Site icon KHULIZUBAN

शिक्षण संस्थानों में हिजाब-विवाद: कुरान पर अमल या फ़साद और जिहाद की शुरुआत? क्या होगा अंजाम, जानिए

Don't miss out!
Subscribe To Newsletter
Receive top education news, lesson ideas, teaching tips and more!
Invalid email address
Give it a try. You can unsubscribe at any time.
Thanks for subscribing!
भारत में बहस इस बात पर छिड़ी हुई है कि इस्लाम में हिजाब का स्थान और स्वरुप क्या है, जबकि चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि इस सेक्यूलर देश में नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार असीमित नहीं हैं.मौलिक अधिकारों के नाम पर यहां कोई ऐसा मज़हबी एजेंडा चलाने की इज़ाज़त नहीं दी जा सकती, जिससे फ़साद और जिहाद की स्थिति पैदा हो.यहां संविधान को व्यावहारिक बनाए रखना ही मूल उद्देश्य है.

हिजाब विवाद (प्रतीकात्मक)

  

दरअसल, हिजाब किसी राज्य-विशेष या वहां का अदालती मसला नहीं है, बल्कि इसका संबंध पूरे राष्ट्र से है.जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही हैं और संदेश मिल रहे हैं, उससे ये साफ़ हो गया है कि सब कुछ पूर्वनियोजित एवं प्रायोजित है.बातें कुरान पर अमल और मज़हब की हिफ़ाज़त करने की हो रही हैं मगर, असली मक़सद, असली शख्सियत और आचरण या चरित्र कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं.फ़साद और जिहाद जैसे वातावरण बनते दिखाई दे रहे हैं.इस्लाम में हिजाब पर बहस चल रही है.कुछ लोग इसे संवैधानिक हक़ की लड़ाई, तो कुछ लोग दारुल हरब को दारुल इस्लाम बनाने की क़वायद या गजवा-ए-हिन्द बता रहे हैं.सच क्या है, ये समझने के लिए विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है.


कुरान पर अमल की बात में सच्चाई कितनी?

हिजाब से शुरू हुआ मसला अपना दायरा बढ़ा रहा है और अब मज़हब की हिफाज़त तक की बात कही जा रही है.ऐसे में, इस पर सवाल उठने लाज़िमी हैं.सबसे पहली बात ये है कि हिजाब की मांग करने वाली छात्राएं क्या हक़ीक़त में इस्लाम पर ईमान ले आती हैं? क्या इनको अपने पैग़म्बर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर पूरा ईमान है? क्या ये अल्लाह ताला की ओर से इस्लाम के आख़िरी रसूल हज़रत मोहम्मद को भेजी गई आयतों यानि दिव्य संदेशों और बातों पर ईमान ले आती हैं और उसके मुताबिक़ ज़िन्दगी जीने को संकल्पित हैं या फिर ये शाहीन बाग़ की महिलाओं की तरह ही किसी ख़ास मक़सद से, सोची-समझी रणनीति के तहत अराजकता फ़ैलाने वाले एक बहुत बड़े देशविरोधी तंत्र का हिस्सा व उसकी एक झलक हैं?

कुरान और औरत (प्रतीकात्मक) 

 

सड़कों पर हंगामा बरपा रही छात्राएं अगर मुस्लिम हैं, मोमिन हैं, उनका सिर्फ़ नाम मुसलमानों जैसा नहीं है, बल्कि कुरान, अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखती हैं, तो फिर वे किस हिसाब से, किस आधार पर उन शिक्षण संस्थानों में जाने की सोच भी सकती हैं, जो सह-शिक्षा वाला है यानि जहां लड़कियों के साथ लड़के भी पढ़ते हैं? यह तो पूरी तरह इस्लामिक अक़ीदे और क़ायदे के ख़िलाफ़ है.

