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यौन संचारित रोग (STD): सिफलिस को ‘फिरंग रोग’ क्यों कहते हैं? क्या यह उपदंश से अलग बीमारी है?

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यौन सचरित रोग सिफलिस को उपदंश बताया जाता है

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गुह्य रोग, रतिरोग, गुप्तरोग आदि के नाम से चर्चित यौन संचारी रोगों में सिफलिस उपदंश जैसा मगर, एक अलग या विशेष प्रकार का रोग है.इसके जीवाणु भी अलग बताये जाते हैं.भारत में सर्वप्रथम इसे क़रीब साढ़े चार सौ साल पहले आचार्य भाव मिश्र द्वारा रचित भावप्रकाशम् नामक ग्रंथ में ‘फिरंग रोग’ कहा गया था.

सिफलिस बनाम उपदंश (स्रोत)

यह अंग्रेजी का प्रभाव कहिए या आयुर्वेद का पिछड़ना, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रभावी कई प्रकार के रोगों के नाम और इनके लक्षणों को अंग्रेजी या अन्य पश्चिमी भाषाओं में बोला और समझा जाता है भले ही इनकी प्रकृति व प्रभाव में भिन्नता हो.उपदंश भी इनमें से एक है.इसे सिफलिस कहा जाता है.

बताया जाता है कि ‘उपदंश यानि, सिफलिस (Syphilis) एक प्रकार का यौन रोग है, जो ख़ासतौर से लैंगिक संपर्क के ज़रिए फैलता है.इसका कारक रोगाणु एक जीवाणु ‘ट्रीपोनिमा पैलिडम’ है.’

कई बार कुछ यूं भी कहा जाता है कि ‘सिफलिस उपदंश से अलग बीमारी नहीं है, बल्कि उसी का एक प्रकार (भेद) मात्र है.इसे उपदंश का पर्याय मान सकते हैं.’

ऐसे में, सवाल उठता है कि आख़िर ‘फिरंग रोग’ क्या है.यानि, सिफलिस को फिरंग रोग क्यों कहते हैं? अथवा,

क्या सिफलिस एक आयातित रोग नहीं है? और, यदि आयातित है, तो यह भारत में कहां से और कैसे आया, ऐसा एक विपरीत प्रश्न भी हो सकता है.

तो फिर, मसले का हल निकालने के लिए उपदंश और फिरंग रोग से संबंधित विचारों, रोग के कारणों और लक्षणों का विश्लेषण करना होगा.साथ ही, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार पर यह स्पष्ट करने की भी ज़रूरत है कि ये दोनों एक ही हैं या नहीं, अलग हैं तो कैसे हैं, इत्यादि.

‘भावप्रकाश’ में पहली बार ‘फिरंग रोग’ नामक बीमारी का ज़िक्र हुआ

भाव मिश्र पहले लेखक थे जिन्होंने अपनी पुस्तक में फिरंग रोग की चर्चा की थी.यह सिफलिस को दिया गया नाम था.भावप्रकाश दरअसल, वह आयुर्वेदिक ग्रंथ है, जिसमें अनेकानेक आयुर्वेदिक औषधियों और उनमें प्रयुक्त होने वाली वनस्पतियों एवं जड़ी-बूटियों का विशेष वर्णन है.इसे ‘भारतीय मेटेरिया मेडिका’ कहते हैं.यह जूनियर ट्रायड या कनिष्ठ त्रय (माधव निदान, सारगंधर संहिता, और भावप्रकाशम्, तीनों पुस्तकें कनिष्ठ त्रय, जबकि चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग हृदयम वरिष्ठ त्रय ग्रंथों में शामिल हैं) की अंतिम पुस्तक है, जो संभवतः सन 1550 में लिखी गई.

भावप्रकाश में फिरंग रोग को आतशक या गरमी का रोग बताते हुए इसके बारे में कहा गया है कि ‘फिरंग (यूरोपीय देश, गोरों का मुल्क, फिरंगिस्तान) नामक देश में यह रोग होता है अथवा बहुत ज़्यादा होता इसलिए, इसका नाम फिरंग रोग होना चाहिए.यह भी साफ़ तौर पर कहा गया है कि फिरंग रोग फिरंग स्त्री (यूरोपीय महिला) के साथ संभोग करने से हो जाता है.’

ज्ञात हो कि क्रूसेड (ईसाइयों और मुसलमानों के बीच मज़हबी जंग) के समय तुर्क ईसाई लड़ाकों के देश यानि, यूरोपीय देशों को फिरंग (फ्रांक का अपभ्रंश) देश कहते थे.कालांतर में यह शब्द अरब, फारस आदि होता हुआ भारत आया.फिर, जब पुर्तगाली यहां आए, तो भारतीय भी उन्हें फिरंग देश के निवासी होने के नाते फ़िरंगी तथा उनके द्वारा यहां लाई और फैलाई गई सिफलिस की बीमारी को फिरंग रोग कहने लगे.

