंगाधर नाम तो बाद में अंग्रेज़ों के क़हर के डर से बदला गया था,असली नाम तो ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी था.रॉबर्ट हार्डी एंड्रूज़ की क़िताब ‘ए लैंप फॉर इंडिया-द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित’ ( A Lamp for India: The Story of Madame Pandit – Robert Hardy )में तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा है,जिसके मुताबिक़ गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान था.
आज़ादी के दिनों और उसके बाद की कुछ घटनाओं ने ना सिर्फ़ भारत के तत्कालीन स्वरुप को बदला बल्कि इसके भविष्य को भी कांटों भरी राह में धकेल दिया.बीमारियां पैदा की गईं और उनका इलाज़ ना कर उन्हें असाध्य बनाया जाता रहा.बीमारियों से मेरा मत्लब यहाँ भारत की भूराजनीतिक(भौगोलिक और राजनैतिक संयोजनों)जटिलताओं और समस्याओं से है जिस कारण आज हम चीन,पाक़िस्तान और नेपाल से घिरे नज़र आ रहे हैं और भविष्य में हमें यदि तीनों मोर्चों पर एक साथ संघर्ष करना पड़े,जो कि बहुत संभव है;तो ये हमारे लिए ही नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास में भी अभूतपूर्व घटना कहलाएगी.
तीनों सीमाओं(चीन,पाकिस्तान और नेपाल ) पर जूझते भारत की आज की तस्वीर |
‘ग़लतियाँ’ बनाम ‘जानबूझकर किये गए कार्य’
कई भारतीय बुद्धिजीवी इसे ‘नेहरू की ग़लतियाँ’ बताते हैं जबकि कुछ आलोचक नेहरू की प्रतिभा,स्वाभाव,अनुभव और विश्वव्यापी व्यक्तित्व का हवाला देते हुए कहते हैं कि ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता कि उन्होंने जो कुछ भी किया वो उनकी अदूरदर्शिता अथवा ग़लतियाँ थीं.ऐसा लगता है कि उनके द्वारा उठाये गए क़दम सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थे जिसे सरल भाषा में हम ‘जानबूझकर किए गए कार्य’ भी कह सकते हैं.इसका मत्लब ये है कि ‘इतना क़मज़ोर कर दो कि फ़िर से ना उठ सके’ यानि बिल्कुल पाक़िस्तान की ‘हज़ारों घाव करो,जिससे ख़ून रिसता रहे’ (Bleed India With A Thousand Cuts )वाली बड़ी मशहूर रणनीति की तरह एक ज़बरदस्त प्रयोग हुआ.
भारत को तोड़ने की साज़िश में लगे दुश्मन बाहर भी हैं और अंदर भी |
नेहरू की नीयत में खोट था ?
आलोचकों की मानें तो,नेहरू की राष्ट्रीयता और धर्म पर खुली बहस की आवश्यकता है.उनके मुताबिक़,तर्क की कसौटी पर खरी दलीलें और परिस्थितिजन्य प्रमाण ये बताते हैं कि आज़ादी के तथाकथित अलंबरदार रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू अथवा अंग्रेज़-गाँधी प्रायोजित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प्यारे चाचा नेहरू की नीयत में ख़ोट था,जिसे कांग्रेस और वामपंथी लेखक और इतिहासकारों द्वारा एक मिशन के तहत दशकों तक ढंकने का प्रयास किया जाता रहा.मग़र जैसा कि ये सर्वविदित है कि ‘सच को टाला जा सकता है,ख़त्म नहीं किया जा सकता’,भूमंडलीकृत आज की दुनिया में वो राज़ भी निकलकर सामने आ रहे हैं,जिन्हें कहीं पर्दे के पीछे बड़े क़रीने से दबा दिए गए थे.
भारत के प्रथम और सबसे विवादित प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू |
नेहरू और उनके पूर्वज अफ़ग़ानी मुसलमान थे ?
ऐसे में अब हमें यहाँ देखना ये है कि क्या सचमुच नेहरू की नीयत में ख़ोट था और यदि ख़ोट था तो क्या उसकी वज़ह उनका धर्म और उनकी राष्ट्रीयता थी,जिसके बारे में दक्षिणपंथी और कुछ अन्य विचारक दावे करते हैं.उनके मुताबिक़,नेहरू और उनके पूर्वज कश्मीरी पंडित नहीं बल्कि मुसलमान थे और वो भारतीय नहीं बल्कि अफ़ग़ानी नागरिक थे जिन्होंने बदले हालात में छद्म रूप धरा और साज़िशों को अंज़ाम दिया.
