अपराध
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर भारी ग़ुलाम मानसिकता का बंगाली खेला
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के परिणामों ने एक ओर जहां बताया कि वहां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए भूमि उपयोगी नहीं है वहीं दूसरी ओर ग़ुलाम संस्कृति इतनी असहनशील और आक्रामक है कि किसी बदलाव की आवाज़ को भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है.एक पूरज़ोर कोशिश न सिर्फ़ बेक़ार हो गई बल्कि उसका भयंकर ख़ामियाज़ा भी बड़ी संख्या में लोगों को भुगतना पड़ा.वहां खेला हो गया.
वहां बड़े पैमाने पर लूटपाट,आगजनी,बलात्कार और हत्याएं हुई हैं जिसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में लोग अपना घर-बार छोड़कर पड़ोसी राज्यों (असम और बिहार) में पलायन कर रहे हैं.
पलायन तब और अब |
बंगाल जल उठा.बमों के धमाकों में सबकुछ धुआं-धुआं हो गया.पुराने कश्मीर की यहां यादें ताज़ा हो गईं.ऐसा लगा मानो यहां भारतीय संविधान की जगह शरिया क़ानून स्थापित हो गया है.
ज़िहादियों की बमबारी के जीवंत चित्र |
इसे बंगाल का रक्त्चारित्र बताया जा रहा है वहीं कुछ लोग इसे तात्कालिक राजनीतिक हिंसा से जोड़कर देख रहे हैं,जो आंखों में धूल झोंकने जैसा है.कश्मीर वाली साज़िश पश्चिम बंगाल में दोहराई जा रही है.
हालांकि बंगाल में हिंसा की वारदातें नई नहीं हैं पर,इस बार जो वहां हो रहा है उसमें काफ़ी कुछ नया है.इस्लामिक ज़िहाद का जो प्रदर्शन पहले सामाजिक वैमनस्यता और दंगों की आड़ में होते थे वह चुनावों के बाद खुल्लमखुल्ला हो रहा है.इस्लामिक एजेंडे की भट्टी पर राजनीतिक बिरयानी पक रही है.
घटनाएं नई हैं पर मामला पुराना है,जिसे समझने के लिए पिछले दो-ढाई दशकों की अवधि के हालात और इस दौरान (तब से अब तक) पेश आईं विभिन्न घटनाओं-परिघटनाओं के विश्लेषण की आवश्यकता है.
बीजेपी-टीएमसी गठबंधन,बंगाल का रण
मंमता बनर्जी ने साल 1998 में कांग्रेस से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई सर्वभारतीय तृणमूल कांग्रेस (ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस) तथा पश्चिम बंगाल में वामपंथियों (कम्युनिस्ट सरकार) के खिलाफ़ मैदान में उतरीं. इसमें संघ (आरएसएस) का वैचारिक समर्थन था तो उसके राजनीतिक संगठन बीजेपी का टीएमसी के साथ राजनीतिक गठजोड़.बीजेपी समर्थित ममता और उनकी टीएमसी वहां ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम मोर्चे की सरकार को कड़ी चुनौती दे रही थीं.इसमें पार्टी को तो लगातार फ़ायदा हो ही रहा था ममता बनर्जी का क़द भी बढ़ता गया.
वाजपेयी सरकार में वह रेल मंत्री बनीं.फ़िर तो जैसे उन्हें पश्चिम बंगाल की चाबी मिल गई.पश्चिम बंगाल के लिए उन्होंने चुनावी रेल योजनाओं की बरसात कर दी.
रेल उनके लिए उपकरण थी तो पश्चिम बंगाल प्रयोगशाला.उन्हें पश्चिम बंगाल का रेल मिनिस्टर कहा जाता था.
साथ ही,केंद्रीय कैबिनेट के एक महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो में उनकी ज़रूरी सुरक्षा का मसला भी हल हो गया क्योंकि वामपंथियों के निशाने पर होने के कारण उनकी ज़ान को ख़तरा था.उनपर जानलेवा हमले हो चुके थे.
बंगाल के रण में ममता के साथ बीजेपी ही नहीं संघ के अन्य आनुषांगिक संगठन भी पूरी ताक़त के साथ खड़े थे.उन्हें जहां भी समस्या होती संघ परिवार उनके साथ होता था.
मगर ममता की कभी कोई विचारधारा नहीं रही.पलटी मारने में वे माहिर हैं.ख़ेमा बदलना तो जैसे उनकी दिनचर्या में शामिल है.अपने मातृ-दल (कांग्रेस) जिसे त्याग कर उन्होंने अलग पार्टी बनाई,उससे सम्बन्ध और विच्छेद का खेल आज भी चल रहा है.बीजेपी के साथ भी ऐसा ही देखने को मिला.एनडीए में वह आती जाती रहीं.इस्तेमाल करतीं और फ़िर झटके दे देतीं.मगर बंगाल को जीतने का उनका एक सूत्रि कार्यक्रम बदस्तूर ज़ारी रहा.
एक लंबे सफ़र और कड़े संघर्ष के बाद आख़िरकार ममता का बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का सपना साकार हो गया.एक असंभव-सा दिखने वाला कार्य संभव हो गया.
पश्चिम मंगल में जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने कार्यक्रमों को विस्तार दे रहा था वहीं सत्ता में बैठीं ममता अब अपने जनाधार बढ़ाने में लगी थीं.इसके लिए उन्हें हिन्दुओं में फूट डालो तथा मुस्लिम तुष्टिकरण वाली कांग्रेसी-वामपंथी नीति ज़्यादा आसान तथा कारगर लगी.
