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डीडीसी चुनाव परिणाम के असल मायने क्या हैं जानिए

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जम्मू-कश्मीर के डीडीसी चुनाव परिणामों के मद्देनज़र जानकारों की राय अलग-अलग है.कोई कहता है कि ये लोकतंत्र की जीत है तो कोई इसे भ्रष्टाचार और अलगाववाद की वापसी बता रहा है.कुछ विशेषज्ञ इसे मिला-जुला असर बता रहे हैं.अलग-अलग दावे अलग-तर्क.ऐसे में वास्तविकता क्या है,क्या हैं इसके असल मायने,ये एक सवाल है जिसपर बहस की आवश्यकता है ताकि भ्रम दूर हो सके.
डीडीसी चुनाव परिणाम का सांकेतिक चित्र

लोकतंत्र की जीत 

जम्मू-कश्मीर मामलों के जानकारों में कईयों का ये मानना है कि डीडीसी चुनाव दरअसल लोकतंत्र की जीत है.उनके मुताबिक, ये वही सूबा है जहाँ हमें पाकिस्तान और आईएसआईएस के झंडे तले कश्मीरी अवाम का हुज़ूम नज़र आता था.भारत विरोधी नारे लगते थे,पत्थरबाज़ी होती थी और हमारे सैनिकों की शहादत का अपमान होता था. मगर आज तस्वीर कुछ और है और लोग विकास की बातें कर रहे हैं.लोगों ने चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कड़ाके की ठंड में भी घरों से बाहर निकलकर मतदान किया.इससे पता चलता है कि यहाँ अवाम के दिलों में ज़म्हूरियत के प्रति आस्था है और वे बदलाव चाहते हैं.उन्होंने पाकिस्तान और अलगाववादियों को ये सन्देश दे दिया है कि उन्हें विकास चाहिए दहशतगर्दी नहीं.अब वे किसी के झांसे में आनेवाले नहीं हैं.
कड़ाके की ठंड में मतदान को आए मतदाता
पिछले 70 सालों में झेलम और चिनाब में बहुत पानी बह चुका है.यहाँ की अवाम ने बहुत कुछ सहा है.बहुत कुछ खोया है.मगर अब नहीं.उन्हें बदलाव चाहिए.यही कारण है कि पत्थर उठाने वाले हाथ आज काम मांग रहे हैं.अच्छी खासी संख्या में नौजवान व्यावसायिक कोर्स कर रहे हैं,फौज़ में भर्ती हो रहे हैं.

भ्रष्टाचार और अलगाववाद की वापसी

मगर कई जानकारों की राय इससे इतर है.वे प्रदेश की अवाम का मिज़ाज़,चुनाव परिणामों में गुपकार गठबंधन की जीत अथवा बढ़त के आधार पर आंकते हैं तथा बदलावों को कागज़ी बताते हैं.चुनावों में भाजपा की जीत व घाटी में कमल के खिलने को लेकर कश्मीरी मानवाधिकार कार्यकर्त्ता व ‘रूट्स इन कश्मीर‘ के संस्थापक सुशील पंडित ने  व्यंग्य करते हुए शायराना अंदाज़ में कहा-
             फ़ितरत-ए-भाजपा है, ज़म्हूरियत पर फ़ना हो जाना, 
             गुपकार की  फ़तह  में  है, भाजपा का  जीत  जाना | 
 
दरअसल,उनका कहना था कि जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की फ़िर वापसी हो गई है.जिन्होंने प्रदेश में भ्रष्टाचार किया,दहशतगर्दी और नस्लकुशी(नरसंहार)की वही फ़िर आज स्थानीय निकायों में आकर बैठ गए हैं.
गुपकार की जीत बनाम भाजपा की जीत पर व्यंग्यात्मक चित्र
जो बदलाव के खिलाफ़ और 370 तथा 35 ए की वापसी के पैरोकार हैं और साथ ही जो पाकिस्तान और चीन के हिमायती भी हैं अवाम ने उन्हें ही फ़िर चुन लिया है.कल वे विधानसभा में बैठेंगें.ऐसे में वे प्रदेश की बेहतरी नहीं बल्कि उसे वापस दहशतगर्दी और बर्बादी के ही रास्ते पर लेकर जाएंगें.
गुपकार गठबंधन में शामिल दलों के नेता
अकेले सुशील पंडित ही ऐसी राय नहीं रखते बल्कि अन्य कई विशेषज्ञ भी ये मानते हैं कि चीन-पाकिस्तान का एजेंडा जो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और अदालत के ज़रिए पूरा नहीं हो सका,वो गुपकार वाले सरकारी मशीनरी के ज़रिए स्थापित करने का कुचक्र रचेंगें.
शपथ लेते डीडीसी के मेम्बर
वही लूट-खसोट और घोटालों का दौर दोबारा शुरू हो जाएगा.मज़हब के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जाएंगीं.मृतप्राय पड़ा अलगाववाद फ़िर से जी उठेगा और डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी,आबादी) के नाम पर नस्लकुशी की मानसिकता को बढ़ावा मिलेगा.ऐसे में दशकों से वहां रह रहे शोषित-वंचित(दलित) फ़िर से पुरानी अवस्था में पहुँच जाएंगें.दूसरे प्रदेशों के लोगों का वहां बसना तो दूर कश्मीरी पंडित भी कभी वापस नहीं जा सकेंगें.