कांग्रेस समर्थकों का दावा
कांग्रेस समर्थक ये दावा करते हैं कि नेहरू परिवार पहले कौल परिवार के नाम से जाना जाता था.वे कश्मीरी पंडित थे.परिवार के मुखिया थे राजनारायण कॉल.उन्होंने एक क़िताब लिखी तारिख़ी कश्मीर(1710 में ) जिसकी वाहवाही मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर(1713-1719) तक पहुंची.उसने बतौर इनाम राजकौल को दिल्ली बुलाकर उन्हें थोड़ी ज़ागीर और चांदनी चौक में एक हवेली दे दी.इस तरह उनका परिवार दिल्ली में बस गया.साथ ही,चूँकि वो हवेली जिसमें वो रहते थे,नहर के किनारे स्थित थी इसलिए उन्हें नेहरू कहा जाने लगा.ये कहानी मज़ेदार तो है लेकिन सच्चाई से इसका कोई वास्ता नहीं है.
नेहरू संग्रहालय में लगी मोतीलाल नेहरू के परिवार की तस्वीर |
राजकौल और फ़र्रुख़सियर के संबंध का सच
दरबारी लेखकों-विचारकों द्वारा गढ़ी गई इस कहानी की पोल खोलते हैं कश्मीर के जाने-माने इतिहासकार, शेख़ अब्दुल्ला की जीवनी ‘आतिश-ए- चिनार’ के संपादक और जम्मू-कश्मीर की कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी के पूर्व सचिव मोहम्मद यूसुफ़ टैंग.टैंग बताते हैं कि मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर कश्मीर कभी गया ही नहीं.इसलिए ये दावा कि जवाहरलाल के कथित पूर्वज पंडित राजकौल पर बादशाह की नज़र पड़ी और उसके बुलावे पर वो दिल्ली आए, सरासर झूठा है.
मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर(1713-1719 ) का चित्र |
टैंग ये भी बताते हैं कि राजकौल का ज़िक्र उस दौर के कश्मीरी इतिहासकारों के यहाँ नहीं मिलता.वो एक मशहूर विद्वान हों,इसकी संभावना नहीं लगती.
गंगाधर नेहरू बनाम ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी
नेहरू-गाँधी परिवार के प्रचार के दौरान कांग्रेसी गंगाधर नेहरू का नाम बड़ा उछालते हैं.वो गंगाधर को ऐसे पेश करते हैं जैसे वो नेहरू परिवार के हिन्दू होने का बहुत बड़ा सबूत है.वो दिल्ली पुलिस की वेबसाइट का हवाला देते हुए बताते हैं कि जवाहरलाल के दादा यानि मोतीलाल के पिता गंगाधर नेहरू बहादुर शाह ज़फ़र के वक़्त दिल्ली के कोतवाल थे.ये सच भी है.दिल्ली पुलिस की वेबसाइट पर फ़ोटो के साथ गंगाधर नेहरू का नाम छपा है और उसे दिल्ली का कोतवाल भी बताया गया है.लेकिन इसका आधार क्या है ? कैसे मान लिया जाए कि गंगाधर नाम का कोई व्यक्ति दिल्ली का कोतवाल था जबकि इसका कहीं भी कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.तथाकथित गंगाधर का जो फ़ोटो छपा है उसे देखकर कोई भी नहीं कह सकता कि वो हिन्दू है.वो प्रथमदृष्टया मुस्लिम नज़र आता है.
दिल्ली के आख़िरी कोतवाल का विवादित चित्र |
मुग़लिया सल्तनत के आख़िरी बादशाह बहादुरशाह ज़फर के वक़्त के कोतवालों की सूची में कहीं भी गंगाधर नामक किसी कोतवाल का ज़िक्र नहीं मिलता.दरअसल,कोतवाल एक बड़ा पद(कमिश्नर रैंक का) हुआ करता था और बहादुरशाह के वक़्त किसी हिन्दू को इतने महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं रखा जाता था.उस वक़्त के नायब कोतवालों की सूची में सिर्फ़ दो हिन्दुओं भाउ सिंह और काशीनाथ का ज़िक्र मिलता है जो लाहौरी गेट में तैनात थे.
प्रसिद्द विद्वान मेहंदी हुसैन की क़िताब ‘बहादुरशाह और 1857 का ग़दर’ से पता चलता है कि गंगाधर नाम तो बाद में अंग्रेज़ों के क़हर के डर से बदला गया था,असली नाम तो था ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी.
खेतड़ी के दीवान थे नन्दलाल ?