लालच के वशीभूत ममता का बंगाली चरित्र (ग़ुलाम मानसिकता वाला चरित्र) जाग उठा.ऐसे में,मुसलमानों के एकमुश्त 30-35 फ़ीसदी वोटों के ठेकेदार ज़िहादी संगठनों से समझौता कर उस पर उन्होंने अमल करना शुरू कर दिया.दूसरी ओर,हिन्दू जातियों में फूट डालकर उन्हें एक दूसरे से लड़ाने का नया षडयंत्र रचा जाने लगा.
इतना ही नहीं,ममता ने यहां एक नई नीति/बिल्कुल अलग प्रकार की नीति-रिश्वतखोरी की नीति की शुरुआत की.इसे धरातल पर उतारने की दिशा में काम करते हुए दो क़दम आगे बढीं.अपनी पार्टी के बाद सरकार के सभी विभागों/उपक्रमों को भी इसी स्याह रंग में रंग दिया.
यह नीति आज भी ज़ारी है और इसे प्रदेश(अब तो पूरे देश में) में कट मनी और टोलाबाज़ी के नाम से जाना जाता है.इसका एकमात्र उदेश्य था बंगाली मानुष को रिश्वतखोरी के लालच में फांसकर अपनी पार्टी के जनाधार को मज़बूत करना.सबसे आसान और सस्ता उपाय.हरे लगे ना फिटकरी रंग चोखा हो जाए.
वैसे भी रिश्वतखोरी तो हमारे सामाजिक व्यवहार का एक अहम हिस्सा बन चुकी है.इसलिए इसके फ़ेल होने की गुंज़ाइश ही कहां थी.ऐसे में,ममता की यह नीति भी काम कर गई.
इसमें एक और बात भी अहम थी.एक ओर जहां मुसलमान अपने इस्लामिक एजेंडे तक सीमित था/है वहीं दूसरी ओर बंटा हुआ,मानसिक रूप से ग़ुलाम तथा धर्मविहीन बंगाली हिन्दू का भी अपना कोई एजेंडा नहीं था.ऐसे में,उसके लिए तो व्यवस्था और समाज को खोखला कर देने वाली यह प्रवृत्ति/कुकर्म भी एक लाभकारी योजना जैसा लगा.इस कारण वह भी आसान शिकार बन इस नई नीति/व्यवस्था का हिस्सा हो गया.
बीजेपी पहले ही ममता की नीतियों को लेकर चिढ़ी हुई थी.अब सरकार की नई कार्यप्रणाली को लेकर उसने विरोध किया तो टीएमसी कुपित हो गई.दोनों में कड़वाहट बढ़ी.
कभी एक दूसरे के लिए मर मिटने के संकल्प के साथ काम करने वाले दोनों दलों के बीच न सिर्फ़ दरार पड़ गई बल्कि दोनों एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े हो गए.सैध्यान्तिक और राजनीतिक विरोध ने धीरे-धीरे हिंसात्मक रूप धरा और फ़िर वही हुआ जिसका डर था.एक लंबे संघर्ष के बाद दबे कुचले जा चुके वामपंथियों वाले रक्त-चरित्र की फ़िर वापसी हो गई.धीरे-धीरे हालात बाद से बदतर होते गए.
रणभूमि वही थी पर शत्रु बदल गए थे.समाप्त हो चुका रण फ़िर से आरंभ हो चुका था जिसमें संघ के कार्यकर्ता निशाने पर थे क्योंकि मामला अब राजनीति से ज़्यादा वैचारिक हो चला था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सक्रियता व प्रभाव
उल्लेखनीय है कि बंगाल लंबे समय तक मुसलमान राजाओं,सुलतानों और मुग़लों के बाद अंग्रेजों की ग़ुलामी करते-करते मानसिक रूप से भी ग़ुलाम हो गया.भारत के अन्य हिस्सों की तरह वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए नहीं रख सका,अपनी निजता खो दी और विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृति में रच बस गया.
आज़ादी के बाद भारतीय संस्कृति विरोधी कांग्रेस सरकार के क़रीब 30 सालों में यहां ईसाईयत को जड़ें और गहरी जमाने के भरपूर अवसर प्रदान किए गए.वहीं वामपंथी-मुस्लिम गठजोड़ ने 34 सालों तक ख़ूनी खेल खेला और बड़े पैमाने पर इस्लामीकरण कर यहां की जनसांख्यिकी में बदलाव किए.
सत्ता में बैठी ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी कांग्रेसियों-वामपंथियों का ही अनुसरण कर वोटबैंक को मज़बूत करने के लिए न सिर्फ़ घुसपैठ के ज़रिए जनसांख्यिकी बिगाड़ कर बंगाल के सामाजिक ताने बाने को बिखेर रही थी बल्कि भद्र कहलाने वाले जनमानस को भी अराजकता की ओर धकेल रही थी.
जो वामपंथी नहीं कर पाए वो ममता ने कर रही थीं.बंगाल का भद्रचरित्र तेज़ी से रक्तचरित्र बन रहा था.
मगर विज्ञान कहता है कि पिछले 10 हज़ार सालों में भी भारत के सनातन हिन्दुओं का डीएनए नहीं बदला है.यही वास्तविकता यहां,हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरे धर्मों में परिवर्तित होने वाले लोगों की भी है.
शायद इसी तथ्य ने यहां पहले से सक्रिय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चुनौतीपूर्ण और ख़तरनाक हालात में भी ज़मीनी स्तर पर काम कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाने की प्रेरणा व नई उर्जा प्रदान की.