न तो रसूल अल्लाह (पैग़म्बर मोहम्मद) ने इसकी इज़ाज़त दी है, और ना ही कोई आयत ऐसी है, जो ये इज़ाज़त देती हो कि कोई मोमिना (मुस्लिम लड़की या औरत) लड़कों या ग़ैर-मर्दों के साथ दूर कहीं किसी स्कूल-कॉलेज में जाकर ग़ैर-मज़हबी पढ़ाई करे.यह पूरी तरह ग़ैर-इस्लामिक है.

इस्लाम में शरीयत (शरिया क़ानून) के हिसाब से, अगर कोई मुस्लिम महिला (या लड़की) बिना महरम (वह पुरुष जिसके साथ लड़की-महिला की शादी या संबंध न हो सकता हो) के घर से बाहर निकलती है या सफ़र करती है, तो वह गुनाह समझा जाएगा.ऐसे गुनाह को ज़िना की श्रेणी में रखा गया है अथवा बताया गया है.

ज़िना यानि किसी पराये मर्द के साथ जिस्मानी ताल्लुक़ात.वह अवैध शारीरिक संबंध, जिसकी सज़ा के तौर पर क़सूरवार के बदन का आधा हिस्सा मिट्टी में गाड़कर उसे संगसारी (पत्थर बरसाकर) कर मार डालने की व्यवस्था है.

ज़िना के लिए सज़ा (प्रतीकात्मक)


इस्लाम में ज़िना का इल्ज़ाम हज़रत आयशा (पैग़म्बर मुहम्मद की बीवियों में सबसे प्रतिष्ठित बीवी) पर भी लगा था, जिसमें उनकी बेगुनाही को लेकर बाक़ायदा आयतों (सुराह 24, अन नूर आयत: 11-20) का ज़िक्र कुरान में है.

इस संदर्भ में, ऐसा वाक़या है कि पैग़म्बर मुहम्मद जब अपने लाव-लश्कर के साथ बनू मुस्तलिक़ पर हमला करने जा रहे थे, हज़रत आयशा भी साथ थीं.रास्ते में विश्राम के दौरान हज़रत आयशा शौच के लिए गईं और उनका मोतियों का हार कहीं गिर गया.वह परेशान होकर उसे ढूंढ ही रही थीं तब तक मुहम्मद साहब का कारवां आगे बढ़ गया और हज़रत आयशा अकेली रह गईं.मगर, कुछ समय बाद सफ़वान नामक एक नौजवान भी, जो पीछे रह गया था, वह वहां पहुंचा और उसने उन्हें पहचान लिया.फिर, सफ़वान की ऊंट पर बैठकर उसके साथ उन्होंने आगे का सफ़र तय किया और कारवां तक पहुंचीं थीं.इस बात को लेकर मुहम्मद साहब के अनुयायियों ने उन पर (हज़रत आयशा पर) ज़िना का इल्ज़ाम लगाया, उन्हें कठघरे में खड़ा किया गया था.
               
इस तरह, देखें तो सवालों की तरह ज़वाब भी बड़े आसान हैं.आम आदमी भी ये बात अच्छी तरह जानता और समझता है लेकिन, पता नही क्यों अदालतों को समझ नहीं आता? लगता है वक़्त ने फिर उल्टी चाल चल दी है.


छात्राएं ही हक़ मांग रही हैं, छात्र क्यों नहीं?

ये कितनी अज़ीब बात है कि हिजाब को लेकर हो रहे प्रदर्शनों से मुस्लिम लड़कों का कोई लेना देना नहीं है.मुस्लिम छात्र कहीं दिखाई नहीं देते.तो क्या, इस्लाम का सारा दारोमदार अब मुस्लिम लड़कियों के कंधों पर ही है?

हिजाब की मांग को लेकर छात्राओं का प्रदर्शन 


सच्चाई ये है कि इस्लाम में महिलाओं की तरह ही पुरुषों के भी अपने पहनावे होते हैं.

इस्लामी पोशाक दरअसल, वो पारंपरिक कपड़े हैं, जिनकी व्याख्या मज़हबी अक़ीदे (विश्वास) और शिक्षाओं के मुताबिक़ की जाती है.