कांग्रेस व उसके दरबारी विचारक एक और कहानी पेश करते हैं.इसमें वो बताते हैं कि गंगाधर की दो बेटियां तथा तीन बेटे थे बंसीधर,नन्दलाल और मोतीलाल.बंसीधर से छोटे यानि मंझले भाई नन्दलाल आगरा के पास स्थित खेतड़ी रियासत के दीवान थे.
खेतड़ी रियासत के महल की तस्वीर |
उल्लेखनीय है कि आज़ादी के बाद खेतड़ी के राजा फ़तेह सिंह की संपत्ति को राजस्थान सरकार ने ले ली थी.इस संपत्ति से सम्बंधित एक वसीयत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक केस आज भी लंबित है.लेकिन वसीयत या उससे जुड़े दस्तावेज़ों में नन्दलाल नामक किसी दीवान का कोई ज़िक्र नहीं है.ऐसे में,नेहरू ख़ानदान से जुड़ी ये कहानी भी फ़र्ज़ी है.
ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में कई सभ्यताएं ढूंढ़ ली गईं,वो रामसेतु भी सही प्रमाणित हो गया जिसे कांग्रेस काल्पनिक बताती थी,लेकिन पूरे कश्मीर में राजकौल के पुश्तैनी घर का आज तक पता नहीं लगाया जा सका.ना उनका कोई वंशज और नाहीं उससे जुड़ा कोई स्रोत.ऐसा लगता है जैसे इकलौता कौल परिवार किसी दूसरे ग्रह से आया और सीधा इलाहबाद (अब प्रयागराज )स्थित आनंद भवन में दाख़िल हो गया,क्योंकि बीच में दिल्ली-प्रवास की कथा के कोई सबूत हमें नहीं मिलते.
रॉबर्ट हार्डी एंड्रूज़ की किताब ‘ए लैंप फॉर इंडिया-द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित'(A Lamp for India-The Story Of Madame Pandit) में एक गंगाधर का एक चित्र छपा है,जिसके अनुसार गंगाधर असल में सुन्नी मुसलमान था.
एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी प्रेस की 2007-2008 की छपी रिपोर्ट के मुताबिक,1857 के विद्रोह के समय दिल्ली में गंगाधर नाम का कोई कोतवाल नहीं था(7 ).उसमें भी ग़ाज़ी ख़ान का ही ज़िक्र (8 )(9 ) मिलता है.
जवाहरलाल नेहरू की छोटी बहन कृष्णा हठीसिंह की राय में उनके दादा बहादुरशाह के वक़्त दिल्ली के कोतवाल थे.ख़ुद नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा ‘ऐन ऑटोबायोग्राफी’ में लिखा है कि आगरा जाते वक़्त उनके दादा गंगाधर को अंग्रेज़ सिपाहियों ने शक़ के आधार पर रोककर पूछताछ की थी.मग़र जब उन्होंने ये बताया कि वो मुस्लमान नहीं,कश्मीरी पंडित हैं,तो छोड़ दिया.उन्हें क्यों रोका गया ? वज़ह साफ़ है कि तथाकथित गंगाधर या तो वास्तव में मुसलमान थे या फ़िर उनके डील डौल और पहनावे मुसलमानों जैसे थे.
कुछ अपुष्ट सूत्रों से ये भी पता चलता है कि गंगाधर दरअसल एक अफ़ग़ानी नागरिक ग़यासुद्दीन शाह था जिसका परिवार पहले महाराष्ट्र के नांदेड में रहता था.उसका परदादा था आदिल शाह यहाँ 1700 ईस्वी में अफ़ग़ानिस्तान से भाग कर आया था.नांदेड़ में ही उसे एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम था अब्दुल.मग़र यहाँ से भी इन्हें पलायन कर विदर्भ जाना पड़ा.विदर्भ में रहते अब्दुल से फ़ख़रुद्दीन और फ़ख़रुद्दीन से फ़िर ग़यासुद्दीन पैदा हुआ.ग़यासुद्दीन अपने परदादा की तरह ही एक कट्टर मुसलमान था.उसके हिन्दू विरोधी कारनामों के चलते स्थानीय मौलानाओं ने उसे ग़ाज़ी (काफ़िरों को मारने वाला ) के ख़िताब से नवाज़ा था और वह ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी के नाम से जाना जाता था.
एक चर्चित घटना में ये भी बताया जाता है कि ग़यासुद्दीन के परदादा आदिल की मुख़बिरी से ही सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंहजी के नांदेड में होने का पता चला.उनपर हमला हुआ जिसमें वो घायल हुए और कुछ दिनों बाद शहीद हो गए.