बहरहाल, आचार्य भाव मिश्र ने फिरंग रोग अथवा सिफलिस के तीन प्रकार बताये हैं-

बाह्य फिरंग: बाह्य फिरंग में शरीर के बाहरी हिस्सों में फोड़े या ज़ख्म होते हैं, जो फूटकर निकलते हैं.ये पीड़ारहित होते हैं.

आभ्यंतर फिरंग: इस प्रकार का फिरंग रोग शरीर के अंदरूनी हिस्सों को प्रभावित करता है.इसमें जोड़ों में गठिया रोग की तरह सूजन और दर्द होता है.

बहिरंतर्भव फिरंग: बहिरंतर्भव फिरंग यानि, शरीर के अंदरूनी और बाहरी, दोनों हिस्सों का फिरंग रोग से प्रभावित होना है.इसमें मिश्रित लक्षण दिखाई देते हैं.इसका इलाज बहुत कठिन या इसका लाइलाज होना बताया गया है.

फिरंग रोग की चर्चा आयुर्वेद की कुछ अन्य पुस्तकों में भी मिलती है, जो भावप्रकाश के काफ़ी बाद लिखी गईं.भैषज्य रत्नावली (सन 1877 में कोलकाता से प्रकाशित) के रचयिता गोविन्द दास लिखते हैं-

फिरंग रोग को गंध रोग भी कहते हैं.यह फिरंग पुरुषों के शारीरिक संपर्क तथा तथा फिरंग महिलाओं के साथ मैथुन क्रिया (शारीरिक संबंध) करने से होता है.इस प्रकार, यह आगंतुक रोग है और इसमें लक्षण बाद में प्रकट होते हैं.

आचार्य गोविन्द दास के अनुसार, तीनों प्रकार के फिरंग रोग (बाह्य फिरंग, आभ्यंतर फिरंग और बहिरंतर्भव फिरंग) का समाधान आयुवेद में है.इन्हें यज्ञोपचार-प्रक्रिया अपनाकर नियंत्रित एवं समूल नष्ट किया जा सकता है.

मेडिकल साइंस के नज़रिए से सिफलिस क्या है, जानिए

मेडिकल सांइस या आधुनिक चिकिसा विज्ञान कहता है कि सिफलिस (फिरंग रोग) एक यौन संचारित संक्रमण (एसटीडी) है, जो स्पाइरोकिट नामक बैक्टीरिया या जीवाणु के कारण होता है.इसे ट्रेपोनिमा पैलिडम कहते हैं.

वैज्ञानिकों के अनुसार, सिफलिस का संक्रमण योनि, गुदा या मौखिक संभोग (ओरल सेक्स) के दौरान सीधे संपर्क से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है.

साथ ही, संक्रमित व्यक्ति की कटी-फटी त्वचा, घाव, उसके कपड़े या उसके द्वारा उपयोग की गई कोई वस्तु या सामग्री, शौचालय की सीट, बाथटब, दरवाज़े व खिड़की की कुंडियों के संपर्क में आने से भी यह बीमारी लग जाती है.

यह अजन्मे शिशुओं में संक्रमित माताओं से भी फ़ैल सकता है.

सिफलिस ट्रेपोनेमेटोसिस का गठन करने वाली चार बिमारियों में सबसे घातक है.इसका सही इलाज न किया जाए, तो ह्रदय, मस्तिष्क, आंखों एवं हड्डियों को नुकसान हो सकता है, पूरा लिंग (पुरुषांग) सड़-गलकर गिर सकता है, और बिना लिंग के अंडकोष रह जाते हैं.

सिफलिस चार अलग-अलग चरणों में विकसित होता है.इनमें अलग-अलग संकेत और लक्षण होते हैं.

प्रथम चरण: आमतौर पर लिंग, योनि, गुदा, मलाशय होंठ या मुंह में या उसे आस-पास त्वचा विस्फ़ोट के रूप में सख्त़, गोलाकार और दर्दरहित छाले या घाव हो जाते हैं, जो क़रीब छह सप्ताह तक दिखते हैं और उपचार के बिना ही ठीक हो जाते हैं.

दूसरा चरण: शुरुआती घाव/फोड़े ठीक होने के क़रीब 3 से 6 माह बाद दूसरे या माध्यमिक चरण की शुरुआत होती है, जिसमें हथेलियों और तलवों के अलावा शरीर के अन्य हिस्सों में भी लाल, खुरदरे लाल-भूरे रंग के चकत्ते दिखाई देते हैं.इसमें सूजन, लिम्फ नोड्स, शारीरिक तापमान में वृद्धि, गले में खराश, बाल झड़ने, वज़न घटने, मांसपेशियों में दर्द, सिर दर्द और कमज़ोरी के लक्षण दिखाई पड़ते हैं.

