
भारत में आज के मिश्रित या कहिये कि एक ‘खिचड़ी समाज’ में कुछ विशेष संस्कार भी सभी में समान या एक जैसे ही समझे जाते हैं. इसका मुख्य कारण अज्ञानता तो है ही, इसमें विभिन्न विदेशी भाषाओं, जैसे अंग्रेजी और अरबी तथा फ़ारसी की भारतीय भाषाओं में मिलावट भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. जैसे विवाह को ही देखें, तो अक्सर लोग इसे शादी और मैरिज कह देते हैं, जबकि हकीक़त में ये शब्द एक दूसरे से काफ़ी अलग हैं, इनकी अवधारणाएं भिन्न हैं.
विदित हो कि शब्द और अर्थ का अटूट संबंध होता है. व्याकरण के पंडित मानते हैं कि शब्द का उसके अर्थ से कभी संबंध विच्छेद नहीं होता है क्योंकि इन दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर करता है. अर्थ शब्द की स्वाभाविक विशेषता है, और यह जिस भाषा का होता है वहां के समाज, उसकी परंपराओं और अवधारणाओं को अपने अंदर समेटे हुए होता है.
भारतीय भाषा चिंतन और अध्ययन को देखें, तो पता चलता है कि शब्दों के अर्थग्रहण की एक प्रक्रिया होती है, जिसे शक्ति कहते हैं. इसी से बच्चे सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ सीखते हैं. ऐसे में, शब्दों का प्रयोग सही रूप में हो रहा है या नहीं, उनके अर्थ का अनर्थ तो नहीं हो रहा है, इसका ध्यान रखना भी ज़रूरी है. देखें तो विवाह, शादी और मैरिज का मामला भी ऐसा ही है. इनको लेकर भ्रांतियां हैं, जिसके मद्देनज़र इन शब्दों के उचित अर्थ के साथ इनकी अवधारणाओं के आधार पर इनमें यदि फर्क है, तो उसे भी बताना हमारा साहित्यिक, सामाजिक और नैतिक कर्तव्य बनता है.
विवाह क्या होता है?
विवाह हिन्दू सनातन धर्म के सोलह संस्कारों में से एक विशेष धार्मिक-सामाजिक संस्कार है, जो देवी-देवताओं, गुरूजनों, सगे-संबंधियों और समाज के श्रेष्ठ और संभ्रांत व्यक्तियों की उपस्थिति में वेद-मन्त्रों और हवन-यज्ञ द्वारा संपन्न होता है. इसमें दो आत्माओं के मिलन का भाव होता है. इस अवसर पर वर-वधू अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुवतारा को साक्षी मानकर जन्म-जन्मांतरों तक अटूट पवित्र-बंधन में बंधे रहने का संकल्प लेते हैं. साथ ही, इसमें धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं के सदैव पालन करते रहने की स्वीकारोक्ति भी महत्वपूर्ण होती है.
विवाह का महत्त्व इसके अर्थ से समझ आता है. विवाह= वि+वाह, का शाब्दिक अर्थ है विशेष उत्तरदायित्व का वहन करना. इसे पारिभाषिक रूप में देखें, तो विवाह वह धार्मिक-सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें स्त्री-पुरूष को पति-पत्नी के रूप में मान्यता मिलती है. इसके लिए प्रयुक्त होने वाले अन्य शब्द हैं- ब्याह, परिणय (परि अर्थात चहुंओर + नय यानी ले जाने या घुमाने की क्रिया या स्थिति= चारों ओर घुमाना, चलाना, फेरे लगाना), पाणिग्रहण (पाणि + ग्रहण, वर और कन्या द्वारा एक दूसरे का पाणि अर्थात हाथ ग्रहण करना, हाथ अपने हाथ में लेना या पकड़ना), उद्दाह (ऊपर ले जाना, उठाकर ले जाना, पुरूष द्वारा स्त्री को उसके पिता के घर से अपने घर को ले जाना, विदाई), दारपरिग्रह (दार अर्थात स्त्री को पत्नी, भार्या के रूप में परिग्रह यानी ग्रहण या स्वीकार करना), इत्यादि.
