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दलबदल क़ानून पर क़ानूनी किचकिच

दलबदल, क़ानूनी स्थिति, कमजोर कड़ियां

लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है दलबदल

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– विधानसभा के बाहर राजनीतिक गतिविधि पर विधानसभाध्यक्ष नहीं भेज सकता नोटिस 

– अयोग्यता मामले में चुनाव आयोग की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति/राज्यपाल को हो निर्णय का अधिकार 

-सभी के लिए एकसमान क़ानून की ज़रूरत 

-एक नैतिक राजनीति की एक लोकप्रिय अभिव्यक्ति की आवश्यकता 



पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड,कर्नाटक और फ़िर राजस्थान में दलबदल को लेकर पैदा हुए राजनीतिक संकट को देखकर अतिमहत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक दलबदल क़ानून की प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाज़िमी है.एक ओर जहाँ इस क़ानून की आड़ में राजनीतिक दलों के कुछ प्रभावशाली लोग पार्टी में तानाशाही क़ायम  किए हुए हैं, वही कुछ चालाक नेता इसकी कुछ क़मज़ोर कड़ियों का फ़ायदा उठाकर खुलेआम सत्ता की दुकानदारी कर रहे हैं.यही कारण है कि आज नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक (2019 )में भारत की रैंक बहुत नीचे पहुँच गई है.ऐसे में ज़रुरी है कि दलबदल क़ानून की एक बार फ़िर समीक्षा हो, ताकि इसकी ख़ामियों का पता लगाकर उन्हें दुरुस्त किया जा सके.




लोकतंत्र को कमज़ोर करते जनप्रतिनिधियों का सांकेतिक चित्र 




यहाँ एक प्रश्न बड़ा प्रासंगिक हो जाता है कि क्या कारण है कि अमरीका,ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड आदि देशों में दलबदल जैसा कोई क़ानून नहीं होने पर भी वहां दलदबल जैसी स्थिति नहीं है जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में दलबदल के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून लागू होने के बाद भी दलबदल आम है.यहाँ हमारी व्यवस्था में ख़ामी है या हमारा राजनैतिक चरित्र खोखला है या फ़िर दोनों ही समान रूप से उत्तरदायी हैं क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं;यह शोध का विषय है, मगर हमारे दलबदल क़ानून की कुछ कमज़ोर कड़ियाँ,साफ़ नज़र आती हैं जिनपर ग़ौर करना ज़रूरी है.




मतदाताओं में विश्वास के साथ छल ; दलबदल का चित्र 




विधानसभा में स्पीकर की भूमिका

विधानसभा के अंदर स्पीकर (विधानसभाध्यक्ष) की शक्तियां अपार हैं.दलबदल विरोधी क़ानून के तहत वह किसी सदस्य को अयोग्य क़रार देकर विधानसभा से उसकी सदस्यता ख़त्म कर सकता है यदि:
1. कोई निर्वाचित सदस्य अपनी मर्ज़ी से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है.     
2. कोई निर्दलीय विधायक किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
3. कोई सदस्य सदन में पार्टी के ख़िलाफ़ वोट देता है.
4. कोई सदस्य मदतान में भाग नहीं लेता है.
5. कोई मनोनीत सदस्य छह महीने बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.





विधानसभाध्यक्ष (स्पीकर) के नेतृत्व में सदन की कार्यवाही 

      


इस तरह हम देखते हैं कि दलबदल के सन्दर्भ में स्पीकर बहुत मज़बूत स्थिति में है लेकिन ये भी सच है कि जिस तरह राज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम करता है उसी तरह स्पीकर भी निष्पक्ष नहीं होता और वह भी सत्तारूढ़ दल का होने के कारण सरकार के इशारे पर काम करता है.सत्तारूढ़ दल के वे विधायक जो पार्टी लाइन से अलग किंतु महत्वपूर्ण विचारों में यक़ीन रखते हैं,प्रकट नहीं कर पाते क्योंकि वो डरते हैं कि ऐसा करने पर विधानसभाध्यक्ष उन्हें दलबदल क़ानून के तहत नोटिस थमा देगा.ऐसे में उनमें घुटन और फ़िर विद्रोह की भावना पनपने लगती है और जब फूटती है तो दलबदल के रूप में सामने आती है.इसपर विचार करना होगा. 


विधानसभा के बाहर स्पीकर की भूमिका 

विधानसभा के बाहर स्पीकर की भूमिका सीमित है या बल्कि यों कहें कि विधानसभा के बाहर स्पीकर शक्तिहीन है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.इसलिए यहाँ ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि विधानसभा के बाहर की गई किसी राजनीतिक गतिविधि के लिए स्पीकर किसी विधायक के ख़िलाफ़ अयोग्यता का नोटिस ज़ारी नहीं कर सकता.यही कारण है कि कूटनीति में माहिर कुछ सदस्य विधानसभा के अंदर तो दल के साथ होते हैं लेकिन विधानसभा के बाहर अपनी अलग ही खिचड़ी पकाते रहते हैं.वो जोड़-तोड़ की राजनीति कर सरकारों का राजनीतिक समीकरण बनाते-बिगाड़ते रहते हैं.