उन्होंने जन जागरण के तहत लोगों की तन-मन-धन से सेवा की.त्याग किया.
कईयों ने अपने प्राणों की आहूति भी दे दी.
इसका प्रभाव भी नज़र आ रहा था.पश्चिम बंगाल के कई ऐसे ज़िले जहां हिन्दू अपने पर्व-त्यौहार भी नहीं मना पाते थे वहां जय श्री राम का उद्घोष सुनाई दे रहा था.
लोग भ्रष्टाचार (कट मनी और टोलाबाज़ी) के ख़िलाफ़ मुखर हो रहे थे.विकास की मांग उठ रही थी.
राष्ट्रवाद पर ख़ुलेआम चर्चाएं होती थीं.
ऐसा लगता था मानो ग़ुलामी के प्रतीक समझे जाने वाले बंगाली मानुष के अंदर राष्ट्रवाद की नई उर्जा का संचार हो रहा है तथा वे अराजकता,घुसपैठ और इस्लामिक ज़िहाद के खिलाफ़ तैयार खड़े हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ा फ़ायदा
मोदी की अगुआई में भाजपा ने भी अपनी जीतोड़ मेहनत की बदौलत अपने लिए यहां ज़मीन तैयार कर ली.
कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों को पीछे छोड़ वह अपेक्षाकृत कम समय में यहां दूसरे स्थान पर जा पहुंची.
2014 में उसने लोकसभा चुनाओं में सिर्फ़ दो सीटें हासिल की थीं.उसके मुक़ाबले 2019 के चुनाओं में उसने 18 सीटें हासिल कीं.वहीं टीएमसी की सीटें 34 से घटकर 22 रह गईं.टीएमसी ने 44.91% वोट हासिल किए,जबकि बीजेपी ने 40.3% वोट.टीएमसी को 2.47 करोड़ वोट मिले तो बीजेपी भी 2.30 करोड़ लोगों के वोट पाने में सफल रही.
इसमें ख़ास बात ये रही कि बीजेपी ने राज्य की 128 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की,जबकि टीएमसी की बढ़त घटकर सिर्फ़ 158 सीटों पर रह गई थी.
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इस बार हालात बिल्कुल अलग नज़र आ रहे थे.ममता बनर्जी और उनकी टीएमसी को हार का डर सता रहा था.इसी कारण मुस्लिम सभाओं में ख़ुलेआम क़लमा पढ़ने वाली ममता इस बार चुनाओं के दौरान जगह-जगह चंडी-पाठ कर रही थीं,मंदिर-मंदिर घूम रही थीं.
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक़,ममता का इस बार राजनीतिक करियर दांव पर था.
विधानसभा चुनाव परिणाम 2021
पश्चिम बंगाल का इस बार का विधानसभा चुनाव परिणाम अप्रत्याशित रहा.यहां एक ओर जहां टीएमसी की हालत ख़राब नज़र आ रही थी वहीं बीजेपी बहुमत के क़रीब साफ़ दिखाई दे रही थी.
अधिकांश जगहों पर कांटों की टक्कर में बीजेपी की बढ़त जबकि टीएमसी को एंटी इनकंबेंसी (सत्ता विरोधी लहर) के शिक़ार होने का अनुमान लगाया जा रहा था.परिवर्तन के संकेत मिल रहे थे.
मगर हुआ एकदम उलट.पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने का सपना संजोये बैठी बीजेपी 100 सीटों के नीचे सिमटकर रह गई.उसे 38.13% मतों के साथ सिर्फ़ 77 सीटें ही हासिल हो सकीं.वहीं प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद तो चुनाव हार गईं लेकिन उनकी पार्टी टीएमसी बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए 47.94% वोटों के साथ 213 सीटें हासिल करने में क़ामयाब रही.उसने जीत का अपना पिछला रिकॉर्ड भी तोड़ भी तोड़ डाला.इस बार उसे 2 सीटें ज़्यादा मिलीं.
कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन का तो सूपड़ा ही साफ़ हो गया.
निम्न तालिका में विभिन्न दलों का प्रदर्शन ज़्यादा स्पष्ट नज़र आता है-
दल और गठबंधन | लोकप्रिय वोट | सीटों | ||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
वोट | % | ± पीपी | चुनाव लड़ा | जीत लिया | +/− | |||
अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (AITC) | 28,735,420 | 47.94 | 288 | 213 | 2 | |||
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) | 22,850,710 | 38.13 | 291 | 77 | 74 | |||
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीएम) | 2,837,276 | 4.73 | 136 | 0 | 26 | |||
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) | 1,757,131 | 2.94 | 90 | 0 | 44 | |||
भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (आईएसएफ) | 813,489 | 1.35 | 27 | 1 | 1 | |||
ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (AIFB) | 318,932 | 0.53 | 18 | 0 | 3 | |||
रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) | 126,121 | 0.21 | 10 | 0 | 2 | |||
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) | 118,655 | 0.20 | 10 | 0 | 1 | |||
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) (टी) गुट | 3 | 1 | 1 | |||||
गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) (बी) गुट | 3 | 0 | 3 | |||||
उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) | 646,827 | 1.08 | ||||||
संपूर्ण | 59,935,988 | 100.0 | 292 | ±0 |
इन परिणामों ने सबको हैरान कर दिया.तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणियां झूठी साबित हुईं.वे जनता के मन को टटोलने में नाक़ाम रहे.लेकिन ऐसा हुआ कैसे? इसके कारणों की समीक्षा ज़रूरी है.
