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लाल क़िले पर तिरंगे का अपमान सुनियोजित था !

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गत 26 जनवरी को दिल्ली में लाल क़िले पर तिरंगे के अपमान की घटना आज़ाद भारत के इतिहास की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी जिसे काला दिवस के रूप में जाना जाएगा.इसपर लानत मलानत के साथ सर्वत्र मंथन और चर्चा भी ज़ोरों पर है.ज़ारी बहस में बुद्धिजीवियों-विचारकों और मीडिया के तरह-तरह के दावे और निष्कर्ष पढ़ने-सुनने को मिल रहे हैं.कोई ख़ुफ़िया तंत्र और सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहा है,घटना को कुछ उपद्रवी तत्वों की शरारत बता रहा है तो कोई उसे किसान,विपक्ष और सिख अलगाववादियों के गठजोड़ का परिणाम बता रहा है.लेकिन,एक बात जो सबसे अहम है,वो ये है कि घटना सुनियोजित थी या आकस्मिक यानि उसके पीछे कोई साज़िश थी या फ़िर महज़ एक हादसा था,इसपर कोई उल्लेख नहीं मिलता.कोई भी साफ़ बोलने को तैयार नहीं है.ऐसे में,लगता है कि जांच एजेंसियों से भी ज़्यादा उम्मीदें रखना बेमानी होंगीं क्योंकि उनकी भी अपनी सीमाएं हैं.
इतिहास गवाह है कि कई राज़ सामने नहीं आ पाए और वे वक़्त के साथ दफ़न गए.परंतु,वो हालात अब बदल गए हैं और इस संचार क्रांति के युग में आज हमारे सामने बहुत सारे विकल्प उपलब्ध हैं.साथ ही,सच जानने और परखने का चूंकि हम सबको अधिकार है इसलिए मसले पर एक विस्तृत चर्चा ज़रूरी है.
लाल क़िले पर निशान साहिब का झंडा लगाता ख़ालिस्तानी अलगाववादी 

 

उल्लेखनीय है कि किसी घटना को लेकर एक राय बनाने अथवा नतीज़ों तक पहुंचने से पहले एक विशेष प्रक्रिया से होकर गुज़रना होता है जिसे विवेचना अथवा परीक्षण कहते हैं.इसके अंतर्गत सभी पक्षों को तौलकर एवं तथ्य और वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए विचार किए जाते हैं.उसी प्रकार,तिरंगे के अपमान की घटना पर नज़र डालते हैं तो कई चौंकाने वाले तथ्य उभरकर सामने आते हैं.कई पक्ष दिखाई देते हैं इससे जुड़े हुए.ऐसे में,घटना के पूर्व की परिस्थितियों,घटना के दिन के हालात और उसके बाद जो परिदृश्य बनते-बदलते नज़र आए/आ रहे हैं,उनका बारीक़ी से विश्लेषण करने पर ये पता चलता है कि घटना सुनियोजित/प्रायोजित थी.साथ ही,उसके लिए कोई एक नहीं वरन कई पक्ष प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उत्तरदायी थे.कहीं साज़िश थी तो कहीं अवसर की तलाश.
  

