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दुनिया की सबसे महंगी दवा: क़ीमत दवा की या शोध और सपनों पर हुए ख़र्च की?

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दुनिया की अब तक की सबसे महंगी दवा बाज़ार में बिकने को तैयार है.इसकी एक ख़ुराक की क़ीमत है 29 करोड़ रुपए.हालांकि यह ख़रीदने और बेचने वालों के बीच का मसला है फिर भी, यह सवाल तो उठता ही है कि लोगों के होश उड़ा देने वाली यह क़ीमत दवा बनाने में आई लागत के आधार पर तय की गई है या फिर इसके शोध पर हुए पैसों और दिलोदिमाग़ के ख़र्च के आधार पर.आख़िर, लोगों के अपने सपने भी तो होते हैं.मगर, दुनिया के कुछ धनकुबरों को छोड़कर, बाक़ियों के लिए तो ऐसा लगता है कि उनसे जान के बदले जान मांग ली गई हो.


हेमजेनिक्स, सीएसएल बेहरिंग कंपनी और बीमारी हीमोफिलिया बी (प्रतीकात्मक)  
अर्थशास्त्री कहते हैं कि किसी चीज़ को बनाने में लगी लागत तथा माल ढुलाई पर ख़र्च और मुनाफ़े का जोड़ उस चीज़ की क़ीमत का पैमाना होता है.दुनियाभर की सरकारों ने भी कुछ ऐसा ही नियम बना रखा है.मगर उन सपनों का, उन बेशुमार ख्वाहिशों का क्या, जो इंसान अपने दिल में पालता है, उसे ही बिछाता और ओढ़ता फिरता है सालोंसाल तक.कईयों की तो ज़िन्दगी निकल जाती है, अरमान पूरे नहीं होते और वे मुंगेरीलाल ही रह जाते हैं.वे टूटे-बिखरे दिल यहां-वहां ढूंढते रहते हैं, जबकि क़ामयाब लोगों की तो जैसे लॉटरी लग जाती है और वे पलक झपकते ही चांद-सितारे लपक लेना चाहते हैं, हीरे के टुकड़ों के बजाय हीरे की खान हासिल कर लेना चाहते हैं.

बहरहाल, यह दवा है हीमोफिलिया की.इसका नाम है हेमजेनिक्स.इसे अमरीकी कंपनी सीएसएल बेहरिंग ने बनाया है.और अमरीका फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) के बाद अब यह बाज़ार पहुंच गई है.

सिंगल डोज़ यानि, एक ही ख़ुराक में दी जाने वाली यह दवा ‘हीमोफिलिया बी’ बीमारी में काम आने वाली है.दावा किया जा रहा है कि यह पिछली दवाइयों के मुकाबले ज़्यादा कारगर है.

बताया जाता है कि हीमोफिलिया बी से पीड़ित हर प्रकार के मरीज़ यानि, कम गंभीर, गंभीर और अति गंभीर 57 मरीज़ों पर किए गए अध्ययनों में यह खरी उतरी है.
विशेषज्ञों के अनुसार, यह दवा दरअसल, एक जीन थैरेपी है.इसमें लैब में बने एक वायरस का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें ऐसा जीन होता है जो खून का थक्का बनाने वाले फैक्टर 9 का निर्माण करता है.

हीमोफिलिया दरअसल, एक बहुत ही ख़तरनाक़ बीमारी है, जिसमें ज़रूरी दवा और इलाज के अभाव में अधिकांश लोगों की असमय मौत हो जाती है.ऐसे में, पहले इस बीमारी को समझना ज़रूरी है.


आख़िर, क्या है हीमोफिलिया?

हीमोफिलिया एक बहुत ही कम होने वाला (दुर्लभ प्रकार का) रोग या विकार है, जिसमें आसानी खून नहीं जमता या उसका थक्का नहीं बनता.इसे कलौटिंग फैक्टर यानि, खून जमाने वाले प्रोटीन की कमी कहते हैं.ऐसी स्थिति में चोट लगने पर, घाव से या कटने-छिलने से निकलने (बहने) वाला खून थक्का बनकर रुकने के बजाय निर्बाध रूप से बहता रहता है, और जानलेवा साबित होता है.