विवाह को अक्सर एक उत्सव के रूप में देखा जाता है, मगर सच्चाई यह है कि यह एक यज्ञ (मंत्रोच्चारण के साथ हवन, पूजा आदि) है, जो पूरे विधि-विधान से होता है. इसकी शुरुआत होती है भावी वर और वधू की कुंडली या जन्म-पत्री के मिलान से. जन्म पत्री, जन्म से समय तारों और ग्रहों के स्थान के आधार पर तैयार आंकड़ों को कहा जाता है तथा इसके मिलान के लिए अधिकतम अंक 36 और न्यूनतम अंक 18 बताये गए हैं.
इसके बाद, शुभ लग्न या मुहूर्त के हिसाब से एक तिथि निश्चित कर विभिन्न देवी-देवता, श्रेष्ठ जन, गुरूजन, कुटुंबी-संबंधी, आदि निमंत्रित किये जाते हैं.
उस तिथि को वरपक्ष कन्या पक्ष के यहां पहुंचता है जहां कन्यापक्ष अपने द्वार पर स्वागत व एक प्रकार का पूजन (द्वारपूजा) करता है, और फिर वर को कन्या के साथ विवाह मंडप (एक सजा-धजा, घेरा हुआ और पवित्र स्थान जहां आचार्य के साथ हवन, पूजा, आदि की व्यवस्था होती है) में प्रवेश दिया जाता है.
फिर, शुरू होता है वैदिक रीति से संस्कार या कर्मकांड, जिसमें देवी-देवताओं के पूजन के बाद वर को साक्षात् भगवान विष्णु का स्वरुप मानकर कन्या के माता-पिता उसका पूजन कर कन्या को देवी लक्ष्मी के रूप में दान करते हैं. इसे कन्यादान कहा जाता है.
ज्ञात हो कि हिन्दू सनातन समाज में स्त्री के लक्ष्मी स्वरुप का महात्म्य ऐसा है कि जब बेटी घर से विदा होती है, तो वह पीछे की ओर (पीठ की तरफ़) अक्षत बिखेर जाती है, ताकि उसके जाने के बाद भी उसके मायके में लक्ष्मीजी का वास रहे, वहां धन-धान्य का आगमन बना रहे.
विवाह-संस्कार के विभिन्न चरण
फेरे: विवाह के 22 चरणों में फेरे, जिसमें वर-वधू अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुवतारा को साक्षी मानकर तन, मन और आत्मा से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं
पाणिग्रहण: इसमें मंत्र के साथ कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाती है और वर उसे अंगूठा सहित (समग्र रूप से) पकड़ता है.
मंगलसूत्र पहनाना: मंगलसूत्र (विवाह की निशानी) एक विशेष प्रकार का हार होता है, जिसे वर वधू के गले में बांधता या पहनाता है
सिंदूरदान: इसमें दूल्हा दुल्हन की मांग (सिर के बालों के बीच की वह रेखा जो बालों को दो ओर या हिस्सों में बांटकर, अलग कर बनाई जाती है) में सिंदूर भरता है या लगाता है.
विदित हो कि सिंदूर दान की रीति के बाद ही वधू सही मायने में विवाहिता मानी जाती है.
सिंदूर सबसे पहले विवाह के समय ही लगाया जाता है, और उसके बाद यह दैनिक श्रृंगार का हिस्सा बन जाता है.
इस प्रकार, विवाह संपन्न होता है, और वर वधू को लेकर अपने घर चला जाता है. यहीं से गृहस्थ आश्रम में दांपत्य जीवन का आरंभ होता है.
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार विवाह व्यवस्था में पति और पत्नी के बीच आत्मिक संबंध शारीरिक संबंध से अधिक महत्वपूर्ण होता है. शारीरिक संबंध केवल वंश-वृद्धि के उद्देश्य से ही होता है.
विवाह व्यवस्था में वैवाहिक बलात्कार (पति द्वारा पत्नी के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध या जबरदस्ती शारीरिक संबंध) या मैरिटल रेप घृणित कार्य है.
पतिव्रत लिए पत्नी तथा एकपत्नी व्रत लिए पति की मान्यता केवल विवाह पद्धति में ही पाई जाती है. ऐसे में, भारत का वह व्यभिचार निरोधक कानून (आईपीसी की धारा 497, जिसे एक साज़िश के तहत ख़त्म किया गया) स्वभाविक और बिल्कुल उचित था.
साथ ही, चूंकि पति-पत्नी के बीच संबंध जन्म-जन्मांतरों का होता है इसलिए, यह अविच्छिन्न होता है. इसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता है.