किसान और ख़ालिस्तानी-नक्सली गठजोड़

सबसे पहले तो ये जान लेना आवश्यक है कि किसान आंदोलन के नाम पर कुछ लोग जो दिल्ली की सीमाओं को घेरे अवैध रूप से बैठे हैं वे किसान नहीं बल्कि विपक्षी दलों के एजेंट हैं.वे मोदी सरकार को अस्थिर करने के मक़सद से देश के ख़िलाफ़ ख़ालिस्तानी आतंकियों और वामपंथी-माओवादियों के साथ मिलकर साज़िश कर रहे हैं.उनके साथ समर्थक के रूप में जो तख्तियां और पोस्टर लहराते नारे लगाते लोग दिखाई देते हैं वे किराए के लाये गए अराजक तत्व हैं और उन्होंने ही गणतंत्र दिवस के दिन दुर्भाग्यपूर्ण घटना को अंजाम दिया.ऐसे में,इस तथाकथित आंदोलन का कोई नेता हो या समर्थक किसी के लिए भी किसान(पवित्र एवं नमन योग्य) शब्द का इस्तेमाल अनुचित है और उन्हें गद्दार संबोधित कर ही चर्चा को आगे बढ़ाना उचित होगा.
ख़ुफ़िया सूत्रों के अनुसार,आंदोलन के पालन-पोषण,विस्तार और उसके ज़रिए विध्वंसक गतिविधियों को अंज़ाम देने के मक़सद से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया स्थित ख़ालिस्तानी संगठनों से भारत के कुछ बड़े ट्रांसपोर्ट कंपनियों के ज़रिए जबकि चीन,पाकिस्तान और तुर्की से पीएफ़आई जैसे अलगाववादी संगठनों के ज़रिए प्रचुर धन विभिन्न संस्थानों तक पहुंच रहा है.ऐसे में,ना सिर्फ़ गद्दार मालामाल हैं बल्कि हर क़दम पर उनकी मदद को तैयार कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पीआर एजेंसियों तथा देश की मीडिया और कई एनजीओ भी आबाद हैं.
यही कारण है कि कृषि-क़ानूनों पर वार्ताएं लगातार विफल होती रहीं और अंततः क़ानूनों को सरकार द्वारा डेढ़ साल तक के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव भी आन्दोलनकारियों ने ठुकरा दिया.
विभाजनकारी ताक़तों का प्रथम मुख्य उद्देश्य था आंदोलन के ज़रिए देश की संप्रभुता पर चोट करना जो,लाल क़िले पर तिरंगे का अपमान कर उन्होंने पूरा किया.लेकिन इसके लिए एक ख़ास रणनीति की आवश्यकता थी जो हाल ही में चर्चा में आए टूलकिट में दिखाई देती है.टूलकिट यानि एक गूगल डॉकुमेंट यानि एक ऑनलाइन लिखित दस्तावेज़ जिसमें आंदोलन को लेकर प्लानिंग से लेकर फिजिकल एक्शन तक की झलक देखी जा सकती है.इसे एम ओ धालीवाल के नेतृत्व में कनाडा स्थित ख़ालिस्तान समर्थित पीजेएफ (पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन) की फंडिंग से दिशा रवि,निकिता जैकब,शांतनु मुलुक तथा शुभम और थिलक द्वारा तैयार किया गया था और जिसे स्वीडन की पर्यावरण एक्टीविस्ट ग्रेटा थनबर्ग द्वारा आंदोलन के समर्थन में एक ट्वीट के साथ ग़लती से शेयर हो गया था. 
उल्लेखनीय है कि 26 जनवरी की हिंसा की तैयारी दिसंबर के पहले हफ़्ते में ही शुरू हो गई थी.टूलकिट बनने के बाद भारत विरोधी कैंपेन को विश्वस्तर पर फ़ैलाने की योजना पर विचार करने के लिए 11 जनवरी को बाक़ायदा एक ज़ूम मीटिंग हुई थी जिसमें दिशा,निकिता,शांतनु,धालीवाल आदि कई लोग शामिल हुए थे.
विदित हो कि पहले ही एसएफजे(सिख फॉर जस्टिस) लाल क़िले पर ख़ालिस्तानी झंडा फहराने वाले को इनाम देने का ऐलान कर चुका था और अब पाकिस्तान की ओर से ट्वीटर पर भारत विरोधी मुहिम चल रही थी.वहां से 308 ट्वीटर हेंडल आंदोलन का समर्थन करते हुए भडकाऊ पोस्ट शेयर करने में व्यस्त थे.  
सारी तैयारियां पूरी हो जाने के बाद बॉर्डर पर बैठे गद्दार नेताओं को सिग्नल दिया गया और वे गणतंत्र दिवस पर ट्रेक्टर परेड करने की मांग करने लगे.
तय योजना के मुताबिक़,गद्दार नेताओं ने सभी शर्तें मानते हुए दिल्ली पुलिस को झांसे में लिया और कहा कि सिर्फ़ 5 हज़ार ट्रेक्टर के साथ सिर्फ़ 25 हज़ार की संख्या में तथाकथित आंदोलनकारी गणतंत्र दिवस की शान में शांतिपूर्वक परेड निकालेंगें.पुलिस ने इसकी अनुमति दे दी.
अपनी पहली चाल में क़ामयाब हो चुके गद्दार नेताओं ने अब दूसरी चाल चली.उन्होंने तथाकथित परेड की क़मान ख़ालिस्तानी आतंकियों को सौंप उनके साथ किराए के गुंडे लगाकर मिशन लाल क़िला के लिए रवाना किया और वे स्वयं गायब हो गए. 
फ़िर क्या तय समय (सुबह 11 बज़े) और क्या तय रूट,लाल क़िला फ़तह जो करना था.हजारों ट्रेक्टरों पर सवार लाखों उग्रवादी तोड़फोड़ करते हुए सुबह 8 बज़े तक दिल्ली में दाख़िल हो चुके थे.
जिधर देखो उधर हाहाकार मचा था.सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी अपनी ही ज़ान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे.लेकिन जो हाथ आ गए उनको सिख आतंकियों और गुंडों ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया.
गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हिंसा के दृश्य 
इसी तरह तांडव करते हुए सैकड़ों की संख्या में वे लाल क़िले तक पहुंच गए.वहां सुरक्षा में तैनात जवानों ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उनपर भी हमले होने लगे.कईयों ने खाईयों में कूदकर अपनी ज़ान बचाई.
ज़ान बचाने के लिए खाईयों में कूदते सुरक्षाकर्मी  
आज़ाद भारत के इतिहास में ये पहला मौक़ा था उग्रवादी/आतंकी लाल क़िले में घुसने में क़ामयाब रहे.उसे बंधक बनाकर तिरंगे को अपमानित किया और उसकी जगह निशान साहिब और वामपंथी झंडे लगा दिए.वे आधी रात तक वहीं बेख़ौफ़ जमे रहे और तांडव करते रहे.
घटना के बाद तय रणनीति के तहत लीपापोती की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी.ग़ायब गद्दार नेता भी प्रकट हुए और सारा दोष मोदी सरकार और दिल्ली पुलिस पर मढ़ दिया.उन्हें ही तमाम घटना के लिए ज़िम्मेदार बताकर कोसने लगे.उनकी रक्षक मंडली भी आगे आई और सरकार के खिलाफ़ मुहिम के दूसरे चरण का आग़ाज़ हुआ.
इधर देश में तिरंगा अपमान को झूठलाने और गद्दारों को बचाने के भगीरथी प्रयास चल ही रहे थे कि इसी बीच भारत के खिलाफ़ ग्लोबल साज़िश में शामिल अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां भी मैदान में उतर आईं.पहले अमरीकी पॉप सिंगर रिआना का बयान आया.उन्होंने ट्वीटर पर भारत के खिलाफ़ आंदोलन का समर्थन कर जले पर नमक छिड़कने का काम किया.फ़िर स्वीडन की पर्यावरण एक्टिविस्ट और टूलकिट की अहम भागीदार ग्रेटा थनबर्ग और अमरीकी मॉडल और पूर्व पॉर्न स्टार मिया खलीफ़ा ने भी रियाना के बयान को आगे बढ़ाते हुए अपने बयानों से भारत की निंदा कर यह साबित कर दिया कि तीनों एक ही पिच पर खेल रही हैं.
आंदोलन की साज़िश में सलिप्त रियाना,ग्रेटा थनबर्ग और मिया ख़लीफ़ा  
उधर,ऑस्ट्रेलिया में सिख अलगाववादियों के क्रियाकलापों जैसा ही ब्रिटेन में भी देखने को मिला.वहां भारत विरोधी एक सिग्नेचर कैंपेन के ज़रिए लेबर पार्टी की सांसद क्लाउडीया वेब ने सिख लॉबी में शामिल गुरचरण सिंह नामक भारत विरोधी मोहरे का इस्तेमाल कर आंदोलन के मुद्दे पर ब्रिटिश संसद में बहस की मांग कर दी.इसका सीधा मत्लब था ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप के लिए रास्ता तैयार करना.इसी कारण भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर को आगे आना पड़ा.उन्होंने अपने ट्वीट में कहा(हिंदी अनुवाद) –
 

” भारत को निशाना बनाकर चलाये जा रहे अभियान कभी सफल नहीं होंगें.हमें ख़ुद पर विश्वास है,हम अपने दम पर खड़े रहेंगें.भारत इस साज़िश को क़ामयाब नहीं होने देगा. “

विदेश मंत्री एस जयशंकर का ट्वीट

सरकार की रणनीति 

चौबे गए छब्बे बनने,दूबे बनकर आए वाली कहावत इस प्रकरण में चरितार्थ हो गई.केंद्र सरकार अपनी ही रणनीति में फंसकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई जबकि उग्रवादी और अराजक तत्व दिल्ली के प्रमुख रास्तों व महत्वपुर्ण स्थलों पर हिंसा का तांडव करते हुए लाल क़िला पहुंच गए.उन्होंने न सिर्फ़ जमकर उत्पात मचाया बल्कि तिरंगे का अपमान करने की योजना में भी सफल रहे.वहां वे आधी रात तक बेख़ौफ़ जमे रहे और तोड़फोड़ करते रहे.
लाल क़िले के अंदर तोड़फोड़ का दृश्य 

 