हीमोफिलिया एक रक्तस्राव विकार (ब्लीडिंग डिसऑर्डर) यह थक्का विकार  है, जो आनुवंशिक (मां-बाप से बच्चों को होने वाला) होता है.मगर, इसके पीड़ितों में 30 फ़ीसदी ऐसे लोग भी होते हैं, जिनका इस तरह के विकार का कोई पारिवारिक इतिहास नहीं होता.

यह बीमारी केवल पुरुषों को होती है और महिलाओं में इसके लक्षण नहीं पाए जाते.किसी महिला में हीमोफिलिया का एक जीन (वंशाणु) आने पर वह इससे प्रभावित नहीं होती.वह केवल एक कैरियर या वाहक के रूप में अपने बच्चे में पहुंचा देती है.

हीमोफिलिया दो प्रकार का होता है- हीमोफिलिया ए और हीमोफिलिया बी.

तकनीकी भाषा में फैक्टर 8 की कमी को हीमोफिलिया ए और फैक्टर 9 की कमी को हीमोफिलिया बी कहते हैं.

दोनों प्रकार की हीमोफिलिया में एक जीन ख़राब हो जाता है, जो खून का थक्का बनाने वाले कारकों को प्रभावित करता है.मगर, हीमोफिलिया बी ज़्यादा भयानक बीमारी है, जो खून के जमने को मुश्किल बना देती है.


दुनियाभर में कितने हैं ‘हीमोफिलिया बी’ के मरीज़?

हालांकि इस दुर्लभ बीमारी के बारे में बहुत कम ही लोगों को पता है.कई देशों में तो इसकी सही पहचान और सही आंकड़े नहीं होने के कारण इसके बारे में ठोस कुछ कहना मुश्किल है.मगर जानकारों के अनुसार, दुनियाभर में क़रीब 22 हज़ार लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं.

बताया जाता है कि 40 हज़ार लोगों में सिर्फ़ एक इंसान को हीमोफिलिया बी चपेट में लेती है.

अमरीका में 10 लाख में से 13 लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं, जबकि भारत में 10 लाख में से किसी एक व्यक्ति को यह बीमारी है.

संख्या के हिसाब से देखें, तो अमरीका जहां 4,200 लोगों को यह बीमारी है वहीं, भारत में सिर्फ़ 1,700 (एक हज़ार सात सौ) लोग इस बीमारी की चपेट में हैं.


ब्रिटिश राजघराने के 10 राजकुमारों ने हीमोफिलिया के कारण गंवाई थी जान

हीमोफिलिया बी वह बीमारी है, जो कभी ब्रिटिश राजपरिवार पर क़हर बनकर टूटी थी.इसने 10 राजकुमारों को लील लिया था.

ज्ञात हो कि ब्रिटिश राजघराने में इस बीमारी की पहली वाहक (कैरियर) महारानी विक्टोरिया (1819-1901) बनी थीं.फिर, उनसे उनके बेटे और बेटियों से होती हुई यह बीमारी पूरे ख़ानदान में फ़ैल गई थी.

इससे प्रभावित महारानी के बेटे प्रिंस लियोपोल्ड, ड्यूक ऑफ़ अल्बानी समेत 10 राजकुमारों की मौत 4, 13, 19, 21, 31 और 32 साल की उम्र में ही हो गई थी.

बताते हैं कि इस बीमारी ने ब्रिटिश राजघराने के 17 लोगों को अपनी चपेट में लिया था इस कारण इसका नाम राजरोग या शाही बीमारी (रॉयल डिजीज़) पड़ गया.

मगर, इसे समय का फेर ही कहिए कि आज जो आज जो हेमजेनिक्स बाज़ार में है वह अगर 121 साल पहले बन गई होती, तो ब्रिटिश राजघराने के राजकुमार शायद बचाए जा सकते थे.


हेमजेनिक्स और दूसरी दवाइयों में फ़र्क?