बीजेपी की उम्मीदों पर हिन्दुओं ने फ़ेरा पानी
बीजेपी को जो भी हिन्दू वोट मिले हैं उनमें अधिकांशतः कांग्रेस और वामपंथियों को मिलनेवाले वोट हैं.दरअसल,वह वोट उनकी निष्क्रियता/टीएमसी के खिलाफ़ चुप्पी के कारण उन्हें मिलने की बजाय टीएमसी की टक्कर में खड़े मुखर व आक्रामक बीजेपी के उम्मीदवारों की झोली में आ गिरे.
कुछ वोट टीएमसी से अलग होकर बीजेपी का दामन थामने वाले नेताओं के व्यक्तिगत प्रभाव वाले वोट हैं तो थोड़े संघ के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की विचारधारा से प्रेरित हिन्दुओं के भी वोट शामिल हैं.
इससे ये स्पष्ट है कि बहुसंख्यक हिन्दुओं ने बीजेपी का साथ नहीं दिया.उसके सोनार बांग्ला के वादे ही नहीं जय श्री राम और भारत माता के जयकारे भी हिन्दुओं पर निष्प्रभावी रहे.
अब सवाल उठता है कि क्या संघ का जन जागरण अभियान जन जन तक नहीं पहुंच पाया? यदि ऐसा है तो 2019 में लोकसभा चुनाव में मोदी का जादू कैसे चल गया?
जानकार बताते हैं कि संघ के प्रयासों में कमी नहीं थी पर वह बंगाली हिन्दुओं को समझने में चूक गया.
साथ,ही 2019 का लोकसभा चुनाव सीधे-सीधे बंगाल से जुड़ा हुआ चुनाव नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर का चुनाव था जिसमें न तो कहीं हिंदुत्व बड़ा मुद्दा था और न ही ममता बनर्जी कोई चेहरा थीं.
हिंदुत्व और ममता बनर्जी में किसी एक को चुनना होता तो बंगाली हिन्दू बेझिझक ममता के चेहरे पर मुहर लगाता.
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल कहते हैं-
” बंगाल में बीजेपी के ध्रुवीकरण का दांव क़ामयाब नहीं हो सका.बंगाल का हिन्दू देश के दूसरे राज्यों से अलग है.यहां हिन्दू ऐसा है जो मुसलमान की दुकान में जाकर बिरयानी खाता है.इससे समझ सकते हैं कि यहां का सोशल फ़ैब्रिक कैसा है.ममता बनर्जी सिर्फ़ मुस्लिमों के वोट से सत्ता में नहीं आईं बल्कि हिन्दू समुदाय के भी बड़े हिस्से ने टीएमसी को वोट किया है.बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावज़ूद यहां हिन्दू वोट उसके पक्ष में नहीं गए हैं जबकि मुस्लिम वोटर टीएमसी के साथ पिछली बार से ज़्यादा मज़बूती से खड़ा दिखाई दिया. “
बंगाल की धरती से जुड़े लेखक माणिक दास के मुताबिक़,वर्तमान बंगाली हिन्दू तुलसी-तांबे वाला हिन्दू नहीं बल्कि मांसाहारी तथा इस्लाम और ईसाईयत वाली संस्कृति में घुला-मिला एक विकृत प्रकार का ऐसा हिन्दू है जिसके अपने परंपरागत संस्कार मायने नहीं रखते.
एक बात सुनने में मज़ाक़ लगती है पर उनके स्वाभाव से मेल खाती प्रतीत होती है.कहा जाता है कि बंगाली हिन्दुओं में जलीय गुण होते हैं.वे स्थान और वातावरण के हिसाब से ख़ुदको ढ़ाल लेते हैं.वे समझौतावादी होते हैं इसलिए आर्थिक संकटों सामना कर पाने में ज़्यादा सक्षम होते हैं.उनके लिए स्वहित से बड़ी कोई चीज़ नहीं होती इसलिए वे सदा परिवर्तनशील होते हैं जैसे कोई जलधारा जिस ओर मार्ग मिल जाए उसी ओर बह निकलती है.
ऐसे में,बंगाली हिन्दुओं को साधना संघ-बीजेपी के बस की बात नहीं.जैसे लोहा लोहे को काटता है वैसे ही उन्हें केजरीवाल जैसा नेता कट मनी और टोलाबाज़ी के साथ-साथ बिजली-पानी,
एक बात और.ममता बनर्जी ने आख़िर में हिन्दुओं पर कुछ प्रयोग किए थे जो संघ के ज़ादू के काट (एंटीडोट) के तौर पर इस्तेमाल हुए थे.वे न सिर्फ़ टीएमसी के राजनैतिक स्वास्थ्य के लिए रामबाण साबित हुए बल्कि उसके असर से संघ-बीजेपी अपने ही गढ़ में कमज़ोर होकर ढेर हो गए.
यह प्रयोग था हिन्दू वोट बेस में सेंध लगाने के मक़सद से चंडीपाठ,ब्राह्मण पुजारियों और दुर्गा पूजा समितियों के लिए सहायता की घोषणा करना और भक्तों के लिए तीर्थयात्रा मार्ग पर नए मंदिर के निर्माण की परिकल्पना.
चुनाव के मद्देनज़र,हिन्दुओं को बांटने के लिए ममता द्वारा लिए गए निर्णयों में 1,000 रूपये मासिक भत्ता और राज्य में लगभग 8,000 सनातन ब्राह्मण पुजारियों के लिए मुफ़्त आवास की घोषणा थी.