वास्तविकता क्या है?

जम्मू-कश्मीर के डीडीसी चुनाव परिणामों का बारीक़ी से अध्ययन करें तो वास्तव में इसके दो मत्लब निकलते हैं.दो तरह की संभावनाएं स्पष्ट नज़र आती हैं.एक तरफ़ तो ऐसा लगता है कि वहां ज़म्हूरियत की नींव पड़ चुकी है तो दूसरी तरफ़ ये भी साफ़ दिखाई देता है कि भ्रष्टाचारी और अलगाववादी फ़िर से काबिज़ हो गए हैं.
उल्लेखनीय है कि जिन्होंने ये कहा था कि ‘तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं बचेगा’ वही ख़ुद तिरंगे के नीचे आकर खड़े हो गए और चुनाव लड़े.मगर ये भी सच है कि जम्मू-कश्मीर की बर्बादी के ज़िम्मेदार अब्दुल्ला-मुफ़्ती परिवारों ने अपनी खोई ज़मीन वापस हासिल कर सियासी दबदबा फ़िर से क़ायम कर लिया.
अपने पुराने रूतबे में अब्दुल्ला-मुफ़्ती परिवार
इसे क्या कहेंगें? इसे लोकतांत्रिक अलगाववाद कहेंगें.जैसे-सामाजिक अलगाववाद,सांस्कृतिक आतंकवाद आदि.आसान और स्पष्ट शब्दों में कहें तो जिस तरह सामाजिक अलगाववाद यानि जातिगत राजनीति जो,इस देश में दशकों से चल रही है और सांस्कृतिक आतंकवाद यानि इस्लामिक आतंकवाद जिससे पूरी दुनिया परेशान है,ठीक उसी तरह जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक अलगाववाद का उदय हुआ है.लोकतांत्रिक ढ़ांचे के आवरण में सुसज्जित वही पुराना अलगाववाद और आतंकवाद.नई बोतल में पुरानी शराब.
ग़ौरतलब है कि डीडीसी चुनाव से पहले गुपकार गठबंधन ने अस्तित्व में आते ही एलान कर दिया था कि वह अनुच्छेद 370 और 35 ए की वापसी के लिए आख़िरी सांस तक लड़ेगा.उसने पाकिस्तान और चीन से इसके लिए मदद की अपील भी की और देश से द्रोह किया.परंतु,उससे दूरियां बनाने की बजाय अवाम ने उसका साथ दिया और जिताया भी.सिर्फ़ कश्मीर ही नहीं उसने जम्मू में भी टक्कर दी.
देशद्रोही भाषण देते फ़ारूक़ अब्दुल्ला
अब सवाल उठता है कि ऐसा हुआ कैसे? क्यों ऐसे हालात बने? इसके कारण निम्नलिखित हैं-

केंद्र की ज़ल्दबाज़ी

कश्मीर की मिट्टी में बारूद की महक अब भी बरक़रार है,मोदी सरकार ने ये समझने में भूल कर दी.ज़ल्दबाज़ी में फ़ैसले लिए और प्रदेश में डीडीसी चुनाव करा दिए.उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 370 का हटाया जाना देश के महानतम कार्यों में से एक था,मगर लगता है कि स्वयं सरकार ही इसके महत्त्व का आकलन ठीक से नहीं कर पायी और नतीज़ा सामने है.ऐसे में हिंदी फ़िल्म ज़ंजीर का वो गाना याद आता है-

बनाके क्यों बिगाड़ा रे…नसीबा ….ओ भाजपा

दरअसल,इंतज़ार करना चाहिए था.धुंध थोड़ी और छंटने देते.बर्फ थोड़ी और पिघलने देते.नई सियासी पौध विकसित होने देते तो अच्छा होता.लोग अब्दुल्ला-मुफ़्ती को भूल जाते और नए सियासी समीकरण में चुनावी प्रयोग होते तो ना सिर्फ़ भाजपा को लाभ मिलता बल्कि सही मायने में वहां विकास की बयार बहती.