इस्लाम में औरतों की पोशाक जहां उनके बालों और बदन को टखनों से गर्दन तक छुपाती हैं वहीं, मर्दों के पारंपरिक पोशाक भी आमतौर पर उन्हें कम से कम सिर और क़मर तथा घुटनों के बीच के हिस्से को ढंकती है.

औरतों के हिजाब के विभिन्न प्रकार (प्रतीकात्मक)  


औरतों के हिजाब में अबाया, अल अमीरा, बुख्नुक या बन, बटुला, बुर्क़ा या चादरी, चादोरो, जिलबाब आदि कई नाम हैं.वहीं मर्दों के पारंपरिक पोशाक़ या हिजाब में थब या थोबे, सेरवाल, कुफ़ी, ईगल, घुत्रा, बिष्ट या अबा, शलवार कमीज, लुंगी, पगड़ी, जालीदार टोपी, एहराम वगैरह काफ़ी चर्चित हैं.

इस्लाम में मर्दों की पारंपरिक पोशाक या हिजाब (प्रतीकात्मक) 

   

इस प्रकार, औरतों की तरह ही मर्दों के भी इस्लामिक ड्रेस कोड (वेशभूषा संहिता, यूनिफ़ार्म) हैं? मगर, लड़के तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं.आख़िर माजरा क्या है? शायद, वो मुद्दा इसके बाद उठाया जाएगा.

     

‘अल्लाहू अकबर’ के नारे के मायने क्या हैं?

हिजाब को लेकर देशभर में हो रहे प्रदर्शनों और यहां तक कि हिंसक कृत्यों में भी में अल्लाहू अक़बर के नारे जमकर लगाए जा रहे हैं.यही नारे सीएए के खिलाफ़ प्रदर्शनों और दंगों में भी लगाए गए थे.
 
ज्ञात हो कि रोज़ाना पांच वक़्त की नमाज़ के लिए पुकार यानि अज़ान की ध्वनि में सुनाई देने वाला अल्लाहू अक़बर शब्द सबसे पहले पैगंबर मुहम्मद द्वारा बद्र की लड़ाई के वक़्त बोला गया था.कालांतर में, यह आम हो गया और लोग इसका प्रयोग हमलों, धर्म-परिवर्तन, लूटपाट, मार-काट और ज़्यादतियों में भी करने लगे.

आधुनिक समाज में भी वही हाल है.यह शब्द आतंकियों-जिहादियों से जुड़कर डर का पर्याय बन गया है.गूगल पर जाएं और अल्लाहू अक़बर तलाशें, तो इसका बड़ा ही विचित्र रूप नज़र आता है.


अल्लाहू अकबर के फ़ोटो (स्रोत: गूगल)


आज किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर अल्लाहू अक़बर सुनाई दे जाए, तो संभव है कि बहुत सारे लोग डर जाएं और वहां अफ़रा-तफ़री मच जाए.ऐसे में, हिजाब की मांग को लेकर अल्लाहू अक़बर का नारा लगाने का कोई तुक नहीं बनता.मगर बदकिस्मती से, आजकल छोटी-छोटी बातों में, वो चाहे कहासुनी हो या विरोध-प्रर्दशन, जिनका मज़हब से कोई लेना-देना नहीं होता, उनमें भी यह नारा आम हो गया है.

हिजाब को लेकर पहली बार कर्नाटक के मांड्या जिले में स्थित एक प्राइवेट कॉलेज की मुस्लिम छात्रा ने ये नारा लगाया था.तब से वह इस्लाम के ठेकेदारों की प्रेरणा बन गई है.उसे तरह-तरह के पुरस्कारों से नवाज़ा जा रहा है.बताया जा रहा है कि भविष्य में देश की प्रधानमंत्री अल्लाहू अक़बर का नारा लगाने वाली कोई हिजाबी लड़की-महिला बनेगी.क्यों?