ब्राह्मणों का तो स्वाभाव ही रहा है सनातन हिन्दुओं का विभाजन कर उन्हें विनाश की ओर धकेलना.उनके कारण ही जैन,बौद्ध और सिक्ख जन्मे.हिन्दू ग़ुलाम हुआ और आज उसके खिलाफ़ दलितों की फौज़ इकट्ठी है.
आज देश में आस्तीन के सांपों में प्रमुख सांप ब्राह्मण ही हैं.
ऐसे में,बंगाल और ख़ासतौर से बंगाली हिन्दुओं को साधना संघ-बीजेपी के बस की बात नहीं.जैसे लोहा लोहे को काटता है,तुष्टिकरण में माहिर केजरीवाल जैसा नेता वहां कट मनी और टोलाबाज़ी के साथ-साथ मुफ़्त बिजली,पानी, बस सेवा आदि के ज़रिए दीदी का मायाज़ाल ध्वस्त कर उन्हें धूल चटा सकता है.
मतुआ समुदाय ने बदला पाला
कहते हैं कि कायर भरोसे के क़ाबिल नहीं होते.डरा धमकाकर जितना उनका फ़ायदा उठाया जा सकता है उतना प्यार से मुमक़िन नहीं हो पाता.ये बात भी नहीं समझ पाई बीजेपी.
इसीलिए ये भी कहा गया है कि ज़्यादा होशियार तीन बार ठेस (झटके) लगने के बाद संभलता है.
बीजेपी को पहली बार ठेस तब लगी जब उसने 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले ही यहां की कच्ची कालोनियां पक्की कर वोट मांगने निकली.
उसे दूसरा झटका पश्चिम बंगाल के मतुआ समाज ने दिया है.सीएए के तहत सुरक्षित हो जाने के बावज़ूद इसने बीजेपी का साथ नहीं दिया और उस दल को वोट दिया जिसके इस्लामिक ज़िहादी और घुसपैठिए निकट भविष्य में उसका भी वही हाल करने वाले हैं जो आज वो बाक़ी हिन्दुओं के साथ कर रहे हैं.
इस सन्दर्भ में 1978-79 की घटना और उसके बाद की परिस्थितियों का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है.
उस वक़्त केंद्र में जहां इंदिरा गांधी की सरकार थी वहीं पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्टों का क़ब्ज़ा था.
पाकिस्तान और बांग्लादेश से भागकर आए मतुआ समाज के लोग मरीचझापी की नारकीय दलदली ज़मीन पर रहने को मज़बूर थे.लेकिन हिन्दू होने के कारण वे यहां भी वामपंथियों की आंखों का कांटा बन गए थे.
ज्योति बसु की सरकार ने जगह ख़ाली कर उन्हें पाकिस्तान-बांग्लादेश वापस जाने का हुक्म दिया.पर,वे भारत छोड़कर जाना नहीं चाहते थे.वे इसे हिन्दुओं का देश समझकर ख़ुदको यहां सुरक्षित मान बैठे थे.
ज्योति बसु को ये नागवार गुज़रा और उन्होंने इनकी आर्थिक नाक़ेबंदी करवा दी.मतुआ भूखा मरने लगे.
मगर,वे टस से मस नहीं हुए.
उन्होंने वापस पाकिस्तान-बांग्लादेश जाकर मरने की बजाय यहीं मर जाना मुनासिब समझा.
फ़िर क्या था,वामपंथी भेड़िये उनपर टूट पड़े.अलग-अलग समूह में कामरेड उनके घरों में घुस जाते और उनकी बहु-बेटियों को रौंदते.कुछ महिलाओं और बच्चियों को वे उठाकर ले भी जाते.
ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा.
बताया जाता है कि जिन बच्चियों और महिलाओं को कामरेड उठा कर ले गए वे कभी वापस नहीं लौटीं.उनका क्या हुआ,ये सवाल मरीचझापी की फ़िज़ाओं आज भी गूंजता है.
इससे भी बात नहीं बनी तो एक दिन वहां सशस्त्र बल उतार दिए गए.उन हथियारबंद ज़ल्लादों ने जिस तरह मतुआ लोगों का कत्लेआम किया उसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में कहीं और नहीं मिलती.
अनुमान के मुताबिक़,10 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
जो मतुआ किसी तरह बच गए वे वामपंथियों के ग़ुलाम बन गए.अपना जीवन-यापन करते हुए तीन दशकों से ज़्यादा समय तक वे वाम दलों के वोट बैंक बने रहे.
आज मतुआ लोगों की आबादी दो करोड़ से भी ज़्यादा है.ये हिन्दू हैं पर इनका बाक़ी हिन्दुओं से कोई लेना-देना नहीं है.समाज सुधारक होरिचंद ठाकुर ने राम और कृष्ण की जगह ले ली है और वे मतुआ समाज के साईं बाबा बन गए हैं.
राजनीति की ज़मीन पर इनकी धार्मिक दुकान चल पड़ी है.
बांग्लादेश से सटे नादिया,उत्तर और दक्षिण 24 परगना की करीब सात लोकसभा सीटों और 30 से 40 विधानसभा की सीटों पर इनके मत निर्णायक होते हैं.
मगर आज वामपंथियों के बाद ये टीएमसी के ग़ुलाम हैं और इनके धर्मगुरु उसके एजेंट.
ये डरते हैं कि इनका हाल भी कहीं बाक़ी हिन्दुओं जैसा न हो जाए.