उल्लेखनीय है कि योजनानुसार ही ट्रेक्टर परेड की अनुमति दी गई थी और उग्रवादियों को दिल्ली के अन्दर घुसने दिया गया था क्योंकि मोदी-शाह को उम्मीद थी कि आंदोलन बदनाम होकर ख़ुद अपनी मौत मर जाएगा.हुआ भी कुछ ऐसा ही.घटना के बाद एकाएक बदले हालात में पूरा देश एकजुट तो हुआ ही आंदोलन विरोधी स्वर भी तेज़ हो गए.कई स्थानों पर उनके खिलाफ़ प्रदर्शन हुए तथा बॉर्डर ख़ाली कराने की मांग उठी.यह देख आंदोलनकारी ही नहीं उनके समर्थन में खड़ा समूचा विपक्ष भी बैकफुट पर आ गया.कुछ किसान संगठनों ने आन्दोलन वापस लेकर स्वयं अपने तंबू उखाड़ लिए.अब सरकार की बारी थी.
यह दूसरे दिन की बात है.कुछ मुक़दमे दर्ज़ कर नोटिस हुए.एक्शन मोड में सरकार ने बॉर्डर खाली कराने के लिए पुलिस और सुरक्षा बल भेजे.मगर वहां जमकर नाटकबाजी हुई और फोटोशूट हुआ.आधी रात तक यह सब चलता रहा.योजनानुसार फ़िर,पुलिस और सुरक्षा बल बैरंग चिट्ठी की तरह वापस लौट गए और उपद्रवी फ़िर से वहीं जमकर बैठ गए.शायद कुछ ऐसे ही हालात के मद्देनज़र मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने एक बार कहा था-
                       
                         थी ख़बर गर्म कि ‘ग़ालिब’ के उड़ेंगें पुर्ज़े,  
                         देखने हम भी गए थे पर तमाशा ना हुआ |

अगर सही तथा गहन जांच हो तो सच्चाई सामने आ सकती है.सरकार को ज़वाब देना भारी पड़ेगा.उसकी मंशा पर सवाल उठेंगें कि सुरक्षा एजेंसियों द्वारा ख़तरे का अंदेशा जताते हुए बार-बार आगाह करने के बाद भी क्यों ट्रेक्टर परेड की इज़ाज़त दी गई.उपद्रवियों के लिए रास्ते खोले गए और फ़िर किस तरह हालात बेक़ाबू हुए.
ग़ौरतलब है कि ख़ुफ़िया तंत्र को लाल क़िले के घटनाक्रम के संकेत तक़रीबन तीन हफ़्ते पहले ही मिल गए थे.बताया जाता है कि जनवरी के पहले हफ्ते में आईबी की उच्चस्तरीय बैठक में ख़ालिस्तान समर्थक संगठन एसएफजे (सिख फॉर जस्टिस) की ओर से इस तरह के क़दम उठाए जाने की आशंका जतायी जा चुकी थी.
ग़ौरतलब है कि 2007 में गठित अलगाववादी/आतंकी संगठन एसएफजे एक अमरीका-आधारित समूह है जो भारत को तोड़कर सिखों के लिए एक अलग देश की मांग करता है.संगठन की मांग है कि पंजाब में ख़ालिस्तान बनाया जाए.उसने कुछ दिन पहले गणतंत्र दिवस के मौक़े पर लाल क़िले पर ख़ालिस्तानी झंडा फहराने वाले को 2 लाख 50 हज़ार डॉलर बतौर इनाम देने की घोषणा की थी.
सिख फॉर जस्टिस के बैनर तले बैठे अलगाववादी 

   

सूत्रों के मुताबिक,इंटेलिजेंस ब्यूरो की उच्चस्तरीय बैठक में रॉ,एसपीजी,हरियाणा पुलिस के आला अधिकारियों के अलावा दिल्ली पुलिस के आठ उच्च अधिकारी और आईबी के बारह आला अधिकारी शामिल थे.बैठक में इस स्थिति से निपटने के लिए प्रबंधों पर चर्चा हुई थी.यहां तक कहा गया था कि लाल क़िले को 20 से 27 जनवरी तक बंद कर दिया जाए.इसी क़दम पर दिल्ली पुलिस से भी ज़वाब मांगा गया था.
इसी बैठक में सुरक्षा एजेंसियों को भी दिल्ली की ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्त्व रखने वाली इमारतों पर सुरक्षा बढ़ाने के निर्देश थे ताकि कट्टरपंथी सिख और एसएफजे की ओर से किसी भी तरह की ग़लत गतिविधि को होने से रोका जा सके.     
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक,एक शीर्ष अधिकारी ने बताया-

” बैठक के दौरान अधिकारियों ने कहा कि सिख अलगाववादी हर साल गणतंत्र दिवस को ब्लैक डे के तौर पर मनाते हैं और और इस बार इन संगठनों के कई नेता देश में चल रहे किसान आंदोलन में मौज़ूद हैं.दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे किसानों को भी इस कट्टरपंथी नेताओं की तरफ़ से आर्थिक फंडिंग मिल रही है.”

उल्लेखनीय है कि 26 जनवरी को तक़रीबन 12 बजे एजेंसियों को यह भी इनपुट मिला कि ट्रेक्टर रैली निकाल रहे किसान प्रधानमंत्री आवास,गृहमंत्री आवास,राजपथ,इंडिया गेट और लाल क़िले की तरफ़ भी बढ़ सकते हैं.यह संदेश दिल्ली की सुरक्षा में लगे सभी पुलिस अधिकारियों को मिला था.
  