 

हिजाब पर बवाल के पीछे इस्लामिक संगठनों का हाथ

हिजाब पर जारी बवाल के पीछे इस्लामिक संगठनों और अलगाववादी-देशविरोधी ताक़तों का हाथ बताया जा रहा है.सूत्रों से पता चलता है कि इसकी पटकथा पीएफआई यानि पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया (Popular Front of India- PFI) ने काफ़ी पहले लिखी थी.उसके बाद, इसे केरल और गुजरात राज्यों की शिक्षण संस्थाओं और अदालतों में आजमाया गया.वहां से बढ़ा इनका मनोबल इन्हें कर्नाटक ले आया और अब यह राष्ट्रीय स्तर का मुद्धा बन चुका है.

जानकर बताते हैं कि पीएफआई कोई और नहीं, बल्कि वही पुराना सिमी यानि स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (Student Islamic Movement of India- SIMI) है, जो 70 के दशक से भारतीय संस्कृति को नष्ट करने व इस देश का इस्लामीकरण करने के लिए जिहाद कर रहा है.प्रतिबंधित होने के बाद वह अब अपना नाम बदलकर काम कर रहा है.

तुर्की, अरब और पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देशों के पैसों पर खड़े पीएफआई का नेटवर्क आज काफ़ी फ़ैल चुका है.मगर, बदकिस्मती से पिछले सात सालों के अपने शासनकाल में मोदी सरकार इसका बाल भी बांका नहीं कर पाई है.

एसडीपीआई (SDPI) और उसका ‘छात्र संघ’ सीएफआई (CFI) पीएफआई की राजनितिक शाखाएं हैं, जो उसके लिए कवच का काम करती हैं.SDPI पर शाहीन बाग़ में सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ़ महीनों चले आन्दोलन को फंडिंग करने का आरोप है और यह राष्ट्रीय जांच एजेंसियों के रडार पर है.

PFI, SDPI और CFI के अप्रत्यक्ष नेतृत्व और इशारे पर ही देशभर के स्थानीय इस्लामिक संगठन और नेताओं द्वारा हिजाब की मांग को एक आन्दोलन का रूप देने की कोशिशें हो रही हैं.किराये की महिलाएं और असामाजिक तत्वों को इकठ्ठा कर देश में अशांति फैलाई जा रही है.इन सबका सबसे दुखद पहलू ये है कि देश की 15 लाख स्कूलों में पढ़ने वाले 25 करोड़ बच्चों का भविष्य प्रभावित हो रहा है, जिन्हें मज़हबी आग में धकेला जा रहा है.

     

फ़साद और जिहाद की शुरुआत है हिजाब

फ़साद और जिहाद इस्लाम की आधारभूत अवधारणाएं हैं, जो दारुल हरब (वह देश जहां ग़ैर-मुस्लिम का शासन है) को दारुल इस्लाम (जहां मुसलमानों का शासन हो, शरिया लागू हो) बनाने के लिए एक बहाने के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं.ग़ज़वा-ए-हिन्द को भी इसी की एक कड़ी बताया जाता है.


फ़साद 

फ़साद का आम मतलब होता है लड़ाई-झगड़ा, दंगा अथवा उत्पात.परंतु, मूलतः यह अरबी शब्द है और इसके इस्लामी मायने हैं.इसका ज़िक्र कुरान की कई आयतों में मिलता है, जिसका आशय सांप्रदायिक झगड़े से है.

इस्ला (सुधार करने) के विपरीत प्रयुक्त फ़साद को एक निचोड़ के रूप में देखें, तो यह अल्लाह की अवज्ञा या अपमान करने वालों या फिर धर्मत्यागियों (इस्लाम छोड़ने/छोड़कर दूसरे मज़हब अपनाने वालों) के गुनाह के रूप में देखा जाता है, और इसके लिए कसूरवारों को फांसी या सूली पर टांगने या उनके हाथ-पैर उल्टी दिशा में काटने की बात कही गई है.(सूरा 2, अल-बकरा आयत 11-12 और कुरान 5:33)

फ़साद की चर्चा आदम के बेटे क़ाबिल द्वारा अपने भाई हाबिल के क़त्ल के प्रसंग में भी मिलती है.


