भारत के आदिवासियों को सनातन हिन्दू धर्म से काटने का कुचक्र
कोरोना के वक़्त जहां उत्तरप्रदेश में राशन और दूसरी घरेलू चीज़ों के बदले सैकड़ों लोगों का धर्म बदल दिया गया वहीं, पंजाब आदि राज्यों में ईसाइयत अपनाने के लिए पैसा और रहने के लिए फ़्लैट तक ऑफर किए जा रहे हैं.
ऑस्ट्रेलिया, अमरीका और अफ़्रीकी देशों के आदिवासियों की चर्चा में एक अजीब सी ख़ामोशी और सहमति दिखाई देती है पर, जैसे ही भारत के आदिवासियों की बात आती है किन्तु-परंतु शुरू हो जाता है.यहां तक कि उनके धर्म पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है.ऐसे क्यों होता है यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं, बल्कि सामान्य-ज्ञान की बात है.इसे कोई भी समझ सकता है.
आदिवासी कहीं के भी हों, वे जंगलों, पहाड़ों-गुफाओं के वासी यानि, वनवासी हैं जिनके जीवन में आज भी ज़्यादा या कम प्राचीनता की झलक मौजूद है.कुछ लोग इन्हें सभ्यता के मूल निवासी बताते हैं पर, पहले सभी वनों में ही रहा करते थे, पशुओं जैसा जीवन जीते थे.सैकड़ों पीढ़ियों के बाद जब मानव ने विकास किया, तो गांव बने, फिर कस्बे और फिर शहर.
यानी, जिन्होंने परिवर्तन किया और युक्ति लगाई वे नागरी या शहरी हो गए, जबकि प्रकृति प्रेम को ज़्यादा अहम मानते हुए जो वनों में और उसके आसपास ही सीमित रह गए, उन्हें वनवासी कहेंगें.
मगर, भारत के आदिवासी बाक़ी दुनिया के आदिवासियों से काफ़ी अलग हैं.
मूल सनातनी हिन्दू हैं भारत के आदिवासी
आदिवासी शिव और भैरव के साथ प्रकृति यानि, जंगल, पहाड़, नदियों एवं सूर्य के आराधक-पूजक हैं.इनका मूल धर्म शैव है.ये शिव की मूर्ति की पूजा नहीं करते और न ही मंदिरों में जाते हैं मगर, ये पेड़ों के नीचे शिवलिंग रखकर उसकी पूजा करते हैं.
शिव और भैरव इनके इष्ट हैं तो कुलदेवी-कुलदेवता की भी इनके यहां मान्यता है.
मगर, भगवान राम और हनुमान भी इनके पूजनीय हैं.श्रीराम स्वयं भी 10 सालों तक दंडकारण्य वन में इनके साथ रहे थे, और इसी कारण कई स्थानों पर उन्हें वनवासी बताया गया है.रावण व्यंग्य करते हुए उन्हें वनवासी ही कहता था.
श्रीराम की आदिवासियों पर अमिट छाप है.उन्होंने आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त ही नहीं कराया, बल्कि संगठित कर शस्त्रास्त्रों जैसे धनुष-बाण आदि से लैस करने के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, सामाजिक रीति-रिवाज से जोड़कर एक अच्छे समुदाय के रूप में सभ्य होने और एक दूसरे के प्रति आदर रखने की भावना भी विकसित की थी.
इसी का प्रतिफल है कि कालांतर में निषाद, वानर, मतंग, किरात, रीछ समाज आदि अस्तित्व में आए.
कभी द्रविड़ समूह का हिस्सा रही गौरवशाली गोंड जाति (समुदाय) आर्य धर्म की सबसे प्राचीन जातियों में से एक है.
इतिहासकारों के मुताबिक़, खुदाई में मिली प्राचीन मूर्तियां यह सिद्ध करती हैं कि आदिवासियों का संबंध सिन्धु घाटी सभ्यता से भी था.
दरअसल, आदिवासियों के रीतिरिवाज ही इनके प्रमुख धर्मशास्त्र हैं.आर्य परंपरा का पालन करते हुए आज भी ये एक गोत्र में विवाह नहीं करते, और जो करता है, उसे समाज से निकाल दिया जाता है.
मगर भारत में, आदिवासियों का धर्म क्या है, इसको लेकर झूठ फैलाये जाते हैं, और उनमें वहम पैदा की जाती है.यही कारण है कि भारत की क़रीब 461 जनजातियों की आबादी में, जिनका मूल धर्म शैव, भैरव, शाक्त और सौर या सरना (जो सनातन के ही रूप हैं) है, बहुत सारे लोग धर्मान्तरण के चलते ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध भी हो चुके हैं.