विपक्ष का समर्थन 

वैसे तो किसान आंदोलन विपक्ष का ही खड़ा किया हुआ आंदोलन है.लेकिन जिस तरह हाथी के दांत दिखावे के अलग होते हैं और खाने के अलग उसी तरह तथाकथित आंदोलन का बाहर से समर्थन कर रहे विपक्ष ने ट्रेक्टर परेड को लेकर अराजक तत्वों के समर्थन में जो माहौल बनाया और उन्हें उकसाया,उसी का परिणाम थी लाल क़िले पर तिरंगे के अपमान की घटना.वो देशद्रोही घटना जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. 
उल्लेखनीय है कि एसएफजे ने लाल क़िले पर ख़ालिस्तानी झंडा फहराने वाले को 3 लाख 50 हज़ार डॉलर बतौर इनाम देने का एलान किया था.ख़ुफ़िया इनपुट के मुताबिक़,इस बाबत किसानों के बीच मौज़ूद उसके कई नेता दिल्ली में घुसने को तैयार थे.ट्रैक्टरों में लोहे के रॉड लगाये जा चुके थे.अब यदि कोई कमी रह गई थी तो वो थी ट्रेक्टर परेड निकालने की इज़ाज़त की जिसके लिए सरकार और दिल्ली पुलिस की ओर से टालमटोल किया जा रहा था जबकि इस मांग के समर्थन में एकजूट विपक्ष इसे ज़ायज़ क़रार देते हुए सरकार को किसान विरोधी और निरंकुश बता रहा था.
उल्लेखनीय है कि यह 24 दिसंबर 1999 की घटना की जैसी ही परिस्थिति थी जब आईसी-814 के यात्रियों को छुड़ाने के बदले आतंकवादी मसूद अजहर,उमर शेख़ और मुश्ताक़ अहमद ज़रगर की रिहाई का  देश की सरकार पर दबाव था.
परंतु 21-22 सालों बाद भी कुछ बदला? हां,बदला.बहुत बड़ा बदलाव आया है इस देश में.पिछली बार आतंकी छोड़े गए थे,अबकी बार आतंकी अंदर दाख़िल कराये गए ताकि वे विध्वंस कर सकें.किया भी.हम सबने देखा.  दरअसल,ये वो देश है जहां न सिर्फ़ सत्ता प्राप्ति के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाये जाते हैं बल्कि एक चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के मक़सद से देश को बदनाम और बर्बाद करने के लिए भी रणनीतिक प्रबंधन किए जाते हैं.बड़ा अज़ीबोग़रीब और अज़ीम देश-भारत देश!  
कहते हैं कि बड़े से बड़े बेशर्म आदमी में भी थोड़ी बहुत शर्म की गुंज़ाइश होती है.मगर यहां ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला,देश को शर्मसार करने वाली घटना के घटित होने के बाद विपक्ष की ओर से जो प्रतिक्रियाएं आईं वो,इस बात की गवाही देती हैं.
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के भावी दावेदार राहुल गांधी का ट्वीट पढ़िए-
 
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का ट्वीट 

यहां राहुल गांधी दिल्ली के विभिन्न स्थानों और लाल क़िले के अन्दर भयंकर तोड़फोड़ तथा करोड़ों के नुक्सान को हलक़ा कर व्यापक स्तर पर हुई हिंसा को छिटफुट हिंसा के रूप में व्यक्त कर रहे हैं.साथ ही 500 से ज़्यादा पुलिसकर्मियों को मार-मारकर लहुलुहान करने और उनकी हत्या की कोशिशों को मामूली चोट की संज्ञा दे रहे हैं.इसके अलावा  एक अति दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद पैदा हुई अति संवेदनशील परिस्थिति में भी अप्रत्यक्ष रूप से ही सही मगर कृषि-क़ानून वापस लेने की बात कहकर उपद्रवी किसानों को और भड़का रहे हैं.

इसके अलावा जो सबसे अहम बात है,वो ये है कि  तिरंगे के अपमान पर उन्होंने कुछ नहीं कहा मानो तिरंगा शब्द उनकी डिक्शनरी में ही नहीं है.क्या तिरंगे का अपमान राहुल गांधी के लिए कोई मायने नहीं रखता? 
कांग्रेस के ही नेता और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का बयान राहुल गांधी के बयान से दो क़दम आगे की सोच रखता है.उनका ट्वीट पढ़िए-
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का ट्वीट 

 

उनके मुताबिक किसान आंदोलन यानि ट्रेक्टर परेड शांतिपूर्ण रहा.तोड़फोड़ और हिंसा में शामिल वे सैकड़ों-हजारों की संख्या में लोग किसान नहीं फ़रिश्ते थे जो,आसमान से उतरे थे.
आगे,वे किसानों से शांति बनाये रखने की अपील करते हैं.समझ नहीं आता कि किसानों से इस अतिरिक्त अपील का मत्लब क्या है.आख़िर कैसी और कितनी शांति चाहते हैं कांग्रेसी? कुछ और शेष बचा है क्या? उल्लेखनीय है कि,यहां भी तिरंगे के अपमान का कोई ज़िक्र नहीं है! 
इन्हीं के गुट में शामिल और किसान आंदोलन समर्थकों में एक बड़ा चेहरा मराठा नेता शरद पवार का है.उनके बयान विरोधाभाषी ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण भी हैं.ये तो मानो आग में घी डालते नज़र आए.वे कहते हैं-

” मुझे लग रहा था कि ये आन्दोलन कहीं न कहीं रास्ते से भटक रहा है.जो कुछ हो रहा है,पुलिस को देखना चाहिए.लेकिन ऐसा क्यों हुआ? केंद्र सरकार ने ज़िम्मेदारी नहीं निभाई.केंद्र बड़प्पन दिखाए.किसानों का संयम ख़त्म हुआ इसलिए ट्रेक्टर मार्च निकला गया. “

 