हिन्दू व्यवस्था में विवाह-विच्छेद यानी डिवोर्स (Divorce) और तलाक़ (Talaq) की अवधारणा नहीं है.
विवाहित पुरूष और विवाहित महिला के धार्मिक कार्य, जैसे पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा, आदि फलदायी नहीं होते हैं अगर वे यह एकसाथ नहीं करते हैं. शास्त्रों के अनुसार, स्त्री पुरूष की शक्ति होती है इसलिए, देवी-देवताओं का नाम लेने से पहले स्त्री का नाम लेना आवश्यक होता है, जैसे सीताराम, राधकृष्ण, आदि.
विवाह की एक विशेषता यह भी है कि विवाहित पुरूष को जहां अधिक प्रतिष्ठा मिलती है वहीं, विवाहित महिला को बहुत सम्मान की दृष्टि से दखा जाता है. वैसे भी माथे पर कुमकुम (हल्दी या अन्य सामग्री से तैयार चूर्ण), मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र, हाथों में हरी चूड़ियां, पैरों में बिछिया (पैर के अंगूठे में पहना जाने वाला चांदी का छल्ला) और बदन पर 5-6 गज लंबी साड़ी पहनी हुई महिला के लिए किसी के मन में सम्मान ही उत्पन्न होता है.
बात उम्र की भी है, जो भावी वर-वधू के लिए पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है. सही आयु में ही वैवाहिक जीवन सुरक्षित, स्वस्थ एवं सफल हो सकता है. अपरिपक्व मन-मस्तिष्क अपने विशेष दायित्व का निर्वहन उचित प्रकार से नहीं कर सकते हैं. इसलिए, विवाह नामक पवित्र संस्था (व्यवस्था) में इस बात का भी विशेष ख़याल रखा गया है.
ज्ञात हो कि हिन्दू धर्म में व्यक्तिगत संस्कार के लिए जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया है. ये चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास. इनमें, ब्रह्मचर्य आश्रम की शुरुआत 8 वर्ष की अवस्था में उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार के साथ होती है.
ब्रह्मचर्य आश्रम यानी गुरूकुल में एक लड़के के लिए 12 वर्ष (कम से कम) तक अध्ययन करने का नियम है. इसके बाद, कहा गया है कि वह (20 साल या उससे अधिक आयु में) अपने घर लौटेगा, और वहां 4-5 साल तक रोज़ी-रोटी कमाने या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने की क्षमता विकसित करेगा, ताकि वह घर की ज़िम्मेदारियां संभालने, परिवार का उत्थान करने, बच्चों की शिक्षा और धार्मिक-सामाजिक जीवन एवं परिवार-केंद्रित अन्य सभी कार्य करने में समर्थ हो सके. फिर, वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करेगा यानी विवाह करेगा. इस प्रकार, लड़का तब तक 25-30 साल की उम्र में पहुंच जायेगा. पुरुषों के लिए यह आयु विवाह के लिए आदर्श मानी गई है.
इसी प्रकार, कहा गया है कि लड़की को भी बचपन से ही (6-8 साल की उम्र से ही) पढ़ाना-लिखाना आवश्यक है. और रजस्वला (जिसका मासिक धर्म या माहवारी शुरू हो गई हो, ऐसा अमूमन 13-14 साल की उम्र में होता है) होने पर, कम से कम 5-6 साल तक उसे घर-गृहस्थी संभालने और सामाजिक ज़िम्मेदारियों को निभाने को लेकर ज्ञान और प्रशिक्षण लेना चाहिए. इसके बाद ही वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने अर्थात विवाह करने के योग्य होती है.
इस प्रकार, देखें तो यहां विवाह के समय तक लड़की भी 25-30 साल की हो जाती है. किसी लड़की के लिए विवाह की यह उम्र आज के हिसाब से भी सर्वाधिक उचित मानी जाती है.
शादी के मायने जानिए
हमारे यहां मुस्लिम जोड़े यानि, लड़के-लड़की के एकसूत्र में बंधने को आमतौर पर शादी कहा जाता है. मगर इसके लिए सही शब्द निकाह है, जो इस्लामी रीतिरिवाज़ को दर्शाता है. इसमें दो गवाह और एक वकील (लड़की की ओर से बात या दलील रखने वाला कोई क़रीबी दोस्त या रिश्तेदार) की उपस्थिति में लड़का और लड़की पक्ष के बीच मह्र या महर की रक़म पर सहमति और इज़ाब-ओ-क़ुबूल (दूल्हा-दुल्हन का एक दूसरे को स्वीकार करना, क़ुबुलियत) के बाद कुछ स्थानीय रस्मों, दुआओं और मुबारकबाद के साथ निकाह पूरा हो जाता है, और फिर शौहर की हैसियत से लड़का लड़की यानी अपनी बीवी को लेकर अपने घर चला जाता है.