इतिहासकारों और कुछ लेखकों के मुताबिक़,मुग़लिया सल्तनत में कोतवाल एक रसूख़दार पद हुआ करता था.शहर के चप्पे-चप्पे पर उसकी निग़ाह होती थी.वह रोज़ाना शहर की गतिविधियों की जो सूचनाएँ अपने नायब कोतवाल,चौकीदारों और मुख़बिरों के ज़रिए हासिल करता था उसे शाही दरबार में हाज़िर होकर रिपोर्ट करनी होती थी.इसका मत्लब ये है कि शहर कोतवाल शाही दरबार का एक अहम हिस्सा हुआ करता था.ऐसे में,इस अहम ओहदे पर एक हिन्दू(गंगाधर) की तैनाती की कल्पना भी बेक़ार की मगज़मारी कही जाएगी.
मुग़ल दरबार में कोतवाल की हैसियत को दर्शाता सांकेतिक चित्र |
आनंद भवन बनाम इशरत मंज़िल
अब,और आगे चलते हैं तो इलाहबाद(अब प्रयागराज ) स्थित आनंद भवन या फ़िर इशरत मंज़िल का ज़िक्र आता है.कांग्रेस समर्थकों का मानना है कि यहाँ जब मोतीलाल की बैरिस्टरी चमकी तो उन्होंने सन 1900 में चर्च रोड स्थित एक मकान ख़रीदा,जिसका नाम उनकी पत्नी स्वरूपा रानी ने दिया आनंद भवन.मगर इसका कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है.ऐसे में आज का आनंद भवन पहले क्या था,उसका मालिक़ कौन था,उसे किसने ख़रीदा या फ़िर उसकी ख़रीद फरोख्त हुई ही नहीं और बाद में उसका नाम और रंग-रूप बदले गए,ये सारे सवाल जांच का सिर्फ़ दायरा ही नहीं बढ़ाते उसकी दिशा भी बदल देते हैं.
इलाहबाद(अब प्रयागराज ) स्थित तथाकथित आनंद भवन |
विरोधी अलग दलीलें पेश करते हैं.मग़र उनमें भी इस मुद्दे पर एक राय नहीं है.यहाँ उनके दो धड़े साफ़ नज़र आते हैं.एक धड़े के मुताबिक़,आनंद भवन पहले इशरत मंज़िल के नाम से जाना जाता था जो दरअसल एक चकलाघर (तवायफ़ का कोठा ) हुआ करता था.इसका मालिक़ था मुबारक़ अली जो अपनी बीवी थुस्सू रहमान बाई के साथ मिलकर जिश्मफ़रोशी का धंधा करता था.रेड लाइट एरिया में स्थित ये इशरत मंज़िल उन दिनों घुंघरुओं की झनकार से गुंजायमान रहता था.ये हुस्न-ओ-अदा को निहारने और ज़िस्मानी ज़रूरतों को पूरा करने का ठिकाना तो था ही साथ ही रसूख़दारों और मालदारों की ख़ास पसंद अंगिया और नथ उतराई का भी यहाँ ख़ासा इंतज़ाम था.
इलाहबाद (अब प्रयागराज ) स्थित तथाकथित इशरत मंज़िल |
इस तरह,ईंट और गारों से बना ये मक़ान मुबारक़ अली और उसकी बीवी थुस्सू रहमान बाई के लिए सिर्फ़ एक मक़ान नहीं बल्कि पैसों का तालाब था.जवाहरलाल के पिता मोतीलाल नेहरू व उनका परिवार भी उन दिनों यहीं रहा करता था.
मुबारक़ अली बन गया मोतीलाल ?
दूसरे धड़े(विरोधियों का दूसरा ख़ेमा)की मानें तो बिल्कुल एक अलग़ ही तस्वीर उभरकर सामने आती है.उनके मुताबिक़,बदलते वक़्त में आज़ादी की लड़ाई में भी अवसर दिखाई देने लगे थे.बड़े-बड़े अवसर.फ़िर,मुबारक़ अली भी पीछे क्यों रहता,उसने ऊँची छलांग मारी और वह मुबारक़ अली से सीधा मोतीलाल नेहरू बन गया.बड़ी सोच,बड़ा मक़सद और ऊपर से कश्मीरी पंडित का चोला लोगों को रास आया.थोड़े से पैसे ख़र्च कर दानवीर का ख़िताब हासिल हुआ और राजनीतिक गलियारे में भी लाल क़ालीन बिछ गई.इशरत मंज़िल का भी रंग-रुप बदला और आनंद भवन बलिदानी अखाड़ा बन गया.ऐसे में मोतीलाल का बेटा कोई ग़ाज़ी,अली या ख़ान तो कहलायेगा नहीं,वह जवाहरलाल नेहरू हो गया.अब वो कौल नेहरू या सिर्फ़ नेहरू लिखें या फ़िर पंडित,कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि हिन्दू ब्राह्मण का ठप्पा तो लग चुका था.खुले और साफ़ शब्दों में इसका मत्लब ये है कि पंडित जवाहरलाल मुबारक़ अली के बेटे थे,जो मोतीलाल नेहरू के नाम से जाना जाता था.मग़र नेहरू द्वारा आनंद भवन की ख़रीदारी की तरह ही इस कहानी के भी प्रमाण नहीं मिलते.