ज्ञात हो कि सैकड़ों सालों पहले अंग्रेजों के ज़माने में शुरू हुआ झूठ-फ़रेब का खेल आज भी बदस्तूर जारी है.बड़े संगठित और सुनियोजित ढंग से.कई रूप में और विभिन्न स्तरों पर.
राजनीतिक षड्यंत्र
वनवासी पहले वनवासी ही थे, आदिवासी नहीं.हिन्दू धर्मग्रंथों में भी वनवासी शब्द का ही ज़िक्र मिलता है.आचार्य विनोबा भावे ऋग्वेद को वनवासियों का ग्रंथ मानते थे.
बाबा साहेब अम्बेडकर के मुताबिक़, ‘आदिवासी शब्द का कोई अर्थ नहीं.वनों में रहने वाले वनवासी होते हैं, आदिवासी नहीं.’
मगर, ग़ुलामी के दिनों में अंग्रेज वनवासियों को अबोरिजनल, एबोर्जाइन या ट्राइबल लिखते थे.और आज़ादी के बाद, ईसाई लॉबी और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने आदिवासी और जनजाति जैसे शब्द गढ़े और फिर कांग्रेस की हिन्दू विरोधी सरकार ने वनवासियों के साथ यही शब्द चस्पां कर दिए.ऐसे में, ये विरोधाभाषी और अलगाववादी शब्द समाज में फूट डालने और वैमनस्व बढ़ाने वाले ही नहीं निकले, बल्कि राजनीतिक दलों के वोटबैंक के हथियार और दुकानदारी के सामान बन गए.
देखें तो भारतीय समाज में आदिवासी भी आज तीन रूपों में दिखाई देते हैं- ठेठ आदिवासी, ग्रामीण आदिवासी और नगरीय आदिवासी.इनमें नगरीय या शहरी आदिवासी तो कमोबेश बाक़ियों की तरह ही नज़र आते हैं लेकिन, ठेठ, निरा या निपट (जंगल में या उसके आसपास रहने वाले, जिनपर बाहरी प्रभाव लगभग नहीं के बराबर है) और ग्रामीण परिवेश के आदिवासियों की स्थिति ठीक नहीं है.
दरअसल, इनकी जड़ पर ही प्रहार हुआ है.यानि, व्यावसायिक कार्यों के लिए दोहन और गहन कृषि उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं, जो सदियों से इनके गुज़र-बसर का ज़रिया रहे हैं.मगर, सरकारों ने इस पर गंभीरता से सोचने के बजाय आरक्षण देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली और इनके उत्थान और समग्र विकास के लिए न तो कोई अच्छी नीति बनाई और न ही कोई ठोस क़दम उठाए.
ऐसे में, बहुत से छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के कारण जहां सवेदनशील हैं वहीं, राजनेता इनकी भावनाओं को वोटबैंक का ज़रिया बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
सरकारें टिकी रहने के लिए सब्ज़बाग दिखाती हैं तो विपक्ष सत्ता पाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता है.
ग़ौरतलब है कि व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए इन्हें प्रेरित ही नहीं किया जाता है, बल्कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के विरुद्ध ज़हर भी घोला जाता है.यह बताया-समझाया जाता है कि सहिष्णु समाज ही इनकी समस्याओं का कारण है, और यहां ये अक्षम व कमज़ोर हैं, जबकि दूसरे जागरूक व संगठित समाज के लोग हर उचित-अनुचित कार्य में इनके साथ खड़े हैं.और धर्मान्तरण ही एकमात्र समाधान है क्योंकि इसके सामाजिक सहयोग के साथ-साथ आर्थिक पहलू भी हैं.
ईसाई मिशनरियां और वक्फ़ बोर्ड
भारत में ईसाई मिशनरियां अकेली या अपने स्तर पर ही धर्मप्रचार के बहाने धर्मपरिवर्तन का कार्यक्रम नहीं चलती हैं, बल्कि इनके साथ कन्वर्जन के व्यवसाय में सक्रिय कई अन्य संस्थाएं भी हैं, जो पूरी ताक़त से झांसा और लोभ दिखाकर जनजातियों और दलितों को उनके मूल सनातन धर्म से काटने की क़वायद में लगी हैं.साथ ही, इस्लामिक ताक़तों के हाथों में वक्फ़ बोर्ड ऐसा मज़बूत हथियार है, जो बड़ी आसानी से ग़रीब और भोले-भाले आदिवासियों को गंगाजल और तुलसी छोड़ क़लमा पढ़ने पर मज़बूर कर देता है.
ज्ञात हो कि ब्रिटेन, अमरीका और यूरोप में जहां शिक्षा, रोज़गार और खुशहाली है वहां लोगों का ईसाइयत से मोहभंग हुआ है.आंकड़े बताते हैं कि यहां ईसाईयों का ग्राफ लगातार नीचे गिरता जा रहा है.ऐसे में, वे देश और उनके वे इलाक़े टारगेट में हैं जहां अशिक्षा, बेरोज़गारी और कंगाली है.