धर्म-ध्वजा तले राजनीतिक अंगवस्त्र में लिपटे इनके धर्मगुरू तय करते हैं कि किसकी नैया पार लगानी है.इसी सिलसिले में बीजेपी ने इनसे नजदीकियां बढ़ायीं.सीएए के तहत इन्हें नागरिकता देने की दिशा में काम किया.
मोदी ने अपने प्रभाव से बांग्लादेश स्थित इनके खंडहर बन चुके ओराकांडी मंदिर का जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण कराया.वह ख़ुद वहां गए और पूजा-अर्चना की.
जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण के बाद ओराकांडी मंदिर,मोदी द्वारा पूजा-पाठ और भाषण |
मतुआ समुदाय के सन्दर्भ में यह कोई सामान्य घटना नहीं थी.दरअसल,आज़ाद भारत-बांग्लादेश के इतिहास में मतुआ समाज को पहली बार मिला ये सम्मान इसके अस्तित्व को लेकर एक बड़ा सन्देश था.
ये सन्देश तो दोनों देश समझ गए पर मतुआ नहीं समझ पाया.
परिस्थितियां कहती हैं कि ये लोग आज भी 70 के दशक में खड़े सिर्फ़ इस्तेमाल किए जाने के योग्य हैं.
मुसलमानों का एकमुश्त वोट
वैसे तो पश्चिम बंगाल के मुसलमानों का वोट भी देश के अन्य मुसलमानों की तरह तुष्टिकरण की नीति वाले तथाकथित सेक्यूलर दलों जैसे टीएमसी,कांग्रेस और लेफ़्ट के बीच बंटता रहा है लेकिन,इस बार ऐसा नहीं हुआ.मुसलमानों ने टीएमसी को एकमुश्त वोट किया.इसकी वज़ह है इस्लामिक एजेंडे के साथ-साथ सीएए और एनआरसी को लेकर ममता और उनकी पार्टी टीएमसी द्वारा फ़ैलाया गया भ्रम.
यहां 30% से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं और उन्होंने टीएमसी को एकतरफ़ा वोट किया है.मुर्शिदाबाद,मालदा,उत्तर दिनाजपुर,बीरभूम,दक्षिण 24 परगना और कूचबिहार ऐसे ज़िले हैं जहां मुस्लिमों की बड़ी आबादी है.साल 2011 की जनगणना के अनुसार,मुर्शिदाबाद में तो 66.2 % आबादी मुसलमानों की है,जबकि मालदा में यह 51.3 % है.उत्तर दिनाजपुर में भी 50 फ़ीसदी मुस्लिम जनसंख्या है.
बीरभूम में 37%,दक्षिण 24 परगना में 35.6 % और कूचबिहार में 25.54 % आबादी मुसलमानों की है.
इन सभी क्षेत्रों में एकजुट मुसलमान ममता बनर्जी और उनकी पार्टी टीएमसी के साथ मजबूती के साथ खड़े रहे और प्रदेश की क़रीब 125 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाई.
ऐसा क्यों हुआ,इसके दो प्रमुख कारण हैं इस्लामिक एजेंडा और सीएए-एनआरसी का विरोध.
इस्लामिक एजेंडा पुराना है.इसके तहत पश्चिम बंगाल के इस्लामीकरण का एक बाक़ायदा अभियान चलाया जा रहा है जिसमें वहां की सरकार का भी योगदान है.
इसका एकमात्र उद्देश्य पश्चिम बंगाल को शेष भारत से अलग कर उसे मुग़लिस्तान बनाना है,जिसके लिए अरब,तुर्की और पाकिस्तान से आ रहा अथाह पैसा यहां पानी की तरह बहाया जाता है.
यहां सक्रिय क़रीब आधा दर्ज़न देशी-विदेशी आतंकी संगठनों ने शहर से लेकर गांवों तक अपने ज़ाल बुन लिए हैं.चप्पे-चप्पे पर मदरसे,वहाबी मस्ज़िदें और बम-बारूद के कारख़ाने स्थापित हो चुके हैं.
धर्मांतरण,फ़साद और ज़िहाद के कारण 8000 ऐसे गांव जहां एक भी हिन्दू नहीं बचा है.
कई ज़िले ऐसे हैं जहां ज़िहादियों की सामानांतर सरकारें चल रही हैं और वहां शरिया क़ानून लागू है.इसे विस्तार से जानने के लिए देखें– पश्चिम बंगाल को मुग़लिस्तान बनाने की साज़िश
ऐसी आज़ादी कहां मिलेगी.ख़ासतौर से,ये सब रोकने के लिए बने संवैधानिक तंत्र का हाथ जब अलगाववादियों के साथ हो तो बात ही निराली है.आम के आम और गुठलियों के दाम भी हैं यहां.एक और इस्लामिक देश का सपना साकार होते देख मुसलमान किसी और को वोट क्यों देगा?
सीएए और एनआरसी का विरोध एक मुसलमान की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है क्योंकि इनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों से ही है.काफ़िरों (दूसरे धर्म के लोग जैसे-हिन्दू आदि) के खिलाफ़ खड़े होने और मोमिन के पक्ष में मोमिन (मुसलमान) को क़त्लोगारत तक करने के फ़रमान और उसकी व्याख्या जिस आसमानी क़िताब में हो,उसके मानने वाले क्या ऐसे क़ानून का स्वागत करेंगें?
इस्लाम के मुताबिक़,हिंदुस्तान की मोदी सरकार काफ़िरों की सरकार है.वह पाकिस्तानी-बांग्लादेशी मुसलमानों ( घुसपैठियों) को देश से बाहर निकलना चाहती है.एक काफ़िर मोमिन को बेदख़ल करना चाहता है.ऐसे में भारत का मुसलमान इस पर चुप कैसे बैठ सकता है,जबकि दुनियाभर के मुसलमान एक दूसरे के लिए सगे जैसे होते हैं?