विधानसभा के बाहर अध्यक्ष की विवशता का सांकेतिक चित्र 



राजस्थान की हालिया मिसाल सामने है.राजस्थान में उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट अपने 18 समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा के एक होटल में नए राजनीतिक समीकरण तलाशते रहे.कांग्रेस विधायक दल की बैठकों में बार-बार निमंत्रण देने के बावज़ूद शामिल नहीं हुए.व्हिप ज़ारी हुआ फ़िर भी वो नहीं पहुंचे.लेकिन जब उनके ख़िलाफ़ अयोग्यता नोटिस ज़ारी हुआ तो वो हाईकोर्ट चले गए.हाईकोर्ट ने उन्हें सहानुभूति दिखाई तो कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट चली गई मग़र वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी.




       

सुप्रीम कोर्ट से भी स्पीकर को नहीं मिली राहत 




दरअसल,1985 का दलबदल क़ानून जो 52 वें संशोधन द्वारा संविधान की जिस दसवीं अनुसूची में शामिल है उसके चेप्टर 2 का भाग 1 (ए ) कहता है कि सदन में किसी भी दल का सदस्य अयोग्य क़रार दिया जा सकता है अग़र वह अपनी मर्ज़ी से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है.मग़र कांग्रेस के क़ानूनी जानकारों का मानना था कि विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं होना (पायलट ने व्हिप को नज़रअंदाज़ करते हुए कांग्रेस विधायक दल की बैठकों का बहिष्कार किया)अपनी मर्ज़ी से सदस्यता छोड़ने जैसा है जबकि पायलट गुट की राय अलग़ थी.उनका कहना था कि उनके द्वारा सदन की सदस्य्ता का तय नहीं किया गया,इसलिए दलबदल विरोधी क़ानून का उनपर प्रयोग नहीं किया जा सकता.साथ ही बैठकों में शामिल होने में विफल होने पर उन्हें दलबदल विरोधी क़ानून के तहत उन्हें ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता.अदालत ने इस सच्चाई को तरज़ीह दी तो कांग्रेस बैकफुट पर आ गई. 
    


पार्टी राज को बढ़ावा 

जनता का,जनता के लिए और जनता द्वारा शासन को ही लोकतंत्र कहते हैं.लोकतंत्र में जनता ही वास्तविक शासक होती है,उसकी इज़ाज़त से ही शासन चलता है,सिर्फ़ उसकी बेहतरी और विकास ही मक़सद होता है.लेकिन,हक़ीक़त ये है कि दलबदल क़ानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था यानि ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है.दुर्भाग्यवश,इसे रोकने या बदलने के लिए कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता मग़र संस्थागत सुधारों से परे,स्वयं में एक नैतिक राजनीति की एक लोकप्रिय अभिव्यक्ति की अवधारणा का सृजन एवं संवर्धन कर संसदीय प्रणाली के क्षरण की चुनौती का सामना तो अवश्य ही किया जा सकता है.




लोकतंत्र की क़मज़ोर करते जनप्रतिनिधि 



चुनाव आयोग की अनदेखी 

दलबदल विरोधी क़ानून के तहत जनप्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के निर्णय के मामले में चुनाव आयोग की अनदेखी की गई है.यह अधिकार चुनाव आयोग की बजाय स्पीकर को दिया गया है.स्पीकर चूँकि व्याहारिक तौर पर सत्तारूढ़ दल के एक एजेंट के रूप में काम करता है इसलिए उसके द्वारा लिए गए फ़ैसले अक़्सर अनीतिपूर्ण और भेदभावपूर्ण होते हैं.





भारत का निर्वाचन आयोग 




अधिकांश विद्वानों की राय में,अयोग्य ठहराने के निर्णय का अधिकार सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनाव आयोग के पास होना चाहिए जिसमें ऐसी व्यवस्था हो कि चुनाव आयोग की बाध्यकारी सलाह पर राष्ट्रपति अथवा राजयपाल निर्णय ले सकें.ये व्यवस्था सिर्फ़ न्यायपूर्ण ही नहीं पारदर्शी भी साबित होगी.


भेदभावपूर्ण व्यवस्था 

जैसा कि हम जानते हैं कि दलबदल विरोधी क़ानून के प्रयोग के मद्देनज़र मनोनीत सदस्यों को छह माह की छूट दी गई है.दूसरे शब्दों में,मनोनीत किसी सदस्य को यह अधिकार है कि मनोनयन के बाद वह छह महीने की अवधि के दौरान किसी दल में शामिल हो सकता है.उसपर दलबदल विरोधी क़ानून लागू नहीं होगा.यह व्यवस्था सर्वथा अनुचित एवं भेदभावपूर्ण है.इसे बदला जाना चाहिए और सभी के साथ एकसमान व्यवस्था लागू कर देनी चाहिए.यही इंसाफ़ का तक़ाज़ा है.





भेदभाव का सांकेतिक चित्र 

       


लते चलते अर्ज़ है ये शेर… 
            तुम्हारे शहर का इंसाफ़ है अज़ब इंसाफ़, 
            इधर निगाह उधर ज़िंदग़ी बदलती है। 


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