जिहाद

जिहाद भी एक अरबी शब्द है, जिसका मत्लब होता है इस्लाम यानि अल्लाह और उसके रसूल को इनकार करने वालों से ज़ंग या संघर्ष करना.इसका ताल्लुक शरीयत यानि शरिया क़ानून से है.

जिहाद (प्रतीकात्मक) 


शरीयत के अनुसार, जिहाद तब तक जारी रखना चाहिए जब तक कि पूरी दुनिया शरिया की शरण में न आ जाए.यानि जब तक दुनिया के सभी इंसान शरिया के मुताबिक़ ज़िंदगी जीना ना शुरू कर देते तब तक ज़ंग जारी रहनी चाहिए.इसके अनुसार, सभी काफ़िरों और ग़ैर-मुसलमानों को धिम्मी बनाना है.

जानकारों के मुताबिक़, फ़साद एक बहाना है जिहाद का.किसी स्थान पर मुसलमान जब संख्याबल (आमतौर पर कुल आबादी का लगभग 30% हो जाने पर) और ताक़त में समर्थ हो जाता है, तब वह, वहां अहकाम-ए-इलाही और निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा क़ायम करने लिए संघर्ष शुरू कर देता है.

अहकाम-ए-इलाही का मतलब अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ शासन, और निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा का मत्लब मुस्तफ़ा (पैग़म्बर मुहम्मद, पैग़म्बर मुहम्मद के 99 दिव्य नामों में से एक नाम/उपनाम) की सरकार होता है.यानि मुसलमानों का आख़िरी व एकमात्र उद्देश्य किसी देश में, जहां कहीं भी वे रहते हैं, वहां अल्लाह के हुक्म से चलने वाली पैग़म्बर मुहम्मद (पैग़म्बर की नीतियों पर चलने वाले राजनीतिक व्यक्ति, ख़लीफा) की सरकार को स्थापित करना होता है.इसके लिए कुरान-अल्लाह के उपदेशों की दुहाई देते हुए समाज को हराम और हलाल में बांटा जाता है और फिर सांप्रदायिक झगड़े शुरू किए जाते हैं.


ग़ज़वा-ए-हिन्द

ग़ज़वा-ए-हिंद यानि हिन्द के साथ ग़ज़वा इस्लाम की एक अवधारणा या बहुप्रतीक्षित योजना है, जिस पर पिछले 1400 सालों से अमल हो रहा है लेकिन, यह अब तक पूरा नहीं हो पाया है.शाब्दिक अर्थ के हिसाब से देखें तो ग़ज़वा काफ़िरों के खिलाफ़ मोमिनों द्वारा लड़ा जाने वाला एक युद्ध है, जिसमें जीतने वाला ग़ाज़ी कहलाता है.हिन्द यानि हिन्दुस्थान (हिन्दुओं का स्थान, जहां हिन्दू रहते हैं और कुरान के हिसाब से काफ़िर हैं) के लोगों यानि हिन्दुओं और दूसरे काफ़िरों (सभी ग़ैर-मुस्लिम जैसे सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई आदि) को मार-काट कर और ज़बरन मुसलमान बनाना है, और यहां शरिया का कानून स्थापित करना है.

ग़ज़वा-ए-हिन्द (प्रतीकात्मक)     


जानकारों के मुताबिक़, ग़ज़वा-ए-हिन्द या ग़ज़वातुल हिन्द पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा की गई जिहाद की एक भविष्यवाणी है, जिसका उल्लेख हदीसों में मिलता है.हदीसों के संकलन में ग़ज़वा-ए-हिन्द से जुड़ी कुल पांच या छह रिवायतें हैं, जिनमें सुनन एन-नासाई, जिहाद की किताब 3173-75, नईम इब्न हम्माद और मुस्नद अहमद बिन हनबल की किताब अल-फ़ितन में विस्तृत वर्णन है.इनमें से एक का अनुवाद कुछ इस प्रकार है-