इनके लिए देश अथवा राष्ट्र नहीं होता,क़ौम होती है जैसे पाकिस्तान.वहां की सरकार अहमदिया मुसलमान को भगाए/मारे या फ़िर बलोचों को तबाह करे,कोई फ़र्क नहीं पड़ता/ज़ायज़ है क्योंकि वह सरकार क़ौम की सरकार है.
भारत के दूसरे मुसलमानों की तरह ही बंगाली मुसलमानों की नज़र में भी बीजेपी एक दुश्मन पार्टी है जिसे हराने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं.साथ ही,उसका साथ देनेवालों के खिलाफ़ भी किसी भी हद तक जा सकते हैं.पश्चिम बंगाल में जो हुआ है वह राजनीतिक हिंसा के नाम पर मज़हबी ग़ुस्से का इज़हार ही तो है.
घुसपैठिए-रोहिंग्या के वोट
पश्चिम बंगाल में घुसपैठिए और रोहिंग्या मुसलमान टीएमसी के वोटर बन बन गए हैं.ये अपने वोटों से टीएमसी के दूसरे स्थानों पर हुए वोटो के न सिर्फ़ नुक़सान की भरपाई करते हैं बल्कि उसे जिताने में भी काम आते हैं.
सीमावर्ती इलाक़ों में बसे इन अवैध लोगों ने अपने अवैध मतों से टीएमसी को मज़बूत करने के साथ ही वहां की डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी) भी बदल दी है.इस कारण यहां के राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं.
मीडिया सूत्रों के मुताबिक़,बांग्लादेश में सक्रिय मानव तस्करों का गिरोह पश्चिम बंगाल में सक्रिय अपने यूनिट के ज़रिए बांग्लादेशी मुसलमानों और रोहिंग्या की घुसपैठ कराता हैं.इसके बाद एक अन्य यूनिट उनके आवासीय प्रमाण पत्र,राशन कार्ड आदि बनवाकर उन्हें यहां का निवासी और टीएमसी का मेंबर बना देता है.
इसी आधार पर उनका वोटर कार्ड भी बन जाता है और वे टीएमसी के स्थायी वोटर हो जाते हैं.
दहशत के माहौल में चुनाव
पश्चिम बंगाल में चुनावों से पहले जिस तरह हिंसक घटनाएं हो रही थीं,उससे वहां राष्ट्रपति शासन के आसार नज़र आ रहे थे.फ़िर बाद में ऐसा लगा कि राष्ट्रपति शासन में चुनाव कराए जाएंगें.
यह ज़रूरी था मगर एक दूरदर्शी सरकार की अदूरदर्शिता के चलते ऐसा नहीं हुआ.फलस्वरूप,दहशत भरे माहौल में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव नहीं हो सका.परिवर्तन का मन बना चुके लोगों को डराया-धमकाया और प्रताड़ित किया गया.कई लोगों को सड़कों पर और बाज़ारों में सरेआम ज़लील किया जाता था.
विरोधी ख़ेमे की महिला को सरे बाज़ार ज़लील करते टीएमसी कार्यकर्त्ता |
टीएमसी के खिलाफ़ खुलकर बोलने वालों में से कईयों को अपनी ज़ानें गवांनी पड़ी.
पेड़ों पर टंगी लाशें व एम्बुलेंस में रखी लाश |
केंद्रीय सुरक्षा बलों से जो उम्मीदें थीं उनपर पानी फ़िर गया.मगर,वो भी क्या करते जब उनके हाथ बंधे हुए थे? कूचबिहार की वो घटना सामने है जिसमें अपनी ज़ान बचाने के लिए उन्होंने कार्रवाई की तो समूचा विपक्ष उनके पीछे पड़ गया था.ऐसा लग रहा था मानो वो उनका (सुरक्षा बलों का) कोर्ट मार्शल कराकर ही दम लेंगें.
ग़ौरतलब है कि जहां कई क्षेत्र मिनी पाकिस्तान और मिनी बांग्लादेश के रूप में सिर उठाए खड़े हों वहां निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव तो दूर की बात है हालात को सामान्य बनाए रखने के लिए भी सेना की ज़रूरत है.मगर यह सामान्य-सी बात न सरकार को समझ आई और न इस पर न्यायपालिका ने संज्ञान लिया.इसलिए वही हुआ जिसका अंदेशा था.लोकतंत्र की धज्जियां उड़ीं.चुनाव के नाम पर अराजकता का नंगा नाच हुआ.
परिणाम के बाद बिगड़े हालात
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि बंगाल में हुई हालिया हिंसा अचानक पैदा हुई परिस्थितियों का परिणाम नहीं बल्कि एक सुनियोजित हिंसा थी जिसकी तैयारी पहले ही हो चुकी थी.भडकाऊ भाषणों और मतदान के दौरान झडपों से ये साफ़ संकेत मिल रहा था कि प्रदेश की धरती पर परिणामों के बाद कुछ बड़ा और ख़तरनाक़ घटित होने वाला है.