यहां उनके बयान के तीन मायने हैं.पहला- मुझे लग रहा था का मत्लब ये हुआ कि उन्हें पता था कि आंदोलन अब आंदोलन नहीं रहा,वह अराजक तत्वों की भीड़ का रूप ले चुका है.
दूसरा-केंद्र सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई यानि केंद्र सरकार अराजकता को रोकने में नाक़ाम रही.उसे ट्रेक्टर परेड निकालने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी. 
तीसरा-किसानों का संयम ख़त्म हुआ इसलिए ट्रेक्टर मार्च निकला गया यानि किसानों ने आपा खो दिया और ग़लती हो गई.ये स्वाभाविक था,कोई साज़िश नहीं.
सवाल उठता है कि जब उन्हें पता था कि किसान आंदोलन भटक गया था तो वैसी परिस्थिति में भी वे उसके साथ क्यों खड़े रहे? ट्रेक्टर मार्च ग़लत था तो वे स्वयं उसकी मांग पर क्यों अड़े थे और पहले उसे ज़ायज़ ठहरा रहे थे? तीसरे,संयम ख़त्म होने का मत्लब क्या है? इंसाफ़ में देर हो तो कोई क़ानून अपने हाथ में ले लेगा?
ग़ौर करें तो शरद पवार यहां सीधे संविधान और क़ानून का मज़ाक़ उड़ाते हुए हिंसा का समर्थन करते नज़र आते हैं.क्या एक राजनेता का यही कर्तव्य है? क्या उनके खिलाफ़ भी क़ानूनी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए? 
उल्लेखनीय है कि शरद पवार भी जो देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में शुमार रहे हैं/हैं क्या उन्हें भी लाल क़िले पर उस दिन तिरंगे का अपमान नज़र नहीं आया?  
अब विपक्ष के मिशन लाल क़िला पार्ट-2 का वक़्त था.मुक़दमे दर्ज़ कर कार्रवाई शुरू हुई तो विपक्ष के तमाम नेता फ़िर से उसी किसान आंदोलन के उपद्रवियों के साथ फ़िर खड़े हो गए जिन्हें उन्होंने एक दिन पहले ही भटका हुआ क़रार दिया था.कांग्रेस ने तो तिरंगे का अपमान करने वालों को मुफ़्त क़ानूनी मदद देने का ऐलान भी कर दिया.सरकार को अतिवादी और उग्रवादियों को पीड़ित बताकर घड़ियाली आंसू बहाए जाने लगे.
योजनानुसार,फ़िर अमरिकी पॉप स्टार रिआना,स्वीडन की पर्यावरण एक्टीविस्ट ग्रेटा थनबर्ग और पूर्व पोर्न स्टार मिया खलीफ़ा आदि मैदान में उतरे तो विपक्ष ने उन्हें हाथोंहाथ लिया और एक नई मुहिम चल पड़ी,भारत को एक तानाशाह देश बताया गया.राजनीतिक रूप से हासिये पर खड़ा विपक्षी ख़ेमा भारत विरोधी अभियान में विश्वव्यापी हो चुका था.हर तरफ़ ज़श्न का माहौल था.
दरअसल,सोशल मीडिया पर भारत विरोधी ऐसी मुहिम कभी नहीं दिखी,जैसा इस बार हुआ.ये ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा कृत्य था.मगर,इसके ज़वाब में मशहूर भारतीय हस्तियों जैसे सचिन तेंदुलकर,लता मंगेशकर,विराट कोहली आदि ने मोर्चा संभाला और क़रारा ज़वाब देकर पूरी मुहिम को नाक़ाम कर दिया.ये देख विपक्ष चिढ़ गया और अपनी ही सम्मानित और विराट हस्तियों को अपमानित करने लगा.लेकिन,जब इससे भी बात बनती नहीं दिखी तो उन्हें  जांच का भय दिखाया जाने लगा.
इसी कड़ी में,भगवा छोड़ सेक्यूलर बुर्क़े ओढ़ सत्ता में आयी शिवसेना ने तो हद पार कर दी.उसने अपने घरेलू अख़बार सामना में बाक़ायदा लेख लिखकर तिरंगे के अपमान पर झूठ फ़ैलाते हुए कहा-

” गणतंत्र दिवस पर किसानों की ट्रेक्टर परेड के दौरान लाल क़िले पर ध्वज लगाने की वीडियो रिकॉर्डिंग में ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है जिससे तिरंगे के अपमान की बात सामने आती हो.जो घटना हुई ही नहीं उसपर बवाल मचाना भी तिरंगे का अपमान ही है. “

लेकिन,जब एक वीडियो ज़ारी हुआ जिसमें,तिरंगे का अपमान स्पष्ट दिखाई देता है,शिवसेना से सवाल पूछा जाने लगा तब वह भाग खड़ी हुई.दिल्ली पुलिस द्वारा ज़ारी ये वीडियो देखिये –

    

मीडिया की संलिप्तता

लाल क़िले पर तिरंगे के अपमान की घटना में देश की मीडिया के एक बड़े वर्ग की संलिप्तता की बात भी सामने आ रही है.अब तक मिली जानकारी और खुलासों पर भरोसा करें तो तिरंगे के अपमान में यदि किसी की सबसे बड़ी भूमिका रही है तो वो हैं न्यूज़ मीडिया संस्थान यानि अख़बार और न्यूज़ चैनल.आरोपों के मुताबिक़,मीडिया का एक बड़ा तबका मिशन लाल क़िला की साज़िश में शामिल रहा है तथा किसान आंदोलन के नाम पर देश विरोधी मुहिम का मुख्य हिस्सा है.उसने फ़ेक न्यूज़ के ज़रिए अफ़वाहें फ़ैलाई और माहौल को विस्फोटक बना दिया,जिसके फलस्वरूप दिल्ली में दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई और देश को शर्मसार होना पड़ा.
बताया जाता है कि ये मीडिया समूह विदेशी फंड से चल रही उन पीआर एजेंसियों(पब्लिक रिलेशन एजेंसियों) के लिए काम कर रहे हैं जो किसान आंदोलन को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झूठ फ़ैला रही हैं.
आंदोलन की साज़िश का हथियार बनी मीडिया (सांकेतिक)
सूत्रों के मुताबिक़,कुछ ऐसे मीडिया ग्रूप जो अंतर्राष्ट्रीय साज़िश के शिक़ार नहीं हैं वो भी टीआरपी की होड़ में फ़र्ज़ी आंदोलन की ख़बरों से ख़ुदको दूर नहीं रख पा रहे हैं.अर्थात,ये भी वही कर रहे हैं जो तथाकथित बिके हुए मीडिया ग्रूप कर रहे हैं.दरअसल,प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेदार इन सबने मिलकर चंद देशविरोधी दिमाग़ की उपज  किसान आंदोलन को न सिर्फ़ विस्तार दिया बल्कि उसे हाईटेक भी बना दिया जो अब एक उद्ध्योग का रूप ले चुका है.उल्लेखनीय है कि आंदोलन का यह उद्धयोग भारत तक सीमित नहीं है,अमेरिका इसका बड़ा उदाहरण है.      
ऐसे में,यही कहा जा सकता है कि किसी को टीआरपी की सनक तो किसी को चंद सिक्कों की खनक ने इतना अंधा कर दिया कि लोकतंत्र के रखवाले बलिदानों के प्रतीक का भी सौदा कर बैठे और देश की इज़्ज़त तार-तार हो गई.
भ्रष्ट मीडिया (व्यंग्यात्मक चित्र)

 

सूत्रों के मुताबिक़ प्राथमिक जांच में ये पाया गया है कि जिस वक़्त अलगाववादी तोड़फोड़ और हिंसा करते हुए लाल क़िले की तरफ़ बढ़ रहे थे उस दौरान वहां 300 से अधिक सोशल मीडिया अकाउंट और कई मीडिया ग्रूप फ़र्ज़ी ज़ानकारी व अफवाहें फ़ैलाने में व्यस्त थे.उनमें राजदीप सरदेसाई के नेतृत्व में इंडिया टुडे ग्रूप सबसे आगे था.नोएडा कमिश्नरेट पुलिस ने इस सिलसिले में इंडिया टुडे के कंसल्टिंग एडिटर व न्यूज़ एंकर राजदीप सरदेसाई,हेराल्ड ग्रूप की वरिष्ठ संपादकीय सलाहकार मृणाल पांडे,कौमी आवाज़ उर्दू समाचार पत्र के मुख्य संपादक ज़फ़र आग़ा ख़ान,कारवां पत्रिका के मुख्य संपादक परेशनाथ,अनंतनाथ,विनोद के जोश आदि के मुक़दमा दर्ज़ किया है.मुक़दमे में उनपर जो आरोप लगे हैं,उनमें मुख्य बातें इसप्रकार हैं-
” 26 जनवरी को जानबूझकर कराये गए दंगे से देश की सुरक्षा और जनता का जीवन ख़तरे पड़ गया था.इन्होंने अपमानजनक,गुमराह करने वाली और उकसाने वाली ख़बर प्रसारित की और अपने ट्वीटर हैंडल से ट्वीट किया.
एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत यह ग़लत जानकारी प्रसारित की गई कि आंदोलनकारी एक ट्रेक्टर चालक को पुलिस ने गोली मार दी जबकि उसकी मौत ट्रेक्टर पलटने और उसके नीचे दब जाने कारण हुई थी.
प्रदर्शनकारियों को भड़काने के उद्देश्य से जानबूझकर ग़लत और गुमराह करने वाली सूचना का प्रसारण किया गया.इस कारण प्रदर्शनकारी लाल क़िले के परिसर तक पहुंच गए और वहां धार्मिक व अन्य झंडे लगा दिए,जहां भारत देश का झंडा फ़हराया जाता है. ” 