”  हज़रत अबु हुरैरा (सहाबी, पैग़म्बर मुहम्मद के साथी) फ़रमाते हैं कि इस उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में सिंध और हिन्द की तरफ़ एक लश्कर रवाना होगा.अगर मुझे इस ग़ज़वा में शिरकत का मौक़ा मिला, तो शहीद कहलाऊंगा और औ अगर मैं बच गया, तो वह अबु हुरैरा होऊंगा, जिसे अल्लाह ने जहन्नुम की आग से आजाद कर दिया होगा. ”



इसी से मिलती-जुलती एक और रिवायत (रिपोर्ट) है, जिसमें पैग़म्बर मुहम्मद और अबु हुरैरा के बीच वार्तालाप का वर्णन मिलता है-

” तुम्हारा एक लश्कर हिन्द से जंग करेगा.मुजाहिदीन वहां के बादशाह (राजा) को बेड़ियों में जकड़कर लाएंगें, और फिर जब वे वापस लौटेंगें, तो हज़रत ईसा (ईसा मसीह) को स्याम (वर्तमान सीरिया) में पाएंगें.इस पर अबु हुरैरा ने कहा- अगर मैं इस ग़ज़वा में शामिल हुआ, तो मेरी ख्वाहिश होगी कि मैं हज़रत ईसा के पास पहुंचकर उन्हें यह बताऊं कि मैं आपका (पैग़म्बर मुहम्मद का) सहाबी हूं.इस पर रसूल अल्लाह मुस्कुराए और कहा- बहुत मुश्किल, बहुत मुश्किल. ”


विदित हो कि ग़ज़वा-ए-हिन्द की भविष्यवाणी को लेकर विद्वानों की अलग-अलग राय है.कुछ विद्वान मानते हैं कि ग़ज़वा-ए-हिन्द की भविष्यवाणी सातवीं सदी में ही पूरी हो गई थी, जब मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था.भारत में मुग़लिया शासन को वे ग़ज़वा-ए-हिन्द के ख़्वाब का पूरा होना बताते हैं.वहीं, कुछ दूसरे विद्वानों का मत है कि ग़ज़वा-ए-हिन्द का ख़्वाब अब भी अधूरा है, जिसे भविष्य में पूरा किया जाना है.उनके मुताबिक़, कई इस्लामी सेनाओं ने हिंदुस्तान के साथ ग़ज़वा किया, जीत हासिल की और यहां तक कि मुग़लों ने लंबे वक़्त तक यहां शासन भी किया लेकिन, वे धन-दौलत की लूटपाट में ही लगे रहे और अपना असली लक्ष्य भूल गए.वे भारत का पूरी तरह से इस्लामीकरण कर इसे इस्लामी देश नहीं बना पाए.

कुछ विद्वानों की राय उपरोक्त दोनों विचारों से बिल्कुल अलग है.उनका ये मानना है कि 1300 साल पहले शुरू हुआ ग़ज़वा-ए-हिन्द आज भी जारी है, जिसे विभिन्न रूप देखा जा सकता है.भारत के जम्मू-कश्मीर के बाद पश्चिम बंगाल में इस्लाम का तेज़ी से विस्तार हो रहा है.बाक़ी दूसरे राज्यों में भी जनसंख्या-जिहाद, लव-जिहाद और ज़मीन-जिहाद जारी है.सीएए के विरोध के दौरान देशभर में हुए प्रदर्शनों और दंगों में शक्ति प्रदर्शन हुआ था और अब सांस्कृतिक जिहाद के रूप में हिजाब पर बवाल सामने है.
            
हिजाब तो एक शुरुआत है.इसके बाद शिक्षण संस्थानों में नमाज़ पढ़ने की मांग होगी.छात्राओं के साथ छात्र भी इस्लामी वेशभूषा में वहां सभी अन्य इस्लामी तौर-तरीकों के अपनाये जाने की मांग करेंगें.

  

हिजाब का शिक्षण संस्थानों पर असर

शिक्षण संस्थानों में हिजाब की छूट सुरक्षा की दृष्टि से तो ख़तरनाक होगी ही, साथ ही, संस्थागत ढ़ांचे और उसके वास्तविक दृष्टिकोण और कार्यक्षमता पर भी नकारात्मक असर डालेंगें.इसके कई दुष्परिणाम होंगें.