एक सभा में ममता बनर्जी ने स्पष्ट कह दिया था-
” आने वाले दिनों (चुनाव के बाद) में तो हम रहेंगें ही,तब हम देख लेंगें,हम देख लेंगें…वोट के बाद तो सब भागेंगें.तब वो कहेंगें कि कुछ दिन और सेंट्रल फोर्सेज को रहने दो.कुछ दिन और केंद्रीय बलों को रहने दो जिससे वो हमें बचा लें.लेकिन उसके बाद…? “
…उसके बाद वही होगा जिसकी योजना पहले ही बन चुकी है,तैयारी पूरी है- ममता के कहने का यही मत्लब था.हुआ भी वही.चुनाव बाद सबकुछ राज्य के पुलिस-प्रशासन के हाथ में आते ही अवसर मिल गया.
उल्लेखनीय है कि कोई भी अपराध अचूक अपराध (परफ़ेक्ट क्राइम) नहीं होता.देर-सबेर उसका रहस्योद्घाटन हो ही जाता है.अपराध पहले दस्तक भी दे देता है जिसे अक्सर लोग अनदेखा/अनसुना कर देते हैं.यहां भी ऐसा ही हुआ.ज़ानबूझकर लोगों को असुरक्षित छोड़ दिया गया ताकि एक नया राजनीतिक खेल खेला जा सके.
खेला होबे के बाद एक नया राजनीतिक खेल.
ममता को अंदाज़ा ही नहीं था बल्कि इस बात का यक़ीन भी हो चला था कि नंदीग्राम में उनकी हार पक्की है.इस बात को लेकर उनका ग़ुस्सा खुलकर सामने आ रहा था,कई बार वह अपना आपा खो देतीं और अनर्गल प्रलाप करतीं.
यह उकसावे जैसा व्यवहार साबित हुआ.फलस्वरूप,मतगणना के दिन अंतिम नतीज़े आने से पहले ही टीएमसी समर्थक घरों से निकलकर सड़कों पर जमा हो गए थे.
फ़िर शुरू हो गई लूटपाट,हिंसा और आगजनी.जुलूसों में भीड़ के हाथों में मिठाइयां और रंग गुलाल की जगह हथियार लहरा रहे थे.आंखों में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी.
बेख़ौफ़ वे जगह-जगह ऑफिस,दुकानों और घरों पर हमले कर रहे थे.उन्हें रोकने वाला पुलिस-प्रशासन जैसे कहीं भूमिगत हो गया था और यह हिंसा सरकार द्वारा प्रायोजित हिंसा नज़र आ रही थी.
समझ नहीं आता कि ये जीत का जश्न था या गुरूमंत्र- खेला होबे का सुनुयोजित प्रयोग.बेक़ाबू दीदी के दीवाने एक स्थान पर एक हिन्दू के घर में घुस गए.वहां उसकी होनहार कन्या (कॉलेज़ छात्रा) को दबोच लिया और उसे रौंदने लगे.ये सिलसिला रातभर चलता रहा.शायद उन्हें पता ही नहीं चला कि बिचारी कब दम तोड़ चुकी थी.
एक अन्य महिला को भी उन्मादी घर से खींच कर ले गए.उसके साथ भी सामूहिक बलात्कार हुआ.बताया जाता है कि बेरहम उसे तब तक नोचते रहे जब तक उसकी सांसे नहीं थम गईं.
इस दौरान ज़ान बचाती भाग रहीं कुछ महिलाएं एक ख़ाली पड़े गोदामनुमा मकान में जाकर छुप गईं.सूत्रों के मुताबिक़,टीएमसी के गुंडों को इसकी भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए.
वहां उनके साथ हुई बर्बरता के दृश्य दिल दहलाने वाले हैं.
महिलाओं के साथ बर्बरता के चित्र (धुंधले किए गए) |
किस ज़िले,मोहल्ले की बात करें,कोना-कोना दरिंदों के पंजे में फंसा कराह रहा था.दौलत,आबरू और ज़ान का जैसे वे सौदा कर निकले हों.रहम की कोई गुंज़ाइश नहीं थी.जमकर ख़ूनी खेल हुआ.
वायरल फ़ोटो में कुछ स्थानों पर हमले करती महिलाओं का एक हुज़ूम भी हाथों में लाठी-डंडे और सरिए लिए दिखाई देता है.उन्हें रोहिंग्या बताया जा रहा है.जो रणनीति के तहत वारदातों में पुरुषों के साथ बराबर की शरीक थीं. थीं.पुरूष तोड़-फोड़ मचाते अन्दर घरों में घुसकर वहां वे कहर बरपा रहे थे जबकि हथियारबंद महिलाएं बाहर उनके कवच के रूप में मज़बूती के साथ मोर्चा संभाले हुए थीं.
बाहर से हमले करती औरतें (बाएं) व घरों में घुसते पुरुष (दाएं) |
परंतु ऐसा नहीं लगता कि तमाम उत्पात में सिर्फ़ मुसलमान,घुसपैठिए और रोहिंग्या ही शामिल थे.कुछ स्थानों पर हिन्दू भी हिन्दुओं पर हमले करते बताए गए हैं.
सीसीटीवी में क़ैद कथित हिन्दुओं द्वारा हिन्दू घरों पर हमलों के दृश्य |
हिन्दुओं के साथ हुए जगह-जगह अत्याचार में क्या वास्तव में हिन्दू भी शामिल थे? यक़ीन नहीं होता पर,यदि यह सच है तो स्पष्ट है कि बंगाल में हिंदुत्व का अब अस्तित्व मिटने ही वाला है.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
अब वो सौदा नहीं दीवानों में,
ख़ाक़ उड़ती है बयाबानों में |
और साथ ही…
दिल-ए-नादां तेरी हालत क्या है,
तू न अपनों में न बेगानों में |
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