इंडिया टुडे आजतक के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई का वो ट्वीट जो उपरोक्त आरोपों से सम्बंधित है-
आजतक के एंकर राजदीप सरदेसाई का ट्वीट 

अदालतों का ढुलमुल रवैया 

बीते कुछ सालों में विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों के स्वरूप और उद्देश्य बदल गए हैं पर उनसे जुड़े मामलों में अदालतों का वर्षों पुराना ढुलमुल रवैया बरक़रार है.वे इन्हें समय रहते सख्ती से नहीं लेतीं.उनके निर्णय अथवा निर्देश डांट-पुचकार और नसीहतों तक सिमटे रहते हैं जबकि दूसरी ओर एक छोटी सी समस्या भी फल फूलकर विकराल रूप धारण कर लेती है.साजिशें कामयाब हो जाती हैं.
पिछले दिल्ली दंगों को ही ले लीजिये.सीएए के विरोध के नाम पर शाहीन बाग़ से शुरू हुआ लाखों लोगों की ज़िन्दगी को नर्क बनाने वाला रास्ता रोको आंदोलन दिल्ली दंगों में तब्दील हो गया.पचास से ज़्यादा लोग मारे गए और तोड़फोड़ तथा आगजनी में सैकड़ों घर तबाह हुए.क्या उसे रोका नहीं जा सकता था?
दिल्ली दंगे का शाहीन बाग़ धरना कनेक्शन (सांकेतिक) 
पहले से ही चरमराई अर्थव्यवस्था में परेशान जनता की तो कोरोना ने जैसे क़मर ही तोड़ दी थी.दो ज़ून की रोटी के लाले पड़ गए थे.मगर बड़ी मुश्किल से फ़िर उठ खड़े हुए लोग बाहर निकले तो पाया कि रास्ते सारे बंद हैं क्योंकि बॉर्डर बंद हैं.वे जाएं तो जाएं कहां? कमायें नहीं तो खाएं क्या? साहस जुटाकर और बड़ी उम्मीद लेकर दिल्ली हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे.फ़रियाद की कि पापी पेट का सवाल है.गुहार लगाई कि रास्ते खुलवा दो.हमारी मदद करो.पर सब व्यर्थ.आधी रात को दरवाज़े खोल आतंकियों के मानवाधिकार पर मिनटों में फ़ैसला सुनाने वाली हमारी सुप्रीम अदालत का दिल नहीं पसीज़ा,उसे आम जनता के मानवाधिकार नहीं दिखे.हाल ये है कि एक ओर जहां रास्ते अब भी बंद हैं वहीं पब्लिक क़ैद में है,नज़रबंद है.ऐसी परिस्थितियों में,60 के दशक का एक मशहूर गाना याद आता है-
                   
                    बेदर्दी मेरे सैयां शबनम हैं कभी शोले
                   अंदर से बड़े ज़ालिम बाहर से बड़े भोले…..|
               
आंदोलन का अधिकार सबको है.सभी अपनी मांगों के लिए विरोध-प्रदर्शन कर सकते हैं.अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं,नाराज़गी ज़ाहिर कर सकते हैं.लेकिन 10 साल बाद भी मुझे अदालत से यदि न्याय नहीं मिल पाया तो क्या मैं सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के दरवाज़े पर मज़मा लगाकर उनका रास्ता रोक सकता हूं? उन्हें घर में ही रहने को मज़बूर कर सकता हूं? इसका जवाब है-नहीं.बिल्कुल नहीं क्योंकि अधिकारों के साथ कर्तव्य भी होते हैं,अपने अधिकारों के साथ-साथ दूसरों के अधिकारों का भी ख़याल रखना होता है.जी हां,यही हम बचपन से पढ़ते-सीखते आए हैं और दूसरों को भी बताते हैं.फ़िर,क्यों कुछ लोग सीमाएं क़ब्ज़ा किए,रास्ते बंद कर वहां बैठे हैं और कोई क्यों उन्हें कुछ नहीं कहता,उन्हें हटाया नहीं जाता,ये पूछने का हमें अधिकार है जो हमारे संविधान ने हमें दिया है.    
उल्लेखनीय है कि शाहीन बाग़ के अवैध धरने को समय रहते यदि हटा दिया गया होता तो दिल्ली में दंगे नहीं होते,इस बात के प्रमाण मिल चुके हैं.तमाम विदेशी फंडिंग और आतंकी साजिशें बेनक़ाब हो चुकी हैं.मगर उसी की तर्ज़ पर और उसी की नाभि नाल से पैदा हुए किसान आंदोलन पर लगाम क्यों नहीं लगाई गई? तमाम ख़ुफ़िया इनपुट मिलने बाद भी किसान की भेष में बैठे उग्रवादी-आतंकी बॉर्डर से भगाए क्यों नहीं गए?
किसान आंदोलन में ख़ालिस्तानी,नक्सली और ज़िहादी  
हद तो ये है कि लाल क़िले पर हमारे विश्व-विजयी-प्यारे तिरंगे अपमान हो चुका है मगर आदेश-निर्देश छोड़िये प्रतिकार में दो शब्द भी नहीं निकले! धन्धेबाज़,अपराधी और आतंकी अबतक जमे बैठे हैं,हमें ठेंगा दिखा रहे हैं!
बॉर्डर पर बैठे षड्यंत्रकारी 
सरकार के अपने दायरे हैं.एजेंडे हैं और वोट बैंक भी है.विपक्ष का तो ये(भारत) देश ही नहीं है,एक सराय है और वे बाहर से आए हुए मेहमान हैं.मगर क़ानून की क्या मज़बूरी है,सच में,समझ से परे है
एक सवाल और है जो जांच एजेंसियों की ओर से अक्सर उठता रहता है और सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार इस बात की नसीहत भी दी है कि जांच में व्यवधान नहीं होना चाहिए और एजेंसियों को पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए.मगर टूलकिट केस में दिशा रवि और उसके साथियों शांतनु मुलुक और निकिता जैकब आदि को जिस प्रकार राहत दी गई है उससे अच्छे संकेत नहीं जाते.इससे जांच प्रभावित होगी.फ़िर कैसे कोई अधिकारी देश विरोधी साजिशों के खिलाफ़ अपनी पूरी उर्जा और निष्ठा से काम कर सकेगा?
 टूलकिट केस में आरोपी शांतनु मुलुक,दिशा रवि और निकिता जैक़ब 
उल्लेखनीय है कि जिस केस के आरोपी,भजन सिंह भिंडर और एम ओ धालीवाल जैसे कुख्यात भारत विरोधियों से संबंध रखते हों,उनके साथ किसी भी प्रकार की रियायत उचित नहीं ठहराई जा सकती.मगर इस पर न कोई सवाल उठाने वाला है और न ही कोई टूलकिट बनाकर शेयर करने वाला है.