धंधे का उसूल भी यही है कि मंदी के वक़्त वैकल्पिक स्थान तलाशे जाएं जहां अपने प्रोडक्ट और ब्रांड के लिए नए ग्राहक मिल सकें.
ऐसे में, धर्मान्तरण के व्यवसाय में लगी मिशनरियां और उनके सहयोगी संगठन भोले-भाले दलितों और आदिवासियों को कहीं पैसे और नौकरी का लालच देकर तो कहीं ना ठीक होने वाली बीमारी की चगाई का झूठा क़िस्सा गढ़कर ईसाई बना देते हैं.
देश के अलग-अलग हिस्सों से आनेवाली ख़बरें कई बार हैरान कर देती हैं.मसलन कोरोना के वक़्त जहां उत्तरप्रदेश में राशन और दूसरी घरेलू चीज़ों के बदले सैकड़ों लोगों का धर्म बदल दिया गया वहीं, पंजाब आदि राज्यों में ईसाइयत अपनाने के लिए पैसा और रहने के लिए फ़्लैट तक ऑफर किए जा रहे हैं.
इस्लामी संगठनों का तरीक़ा ज़रा हटके है.ये वक्फ़ बोर्ड के ज़रिए लोगों को कानूनी मसलों में फंसाकर धर्मांतरण का एजेंडा चलाते हैं.वक्फ़ एक्ट एक कारगर हथियार है, जिसके अशिक्षित और ग़रीब दलित तथा आदिवासी बड़ी आसानी से शिकार बन जाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि वक्फ़ बोर्ड अपने कानूनी अधिकारों का ग़लत इस्तेमाल कर ग़रीब और असहायों का धर्मान्तरण भी करवाता है.ख़ासतौर से, आदिवासी इलाक़ों में यह ज़मीनों पर नोटिस भेज देता है.जब घबराये लोग इसके पास आते हैं, तो मसले से निजात दिलाने के नाम पर उन पर इस्लाम क़ुबूल करने का दबाव बनाता है.
समाज के ठेकेदार और दलाल
धर्म के दलालों के लिए तो समाज ख़रीद-फ़रोख्त की जगह या बाज़ार है ही मगर, समाज के उन ठेकेदारों या तथाकथित दलित और आदिवासी नेताओं को क्या कहें जो दलितों-आदिवासियों के सगे नहीं हैं, और वे भी वही कर रहे हैं जो समाज को तोड़ने और ख़त्म करने के लिए बाहरी ताक़तें प्रयासरत हैं.दरअसल, इनका आपस में गठजोड़ है, जो चंद पैसों के लिए अपनों से दग़ा और भीतरघात के लिए बना है.
दरअसल, ये ऐसे लोग हैं, जो या तो ख़ुद धर्मांतरित (ईसाइयत अपना चुके) हैं या बिके हुए हैं.इनका एक ही काम है-सीधे-सादे लोगों को गुमराह कर मज़हब की दुकान पर पहुंचाना और बदले में पैसे प्राप्त कर लेना.
कुछ वे बौद्धजन भी विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं, यूट्यूब चैनलों और अन्य सोशल मीडिया पर दिन-रात सनातन हिन्दू धर्म और मूर्तिपूजा का मज़ाक़ उड़ाते नज़र आते हैं, जो स्वयं गौतम बुद्ध की प्रतिमा का पूजन करते हैं.
ज्ञात हो कि ग़रीब ब्राह्मण भी वैसे ही शोषित और वंचित है जैसे शूद्र और अन्य पिछड़ा कहे जाने वाले लोग हैं.ग़रीब-कमज़ोर हर जगह ग़रीब और कमज़ोर ही है.
दलितों-आदिवासियों को यह याद रखना होगा कि धर्मांतरण समस्या का समाधान नहीं है.धर्मान्तरण करने से परिस्थितियां बदलतीं, तो ईसाई और मुसलमान बने दलितों-आदिवासियों को आज आरक्षण के लिए विभिन्न मंचों पर और अदालत में संघर्ष नहीं करना पड़ता.
ज्ञात हो कि धर्मान्तरण कर ईसाई और मुस्लिम बन चुके बहुत सारे लोग मिल रहे लाभ से वंचित होने के डर से ख़ुद को हिन्दू या दलित-आदिवासी ही बताते हैं.
मगर, जहां जानकारी का अभाव है वहीं, भ्रमित और पथभ्रष्ट करने वाले बहुत हैं.गिद्ध जैसी दृष्टि गड़ाये वामपंथी-माओवादी, ईसाई मिशनरियों, जिहादियों और उनके दलालों के चंगुल में लोग फंस ही जाते हैं.
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