तीसरा चरण: इसे अव्यक्त अवस्था भी कहते हैं.इसमें संक्रमण बाहर से अप्रभावी व पीड़ारहित होता है, जो साल-दो साल तक शरीर के अंदर अपनी जड़ें जमाता व फैलता रहता है.

विशेषज्ञों के अनुसार, द्वितीयक चरण के बाद, एक गुप्त अवधि शुरू होती है जो कि कुछ महीनों से लेकर जीवन भर तक की होती है.इस दौरान सिफलिस का कोई भी बाहरी लक्षण पहचानने योग्य नहीं होता है.

चौथा चरण: यह सिफलिस की तीसरी अवस्था होती है, जो 2 से 30 साल के बाद प्रकट हो सकती है.इसमें दर्दरहित गांठें बन जाती हैं, अंधापन, सुनने की क्षमता में कमी, मानसिक रोग, स्मरण शक्ति का ह्रास, हड्डी और कोमल उत्तकों का नष्ट होना, दिल की बिमारी, मेनिनजाइटिस और न्यूरोसाइफिलिस आदि की समस्याएं ख़तरनाक़ रूप में सामने आती हैं, जिनमें व्यक्ति कोमा की अवस्था में जा सकता है, और उसकी मौत भी हो सकती है.

उपदंश के बारे में आयुर्वेद क्या कहता है, जानिए

आयुर्वेद में उपदंश का कारण चोट, गंदगी तथा व्यभिचारिणी (कुलटा) या प्रदुष्ट योनि वाली स्त्री के साथ संसर्ग बताया गया है.यह लिंगेन्द्रिय पर नाखून या दांत लगने के कारण घाव होने से भी हो जाता है.

सुश्रुत संहिता में उपदंश के पांच प्रकार बताये गए हैं-

वातज उपदंश: वातज उपदंश में घाव में सूई के चुभने या काटने जैसा दर्द होता है.

पैत्तिक (पित्तज) उपदंश: इस प्रकार के उपदंश में संक्रमित स्थान पर गीलापन, जलन और लालिमा की स्थिति होती है तथा मवाद बना रहता है.

कफज उपदंश: इसमें खुजली की समस्या रहती है लेकिन, दर्द नहीं होता है, और मवाद भी नहीं बनता है.घाव से केवल पानी जैसा सफ़ेद पदार्थ निकलता रहता है.

त्रिदोषज उपदंश: त्रिदोषज (तीनों प्रकार के दोषयुक्त) उपदंश अनेक प्रकार की समस्याएं होती हैं, और मिश्रित लक्षण दिखाई देते हैं.

रक्तज उपदंश: इसमें घाव/फोड़े से खून बहुत ज़्यादा रिसता रहता है, जिससे रोगी कमज़ोर हो जाता है.इसमें पैत्तिक लक्षण भी मिलते हैं.

उपदंश का रोग पुराना हो जाने पर शरीर में कालापन-दुबलापन, कमज़ोरी, नासाभंग (नाक का दबना या बैठना), हड्डियों में सूजन और उनमें टेढ़ापन आदि लक्षण साफ़ दिखाई देते हैं.

सिफलिस उपदंश से कैसे भिन्न है, जानिए

सिफलिस या फिरंग रोग पर आचार्य भाव मिश्र द्वारा अपनी पुस्तक भावप्रकाश में रखे गए विचार, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का इस पर नज़रिया, और उपदंश के बारे में सुश्रुत संहिता की राय को देखते हुए यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सिफलिस (फिरंग रोग) और उपदंश, दोनों नाम यौन संचारित रोग अथवा यौन अंगों (जननांगों) से जुड़े रोग को दर्शाते हैं.इनमें कई समानताएं भी हैं.फिर भी, ये दोनों रोग एक दूसरे से भिन्न हैं.

दरअसल, यौन संचारित रोग के रूप में फिरंग रोग और उपदंश के कई लक्षण मिलते-जुलते हैं लेकिन, इन्हें एक ही रोग नहीं कह सकते क्योंकि इनमें कुछ आधारभूत भिन्नताएं हैं.जानकारों के अनुसार, उपदंश एक सामान्य, जबकि फिरंग रोग एक विशेष प्रकार का रोग है.इसका वैज्ञानिक आधार है.

आयुर्वेद में देखें तो उपदंश लिंग (पुरुषांग, शिश्न) के अनेक रोगों का समूह जान पड़ता है, जिसमें सिफलिस, सॉफ्ट चैंकर और लिंग के कैंसर शामिल हैं.दूसरी तरफ़, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों की राय में, लिंग के फोड़े/घाव दो तरह के होते हैं- हार्ड चैंकर (Hard Chanchre) और सॉफ्ट चैंकर (Soft Chanchre).इनमें हार्ड चैंकर ट्रेपोनिमा पैलिडम (Treponema Pallidum) जीवाणु से, जबकि सॉफ्ट चैंकर हेमोफिलस डुक्रेयी (Haemophilus Ducreyi) की वज़ह से होता है.