राजनीतिक अति महत्वकांक्षा 

महत्वकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं मगर अति महत्वकांक्षा कई बार जी का जंजाल बन जाती है,ये शायद भाजपा भूल गई थी.उसने सोचा कि अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे के साथ ही उसर पड़ी ज़मीन उपजाऊ हो चुकी है सियासी फ़सल ऊगाने के लिए.वक़्त आ चुका है वोट रूपी लहलहाती फ़सल काटने का.मगर दुर्भाग्य से मौसम अनुकूल नहीं था,ये भांपने में भाजपा के मौसम वैज्ञानिक नाक़ाम रहे.

कश्मीर पर ज़्यादा फ़ोकस

अनुच्छेद 370 के हटने और जम्मू-कश्मीर के केंद्र-शासित प्रदेश बनने के बाद ऐसा देखा गया कि केंद्र की सरकार और भाजपा दोनों का ही ध्यान कश्मीर पर ज़्यादा था जबकि जम्मू की एक तरह से अनदेखी हुई.डीडीसी की चुनावी रणनीति में भी कुछ ऐसा ही मापदंड रहा.फलस्वरूप,जम्मू-क्षेत्र की जनता में कमोबेश निराशा और सौतेलेपन के भाव पनपने लगे.जिसका परिणाम चुनाव परिणामों में देखने को मिला.भाजपा जम्मू की 140 सीटों में से 100 सीटें भी नहीं जीत सकी.कश्मीर में कमल के खिलने की वाहवाही तो खिसकती ज़मीन को ढंकने जैसी बात होगी.
चुनाव नतीजों पर केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद एक के बयान पर टिप्पणी करते हुए सुशील पंडित ने कहा-
‘अभी रविशंकर प्रसाद ने कहा,कश्मीर के अवाम की जय,बाद में ठीक किया और कहा-जम्मू-कश्मीर के परिवार की जय.ये जो कश्मीर की तरफ़ खिंचाव है,हैसियत इन्हें जम्मू देता है लेकिन ये केवल कश्मीर के लिए बिछे चले जाते हैं.जम्मू इस बात के लिए हैरान है कि हम अपना प्रतिनिधि किसे चुनते हैं और ये किसके लिए काम करता है.’

 नस्लकुशी की यादें   

कश्मीर में हिन्दुओं की नस्लकुशी की यादें जम्मू-कश्मीर के हिन्दू जनमानस में अब भी ताज़ा हैं.370 हटा,  सांप्रदायिक सरकार का विघटन हुआ.निज़ाम-ए-मुस्तफा और गजवा-ए-हिन्द की अवधारणा भी मिट्टी में मिल गई.लोगों को उम्मीद थी कि अब दोषी सजा पाएंगें,भय का माहौल ख़त्म होगा और कश्मीरी पंडित अपने घरों को वापस जाएंगें.लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और फ़िर वही ढ़ाक के तीन पात.सुशील पंडित कहते हैं-  

‘बांग्लादेश में 1971 में नस्लकुशी करने वालों को पांच साल से फांसियां दी जा रही हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में उस नस्लकुशी के ज़िम्मेदार लोग आज चुनाव लड़कर ज़िला पंचायतों में जीत रहे हैं.हमारे देश में उनपर मुक़दमे नहीं चलते हैं.संसद में उनपर गंभीर आरोप लगते हैं,उनको ज़िहाद के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है फ़िर बिना शर्त रिहा करके उनको डीडीसी चुनाव तश्तरी पर रखकर दिया जाता है.ये हो रहा है इस हिंदुस्तान में,हमारी ज़म्हूरियत,हमारा क्रीमिनल जस्टिस सिस्टम बांग्लादेश से भी गया-बीता लगता है.’    

इस तरह हम जहां से निकले थे वापस वहीं पहुंच गए हैं.खोदा पहाड़,निकली चुहिया.
और चलते चलते अर्ज़ है ये शेर…
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल,
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा |
और साथ ही…
और हम ऐसी जगह पर आ गए हैं,
रास्ते दीवार से टकरा गए हैं |
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