   

अक्षुण्ण नहीं रह पाएंगें शिक्षा के मायने

असली शिक्षा वह शिक्षा होती है, जो छात्रों के सोचने-समझने और तर्क करने की क्षमता में वृद्धि करती है.यह मज़हबी विश्वासों से परे, सवाल उठाने का सामर्थ्य देती है, जिससे सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने में संकोच नहीं होता.ऐसे में, इसके मार्ग में, अगर पारंपरिक इस्लामी अक़ीदा आड़े आया, तो शिक्षा के असली मायने ख़त्म हो जाएंगें.नतीज़तन, मुस्लिम छात्रों के साथ-साथ दूसरे छात्रों का भविष्य भी चौपट हो जाएगा.

मज़हब का बचपन पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसकों लेकर अब तक कई शोध हो चुके हैं.साल 2015 के एक शोध में पाया गया कि ज़्यादा मज़हबी प्रभाव वाले बच्चे अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ बांटने में संकोच करते थे.उनमें, दूसरे बच्चों के प्रति भेदभाव व कट्टरता की भावना भी महसूस की गई.वे दूसरे बच्चों को सज़ा देने के पक्षधर थे, जबकि अन्य बच्चे ज़्यादा मिलनसार, और अपनी चीजें दूसरों के साथ आसानी से बांटने की प्रवृत्ति वाले पाए गए.

        

मदरसों और स्कूल-कॉलेजों में नहीं रह जाएगा कोई फ़र्क

मदरसों की ड्रेस कोड, अन्य तौर-तरीक़े और कट्टरता को स्कूल-कॉलेजों में भी लागू कर दिया जाता है, तो फिर, दोनों में फ़र्क क्या रह जाएगा? इससे, क्या बाक़ी धर्मों के छात्र-छात्राएं प्रभावित नहीं होंगें?

हक़ीक़त ये है कि बुर्क़े पहनकर पढ़ाई करने की ज़िद पर अड़ी छात्राएं ख़ुद मदरसों में जाना पसंद नहीं करतीं. वे सामान्य स्कूल-कॉलेजों का रूख़ करती हैं, क्योंकि वहां सही अध्ययन प्राप्त कर वे अपना करियर बना सकती हैं, जबकि मदरसों में ऐसा संभव नहीं है.वहां तो शिक्षा के नाम पर सातवीं सदी की क़िस्से-कहानियां, संकीर्ण विचारधारा और ऐसी बातें बताई-सिखाई जाती हैं, जिनका न तो विज्ञान से कोई लेना-देना है और ना ही आज के ज़माने में किसी भी प्रकार का उपयोग है.बच्चे कुरान और इस्लाम तक सिमटकर रह जाते हैं.

मगर दुर्भाग्य ये है कि मुस्लिम लड़कियां न तो मदरसे जाना चाहती हैं और ना स्कूल-कॉलेजों के यूनिफार्म ही उन्हें क़बूल हैं.ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि जिन्हें अपनी परंपरागत वेशभूषा से बहुत लगाव है और वे इसके बिना अधूरी हैं, तो उन्हें स्कूल-कॉलेजों के बजाय मदरसों का ही रूख़ करना चाहिए.वहां उन्हें एक आंख वाले बुर्क़े पहनकर भी जाने और पढ़ाई करने का पूरा इंतज़ाम है, नमाज़ आदि की भी व्यवस्था है.

भारत में आज एक लाख से भी ज़्यादा संख्या में मदरसे हैं, जिनमें से अधिकांश राज्यों की सरकारों और केंद्र सरकार की ओर से हमारी गाढ़ी कमाई यानि टैक्स का पैसा खर्च किया जा रहा है.किसलिए? इसके बावजूद, स्कूल-कॉलेजों में मदरसा मॉडल अपनाया जाता है, तो क्या उचित होगा? इसे, क्या भारतीय शिक्षा पद्धति का इस्लामीकरण नहीं कहा जाएगा?     
             
Exit mobile version