ज्ञात हो कि शादी एक फ़ारसी (स्त्रीलिंग, एकवचन) शब्द है, जिसे आमतौर पर निकाह के माने या अर्थ में लिया जाता है, जैसे ‘सलात’ के लिए नमाज़ और अल्लाह के लिए ख़ुदा शब्द का प्रयोग होता है. ऐसा भारतीय उपमहाद्वीप के देशों, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका, आदि में देखने को मिलता है. यहां ये शब्द ज्यादा प्रचलित हैं, जबकि उन मुस्लिम देशों में जहां अरबी भाषा और संस्कृति का प्रभुत्व है अरबी शब्दों का प्रयोग किया जाता है. शादी को वहां निकाह और ज़वाज भी कहा जाता है. ज़वाज का जिसका लफ्ज़ी माने है- जोड़ा.
शादी और निकाह में फर्क है. शादी का शाब्दिक अर्थ होता है ख़ुशी, हर्ष, आनंद, जश्न, समारोह, जबकि निकाह का मतलब संभोग (सेक्स) या संभोग के लिए अनुबंध है.
निकाह दरअसल, जिस्मानी रिश्ता क़ायम करने यानी हमबिस्तरी या संभोग की क्रिया को कहते हैं. हालांकि इसके (सेक्स के) लिए क़रार (Contract) को भी निकाह ही कहा जाता है. इस्लामी जानकारों के अनुसार निकाह संभोग की क्रिया है. मगर इस्लामी कानून (शरिया कानून, शरीयत) निकाह को एक नागरिक अनुबंध के रूप में परिभाषित करता है, जिसका मुख्य उद्देश्य एक मर्द और औरत के बीच सेक्स संबंधों, और गर्भधारण को जायज़ बनाना है. यानी यह सेक्स और बच्चा पैदा करने का अनुबंध है.
निकाह-करार या अनुबंध के बाहर (लौंडियों या सेक्स स्लेव के साथ सेक्स के अलावा) कोई भी यौन संबंध ज़िना (अवैध यौन संबंध) अपराध है, और यह सज़ा के तहत आता है.
कुरान में जायज़ सेक्स को ‘निकाह’ शब्द से निर्दिष्ट किया गया है. हालांकि यह (कुछ विद्वानों के अनुसार) शादी और सेक्स, दोनों को दर्शाता है. (कुरान 2:221, 230, 232, 235, 237; 4:3, 6, 22, 24, 25, 127…)
निकाह क़रार को ‘अक़द-अल-निकाह’ भी कहा जाता है. इसकी कानूनी संरचना और प्रभावों को लेकर विद्वानों ने इसे ‘बिक्री का अनुबंध’ (The Contract of Sale) कहा है, और बीवियों तथा लौंडियों (महिला दासों, सेक्स स्लेव) की स्थिति के बीच की समानताएं बताई हैं, जिनकी यौन सेवाओं के शौहर (मालिक, हाकिम) हक़दार हैं. (कुरान, सूरह अन-निसा 4:24)
इस ‘बिक्री के अनुबंध’ में दूल्हे की ओर से दुल्हन को संभोग (निकाह) के शुल्क (क़ीमत) का भुगतान करना होता है, जिसे उजरत या मज़दूरी (महर) कहते हैं. महर धनराशि या संपत्ति के रूप में हो सकता है, और यह निकाह से पहले या बाद में भी लिखित रूप में देय (देने या चुकाने के योग्य) होता है.
सुन्नी मलिकी न्यायविद सिदी खलील के मुताबिक़- ‘जब एक औरत शादी करती है, तो वह अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा बेच देती है. जैसे बाज़ार में कोई माल ख़रीदता है, निकाह में दूल्हा दुल्हन का जननांग (जेनिटल अरवम मुलिएरिस) ख़रीदता है. मगर किसी भी दूसरी सौदेबाज़ी और बिक्री से अलग, महर में केवल उपयोगी और मज़हबी रूप से स्वच्छ वस्तुएं ही दी जा सकती हैं.(रुक्सटन (1916:106), वायस ऑफ़ इस्लाम के खंड 5 में ज़िबा मीर-होसैनी द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 85-113)
शादी या निकाह का सेक्स से गहरा संबंध है. विद्वानों की राय में, निकाह और सेक्स संबंध अनन्य या एकनिष्ठ हैं. 120 दिनों (4 माह) का संयम वह अधिकतम सीमा है, जिसे किसी भी हालत में पार नहीं किया जाना चाहिए.
