मोदिनीत भाजपा यह भूल गई थी कि मुसलमानों की नज़र में वह खुला क़ाफ़िर है, और उसको वोट देना हराम है.इसके लिए किसी मुद्दे की ज़रूरत नहीं है.हालांकि, इस बार अफवाहों की चादर में लिपटे दो मुद्दे या बहाने थे- सीएए और कॉमन सिविल कोड.इसीलिए वोट जिहाद भी हुआ.दूसरी तरफ़, हिन्दुओं के वोट में बिखराव ने भी मोदी-भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया.
ज्ञात हो कि भारत का मुस्लिम मतदाता भाजपा को अपना जाति दुश्मन मानता व उससे नफ़रत करता है.इसी के चलते विपक्षी दल भी उसे मुस्लिम विरोधी साबित करने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूंढते रहते हैं, और अफ़वाहें फैलाते हैं.मोदी इसको बदलना चाहते थे.इसी के मद्देनज़र उन्होंने अपना चेहरा भगवा से सेक्यूलर बनाने का फ़ैसला किया, और ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे में ‘सबका विश्वास’ वाला जुमला जोड़कर मुस्लिम तुष्टिकरण वाली नेहरू की राह पकड़ ली.मगर दांव उल्टा पड़ गया.
दरअसल, मुसलमानों ने जहां मोदी सरकार पर भरोसा नहीं किया वहीं, भाजपा के कोर हिन्दू वोटर को मोदी का सेक्यूलर व गंगा-जमुनी तहज़ीब वाला चेहरा रास नहीं आया, और रोष में उसने ख़ुद को अलग-थलग कर चुप्पी साध ली.इससे विपक्ष को बाक़ी हिन्दू मतों को बांटने का अवसर मिल गया.
हिन्दुओं में नाराज़गी के चलते ही कई जगहों पर कम मतदान देखने को मिले.
चुनावी पंडितों के अनुसार 2024 के लोकसभा चुनाव में देश की मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा को जो शिक़स्त मिली है, उसका मुख्य कारण हिन्दू और भाजपा का विरोध है.मुसलमानों ने इस चुनाव में आंखें मूंदकर विपक्ष की झोली में एकमुश्त वोट डाल दिया है.
इसके विपरीत, इस बार हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया, और यह जातियों में बंटकर बिखर गया.
नतीज़े बताते हैं कि विजयी भाजपा उम्मीदवारों की क्षेत्र में अपनी पकड़ ज़्यादा काम आई.कई जगहों पर भाजपाई मोदी विरोध के चलते हारे.
इसका बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी छवि है, जो ‘हिन्दू ह्रदय सम्राट’ से हटकर एक ‘सेक्यूलर नेता’, या यूं कहिये कि मुस्लिमपरस्त और एक ‘दगाबाज़ हिन्दू नेता’ की बन चुकी है.
यानि, विरोध दोनों ही तरफ़ से था- मुसलमानों की ओर से भी, और हिन्दुओं की तरफ़ से भी.मगर कारण अलग-अलग थे, जिन्हें समझना आवश्यक है.
मुसलमानों ने क्यों विपक्ष को एकतरफ़ा वोट दिया, जानिए
मुसलमानों की नज़र में बीजेपी काफ़िरों की पार्टी है.ऊपर से वह शरीयत के बजाय संविधान के कानून की बात करती है.ऐसे में, इसका विरोध एक मुसलमान का स्वाभाविक कर्तव्य बन जाता है.
सीएए और कॉमन सिविल कोड के मुद्दों ने तो जैसे आग में घी का काम किया.इनसे कट्टरपंथियों को आम मुसलमानों के दिलों में नफ़रत भरने और हवा देने का मौक़ा मिल गया.वोट जिहाद के ऐलान से मुसलमानों के एकमुश्त वोट विपक्ष की झोली में चले गए.
सीएए: सीएए (Citizenship Amendment Act) या नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 एक ऐसा कानून है, जिसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में प्रताड़ना से तंग आकार भारत में शरण लेने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों, हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को को नागरिकता देने का प्रावधान है.लेकिन, मुसलमान इसका विरोध करते हैं.उनकी मांग है कि इनमें मुस्लिम घुसपैठियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.
विपक्षी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, टीएमसी, आदि दल चूंकि इस मांग का समर्थन करते हैं इसलिए, मुसलमानों का वोट उन्हें मिला.
