सभ्यता एवं संस्कृति
सिनौली का सच क्या कांग्रेस सरकार दफ़न कर देना चाहती थी?
कांग्रेस पार्टी अक्सर विवादों में घिरी रहती है.इसे मुस्लिम-ईसाई परस्त पार्टी कहा जाता है.इस पर हिन्दू विरोधी व देश विरोधी होने के आरोप भी लगते रहते हैं.ऐसे में.कई बार वह सामने आकर ज़वाब भी देती है,मगर,ऐसे मौक़े भी आए हैं जब वह चुप्पी साध गई और आरोप सही साबित भी हुए.
इस श्रृंखला में विरोधियों के हाथ फ़िर एक नया अवसर लग गया है उसे कठघरे में खड़ा करने का,हिन्दू विरोधी/राष्ट्रविरोधी साबित करने का.वे उस पर सिनौली के सच को दबाने का आरोप लगा रहे हैं.
क्या सचमुच कांग्रेस सरकार सिनौली का सच दफ़न कर देना चाहती थी?
इन आरोपों की बाबत कुछ मुख्य बिन्दुओं पर चर्चा करनी आवश्यक है.
सच को रहस्य बनाए रखा गया
यह घटना 2004-05 की है.उत्तर प्रदेश के बागपत जिले की बड़ौत तहसील का एक गांव है सिनौली.इसमें किसानों को खेती करते समय प्राचीन काल के बने मिट्टी के बर्तन व कुछ आभूषण मिले.
इस बाबत ख़बर मीडिया तक पहुंची और फ़िर देशभर में इसकी चर्चा होने लगी.मगर तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने इस पर क़दम उठाना तो दूर इसे अनसुना कर दिया.
ऐसे में,शाहज़ाद राय शोध संस्थान के निदेशक अमित राय जैन ने तत्कालीन उप जिलाधिकारी बड़ौत के माध्यम से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को एक चिट्ठी लिखी,जिसमें उन्होंने उम्मीद जताई थी कि यदि बागपत में खुदाई हो तो वहां से प्राचीन काल का इतिहास उजागर हो सकता है.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसे गंभीरता से लेते हुए सिनौली गाँव में डा. धर्मवीर शर्मा के निर्देशन में खुदाई का कार्य शुरू करवाया.यह पहले चरण की खुदाई थी.
इसमें 117 नर कंकाल के साथ कई बहुमूल्य चीज़ें भी मिली थीं जिन्हें महत्त्व नहीं दिया गया/गोपनीय रखा गया और इस स्थल को क़ब्रिस्तान व बेक़ार बताकर खुदाई बंद कर दी गई.
क़ब्रिस्तानों में मिले अवशेष क्या ऐतिहासिक नहीं होते?
तक़रीबन डेढ़ दशक तक यह रहस्य बना रहा.
दुबारा खुदाई नहीं हुई
ये सच है कि खुदाई-खोज़ में संसाधनों और एक बजट की ज़रूरत होती है.मगर क्या कांग्रेस के 10 सालों के शासन काल में इतनी भी व्यस्था नहीं हो पाई कि रूकी हुई एक अति महत्वपूर्ण खोज के काम को आगे बढ़ाया जा सके?
उल्लेखनीय है कि ऐसे उत्खनन कम से कम चार-पांच सालों तक तो चलते ही हैं.लेकिन,दो साल बाद ही इसे रहस्यमय ढंग से अधूरा छोड़ बीच में ही बंद कर दिया गया और दुबारा इस ओर कोई क़दम नहीं उठाया गया.
एएसआई की भूमिका
सरकार ही नहीं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की भूमिका भी सकारात्मक नहीं रही.उसने भी सिनौली के उत्खनन में आगे रूची नहीं दिखाई तथा रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध ली.
इतना ही नहीं,जो प्राचीन अवशेष मिले उस पर एएसआई के पुरातत्वविदों ने वामपंथी विचारधारा का होने के कारण अपनी रिपोर्ट में वैदिक सभ्यता का उल्लेख भी नहीं किया.
कंकालों की कार्बन डेटिंग और उनकी डीएनए जांच नहीं हुई.
खुदाई में यहां उस समय 117 नर कंकाल के साथ तांबे के दो एंटीना लगी तलवारें,दो ढ़ाल,आग जलाने की भट्टी,सोने के चार कंगन,गले का हार और सैकड़ों की तादाद में बेशक़ीमती मनके भी मिले थे.
मगर इनका भी कोई परीक्षण नहीं हुआ.इन्हें तुच्छ वस्तु की भांति रख दिया गया.