ज्ञात हो कि हीमोफिलिया बी की बीमारी से लड़ने वाली दूसरी दवाइयां भी पहले से ही बाज़ार में हैं और उनका ही चिकित्सक अब तक इस्तेमाल करते रहे हैं.मगर, हेमजेनिक्स को इस समस्या के एक बड़े समाधान के तौर पर देखा जा रहा है.

बताया जा रहा है कि शरीर में खून जमने की प्रक्रिया को ठीक करने के लिए पहले जो फैक्टर 9 के इंजेक्शन मरीज़ों को कई हफ़्ते तक लेने पड़ते थे, उससे बेहतर काम अब सिंगल डोज़ दवा हेमजेनिक्स करेगी.

हेमजेनिक्स दरअसल, नई थैरेपी में लैब में बना एक वायरस है, जिसका जीन फैक्टर 9 को बनाता है.

इसको लेकर बहुत शोध हुआ है और अध्ययनों से पता चला है कि हेमजेनिक्स दवा इस बीमारी से लड़ने में ज़्यादा कारगर है.

इस बाबत सीएसएल बेहरिंग का कहना है-

” जिन लोगों का हेमजेनिक्स से इलाज किया गया, उनमें दो साल तक फैक्टर 9 में वृद्धि और घाव के प्रति सुरक्षा देखी गई है. ”



एफडीए ने कहा है-

” नई दवा हीमोफिलिया बी के मरीज़ों में फैक्टर 9 बढ़ाने में मदद करेगी, और रक्तस्राव के ख़तरे को कम करेगी. “



बहरहाल, हेमजेनिक्स एक नई दवा है, जो चिकित्सा क्षेत्र में उतरी है.हीमोफिलिया बी के इलाज में यह कितनी कारगर और स्थाई है, इसकी पुष्टि में अभी काफ़ी वक़्त लगेगा.


इतनी महंगी क्यों है यह दवा?

हेमजेनिक्स कितनी असरदार है, यह तो आने वाले कुछ दशकों में साबित होगा मगर, इसकी आसमान छूती क़ीमत ने एफडीए की अनुमति मिलते ही इसे दुनियाभर में सुर्ख़ियों में ला दिया है.

यह चर्चा में है क्योंकि इसकी क़ीमत है 35 लाख डॉलर यानि, 28 करोड़, 64 लाख रुपए मात्र.

यह दवा इतनी महंगी क्यों है, इसको लेकर उत्पादक कंपनी और इसकी मार्केटिंग से जुड़े लोगों के अपने तर्क हैं तो विभिन्न संस्थाओं और विचारकों के अपने विचार हैं.मगर, समझने की बात यह है कि इस दवा की रिसर्च में क़रीब 40 साल लगे हैं.साथ ही, कई संस्थानों से विशेषज्ञों और तकनीशियनों की दक्षता और उन्नत तकनीक ने मिलकर इसे बाज़ार तक पहुंचाया है.इस प्रकार इसमें कई लोगों द्वारा निवेश, उनकी कमरतोड़ मेहनत के साथ-साथ उनके अधूरे ख़्वाब भी शामिल हैं.

फ़ोर्ब्स मैगजीन की मानें, तो इस दवा की शुरुआती डेवलपर कंपनी यूनिक्योर थी.सीएसएल बेहरिंग ने साल 2020 में 45 करोड़ डॉलर देकर इसकी थैरेपी के लाइसेंस और मार्केटिंग के अधिकार हासिल किए थे.इसने अमरीकी बाज़ार में अगले सात सालों तक इस दवा के वितरण का अधिकार सुरक्षित करा लिया है और अब इसका मक़सद 2026 तक इसे बेचकर 1.2 अरब डॉलर कमाना है.

और फिर, बीमारी भी तो बहुत भयानक है.बहुत बड़ी है.जब बीमारी बड़ी है तभी तो मक़सद भी बड़ा है.कुल मिलाकर, बड़ी बीमारी और बड़े मक़सद ने मिलकर क़ीमत को सबसे बड़ी बना दी है.
 
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