मसले का निचोड़ 

इस देश में पानी से लेकर ज़िस्म तक बेचा जाता है.लेकिन,राष्ट्र का अभिमान भी बिकता है,ये हमने किसान(?) आंदोलन में देखा.मगर जिधर देखो ख़ामोशी ही ख़ामोशी है.सब एक ही रंग में रंगे हैं.किसकी बाट जोह रहे हैं शायद किसी को नहीं पता.जिसने चोरी की वो सीनाज़ोरी कर रहा है मगर उसके भूत की दाढ़ी पकड़कर उससे सवाल पूछने वाला भी कोई नहीं है.मगर ख़ामोशी भी हमेशा सही नहीं होती.तभी तो आबिद ख़ुर्शीद ने कहा है-
                     
                      ख़ामोश रहने की आदत भी मार देती है,
                      तुम्हें ये ज़हर तो अंदर से चाट जाएगा   | 
ये हमारी क़मज़ोरी ही है जो हमें आज ये दिन देखने पड़ रहे हैं वर्ना जब देश की इज़्ज़त लूटी जा रही थी हमारे राजनेता तमाशा नहीं देख रहे होते.तिरंगे का अपमान होता रहा और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.कहां थी राष्ट्रवादी और 56 इंच छाती वाली सरकार?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,अमित शाह और आदित्यनाथ योगी  

 

दरअसल,हमारा तिरंगा कोई उपहार में मिली हुई वस्तु नहीं वरन लाखों शहीदों के ख़ून की निशानी है.उसका अपमान हिंदुस्तान कभी बर्दाश्त नहीं करेगा.शहीदों ने जैसे इसके सम्मान के लिए अपने शीश बलिदान किए हैं वैसे ही इसका अपमान करने वालों के शीश भी हमें चाहिए.उनका लहू चाहिए माँ भारती के चरणों में चढ़ाने के लिए.क्या ये हमारी मांग पूरी करेगी सरकार? यदि नहीं तो फ़िर ये समझा जाएगा कि सरकार को वो दर्द नहीं हुआ है जो देशवासी महसूस करते हैं.साथ ही,कई अन्य सवाल भी उठेंगें जिनकी फ़ेहरिस्त में पुलवामा हमला भी शुमार होगा.आख़िर वो भी तो शहीदों के ख़ून से जुड़ा मामला है.   
सज्जन दिखने वाले लोग कभी चोरी-चकारी करते पाए जाते हैं तो मुंह से कुछ शब्द अनायास ही निकल जाते हैं.जैसे-हे राम! ‘कैसा ज़माना आ गया!’,  ‘अब कोई कैसे किसी पर भरोसा करेगा!’ आदि.ज़रा सोचिए,क्या बीती होगी सम्मानपूर्वक किसान कहे जाने और नमन किए जाने योग्य लोगों पर जब उन्होंने देखा होगा कि उन्हीं की तरह दीखने वाले लोग अपने ही प्रहरियों को लहूलुहान करते हुए देश की शान लाल क़िले में जा घुसे और हमारे मस्तक रूपी तिरंगे को अपमानित किया.वहां दुसरे झंडे लगा दिए.निःसंदेह ऐसा महसूस हुआ होगा जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.अति दुर्भाग्यपूर्ण.अविश्वसनीय.
हमारे देश का दुर्भाग्य देखिये,जिन ख़ालिस्तानी आतंकियों ने निशान साहिब के वहां झंडे लगाए उन्हें,किसी सिख नेता अथवा संगठन ने दंडित करने की मांग नहीं की.सच्चाई ये है कि सिख नेताओं ने उनकी खुलकर भर्त्सना भी नहीं की जबकि कांग्रेसी सन 1984 में जब तांडव कर रहे थे,लोग गले में टायर डालकर जलाये जा रहे थे थे तो सारा देश एकजूट हुआ,बचाया और हर प्रकार की मदद कर बड़े से बड़े गुनाहगारों को उनके अंज़ाम तक पहुंचाया.
बड़ा दुःख होता है ये देखकर कि कुछ सिख नेता आज उसी कांग्रेस के नेताओं के साथ मिलकर देश के टुकड़े करने पर तुले हैं.दुनियाभर में देशविरोधी साज़िश रची जा रही है.
उल्लेखनीय है कि ख़ालिस्तानी आतंकी हर साल गणतंत्र दिवस को काला दिवस के रूप में मनाते हैं.ये जहां भी रहते हैं वहां भारत के खिलाफ़ दुष्प्रचार करते हैं.हमारे तिरंगे का अपमान करते हैं.15 अगस्त 2013 को सेंट्रल लंदन स्थित भारतीय दूतावास के पास इन कायरों के कुकृत्यों के कुछ फ़ोटो खींचे गए थे.उनमें एक फ़ोटो इसप्रकार है-
           
लंदन में तिरंगे का अपमान करते सिख अलगाववादी 

 