इतिहासकारों ने खुदाई की समग्र रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की लेकिन एएसआई में बैठे वामपंथी पुरातत्वविदों के कानों पर जूं नहीं रेंगा.कांग्रेस सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने भी चुप्पी साध ली.
इस तरह ये कहना ग़लत नहीं होगा कि सिनौली के सच को रहस्य बनाए रखा गया और उसे दफ़न करने की कोशिशें हुईं.चूंकि यह निंदनीय कार्य कांग्रेस के शासन काल में हुआ इसलिए ये दाग़ उस पर लगने तय हैं.
दूसरी ओर 2018 में सिनौली में उपरोक्त घटना की पुरावृत्ति हुई.वहां फ़िर किसानों/ग्रामीणों को प्राचीन वस्तुएं खेतों में मिलीं तो एक बार फ़िर यह ख़बर मीडिया की सुर्खियां बन गई.
यह देखते ही मोदी सरकार ने न सिर्फ़ वहां दुबारा खुदाई शुरू करवा दी बल्कि खुदाई स्थल को राष्ट्रीय महत्त्व का पुरातात्विक स्थल घोषित कर उसे 267 वां संरक्षित स्मारक बनाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी.
क्या है सिनौली का सच?
यहां खुदाई में अब तक (तीन चरणों में) क़ब्रों से 125 नर कंकाल व हथियार मिल चुके हैं.
क़ब्रों में कुछ शाही क़ब्रगाह भी हैं जिनमें ताबूत में शव दफ़नाए गए थे.
पुरुष योद्धाओं के अलावा महिला योद्धाओं के भी अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उस काल में पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएं भी युद्ध लड़ा करती थीं.
उल्लेखनीय है कि इस उत्खनन में दो चीज़ें ऐसी मिली हैं जो पहले किसी उत्खनन में भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं मिली थीं.इनमें पहला,घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले तीन रथ जो लकड़ी के हैं,उनके उपर तांबे और कांसे की क़ारीगरी हुई है.दूसरा,लकड़ी की टांगों वाले चारपाईनुमा तीन ताबूत हैं जिनमें से दो ताबूतों के ऊपर तांबे के पीपल के पत्ते के आकार की सजावट है.इससे पता चलता है कि उस समय कारीगरी और चित्रकला उन्नत अवस्था में थी.
रथ और ताबूत के साथ दफ़न योद्धाओं की तलवारें,ढ़ाल,मुकुट,सोने और बहुमूल्य पत्थरों के मनके,कवच आदि मिले हैं.वहां विभिन्न प्रकार के बर्तनों में अनाज दाल,चावल और उड़द के दाने मिले हैं.
शवों के पास चूड़ियां,कंघा,दर्पण कटोरे आदि रोज़मर्रा की चीज़ें पाई गई हैं.
इस प्रकार मानव अवशेषों और प्राप्त अन्य चीज़ों का कार्बन डेटिंग और डीएनए से ये पता चला है कि ये सभी तक़रीबन चार हज़ार (3800 साल) साल पुरानी यानि 2000-1800 बीसी की हैं.
उस समय के लिहाज़ से यह सभ्यता अति उन्नत और विकसित थी.
ये साबित हो चुका है कि यहां की सभ्यता सिन्धु घाटी-हड़प्पा सभ्यता के समकालीन एक समानांतर और अलग तरह की सभ्यता थी.ये वैदिक सभ्यता (वेदों में वर्णित) से मिलती-जुलती है क्योंकि इसके कई संस्कार वेदों में उल्लिखित और आज के हिन्दू संस्कारों से मेल खाते हैं/समान हैं.कुछ इतिहासकार इसे सनातन हिन्दू सभ्यता बताते हैं.
यह सिद्ध हो चुका है कि अब तक भारत का जो इतिहास पढ़ाया अथवा बताया जाता रहा था वह सच नहीं था/ग़लत था.ऐसे में कांग्रेस जो विदेशी सभ्यता-संस्कृति की समर्थक-पोषक है वह उपरोक्त रहस्यों को उजागर क्यों होने देती? इसके सहयोगी वामपंथी विचारकों-इतिहासकारों जिनका एकमात्र उद्देश्य हिन्दू विरोध है,अवश्य उनके प्रभाव के कारण भी सिनौली का उत्खनन रोका गया होगा,उसे दफ़न कर देने की मंशा रही होगी.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
सरों पर ताज़ रक्खे थे क़दम पर तख़्त रक्खा था,
वो कैसा वक़्त था मुट्ठी में सारा वक़्त रक्खा था |
और साथ ही…
सिर्फ़ बाक़ी रह गया बेलौस रिश्तों का फ़रेब,
कुछ मुनाफ़िक़ हम हुए कुछ तुम सियासी हो गए |
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