इनके अनुसार, हार्ड चैंकर को सिफलिस (फिरंग रोग) और सॉफ्ट चैंकर को उपदंश कह सकते हैं.

ज्ञात हो कि ट्रेपोनिमा पैलिडम विभिन्न उप-प्रजातियों वाला एक स्पाइरोकिट नामक बैक्टीरिया है, जो सिफलिस, बेजेल और यॉज़ रोगों को पैदा करता है, जबकि हेमोफिलस डुक्रेयी एक यौन संचारित संक्रमण का प्रेरक एजेंट है, जिसे चेंक्रोइड कहा जाता है.चेंक्रोइड (Chancroid) को जननांग अल्सर रोग (जीयूडी- जेनिटल अल्सर डिजीज) का कारक माना जाता है.

सिफलिस के इतिहास पर बहस आज भी जारी है

सिफलिस की उत्पत्ति के वास्तविक स्थान का कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है.लेकिन, पैलियोपैथोलोजी (हड्डियों, ममियों और पुरातत्व संबंधी कलाकृतियों के ज़रिए प्रागैतिहासिक काल के रोग का अध्ययन), डीएनए अध्ययन व साहित्यकारों, कलाकारों आदि की कृतियों के अध्ययन से पता चलता है कि वेनेरियल और नॉनवेनेरियल सिफलिस की मौजूदगी अमरीका और यूरोप के विभिन्न हिस्सों में बहुत पुरानी है.

युकाटन प्रायद्वीप (दक्षिण-पूर्वी मैक्सिको का एक प्रायद्वीप) में मिले 9,900 साल पुराने एक 30 वर्षीय महिला के कंकाल से यह पता चलता है कि वह सिफलिस से संबंधित बीमारी ट्रेपोनिमा पेरिटोनिटिस से पीड़ित रही थी.

इस प्रकार, हड्डियों और दांतों से मिले साक्ष्य के आधार पर कई विद्वान इस विचार से सहमत नज़र आते हैं कि ट्रेपोनेमेटोसिस यूरोप और एफ्रो-यूरेशिया के संपर्क के बहुत पहले से ही अमरीका में मौजूद था.

मगर, बहस आज भी जारी है.एक पक्ष कहता है कि जेनोआ गणराज्य के इतालवी खोजकर्ता और नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस के जहाजी साथी (चालक दल) अमरीकी महिलाओं से संबंध बनाने के कारण सिफलिस से संक्रमित हुए, और वापस लौटकर यूरोप में फैलाया.

दूसरे पक्ष के मुताबिक़, सिफलिस यूरोप में पहले से था.अज्ञात था.लिहाजा जानकारी के अभाव में पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के दौर में यह दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी फैल गया.

इसी बहस और एक दूसरे के ऊपर थोपने की मनोवृत्ति के कारण ही सिफलिस समय-समय पर पोलिश बीमारी, फ़्रांसिसी बीमारी, ईसाई बीमारी और ब्रिटिश रोग के नाम से जाना जाता रहा.

खोज का विषय यह भी है कि सिफलिस को यूनानी में जुन्नाद क्यों कहा गया.

जहां तक फिरंग रोग की बात है तो भावप्रकाश ग्रंथ की रचना 16 वीं सदी के मध्य में यानि, सन 1550 के आसपास हुई थी और तब पुर्तगाली भारत आ चुके थे.इसलिए, इसमें संदेह नहीं रह जाता है कि उनके साथ ही फिरंग रोग (सिफलिस) भारत आया.

ज्ञात हो कि भावप्रकाश से पहले किसी प्राचीन वैद्यक ग्रंथ फिरंग रोग की चर्चा नहीं मिलती है.

फिर भी, अंग्रेजी शासन काल में यौन संबंधी रोग होने के कारण उपदंश को सिफलिस बताया जाने लगा और भारतीय भी ऐसा ही समझने लगे.इस पर न कोई तार्किक बहस हुई और न प्रमाण सामने रखे गए.

लेकिन, आज साहित्यिक तर्क के साथ प्राचीन (आयुर्वेद का ज्ञान-विज्ञान) और आधुनिक, दोनों विज्ञान के तर्क और प्रमाण उपलब्ध हैं.

वैसे भी यह निर्विवाद सत्य है कि शुचिता और पवित्रता भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है, जबकि यूरोपीय या पश्चिमी लोग जहां कहीं भी गए, उन्होंने अश्लीलता और व्यभिचार ही फैलाये.सिफलिस या फिरंग रोग इन्हीं कारणों से फैलता है.

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