जवाहरलाल मुबारक़ अली के बेटे थे ?
उपरोक्त वीडियो की सत्यता की पुष्टि नहीं होती.जिस एम ओ मथाई की बायोग्राफ़ी को इसमें आधार बनाया गया है उसमें कही भी ऐसा ज़िक़्र नहीं मिलता.साथ ही,एडिना रामकृष्णा की कोई पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है.लेक़िन एक बात साफ़ है कि जिस तरह ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी से लेकर राहुल और प्रियंका तक के नाम-वेष बदलने और लुका-छिपी के खेल हमें देखने को मिलते हैं,उससे किसी तरह की संभावनाओं से इंक़ार नहीं किया जा सकता,क्योंकि धुआं वहीं उठता है जहाँ आग होती है.साथ ही,पहले धड़े(विरोधियों का पहला खेमा)की उपरोक्त दलील वीडियो में दी गई दलील से मेल खाती दिखाई देती है जिसमें कहा गया है कि मोतीलाल व उनका परिवार मुबारक़ अली के मक़ान में रहता था.
दादा मुसलमान तो पोता भी मुसलमान
बिना जनेऊ के पंडित : दिल्ली के सरकारी भवन में स्थित स्वीमिंग पुल में नहाने को जाते जवाहरलाल |
जवाहरलाल भारतीय नहीं अफ़ग़ानी थे
इस तरह जब ये साबित हो जाता है कि जवाहरलाल नेहरू का एक अफ़ग़ानी ज़िहादी मुसलमान ग़यासुद्दीन ग़ाज़ी से ख़ून का रिश्ता था तो वो भी अफ़ग़ानी हुए और फ़िर उनकी राष्ट्रीयता हो जाती है अफ़ग़ानी.
एक कट्टर अफ़गानी मुसलमान के रूप में जवाहरलाल का काल्पनिक फ़ोटो |
भारत का विभाजन
अँगरेज़,गाँधी और नेहरू की तिकड़ी की साज़िश का अंज़ाम था भारत का विभाजन.नेहरू मुख्य क़िरदार थे जबकि गाँधी और लॉर्ड माउंटबैटेन किंगमेकर की भूमिका में परदे के पीछे मोर्चा संभाले हुए थे.एडविना माउंटबैटेन(भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबैटेन की पत्नी ) लॉर्ड माउंटबैटेन-गाँधी और नेहरू के बीच एक कड़ी का काम करती थीं.
लॉर्ड माउंटबैटेन और एडविना दंपत्ति के साथ गाँधी |
भारत-विभाजन के दस्तावेज़ों पर दस्तख़त करने बैठे नेहरू और जिन्ना |
बलूचिस्तान को शामिल करने से इनक़ार किया
बंटवारे के वक़्त बलोच शासक (कलात के ख़ान) ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर बाक़ायदा ग़ुज़ारिश की थी कि ‘बलूचिस्तान को भारत में शामिल करने की मेहरबानी करें… ‘.लेकिन नेहरू नहीं माने.उन्होंने इसे भौगोलिक दूरी का हवाला देते हुए ठुकरा दिया जबकि तत्कालीन पूर्वी पाक़िस्तान और वर्तमान में बांग्लादेश को पाक़िस्तान से भौगोलिक रूप से दूर होते हुए भी उसका हिस्सा मान लिया.इसका नतीज़ा ये हुआ कि 1948 में हमला कर पाक़िस्तान ने बलूचिस्तान पर क़ब्ज़ा कर लिया और नेहरू ने विरोध तक नहीं किया.
बलोचिस्तान को भारत में शामिल करने की मांग : नेहरू और कलात के खान (बलोच शासक ) |
ग्वादर पोर्ट लेने से इंकार किया
1947 में ओमान के तत्कालीन सुल्तान सैद बिन तैमूर (10 फ़रवरी 1932-23 जुलाई 1970) ने अपना ग्वादर पोर्ट भारत को देने की पेशकश की थी.नेहरू ने इस ऑफर को भी ठुकरा दिया.नेहरू के मना करने पर सुल्तान ने सामरिक-आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण वो ग्वादर पोर्ट पाक़िस्तान को दे दिया और पाक़िस्तान ने उसे फ़िर चीन के हवाले कर दिया.चीन ने आज इसी बंदरगाह के दम पर भारत की घेरेबंदी कर रखी है.