संभोग निकाह के स्तंभों में से एक है. (अब्देलवहाब बौहदीबा, एलन शेरिडन, इस्लाम में कामुकता, साकी बुक्स, 1998)
ऐसा कहा जाता है कि निकाह एक मुसलमान के लिए बहुत ज़रूरी या अनिवार्य है क्योंकि यह उसकी आख़िरत या जन्नत के मार्ग में सहायक होता है. इसी से संबंधित ऐसा वर्णन मिलता है कि ख्वाज़ा ग़रीब नवाज़ (अज़मेर के पीर मोईनुद्दीन चिश्ती) को मज़हबी उसूलों के तहत बुढ़ापे में निकाह करना पड़ा था.
बहरहाल, फ़िक्ह (इस्लामी धर्मशास्त्र, जिसमें मज़हबी तौर-तरीक़े बताये गए हैं) और शरीयत (इस्लामी न्यायशास्त्र या शरिया कानून) के मुताबिक़ बिक्री के अनुबंध के अलावा भी, निकाह के तीन आवश्यक तत्व हैं: 1.औरत या उसके अभिभावक (वली) द्वारा प्रस्ताव (इजाब)
2.मर्द द्वारा स्वीकृति (कुबुलियत)
3.महर का भुगतान यानी रक़म या कोई भी क़ीमती चीज़-दौलत जो दूल्हा निकाह से पहले या बाद में दुल्हन को देता है, या देने का वादा करता है.
इनके पूरे होने के बाद, मज़हबी प्रतीक और अनुष्ठान से जुड़े एक समारोह में अल-फातिहा का पाठ, कुरान की पहली आयत, जो आमतौर पर मौलवी द्वारा पढ़ी जाती है, के साथ सांस्कृतिक-सामाजिक रूप से निकाह की औपचारिकता पूरी हो जाती है.
जहां तक निकाह के लिए उम्र का सवाल है, यहां भी शरीयत की भूमिका होती है. इस्लाम के जानकारों का कहना है कि लड़के और लड़की पर नमाज़ फ़र्ज़ होते ही वे बालिग़ या जवान हो जाते हैं. लड़की के लिए यह उम्र 9 साल, जबकि लड़के की उम्र 11 साल की होती है.
हदीसों के अनुसार 6 साल की उम्र में हज़रत आयशा का निकाह पैगंबर मोहम्मद के साथ हो गया था, और जब वह 9 साल की थीं तब (रुखसती के बाद) उनका रिश्ता क़ायम हुआ था यानी शारीरिक संबंध (Consummation of marriage) स्थापित हुए थे. (सहीह बुखारी 5133, किताब संख्या-67, हदीस संख्या-69), (सहीह मुस्लिम, किताब संख्या-16, हदीस संख्या-82)
ज्ञात हो कि निकाह या शादी को कभी भी तोड़ा जा सकता है. चूंकि यह सेक्स के लिए करार है इसलिए इसमें तय रक़म या महर अदा कर कोई शौहर जब चाहे अपनी बीवी को छोड़ सकता है.
मैरिज क्या है समझें
मैरिज शब्द ख़ासतौर से ईसाई रिलिजन के एक पुरूष और स्त्री के एकसूत्र में बंधने और साथ ज़िन्दगी गुजारने की शुरुआत को को लेकर सामाजिक-नागरिक अनुबंध के विशेष अवसर के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है, जो कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक रस्मों और कानूनी औपचारिकताओं को दर्शाता है. इसमें एक पुजारी और दो गवाहों की उपस्थिति एक ईसाई जोड़े के बीच संबंधों को वैधता प्रदान करती है. मैरिज की इस व्यवस्था में डिवोर्स या तलाक़ और पुनर्विवाह (दूसरी शादी) की भी अवधारणाएं हैं, हालांकि ईसाइयत के विभिन्न फ़िरकों या मतों, जैसे कैथोलिक, पूर्वी रूढ़िवादी, एंग्लिकन और मेथोडिस्ट में इस बारे में मतभेद है.