कॉमन सिविल कोड: कॉमन सिविल कोड या समान नागरिक संहिता फ़िलहाल एक प्रस्ताव है, जिसमें भारत के सभी पंथ के लोगों के लिए विवाह, तलाक़, भरण-पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने आदि में समान रूप से लागू होना है.इसका किसी की पूजा-पद्धति या धार्मिक विश्वास से कोई लेना-देना नहीं है.
बावजूद इसके, मुसलमान इस कानून का विरोध कर रहा है.इसके पीछे इसकी अज्ञानता और कट्टरपंथी सोच के साथ विपक्ष द्वारा फैलाया जाने वाला भ्रम भी बड़ा कारण है.
दरअसल, मुस्लिम कौम दुनिया की वह इकलौती कौम है, जिसमें बदलाव या सुधार की गुंजाइश बहुत ही कम है.ख़ासतौर से, मोदिनीत भाजपा की कथित हिंदूवादी सरकार द्वारा तो यह कतई स्वीकार नहीं है.इसके विपरीत, हिन्दू धर्म व हिन्दुओं के ख़िलाफ़ बोलने वाले विपक्ष दल उसे अच्छे लगते हैं.इसलिए चुनाव में मुसलमानों ने इनके पक्ष में एकतरफ़ा वोट दिया.
हिन्दू वोट क्यों बंटे, जानिए
2019 के चुनाव में नारा था- ‘सबका साथ सबका विकास’ का.इसी के साथ भाजपा की मोदी-शाह की जोड़ी ने कमाल कर दिखाया था, भाजपा 2014 का भी रिकॉर्ड तोड़ती हुई 303 सीटों तक पहुंच गई थी.इसने सब कुछ बदल दिया.भाजपा, और स्वयं मोदी भी नए अवतार में नज़र आने लगे.
दरअसल, मोदी को लगा कि हिन्दू साध लिए गए हैं, अब मुसलमानों को साधना है.इसलिए ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे में ‘सबका विश्वास’ (मुसलमानों का विश्वास) भी जोड़कर तुष्टिकरण की एक नई इबारत लिखी जाने लगी.स्वयंसेवक मोदी ने गांधीमय होकर नेहरू की राह पकड़ ली, और वही सब कुछ करने लगे, जो कांग्रेस करती आई है.
केंद्र की राष्ट्रविरोधी नीति को यथावत रखना: राष्ट्रवादी कहलाने वाली मोदी सरकार ने केंद्रीय स्तर पर राष्ट्र की छवि सेक्यूलर दिखाने के लिए मुस्लिमपरस्ती का खेल जारी रखा.इसमें आक्रांताओं-आतताइयों के पोषण से लेकर अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा और बहुसंख्यकों का दोहन शामिल है.
धारा 370 व 35 ए का खेला: मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 व 35 ए को ख़त्म तो किया, मगर डोमिसाइल कानून की दीवार खड़ी कर दी.इससे कश्मीर की डेमोग्राफी या जनसांख्यिकी की समस्या यानि, कश्मीर की मूल समस्या जस की तस रह गई.केवल कागजों में बदलाव हुआ है.
कश्मीर को सत्ता का केंद्र और जम्मू को उसका उपनिवेश बनाये रखना: नेहरू की नीति के मुताबिक़ कश्मीर मुस्लिम बहुल है इसलिए, उसे सत्ता का केंद्र बनाये रखना है, जबकि हिन्दू बहुल जम्मू (जो कि वास्तव में कश्मीर से अधिक आबादी वाला हिस्सा है) को उसके उपनिवेश (कॉलोनी) के रूप में ही रखना है.इससे कश्मीरी मुसलमान तो ख़ुश होंगें ही, देश के बाक़ी मुसलमानों के दिमाग़ में भारत में इस्लामी शासन की छवि भी बनी रहेगी.नरेंद्र मोदी ने इसी को आगे बढ़ाते हुए 2011 की फ़र्ज़ी जनगणना (जिसे जनसंख्या घोटाला भी कहा जाता है) के आधार पर परिसीमन कराकर कश्मीर की स्थिति को यथावत रखने का काम किया.