चीन के क़ब्ज़े ग्वादर पोर्ट : सामरिक व व्यापारिक रूप से अहम |
नेहरू चाहते थे कश्मीर पाक़िस्तान में मिल जाए
नेहरू चाहते थे कि कश्मीर पाक़िस्तान में मिल जाए लेकिन महाराजा हरि सिंह का झुकाव भारत की तरफ़ था.उन्होंने फ़िर लॉर्ड माउंटबैटेन को आगे किया.माउंटबैटेन ने महाराजा को मनाने की बहुत कोशिश की और कहा कि यदि वो पाक़िस्तान के साथ चले जाते हैं तो ज़्यादा अच्छा होगा और भारत इसमें कोई रूकावट भी पैदा नहीं करेगा.लेकिन,नेहरू की ये चाल क़ामयाब नहीं रही.
कश्मीर विलय पर महाराजा को उलझाने वाले नेहरू और माउंटबैटेन(बाएं-दाएं ) |
कश्मीर विलय रोकने की चाल : नेहरू(बीच में ),महाराजा और शेख़ अब्दुल्ला(बाएं-दाएं ) |
वो विलय पत्र जिसपर हस्ताक्षर के बाद जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बन गया |
कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए
कश्मीर रियासत का मामला नेहरू ने अपने पास रखा था,जबकि यह उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता था.वो कश्मीर के मुद्दे को ख़ुद अपनी तरफ से संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए और जानबूझकर मामला ग़लत चैप्टर के अंतर्गत उठाया.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जहाँ कश्मीर पर भारतीय पक्ष का मज़ाक़ उड़ा |
कश्मीर में जनमत संग्रह का एलान करते जवाहरलाल नेहरू |
ज़ंग के बीच अचानक सीज़फ़ायर का एलान
1948 में भारत-पाक़ की ज़ंग के बीच नेहरू ने अचानक सीज़फायर का एलान कर सारी दुनिया को चौंका दिया.हर तरफ़ ये चर्चा होने लगी कि जब भारतीय सेना जीत रही थी तथा हमलावरों को खदेड़ते हुए अपने इलाक़ों पर फ़िर से क़ाबिज़ होती जा रही थी और युद्ध क़रीब अंतिम पड़ाव में था तो ऐन वक़्त आख़िर ऐसा क्या हुआ जिसकी वज़ह से भारत को युद्ध रोकना पड़ा और नतीज़तन आधा कश्मीर गवांना पड़ा.
भारत-पाक़ युद्ध के दौरान सीज़फ़ायर का एलान करते नेहरू |
सच में,ये एक बड़ा सवाल है लेकिन,इसका ज़वाब बहुत ही आसान है.नेहरू को कश्मीर पाक़िस्तान को देना था,पूरा नहीं तो आधा ही सही,दे दिया.
धारा 370 के तहत कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा
संविधान का प्रारूप तैयार करने वाले भीम राव अंबेडकर और कुछ अन्य लोग कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे.उनका चेताया था कि ये व्यवस्था अलगाववाद को जन्म देगी और देश की एकता और अखंडता के लिए चुनौती साबित होगी.लेकिन नेहरू जिनके सिर पर गाँधी का आशीर्वाद था,उन्हें चुनौती देने का साहस किसी में नहीं था.अंबेडकर मुखर हुए तो उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा.अब कोई अड़चन नहीं रही.
जम्मू-कश्मीर के लिए संविधान में 370 की व्यवस्था के बाद 35 (ए ) भी चुपके से जोड़ दिया गया |
कोको आइलैंड और क़ाबू वैली गिफ़्ट किया
पाक़िस्तान पैदा करने के बाद हमारी दूसरी सीमाएं किस तरह दुश्मन की निग़ाह में और ख़तरों से घिरी रहें,ऐसी रणनीति भी पहले से तैयार थी.सन 1950 में नेहरू ने हमारी कोको आइलैंड म्यांमार को ऐसे गिफ़्ट कर दिया जैसे कोई सामान्य सी चीज़ अथवा उनकी बपौती संपत्ति हो.कोलकाता से महज़ 900 किलोमीटर दूर स्थित यह कोको द्वीप समूह हमारी अनमोल प्राकृतिक सम्पदा होने के साथ-साथ और सामरिक लिहाज़ से भी बहुत महत्वपूर्ण था.म्यांमार ने उसे चीन को किराए पर दे दिया और अब वह चीन के क़ब्ज़े में है जहाँ से वह ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ का अड्डा बनाकर हमारी गतिविधियों पर नज़र रखता है.