अध्ययन से पता चलता है कि अंग्रेजी के शब्द मैरिज (Marriage) की सटीक उत्पत्ति अनिश्चित है, हालांकि अधिकांश भाषाविज्ञानियों का मानना है कि यह 13 वीं सदी का पुराना फ्रांसीसी शब्द है, जो लैटिन शब्द मैरिटस से लिया गया है. इसका अर्थ है शादीशुदा ज़िन्दगी में दाख़िल होने की क्रिया, हसबेंड (पति) और वाइफ (पत्नी) होने की स्थिति, शादी, ज़िन्दगी साथ गुजारने के लिए एक मर्द और औरत का मिलन.
आधुनिक अंग्रेजी में मैरिज शब्द एक मर्द और औरत के बीच कानूनी समझौता, दो लोगों के बीच कानूनी रूप से स्वीकृत रिश्ता है, जिसमें वे साथ रह सकते हैं; शादी समारोह आदि को दर्शाता है.
मगर दिलचस्प बात यह है कि ईसाइयत में वास्तव में मैरिज की कोई पारंपरिक अवधारणा नहीं रही है; और इसको लेकर जो मान्यताएं दिखाई देती हैं, वे सब बदलते हुए वक़्त में और बाइबल में बार-बार (कम से कम 5 बार) संशोधनों के बाद आई हैं. यानी दूसरी संस्कृतियों की नकल (कॉपी-पेस्ट) कर इसमें जोड़ी गई हैं. इसका स्पष्ट प्रमाण हैं ईसाइयत के अलग-अलग फ़िरकों में इसको लेकर अलग-अलग तरह के विचारों का होना, और दुनिया के अलग-अलग भागों में रहने-बसने वाले ईसाइयों का वहां की संस्कृतियों में प्रचलित शादी-ब्याह के तौर-तरीक़ों को अपनाना.
ज्ञात हो कि भारतीय ईसाई पश्चिमी समाजों के ईसाइयों से काफ़ी अलग हैं. हिन्दू समाज के संपर्क में आने के कारण इनमें भी हिन्दू समाज के कई विशिष्ट तत्व शामिल हो गए हैं, जैसे कुल-गोत्र, जाति के भीतर ब्याह वगैरह.
भारतीय चर्चों की मैरिज को लेकर बदली परिभाषा के मुताबिक़ इंसानी ज़िन्दगी में मैरिज की ख़ास अहमियत है, और यह ईश्वर के उद्देश्य की पूर्ति करता है. इसके लिए बाइबल के एक कथित आदेश- ”एक मर्द को अपने माता-पिता को छोड़कर अपनी औरत (जिसको लेकर पश्चिमी संस्कृति का यह पुराना विचार रहा है कि उस पर मर्द का मालिकाना हक़ है) के पास रहना होगा, और दोनों एक हो जायेंगें”, का हवाला देते हुए इसका पालन कर ईश्वर की कृपा प्राप्त करने की बात कही जाती है.
बहरहाल व्यवहार में, मैरिज की रस्म आमतौर पर चर्च में होती है. यहां दाख़िल हो रही दुल्हन को ‘बेस्ट मैन’ (दूल्हे की ओर से कोई प्रमुख व्यक्ति, यह उसका क़रीबी दोस्त या रिश्तेदार हो सकता है, ईसाइयों द्वारा गढ़ा गया एक नया शब्द) फूलों का गुलदस्ता भेंट करता है.
अंदर, पादरी, दोनों की ओर से दो-दो गवाहों और अन्य लोगों की उपस्थिति में दूल्हा-दुल्हन सुख-दुख में एक दूसरे का साथ निभाने का वादा करते हैं, और अंगूठी बदलते हैं.
इसके बाद, पादरी ईश्वर की प्रार्थना कर आशीर्वाद देते हुए दोनों के ‘हसबेंड और वाइफ’ होने की घोषणा करता है.
ज्यों ही घोषणा होती है हसबैंड वाइफ को गोद में उठा लेता है यह दिखाने या जताने के लिए कि उस पर (उस औरत पर) अब उस का हक़ है.