दुखद बात ये है कि लाल क़िले पर उस दिन जो कुछ हुआ वो कोई आम दिन नहीं था.उस दिन भारतीय संविधान की 71 वीं वर्षगांठ थी.72 वां गणतंत्र दिवा था.सबकुछ एक रणनीति के तहत तय था.लेकिन,ज़रा सोचिये,उस दिन लाल क़िले के प्राचीर से यदि किसी हिन्दू संगठन ने भगवा झंडा फ़हरा दिया होता तो क्या होता? इसका ज़वाब बहुत आसान है.वैसे तो ये कायरों (जैसा कि गाँधी ने कहा था कि स्वभाव से हिन्दू कायर होता है) के बस की बात नहीं है मगर मिसाल के तौर पर मान लेते हैं कि ऐसा किसी तरह हो जाता तो देशभर में तूफ़ान खड़ा हो जाता.हर जगह गर्मागरम बहस चल रही होती कि क्या किसी धर्म-संप्रदाय का झंडा तिरंगे की जगह ले सकता है?आवाज़ें इकट्ठी निकलतीं.गुरुद्वारों में अरदास के साथ नमाज़ भी देखने को मिलती जैसा कि कुछ मौक़ों पर हम देखते हैं,हालांकि ये भी सच है कि कभी किसी को किसी मस्ज़िद में गुरू नानक देव जी के फ़ोटो पर अगरबत्ती जलाते नहीं देखा गया. 
देश ये दखकर हैरान है कि है कि गद्दार तथाकथित किसान नेताओं को अबतक गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया.उनपर देशद्रोह के मुक़दमे भी नहीं लगे हैं.सिर्फ़ कुछ चिन्हित लोगों के खिलाफ़ जांच व कार्रवाई का तमाशा हो रहा है.अगर कुछ लोगों को तिरंगे के अपमान की सज़ा मिल भी गई तो क्या होगा ये क़ानूनी मामलों के ज़ानकार बताते हैं-
 

” प्रिवेंशन ऑफ़ इंसल्ट्स टू नेशनल ऑनर एक्ट 1971 के तहत राष्ट्रीय झंडे और संविधान का अपमान करना दंडनीय अपराध है.ऐसा करने वाले को 3 साल तक की ज़ेल या फ़िर ज़ुर्माना या फ़िर दोनों की सज़ा हो सकती है.” 

दरअसल,ये भी आसान नहीं होगा अभियोजन पक्ष के लिए.एड़ियां घिस जाएंगीं और सालों लग जाएंगें आरोप सिद्ध करने में.तारीख़ पर तारीख़ आएगी जाएगी और फ़िर आख़िर में कोई थोड़े से ज़ुर्माने देकर छूट जाएगा तो क्या सन्देश जाएगा? तीन साल की सज़ा भी काट कर कोई बाहर आएगा तो लाखों डॉलर(बतौर इनाम)में तोला जाएगा.तब इसे क्या कहेंगें? सज़ा या मुल्क़ की इज्ज़त लूटने का इनाम? अगर विदेशी नागरिकता भी मिल गई तो बल्ले बल्ले.शैतान हमारी दुनिया को तोड़कर अपनी एक नई दुनिया बसाएंगें.
एसएफ़जे का इनामी पत्र 

    

जैसा कि आपको मालूम है कि तिरंगे का अपमान सुनियोजित अथवा प्रायोजित था जिसमें कुछ लोगों की साज़िश थी तो वहीं कुछ लोगों को अवसर की तलाश थी.साज़िश का तो ख़ुलासा हो चुका है लेकिन जहां तक बैठे बिठाए अवसर हाथ लगने की बात है तो वो जिन्हें चाहिए था उन्हें मिल चुका है.अब कोई ये सवाल नहीं पूछेगा कि नौकरियां कहां हैं,रोज़गार का क्या हाल है,ग़रीबों को दो वक़्त की रोटी मिलेगी या भूखा मरेंगें.शिक्षा और स्वास्थ्य तो पहले ही दोयम दर्ज़े के सवालों वाले मसलों में शुमार हैं.बहाना भी तैयार है अंदोलन का.केजरीवाल की तरह.अगले जनादेश का वक़्त आएगा तो कह देंगें-हमें काम नहीं करने दिया जी.एक बार और मौक़ा दो.एक बार फ़िर भाइयों बहनों की सरकार.अगली बार विकास को कान पकड़कर ले आएंगें.मगर तब करेंगें भी क्या? विकल्प भी तो नहीं है.दुर्भाग्य ये है कि खोटे सिक्कों से भरे इस बाज़ार में कोई असली चवन्नी भी मयस्सर नहीं है.नंगा नहायेगा क्या निचोड़ेगा क्या? ख़ाला की लाड़ली को बहन बनाओ या बीवी,रिश्ते तो बनने ही हैं.
जहां तक तथाकथित किसान आंदोलन का सवाल है तो वो अब एक उद्धयोग बन चुका है और इसकी मार्केटिंग हो रही है जिसमें बड़ी-बड़ी कंपनियां मुनाफ़ा कमा रही हैं.कल तक जो ज़ेबतराशी,चोरी और लूटपाट करते ज़ेल पहुंच जाते थे अब बॉर्डर पर प्रदर्शन कर पैसे के साथ इज्ज़त भी कमा रहे हैं.खाना-पीना और रहने की जगह भी मुफ़्त है.वाईफाई के नेटवर्क से दिलों के तार से तार मिला रहे हैं.
तथाकथित किसान नेताओं के लिए तो हाइवे जैसे पैसों का पेड़ बन गया है.जितनी चाहो झाड़ लो,खज़ाने भर लो.आलीशान और अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस टेंटों में बैठकर किसानों के अभिनय करना आसान ही नहीं मज़ेदार भी है,ख़ासकर नेशनल-इंटरनेशनल मीडिया के कैमरों की लाइटों ने जब वहां पहले ही धूम मचा रखी है.
वहां खाने-पीने की कोई कमी नहीं है.लंगर के लज़ीज़ खाने के अलावा जलेबियां बन रही हैं,बिरयानी पकायी जा रही है और बर्गर-पिज़्ज़ा भी परोसे जा रहे हैं.
आंदोलन का तमाशा:ज़िमखाना व लंगर में पिज़्ज़ा-बर्गर की मशीनें 
वहां दंड पेलने के लिए ज़िमख़ाना भी खुल गया है.
आंदोलनकारी किसान मन मारकर या चेहरा लटकाकर नहीं बैठे हैं.आंदोलन के कर्णधार वहां शराब और क़बाब के साथ शबाब के मज़े भी ले रहे हैं,ऐसा पड़ोस के गांव वाले बता रहे हैं और वहां से उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं.  
यहां कैश है और ऐश भी.लब्बोलुआब ये है कि आंदोलनकारियों का मक़सद सिर्फ़ अराजकता फ़ैलाना है.उन्हें न तो एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को क़ानूनी जामा पहनाना है और ना ही किसी अन्य कृषि सुधार से ही वास्ता है.सच्चाई ये है कि सरकार यदि तीनो कानून वापस भी ले लेती है तब भी आंदोलन नहीं रूकेगा.चलता रहेगा.रूप बदल बदलकर.अनंत काल तक.भारत के टुकड़े टुकड़े होने तक.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर.. 
समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियां ग़लत,
तेरा नहीं है ज़ुर्म हमारा गुमां ग़लत |
और साथ ही…
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा,
जूं अश्क़ फ़िर ज़मीं से उठाया न जाएगा |
 
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