जानकर बताते हैं कि ये एक चाल थी जिसके तहत नेहरू ने सीधे चीन को ना देकर म्यांमार के ज़रिए कोको आइलैंड को चीन के हाथों में पहुंचा दिया.
भारत का ख़ूबसूरत कोको आइलैंड जिसे नेहरू ने म्यांमार को गिफ़्ट कर दिया |
कश्मीर से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत काबू वैली जिसे नेहरू ने म्यांमार को उपहार में दे दिया |
भारत-नेपाल विलय का प्रस्ताव ठुकराया
नेपाल जो आज भारत को आँखें तरेर रहा है और चीन की शह पर सीमा पर साज़िशें रच रहा है,ऐसा कुछ भी नहीं होता अगर नेहरू ने देश से ग़द्दारी नहीं की होती.आप हैरान होंगें ये जानकर कि साल 1952 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन विक्रम शाह ने नेपाल को भारत में विलय कर लेने का प्रस्ताव किया था लेकिन नेहरू नहीं माने और ये कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया कि दोनों के विलय से फ़ायदे की ज़गह नुक़सान होगा और नेपाल का पर्यटन भी बंद हो जायेगा.अब इसे भारत का दुर्भाग्य कहें या एक मलेक्ष का षड्यंत्र मगर हाथ आया स्वर्ण-कलश हमने खो दिया और भविष्य के नए दुश्मनों की सूची में एक और नाम जोड़ लिया.सच में,आज ये सोचकर बहुत दुःख होता है और क्रोध भी.
भारत-नेपाल संधि : नेपाल नरेश त्रिभुवन विक्रम शाह देव और नेहरू |
सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता
आज यूएन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे भारत को 1950 में दो बार ऑफर मिले थे और दोनों ही बार नेहरू ने ठुकरा दिए थे.पहली बार ये ऑफर 1953 में अमरीका ने दिए थे लेकिन नेहरू ने ये कहते हुए मना कर दिया कि भारत से पहले चीन इसका असली हक़दार है और उसे मिलना चाहिए वर्ना नाइंसाफ़ी होगी.’नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय'(एनएमएमएल) में रखी वो चिट्ठियां प्रमाण हैं जो नेहरू और उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित (अमरीका में तैनात तत्कालीन भारतीय राजदूत ) द्वारा एक दूसरे को लिखे गए थे.
सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता को लेकर विजयलक्ष्मी पंडित द्वारा नेहरू को लिखा गया पत्र |
विजयलक्ष्मी पंडित के पत्र के ज़वाब में नेहरू द्वारा लिखा गया पत्र |
लेकिन इसको लेकर 1955 में जब भारत की संसद में सवाल पूछे गए तो ज़वाब में उन्होंने सफ़ेद झूठ बोलते हुए साफ़ मना कर दिया कि यूएन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए भारत को कोई ऑफर मिला था.
नेहरू का संसद में बयान : सुरक्षा परिषद में सीट का नहीं मिला कोई ऑफर-द हिन्दू |
में विस्तार से देखने को मिलता है.उसमें श्रीवास्तव बताते हैं कि 1995 में उन्होंने वो फ़ाइल और उसमें वो मूल दस्तावेज़ देखे थे जो इस बात के प्रमाण हैं कि यूएन की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थाई सदस्यता के ऑफर दो बार मिले थे.ये ऑफर अमरीका और रूस की तरफ़ से दिए गए थे.श्रीवास्तव के मुताबिक़,ये वाक़या तब का है जब वो भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में डायरेक्टर पद पर तैनात थे.
नेहरू ने दो बार ठुकराए यूएन सीट के ऑफर-डीपी श्रीवास्तव |
इससे साफ़ है कि भारत के प्रति नेहरू की मंशा ग़लत थी.उन्होंने भारत को जानबूझकर पीछे धकेला और संसद में झूठ बोला.झूठ भी कबतक चलता.सच बाहर आया और कांग्रेस के बड़े नेता और सरकार में मंत्री शशि थरूर की क़िताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ़ इंडिया’ के ज़रिए मीडिया की हैडलाइन बन गया.