आगे, यह जोड़ा एक दूसरे का हाथ थामे चर्च से बाहर स्वागत समारोह (रिसेप्शन पार्टी) में पहुंचता है. वहां (विशेषकर ईसाइयत के गढ़ यूरोपीय और अमरीकी परंपरा में) हसबैंड सब के सामने अपनी वाइफ (जो कुर्सी पर बैठी होती है) के गाउन या लहंगे के अंदर मुंह डालकर उस के अंतर्वस्त्र (पैंटी) के पास बंधे एक रिबन या बेल्ट (गार्टर) को अपने दांतों से खोलता है और बाहर खींचकर लोगों के बीच उछाल देता है.
फिर, सभी ‘टोस्ट रेज’ करते हैं यानी हाथ में शराब का गिलास लेकर कपल या जोड़े की ख़ुशहाल ज़िन्दगी की दुआ करते हैं, और मैरिज संपन्न होता है.
विवाह, शादी और मैरिज में अंतर
विवाह, शादी या निकाह और मैरिज को लेकर मान्यताओं और विधियों या रस्मों के बारे में उपरोक्त विस्तृत वर्णन के बाद इनमें अंतर समझने को कुछ शेष नहीं रह जाता है. फिर भी, कहा जाये तो, तीनों अलग-अलग अवधारणाएं हैं और इतने भिन्न हैं कि एक अर्थ में नहीं लिए जा सकते हैं. इनमें बहुत फर्क है सिवाय इस बात के कि तीनों में एक पुरुष और एक महिला को एकसाथ रहने की सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है. अतः ये शब्द पर्यायवाची नहीं हो सकते हैं.
लेकिन हां, शादी और मैरिज में बहुत समानताएं हैं. दोनों में करार (एग्रीमेंट) है, और संबंध-विच्छेद भी. संबंध-विच्छेद को ईसाइयत में डिवोर्स, जबकि इस्लाम में तलाक कहा गया है. इनमें सब से बड़ी समानता स्त्री के स्वामित्व (ownership) का है, औरत का मालिक होने या उस पर हाकिम होने का है.
इसके विपरीत, विवाह-व्यवस्था में पति-पत्नी समान हैं. उनके अधिकार हैं, तो कर्तव्य भी हैं. पत्नी अर्द्धांगिनी अर्थात शरीर का आधा हिस्सा है जिसे जीते जी अलग नहीं किया जा सकता है. तभी तो सात फेरों में सात वचन हैं सात जन्मों के लिए.
सब से बड़ी बात, सभोग या सेक्स केवल संतान-प्राप्ति या वंश-वृद्धि के लिए हैं. इसलिए, इस के लिए कोई करार या ज़ोर नहीं हैं, जबरदस्ती नहीं है.
यहां दो आत्माओं का मिलन है.
मगर 1000 साल की ग़ुलामी में यहां जहां भाषाई अतिक्रमण या क़ब्ज़ा हुआ वहीं, मैकाले की शिक्षा पद्धति ने लोगों की मानसिकता को भी दूषित किया. इससे लोगों में अपने ज्ञान के स्रोत या साहित्य, ग्रंथों, आदि के प्रति अरुचि पैदा होती गई, और अपनी तर्कशक्ति पर भी भरोसा न रहा.
ऊपर से मिश्रित समाज ने तो सब कुछ उलट-पलट कर दिया, और स्थिति यह है कि शब्दों को भी पंथनिरपेक्ष बना दिया गया है.
अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि पढ़ा-लिखा हिन्दू भी विवाह शब्द का प्रयोग करने में सकुचाता-शरमाता है, और मैरिज कहने में गौरवांवित अनुभव करता है. यह आधुनिकता का प्रतीक बन गया है.
भारत में तो देसी पकवान भी अंग्रेजी नाम से बड़े चाव से खाए जाते हैं, और महंगे भी बिकते हैं!
इसका एक अन्य प्रमुख कारण हमारी संवैधानिक व्यवस्था भी है. देखें तो अक्सर हिन्दी में हिन्दू विवाह और अंग्रेजी में हिन्दू मैरिज (Hindu marriage) शब्दों का प्रयोग होता है. हमारे देश के कानून में भी ‘हिन्दू मैरिज एक्ट’ (Hindu Marriage Act) या ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ लिखा है. यह अनुचित है. इसके स्थान पर ‘विवाह अधिनियम’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए क्योंकि विवाह केवल हिन्दू करता है, मुसलमान शादी या निकाह तो ईसाई मैरिज करते हैं.
इसे बदलना होगा. अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही हिन्दू सभ्यता-संस्कृति के विरुद्ध इस छद्म और षड्यंत्रकारी सोच को मात देनी होगी.