वक्फ़ बोर्ड के अतिक्रमण को बढ़ावा, सरकारी धन का दुरूपयोग: रेलवे और रक्षा विभाग के बाद वक्फ़ बोर्ड तीसरी वह संस्था है, जिसके पास देश में सबसे ज़्यादा ज़मीनें हैं.वक्फ़ मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ़ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार जुलाई 2020 तक क़रीब 8 लाख एकड़ ज़मीनों पर 6 लाख, 59 हज़ार, 877 संपत्तियां वक्फ़ बोर्ड के नाम पर दर्ज हैं.इन्हें मोदी सरकार सजा-संवार रही है.उन पर ब्याज-मुक्त लोन दिए जा रहे हैं.
वक्फ़ बोर्ड के अधिकारियों-कर्मचारियों को तनख्वाह भी सरकार देती है.
अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमानों को मुसलमानों के लिए योजनायें, ख़र्च: मोदी की मुस्लिम नीति को अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय का बजट बेहतर बयान करता है.इसमें पहले ही कार्यकाल में उन्होंने 700 करोड़ से ज़्यादा (291 के आंकड़ों के अनुसार) का इज़ाफा किया.
दूसरे कार्यकाल (2019-2024) में कोरोना के प्रभाव के कारण कुछ कमी ज़रूर हुई, लेकिन औरों के मुक़ाबले इस मंत्रालय को अच्छे खासे फंड मिलते रहे हैं.इसी का परिणाम है कि मुस्लिम समाज में तेजी से प्रगति दर्ज की गई है.बताया जाता है कि 2014 तक सिर्फ 4.5 फ़ीसदी मुसलमान सरकारी कर्मचारी थे, मोदी सरकार के 9 वर्षों के कार्यकाल में यह आंकड़ा बढ़कर 10.5 फ़ीसदी हो गया.
अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के बजट के तहत देशभर में करोड़ों रुपये बतौर छात्रवृत्ति बांटे जा रहे हैं, जिनमें जम्मू-कश्मीर के छात्र भी हैं.यहां तो वास्तविक अल्पसंख्यक ग़ैर-मुसलमानों, जैसे जैन, सिख, बौद्ध, पारसी, ईसाई, के हक़ का पैसा भी मुसलमानों में बांटा जा रहा है.इसको लेकर सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) पर 15-सूत्रीय कार्यक्रम के कार्यान्यवन व दिशानिर्देशों की अवहेलना कर सरकारी खज़ाने का दुरूपयोग करने का आरोप लगा है.
अल्पसंख्यकों के कल्याण के नाम पर मोदी सरकार 36 पुरानी व नई योजनायें चला रही है, जो ख़ासतौर से मुसलमानों के लिए हैं.इनमें प्री-मैट्रिक, पोस्ट-मैट्रिक आधारित छात्रवृत्ति योजनायें, मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय फ़ेलोशिप अल्पसंख्यक छात्र योजना, पढ़ो परदेश योजना, नया सवेरा योजना, नई उड़ान योजना, नई रौशनी योजना, नई मंजिल योजना, सीखो और कमाओ योजना, उस्ताद योजना, ग़रीब नवाज़ कौशल विकास प्रशिक्षण, प्रधानमंत्री शादी शगुन योजना (PMSSY), हमारी धरोहर योजना, कौमी वक्फ़ बोर्ड तरक्कीयाती योजना, शहरी वक्फ़ संपत्ति विकास योजना, मदरसा शिक्षा योजना, आदि शामिल हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने 5 साल में 5 करोड़ छात्रों को स्कॉलरशिप देने की घोषणा की थी.वे मुसलमानों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर देखने की चाहत रखते हैं.
हिन्दू विरोधी कानून ख़त्म करने के मामलों पर चुप्पी: विपक्ष में रहते भाजपा वक्फ़ एक्ट, पूजास्थल अधिनियम, 1991, आदि कानूनों को हिन्दू विरोधी बताती व उन्हें ख़त्म करने की बात कहती थी.इसलिए, लोगों को यह भरोसा हो गया था कि मोदी के नेतृत्व वाली कथित भगवा सरकार अपने वादे पूरे करेगी.मगर ऐसा हुआ नहीं.सरकार बनने पर भाजपा ने इस पर चुप्पी साध ली.यहां तक कि इन कानूनों के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिकाओं पर ज़वाब दाख़िल करने में भी मोदी सरकार का रवैया टालमटोल वाला रहा है.