नेहरू ने ठुकराई थी यूएन की सीट-शशि थरूर |
पंचशील समझौता
चीन से यारी और भारत से ग़द्दारी की श्रृंखला में पंचशील समझौता भी एक अहम कड़ी माना जाता है.इसमें नेहरू के साथ उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी बराबर की साझेदार थीं.अमरीका में बतौर राजदूत भारत का बेड़ा ग़र्क़ करने के बाद वह चीन गईं.वहां वो माओ और चाउ-एन-लाई से मिलकर बहुत प्रभावित हुईं.माओ में उन्हें गाँधी नज़र आते थे.चाउ-एन-लाई के प्रति नेहरू के लगाव देखकर ऐसा लगता था जैसे वो इनका लंगोटिया यार हो या फ़िर कुम्भ के मेले में बिछड़ा हुआ भाई.ऐसा अपनापन जिसे कोई शायर भी बयां ना कर सके !
चीनी प्रधानमंत्री चाउ-एन-लाइ के साथ प्रसन्न मुद्रा में जवाहरलाल नेहरू |
भारत की अखंडता और संप्रभुता से पहले ही समझौता कर चुके उनके भाई नेहरू एक क़दम और आगे बढ़े और 29 अप्रैल 1954 को चीन के साथ सिर्फ़ पंचशील समझौता ही नहीं किया बल्कि तिब्बत को चीन का हिस्सा भी मान लिया.
पंचशील समझौते के मौक़े पर चाउ-एन-लाई और जवाहरलाल नेहरू |
विडंबना देखिए,वो देश जो अपने निकटतम पड़ोसी(तिब्बत )पर ज़बरन क़ब्ज़ा कर चुका है,उसका विरोध करने और उससे दूरी बनाने की बजाय ना सिर्फ़ उसे अपनी बग़ल में बिठा लिया वरन उसकी आक्रामकता और अन्यायपूर्ण कार्य का समर्थन भी किया.दरअसल,ये विस्तारवाद को समर्थन था जिसका काला साया निकट भविष्य में भारत पर भी पड़ने वाला था,जिसके बारे में सरदार पटेल पहले ही चेता चुके थे.
1962 का युद्ध और भारतीय सेना
आज़ाद भारत में नेहरू ने ना तो सेना को महत्त्व दिया और ना ही युद्ध की तयारी की.आत्मरक्षा के लिए न्यूनतम सैन्यशक्ति तो छोड़िये उनकी राय में,भारत को सेना की आवश्यकता ही नहीं थी.वो भारतीय सेना को ख़त्म कर देने के पक्ष में थे.उन्होंने चीन के ख़तरे को देखकर भी अनदेखा किया.तिब्बत के रास्ते चीनी सेना जब अरुणांचल प्रदेश,असम और सिक्किम तक घुस आई तब भी नेहरू ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए भारतीय सेना को कार्रवाई करने से रोके रखा.मग़र जब देश में बवाल मचा तो युद्ध की इज़ाज़त तो दी लेकिन वायुसेना को लड़ने से मना कर दिया.
1962 का भारत-चीन युद्ध जिसमें भारत बुरी तरह हारा |
चीन पूरी तैयारी से आया था और उसके सामने हमारी सैन्यशक्ति क़मज़ोर थी लेकिन हमारे रणबांकुरों ने जो शौर्य दिखाया वो विश्व के इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता.हमारे लड़ाके उनपर भारी पड़ रहे थे लेकिन गोला-बारूद और राशन के अभाव में वो कबतक टिके रहते.बताते हैं कि पथरीली ज़मीन पर उनके कैनवस के जूते भी बड़ी परेशानी के सबब थे और संघर्ष के दौरान उनकी एड़ी से लेकर तलवे तक के हिस्से लहूलुहान हो जाते थे.नतीज़तन,हमें करारी हार का सामना करना पड़ा.चीन ने हमारे 51,500 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया जिसमें अक्साई चिन के 37,500 वर्ग किलोमीटर भूभाग और कश्मीर के हिस्से के रुप में कैलाश पर्वत,मानसरोवर और अन्य तीर्थस्थल के 14000 वर्ग किलोमीटर वाले भूभाग शामिल हैं.
नेहरू की अगुआई में भारत की 5,180 वर्ग किलोमीटर ज़मीनें क़ब्ज़ा ली गईं |
नेहरू राज में गवाँई गई ज़मीनों,कोको आइलैंड,काबू वैली,बलूचिस्तान,ग्वादर पोर्ट और नेपाल आदि के क्षेत्रफल भी वर्तमान क्षेत्रफल के साथ जोड़ने पर आंकड़ा बहुत बड़ा हो जाता और आज भारत की एक अलग़ और विशाल तस्वीर नज़र आती.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर …
जिस चश्मे से पानी पीना, उसका सौदा कर देना,
ग़द्दारी कहते हैं भाई, ऐसी बे-ईमानी को ।
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